देश में 13 बड़ी नदियां हैं गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र, हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा गया है। बाकी ‘पठार नदी’ कहलाती हैं, जो मानसून की बारिश पर निर्भर हैं। पठारी नदियों में गोदावरी, कृष्णा, नर्मदा, ताप्ती, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्राह्मणी, महानदी और साबरमती बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं (योजना अगस्त 1997, पृष्ठ 79)।
जल ग्रहण क्षेत्र उस सम्पूर्ण इलाकों को कहा जाता है, जहॉं से पानी बहकर नदियों तक आता है। इसमें हिमखंड, सहायक नदियां और नाले शामिल होते हैं। 20 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक जिस नदी का जलग्रहण क्षेत्र होता है, उसे बड़ी नदी जलग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। 20 से 2 हजार वर्ग किलोमीटर वाले को मध्यम और दो हजार से कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है।
भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 वर्ग किलोमीटर है और देश की नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। देश की नदियों से हर बरस 1645 घन किलोमीटर पानी प्रवाहित होता है। यह विश्व की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। आंकड़े कहते हैं कि हमारा देश पानी के मामले में दुनिया में सबसे अधिक समृद्ध है। वहीं दूसरी ओर देखें कि हमारी नदियों का 85 फीसदी पानी बारिश के तीन महीनों में समुद्र में जा गिरता है। ऐसी स्थिति में नदियां सूखी रह जाती हैं। देश की 80 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं। कई नदियां विलुप्ति के कगार पर हैं। इन नदियों में गुजरात की अमलाखेड़ी, ाबरमती और खारी नदी, हरियाणा की मरकंदा, मध्यप्रदेश की खान नदी, आंध्रप्रदेश की मुंसी नदी, महाराष्ट्र की भमा और दिल्ली की यमुना नदी सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियां हैं।
देखा जाए तो गंगा, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चिनाब, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरूणा, बेतवा, ढोंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवर्णरेखा, सरयू, रामगंगा, गौला, सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी, गंडक, कमला, सोन, भागीरथी और इनकी सहायक नदियां प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व से जूझ रही हैं। नदियों में प्रदूषण की स्थिति खतरनाक होती जा रही है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियंत्रिकी शोध संस्थान (नीरी) के अनुसार देश का लगभग 70 फीसदी भूजल मानवीय उपयोग के अनुपयुक्त हो चुका है। पिछले पांच दशकों में अनियंत्रित विकास, औद्योगीकरण के चलते नदियों के प्रति श्रद्धा भावना की जगह उपभोक्ता संस्कृति ने ले ली है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार देश की 445 नदियों में से आधी नदियों का पानी पीने योग्य नहीं रह गया है। जून 2014 में पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने लोकसभा के एक जवाब में राज्यवार प्रदूषित नदियों की सूची प्रस्तुत की। महाराष्ट्र की 28 नदियां सर्वाधिक प्रदूषित हैं, जो पहले स्थान पर हैं। दूसरे स्थान में गुजरात की 19 नदियां प्रदूषित हैं। 12 प्रदूषित नदियों वाला उत्तरप्रदेश तीसरा है। कर्नाटक की 11 नदियां प्रदूषित हैं। मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु प्रत्येक राज्य की नौ नदियों प्रदूषित हैं। राजस्थान में पांच, झारखंड में तीन नदियां प्रदूषित हैं। उत्तराखंड और हिमाचल की तीन-तीन नदियां और दिल्ली से गुजरने वाली एकमात्र नदी यमुना प्रदूषित नदियों की सूची में शामिल हैं।
और गंगा हो गई मैली
भारत की पवित्र नदियों में गंगा नदी के अपवाह क्षेत्र में देश की 37 फीसदी आबादी रहती है, जिसके किनारे 47 बड़े नगर, 66 छोटे कस्बे इसे लगातार प्रदूषित कर रहे हैं। गंगा दुनिया की छठी सर्वाधिक प्रदूषित नदी है।
गंगा नदी में उद्योगों से 80 प्रतिशत, नगरों से 15 प्रतिशत तथा आबादी, पर्यटन और कर्मकांड से 5 फीसदी प्रदूषित होता है। गंगा के कछारी क्षेत्र में कृषि उपयोग में आने वाले उर्वरकों की मात्रा सौ लाख टन है। इसमें से पांच लाख टन बहकर गंगा में मिल जाता है। 1500 टन कीटनाशक मिलता है। सैकड़ों टन रसायन कारखानों, अस्पतालों आदि से मिलता है गंगा नदी में। गंगा तट में बसे सैकड़ों नगरों का जल मल, अपशिष्ठ हर रोज गंगा में गिराया जा रहा है।
मोक्ष पाने की लालसा में केवल बनारस में हर साल 35 हजार और गंगा तटों पर 2 लाख से अधिक शव संस्कार होता है। अधजले शव ही गंगा में प्रवाहित कर दिए जाते हैं, जो अत्यंत गंभीर तथ्य है। और आज पतित पावनी गंगा इतनी विषाक्त हो गई है कि कहीं-कहीं गंगाजल का सेवन करना तो दूर, उसमें डुबकी लगाना भी मौत को गले लगाने जैसा है। गंगा इस कदर प्रदूषित है कि उसमें स्नान करने से भी कैंसर जैसे रोग घेर लेते हैं। कैसी थी गंगा और उसका जल जब हम गंगाजल छिड़ककर शुद्ध कर देते थे समूचे घर को। अंतिम समय में गंगाजल पिलाकर हम संसार से मुक्त कर देते रहे हैं। सचमुच गंगा जल में ऐसी शक्ति थी और अब नहीं रही। गंगा जल की कुछ बूंदें पानी में डाल दी जाती थी और पानी के ई-कोली बैक्टीरिया खत्म हो जाते थे। पूरा पानी स्वच्छ हो जाता रहा। ऐसा गंगा जल अब उसके उद्गम स्थल के पास रह गया है।
2020 तक गंगा प्रदूषण मुक्त का लक्ष्य रखा गया था। करोड़ों रूपयो खर्च हो चुका, मगर गंगा निर्मल नहीं हुई। अलबत्ता गंगा सफाई अभियान में लगे लोग मालामाल जरूर हो गए। देश की नदियों को प्रदूषण मुक्त करने में सरकार करोड़ों रूपया बहा रही है, जिसमें लोग लाल और गंगा मैली हो रही है।
कैसा रहेगा 2020 का मौसम
मार्च, अप्रैल, मई में भीषण गर्मी पड़ने का अनुमान है। भारतीय मौसम विभाग की ओर से जारी अनुमान में कहा गया है कि इस साल गर्मी में मौसम में तापमान सामान्य से अधिक रहेगा। 2020 में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिमी राजस्थान और अरूणाचल प्रदेश में मार्च से लेकर मई तक औसतन अधिकतम तापमान सामान्य से एक डिग्री सेल्सियस ज्यादा रहने वाला है। वहीं जम्मू और कश्मीर, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली में ग्रीष्म ऋतु में औसतन अधिकतम तापमान 0.5 से 1 डिग्री सेल्सियस अधिक रह सकता है।
दुनिया भर के तापमान में इस साल बढ़ोत्तरी देखने को मिल रही है। बिट्रेन का मौसम विभाग का कहना है कि इस साल गर्मी अधिक पड़ेगी और साथ ही अगले पांच साल रिकार्ड तोड़ गर्मी पड़ने के आसार हैं। 2020 से 2024 के दौरान हर साल 1.06 डिग्री से 1.62 डिग्री सेल्सियस की स्पीड से बढ़ सकता है। देखा जाए तो 2015 से 2019 के बीच तापमान में 1.09 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हुई। इस दौरान 2016 का साल अभी तक का सबसे ज्यादा गर्म साल रिकार्ड किया गया।
भारतीय मौसम विभाग हर साल गर्मी और सर्दी को लेकर पूर्वानुमान जारी करता है। यह पूर्वानुमान मंत्रालय (मिनिस्ट्री आफ साइंस) के मानसून मिशन प्रोजेक्ट के मानसून मिशन कपल्ड फोरकास्टिंग सिस्टम (MMCFC) पर आधारित है।
मौसम की रिपोर्ट में कहा गया है कि मार्च, अप्रैल और मई के दौरान उत्तरी-पश्चिमी और मध्य भारत के कुछ भागों में तापमान थोड़ा अधिक रह सकता है। दिल्ली में जल्द ही गर्मी में बढ़ोत्तरी होगी। अनुमान है कि मई-जून में इस साल तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुॅंच सकता है।
नदी घाटियों पर शहरीकरण का प्रभाव
शहरीकरण के प्रभाव नदी नालो पर मोटे तौर पर तीन प्रकारों में वर्गीकृत हो सकते हैं जेसेरू भौतिक प्रभाव, रासायनिक प्रभाव और जैविक प्रभाव। अन्य प्रभावों में निर्मित क्षेत्र, खुले वनस्पति स्थान, जल निकाय, प्राकृतिक या मानवजनित तत्व भी शामिल है। तेजी से बढ़ते शहरीकरण कारण परिदृश्य संरचना भी बदल रही है। शहरीकरण के प्रमुख भौतिक प्रभावों से नदी बेसिन की भू-आकृति और तापमान में परिवर्तन के साथ-साथ धाराएं परिवर्तन हो रही हैं। वही खुले स्थान के परिदृश्य में परिवर्तन करना, एक प्रभावशाली सतह के आवरण में परिवर्तित करने जैसा है, जो कि एक नदी घाटी के क्षेत्रीय जल विज्ञान को प्रभावित करता है। इससे पानी की गुणवत्ता में गिरावट, बेसिन बंद होना और इस क्षेत्र में लगातार बाढ़ की घटना पानी की कमी जैसी विभिन्न समस्याएँ होती हैं।
शहरीकरण के कारण जल निकासी प्रणालियों में संशोधन करने से वर्षा के दौरान मिट्टी के सीलन के कारण शहरी अपवाह क्षेत्र में समय अंतराल कम हो जाता है जिससे बाढ़ के परिणाम और अधिक तेजी से बढ़ते हैं। धारा प्रवाह का परिवर्तन शहरीकरण का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव है। अपने उचित पारिस्थितिकी तंत्र के लिए कुछ आधार प्रवाह नदी बेसिन में आवश्यक कार्य कर रहा है। वही बढ़ती मानवजनित जल मांगों को पूरा करने के लिए बेसिन के जल संसाधनों का अधिक दोहन करते है जो की एक बेसिन बंद होने का परिणाम है। बेसिन में मानवजनित गतिविधियाँ नदी की आकारिकी को बदल देती हैं। ये परिवर्तन निम्नलिखित परिवर्तनों के कारण होते हैं जेसेः नदी आकृति, प्रवाह का पैटर्न, नदियों के अवसादन और गादीकरण गुण। शहरी विकास से चौनलों के भीतर नदी तलछट उत्पादन और निक्षेपण बढ़ता है। इसके बाद नदी के कटाव में वृद्धि हुई है जो कि चौनलों को चोड़ा करता है। वही एक ओर बांधों का निर्माण, पूरे बेसिन के भूमि-उपयोग में परिवर्तन और बाढ़ बचाव की निर्माण संरचनाएं नदी प्रणाली के व्यवहार को बदल देती हैं।
हाल ही में, ग्लोबल वार्मिंग के जलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों पर प्रभावों को समझने के लिए कई अध्ययन किए गए हैं। यह नदियों के जल के माध्यम से नदी के पानी की गुणवत्ता के बिगड़ने के साथ जुड़ा हो सकता है। शहरीकरण से नदियों में पानी का तापमान बढ़ता है वो या तो भट्टियों से सीधे गर्म पानी का निर्वहन करने से या ग्रीष्मकाल के दौरान सतह के पानी को अपवाह से जोड़ने पर। यह नदी के पानी में माइक्रोबियल गतिविधि बढ़ाने के लिए पाया जाता है। वार्मिंग वसंत ऋतु में पानी की क्षारीय वृद्धि को देर से बढ़ाता है और गर्मियों में फाइटोप्लांकटन मृत्यु दर के लिए जिम्मेदार है।
नदी के पानी में शहरीकरण के कारण पोषक तत्वों, धातुओं, कार्बनिक संदूषक का भार से रासायनिक प्रभाव बढ़ने लगते हैं। शहरी किनारे वाली नदियाँ में नगरपालिका और औद्योगिक के निर्वहन के कारण उनके रासायनिक गुण बदल जाते हैं। नदी अपवाह में कूड़े का सीधा डंपिंग और कृषि से हानिकारक रसायनों को जोड़ना नदी के प्रदूषण में भी योगदान देता है। शहरीकरण से प्रभावित नदियों में कार्बनिक की उपस्थिति द्वारा प्रदूषण, लवणता, कुल निलंबित ठोस पदार्थ, भारी धातुएँ, नाइट्रेट, जैविक सूक्ष्म प्रदूषक, अम्लीकरण, इच्छामृत्यु, नदी के निवासियों की मौत, नदी में भारी धातुओ का भंडारण (जैसे सीसा), उच्च जैविक आक्सीजन मांग (बीओडी) और रासायनिक आक्सीजन मांग (सीओडी) आदि विशेषता है। यूट्रोफिकेशन के कारण शहरी नदी के पानी का बीओडी और सीओडी जो की ओर बढ़ जाते हैं जिससे मछलियों की तरह अन्य जलीय जीव भी मारे जाते है और शहरी नदियाँ जल प्रदूषण की गंभीर समस्याओं का सामना करती हैं। जैविक समुदायों के भीतर एक उपचारात्मक उपाय कार्बनिक पदार्थों का पुनर्चक्रण हो सकता है।
बच्चों पर मंडराता खतरा
बच्चों का भविष्य दांव पर लगा है। आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन के संकट तेजी से आएंगे। दुनिया ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए ठोस पहल नहीं की। संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें कहा गया है कि बच्चों को स्वच्छ परिवेश नहीं दिया जा रहा है, जो उनके विकास और सेहत के लिए जरूरी है।
जलवायु परिवर्तन, इको तंत्र को होने वाला नुकसान, लोगों को बेघर होने, संघर्ष, असमानता और व्यावसायिक लाभ के लिए कारोबारी तौर तरीकों की वजह से बच्चों की सेहत और उनका भविष्य खतरे में है। यह रिपोर्ट बच्चों और किशोरों पर विशेषज्ञता रखने वाले 40 से ज्यादा लोगों ने तैयार की है। रिपोर्ट के मुताबिक अमीर देशों में रहने वाले बच्चे इन समस्याओं से निपटने के लिए बेहतर स्थिति में हैं। वहीं अमीर देश सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं, जो बच्चों के लिए खतरा पैदा कर रहा है। तो बच्चे कैसे स्वास्थ्य रह सकें। इस पर न्यूजीलैंड की पूर्व प्रधानमंत्री हेलेक क्लार्क जो आयोग की अध्यक्ष हैं, कहती हैं- ‘‘बच्चों और किशोरों की सेहत के प्रति सभी देशों को अपनी सोच में आमूल-चूल बदलाव लाना होगा, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हम न सिर्फ अपने बच्चों का ख्याल रखें, बल्कि उस दुनिया को भी बचाए, जो आगे चलकर उन्हें विरासत में मिलेगी।’’ व्यावसायिक क्षेत्र से भी बच्चों को होने वाले खतरों का जिक्र रिपोर्ट में किया गया है। जिसमें बताया गया है, लाभ कमाने के लिए कम्पनियां जो उत्पाद बाजार में ला रही हैं, वे बच्चों की सेहत को खराब कर रहे हैं। जंक फूड, बहुत ज्यादा शक्कर, फैट वाले खाद्य पदार्थों की मार्केटिंग और विज्ञापनों से बच्चों में मोटापे जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक मोटापे के शिकार बच्चों और किशोरों की संख्या जो 1975 में 1.1 करोड़ थी, वह 2016 में बढ़कर 12.4 करोड़ हो गई। बच्चों का सामना ऐसे उत्पादों के विज्ञापन से भी हो रहा है, जो बड़ों के लिए तैयार किए गए हैं। इनमें शराब, तम्बाकू और जुआ शामिल है। इन चीजों का विज्ञापन देखकर बच्चों में इनके प्रति लालसा बढ़ती है। रिपोर्ट कहती है कि 2015 में सतत विकास के जिन लक्ष्यों पर सहमति बनी थी, उन्हें हासिल करने की कोशिशों के केन्द्र में बच्चों को रखा जाना चाहिए।
चिल्का झील की जैव विविधता
चिल्का झील उड़ीसा प्रदेश के समुद्री अप्रवाही जल में बनी एक झील है। यह भारत की सबसे बड़ी एवं विश्व की दूसरी सबसे बड़ी समुद्री झील है। इसको चिलिका झील के नाम से भी जाना जाता है। यह उड़ीसा के तटीय भाग में नाशपाती की आकृति में पुरी जिले में स्थित है। यह 70 किलोमीटर लम्बी तथा 30 किलोमीटर चौड़ी है। यह समुद्र का ही एक भाग है जो महानदी द्वारा लायी गई मिट्टी के जमा हो जाने से समुद्र से अलग होकर एक छीछली झील के रूप में निर्मित है। दिसम्बर से जून तक इस झील का जल खारा रहता है किन्तु वर्षा ऋतु में इसका जल मीठा हो जाता है। इसकी औसत गहराई 3 मीटर है। इस झील के पारिस्थितिक तंत्र में बेहद जैव विविधताएँ हैं। यह एक विशाल मछली पकड़ने की जगह है। यह झील 132 गाँवों में रह रहे 150,000 मछुआरों को आजीविका का साधन उपलब्ध कराती है। इस खाड़ी में लगभग 160 प्रजातियों के पंछी पाए जाते हैं। कैस्पियन सागर, बैकाल झील, अरल सागर और रूस, मंगोलिया, लद्दाख, मध्य एशिया आदि विभिन्न दूर दराज के क्षेत्रों से यहाँ पछी उड़ कर आते हैं। ये पछी विशाल दूरियाँ तय करते हैं। प्रवासी पछी तो लगभग 12000 किमी से भी ज्यादा की दूरियाँ तय करके चिल्का झील पंहुचते हैं।
1981 में, चिल्का झील को रामसर घोषणापत्र के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय महत्व की आद्र भूमि के रूप में चुना गया। यह इस महत्व वाली पहली पहली भारतीय झील थी। एक सर्वेक्षण के मुताबिक यहाँ 45% पछी भूमि, 32% जलपक्षी और 23% बगुले हैं। यह झील 14 प्रकार के रैपटरों का भी निवास स्थान है। लगभग 152 संकटग्रस्त व रेयर इरावती डाल्फिनों का भी ये घर है। इसके साथ ही यह झील 37 प्रकार के सरीसृपों और उभयचरों का भी निवास स्थान है। उच्च उत्पादकता वाली मत्स्य प्रणाली वाली चिल्का झील की पारिस्थिकी आसपास के लोगों व मछुआरों के लिये आजीविका उपलब्ध कराती है। मानसून व गर्मियों में झील में पानी का क्षेत्र क्रमशः 1165 से 906 किमी तक हो जाता है। एक 32 किमी लंबी, संकरी, बाहरी नहर इसे बंगाल की खाड़ी से जोड़ती है। सीडीए द्वारा हाल ही में एक नई नहर भी बनाई गयी है जिससे झील को एक और जीवनदान मिला है। लघु शैवाल, समुद्री घास, समुद्री बीज, मछलियाँ, झींगे, केकणे आदि चिल्का झील के खारे जल में फलते फूलते हैं।
ट्राइलोबाइट विलुप्त प्राणी
ट्राइलोबाइट (Trilobite) विलुप्त प्राणियों की एक श्रेणी है जो समुद्री सन्धिपाद arthropod, अर्थोपोडा) थे। वे सबसे पहले कैंब्रियन कल्प के शुरुआती काल में आज से 52.9 करोड़ वर्ष पहले उत्पन्न हुए और भी पुराजीवी महाकल्प (पैलिओजोइक) काल में फैले और विविध हुए। उसके बाद उनकी जातियों की धीरे-धीरे विलुप्ति होने लगी और डिवोनी कल्प (Divonian) में उनके प्रोटिड (proetida) गण (order) को छोड़कर बाकी सभी प्रकार के ट्राइलोबाइट विलुप्त हो गये। फिर आज से लगभग 25 करोड़ वर्ष पूर्व की पर्मियन-ट्राइऐसिक विलुप्ति घटना में सभी ट्राइलोबाइट हमेशा के लिये विलुप्त हो गये। अपने अस्तित्व के काल में वे बहुत ही सफल प्राणी थे और 27 करोड़ सालों तक वे विश्व के सागरों-महासागरों में फैलते-फिरते रहे।
ट्राइलोबाइटों का पुराजीव कल्प के प्रथम महायुग कैंब्रियन में साम्राज्य था। इस युग में इनकी संख्या इतनी अधिक थी कि यह साधारणतया ‘ट्राइलोबाइटा का युग’ कहलाता है। ये साधारणतया दो से तीन इंच तक लंबे होते थे, किंतु कुछ दो फुट से भी अधिक बड़े थे। यह अनुमान किया जाता है कि ये ऐरैक्जिडा (Arachnida ) और क्रस्टेशिया (Crustacea) के पूर्वज थे।
इनका शरीर दो भागों में विभाजित था- शीशवक्ष (प्रोसामा, च्तवेवउं) और उदर (आपिस्थोसोमा, Opisthosona)। शीशवक्ष में पाँच खंड होते हैं, जिनकी पृष्ठियों का समेकन हो जाता है इस प्रकार एक ढालाकार अंग (केरापेस) सा बन जाता है। इसी पर संयुक्त नेत्र भी रहते है, मुख इसी के नीचे की ओर लगभग मध्य में होता है। मुख के अगले सिरे की और लेब्रम और पिछले सिरे पर लेबियम होता है। मुख के आगे की ओर एक जोड़ी लंबी अनेक खंडवाली श्रंगिका होती है। मुख के पीछे की ओर चार जोड़ी अवयव होते हैं, जिनके निकटतम खंड काक्सा कहलाते हैं जो जबड़ों का काम करते हैं।
इसके अतिरिक्त प्रत्येक अवयव का शेष भाग दो शाखाओं में विभाजित रहता है- एक एंडापोडाइट कहलाता है और रेंगने का कार्य करता है तथा दूसरा एक्सोपोडाइट, जिसपर ब्रैकियल फिलामेंट लगे होते हैं और श्वसन का कार्य करते हैं। उदरखंड़ों की संख्या में अनेक भिन्नताएँ पाई जाती हैं। प्रारंभिक ट्राइलोबाइटा में इनकी संख्या बहुत थी। ये खंड एक पंक्ति में क्रम से जुड़े रहते हैं। उदर के प्रत्येक खंड में, अंतिम खंड के अतिरिक्त, एक जोड़ी अवयव होता है। इनका आकार तथा कार्य शीशवक्ष के अवयवों जैसा ही होता है। उदर का अंतिम खंड टेलसन कहलाता है। इसी पर गुदा होती है और कभी एक पश्चगुदा काँटा भी होता है। प्रारंभिक ट्राइलोबाइटाओं के पश्चात् जिन ट्राइलोबाइटाओं का विकास हुआ, उनमें शरीरखंडों की संख्या केवल 18 या 19 ही थी, पश्च भाग के कुछ खंडों में अवयव भी नहीं थे तथा इन अवयवों के आकारों और कार्यों में भी कुछ अंतर आ गया था। शीशवक्ष के अवयवों ने बहुत कुछ श्वसन कार्य करना बंद कर दिया था, किंतु ये चलने, लटकने और भोजन को मुख में ले जाने के लिये अधिक उपयुक्त बन गए
गांजा खेती करने कानून बनाया
बेहद नशीला पदार्थ गांजा की लोकप्रियता घटी नहीं है। भारत सहित दुनिया के कई देशों ने इसकी खेती को प्रतिबंधित किया है। प्रतिबंध के बावजूद गांजा उगाया जाता है, बेचा जाता है और करोड़ों लोग गांजा सेवन के आदी हैं। कानूनी पाबंदी भी गांजा की लालसा को खत्म नहीं कर सकी है। यही कारण है कि नेपाल में गांजा की खेती को कानूनी जामा पहनाया जा चुका है।
नेपाल में गांजे की खेती करने की हरी झंडी दे दी गई। कम्न्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल के सांसदों ने ऐसा प्रस्ताव पास किया। नेपाल सरकार का कहना है कि देश में परम्परागत रूप से कई पीढ़ियां गांजे का उपयोग कर रही हैं। गांजे की वैध खेती होने से नेपाल के रास्ते गांजा आने का मार्ग साफ हो गया।
दुनिया में प्रतिबंधित : गांजा पर दुनिया के अधिकांश देशों ने प्रतिबंध लगाया है। गांजा एक ऐसा मादक पदार्थ है, जो भांग के पौधे से बनाया जाता है। इसका इस्तेमाल साइको एक्टिव ड्रग याने मनो सक्रिय मादक के रूप में किया जाता है। यह मादा भांग के पौधे के फूल, आसपास की पत्तियों को सुखाकर बनाया जाता है। इसलिए इसे कली गांजा कहा जाता है। भारत में गांजा का किसी भी तरीके से इस्तेमाल नारकोटिक ड्रग कंट्रोल एक्ट के तहत प्रतिबंधित है। दुनिया भर में सर्वाधिक दुरूपयोग किए जाने वाले मादक पर्दाा में गांजा है, यही कारण है कि बड़े पैमाने पर इसकी तस्करी की जाती है।
कनाडा, जार्जिया, दक्षिण अफ्रीका और अमरीका के 11 राज्यों में गांजा की खरीद-बिक्री वैध है। वहीं जर्मनी, नीदरलैंड्स, साइप्रस और ग्रीस जैसे 24 देशों में दवाई के रूप में गांजा का उपयोग वैध है। दुनिया के कई बड़े देशों में गांजा की खेती, खरीदना, बेचना अपराध माना गया है।
1960 के दशक में नेपाल में गांजा और दूसरे मादक पदार्थ को वैध तरीके से खरीदा, बेचा था। उस दौर में नेपाल को हिप्पियों का देश कहा जाने लगा था। जहॉं गांजा हर चाय के ठेले व दुकानों में उपलब्ध था। 1976 में नारकोटिक ड्रग्स कंट्रोल एक्ट के तहत गांजे को उगाने और बेचने पर पाबंदी लगा दी गई। यही नहीं गांजे का सेवन करने वाले को एक महीने की जेल और गांजा तस्करों को 10 साल की सजा का प्रावधान इस कानून में है।
परम्परागत उपयोग : नेपाल में परम्परागत रूप से गांजे का उपयोग होता रहा है। गैरकानूनी घोषित करने के बावजूद हिन्दुओं के त्यौहार शिवरात्रि के दिन खुलेआम गांजा का इस्तेमाल करते देखा जा सकता है।
गांजा की खेती और उसके उपयोग को कानूनन वैध बनाने का प्रस्ताव लाया गया। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी और सरकार ने गांजा का रास्ता साफ कर दिया है। सरकार ने दलील दी है कि जब पश्चिमी देशों में गांजे से प्रतिबंध हटा दिया गया है, तो नेपाल पीछे क्यों रहे। सांसदों की ओर से सरकार के सामने ऐसा प्रस्ताव सांसद बिरोध खातीवाड़ा ने रखा।
नेपाल में कानून बना : सांसद ने कहा कि हिमालय पर बसा पहाड़ी देश गांजे की फसल के लिए उपयुक्त है। यह कानून गरीब किसानों को गांजा उगाने की इजाजत देगा। गांजे की खेती को वैध करने से गरीब किसानों की मदद होगी। खातीवाड़ा कहते हैं, गांजे के उत्पादन से देश में इसकी दवाईयां बनाई जा सकेंगी और विदेशों में भी इसका निर्यात हो सकेगा।
भारत में गांजे की खेती ही नहीं, इसे खरीदना-बेचना और उपयोग भी दंडनीय अपराध है। नेपाल में गांजे की खेती कानूनन वैध हो जाने से तस्करी तेजी से बढ़ेगी। भले ही नेपाल के किसानों की हालत सुधरेगी, मगर भारत की युवा पीढ़ी गांजे के नशे में फंसेगी।
जलवायु परिवर्तन और भारत
जलवायु परिवर्तन सूचकांक 2020 में भारत का 9वां स्थान रहा। वैसे दुनिया का कोई भी देश समग्र रूप से सभी सूचकांक श्रेणियों में उत्कृष्ट प्रदर्शन नहीं कर सका। इसलिए एक बार फिर तीन स्थान रिक्त रहे। पर्यावरण को बनाए रखने के तहत सूचकांक को मैड्रिड में आयोजित कॉप-25 के आयोजन के दौरान जारी किया गया। जलवायु परिवर्तन सूचकांक 2020 में स्वीडन ने 75.77 अंक प्राप्त कर चौथा स्थान बनाया है। वहीं इस सूचकांक में अमेरिका 18.60 अंक प्राप्त कर अंतिम कगार में जा पहुॅंचा है।
जलवायु परिवर्तन सूचकांक
जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक को जर्मन वॉच न्यू क्लाईमेट इंस्टीट्यूट और क्लाईमेट एक्शन नेटवर्क द्वारा वार्षिक प्रकाशित किया जाता है। यह चार श्रेणियों ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन, नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा उपयोग तथा जलवायु नीति के अंतर्गत् 14 संकेतकों पर देशों के समग्र प्रदर्शन के आधार पर जारी की गई।
जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक 2020 मानकीकृत मानदंडों के आधार पर 57 मूल्यांकित देशों और यूरोपीय संघ के भीतर जलवायु संरक्षण और प्रदर्शन के क्षेत्र में मुख्य क्षेत्रीय अंतर को दर्शाता है। पेरिस समझौता वर्ष 2020 में कार्यान्वयन चरण में प्रवेश कर रहा है, जहॉं देश अपने अद्यतन राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान को पूरा करेंगे। अतः इस संदर्भ में जलवायु परिवर्तन सूचकांक का उद्देश्य जलवायु महत्वाकांक्षा को बढ़ाने की प्रक्रिया को सूचित करता है। सूचकांक में रैंक निर्धारित करने वाली चार श्रेणियों को मिलने वाली वरीयता का क्रम इस प्रकार है।
ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन (40 प्रतिशत वरीयता।
नवीकरणीय ऊर्जा (20 प्रतिशत वरीयता)
ऊर्जा उपयोग (20 प्रतिशत वरीयता)
जलवायु नीति (20 प्रतिशत वरीयता)
इस सूचकांक में सबसे निम्न रैकिंग वाले तीन देश इस प्रकार हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका 61, सऊदी अरब 60, ताइवान 59।
पहली बार 2005 में जारी किए जाने के बाद से जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक (सीसीपीआई) जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए देशों द्वारा किए गए प्रयासों की निगरानी करता है। इसका उद्देश्य उन देशों पर राजनीतिक और सामाजिक दबाव बढ़ाना है, जो अब तक जलवायु संरक्षण पर महत्वाकांक्षी कार्यवाही करने में विफल रहे हैं।
भारत का प्रदर्शन : सीसीपीआई 2020 में भारत 60.02 अंक प्राप्त कर 9वें स्थान पर है, जबकि 2019 में 11वें स्थान पर था। सूचकांक को निर्धारित करने वाली चार श्रेणियों में भारत का प्रदर्शन निम्नानुसार रहा।
ग्रीन हाउस गैस 11वां रैंक। नवीकरणीय ऊर्जा 26वां रैंक।
ऊर्जा उपयोग 9वां रैंक। जलवायु नीति 15वां रैंक।
समय रहते कैंसर की पहचान संभव
स्तन कैंसर (ब्रेस्ट कैंसर) महिलाओं में होने वाले कैंसर में सबसे आगे है। महिलाओं में इसका पता बहुत देर बाद लगता है। स्तन कैंसर की पहचान जितनी जल्दी होती है, उस मरीज के लिए उतना ही बेहतर होता है। महिलाओं में होने वाले इस घातक कैंसर का पता काफी समय बाद लगता है और यही कारण है कि अक्सर मरीज की मौत हो जाती है। एक आशा जगाई है आर्टिफीशियल इंटेलीजेंसी ने, जो स्तन कैंसर का पता शुरूआती लक्षणों के आधार पर लगा सकती है।
वक्त के साथ स्तन कैंसर का खतरा तेजी से बढ़ रहा है और मौत का आंकड़ा भी। दुनिया भर के शोधकर्ता स्तन कैंसर का इलाज ढूॅंढ़ने दिन रात एक कर रहे हैं और अब एक उम्मीद जागी है। स्तन कैंसर की वैश्विक बीमारी का शुरूआती दौर में ही इलाज शुरू हो जाएगा और यही बेहतर है जीवन को बचाने के लिए। स्तन कैंसर की शुरूआती दौर में पहचान अब संभव हो सकेगी।
2019 में ही 20 लाख महिलाओं में स्तन कैंसर का पता चला। वैसे 50 साल से अधिक उम्र वाली महिलाओं को हर तीन साल में मैमोग्राफ कराने की सलाह दी जाती है। मैमोग्राफ के परिणामों का विश्लेषण करके ही स्तन कैंसर की पहचान की जाती है। इंसानों द्वारा इस जांच में गलती की गुजाइश रह जाती है। मैमोग्राफ के गलत नतीजों से सही इलाज कर पाना मुश्किल हो जाता है। स्तन कैंसर की पहचान में गलती की गंजाइश को खत्म करते हुए गूगल हेल्थ के शोधकर्ताओं ने दावा किया है। जिन्होंने आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस का ऐसा मॉडल तैयार किया है, जो शुरूआती दौर में ही स्तर कैंसर लक्षणों का पता लगा लेगा।
गूगल शोधकर्ताओं ने बिट्रेन और अमेरिका के हजारों महिलाओं की जांच की। इसके लिए डॉक्टरों ने एक्सरे इमेज की समीक्षा की। आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस मॉडल में मरीज की बीमारी के इतिहास के बारे में जानकारी फीड नहीं की गई थी। शोधकर्ताओं ने पाया कि उनके आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस मॉडल ने विशेषज्ञ रेडियोग्राफर्स के मुकाबले स्तन कैंसर के लक्षणों को आसानी से पहचान लिया। इसके अलावा आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस मॉडल ने उन मामलों के अनुपात में कमी दिखाई, जहॉं कैंसर की गलत पहचान की गई थी। डॉक्टर 9.4 फीसदी स्तन कैंसर के मामले नहीं पहचान पाए, वहीं आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस मॉडल की जांच के बाद यह आंकड़ा 20 प्रतिशत ही रह गया।
स्तन कैंसर की पहचान जितनी जल्द होगी, उसके मरीज का इलाज उतना आसान होगा, डॉक्टर यही कहते हैं। विशेषज्ञ भी यही मानते हैं। अमेरिका, बिट्रेन के मरीजों की पड़ताल की और इलाज में नतीजे भी आए। गूगल हेल्थ की टीम ने कम्प्यूटर द्वारा दिए नतीजों के साथ प्रयोग भी किया। उन्होंने विशेषज्ञों द्वारा जांच की गई, स्कैन रिपोर्ट की तुलना कम्प्यूटर द्वारा दिए गए नतीजों से भी। गूगल हेल्थ के इस शोध को ‘नेचर’ पत्रिका ने प्रकाशित किया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस विषय पर आगे भी शोध की जरूरत है। बहरहाल स्तन कैंसर के लक्षणों का पता शुरूआती दौर लग जाए तो उन हजारों महिलाओं का जीवन बच सकता है, जिन्हें इसका पता बहुत बाद में लगता है और जब वे इस बीमारी से मौत की ओर धीरे-धीरे बढ़ती है।