‘‘पारिस्थितिकी का पुनर्रूद्धार’’

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विश्व पर्यावरण दिवस का ध्येय विषय ‘‘पारिस्थितिकी का पुनर्रूद्धार’’ (Ecology Restoration) रखा गया है। इस एक दिवस के आयोजन का लक्ष्य विश्व के समक्ष व्याप्त ज्वलंत पर्यावरणीय समस्याओं में से किसी एक पर गंभीर ध्यानाकर्षण करवा कर विश्व समुदाय से इस दिशा में गंभीर चिंतन कर सार्थक एवं ठोस कार्यवाही करने हेतु संसाधनों एवं प्रयासों को निहित करना है।
तदैव, यह समझना आवश्यक है कि पारिस्थितिकी का विनाश किन कारणों से हुआ है और वे कौन से कारण हैं, जिनसे आज भी विनाश जारी है। चूॅंकि अगर हम ‘उद्धार’ की गति से ज्यादा ‘विनाश’ की गति को जारी रखेंगे तो परिणाम सकारात्मक कभी भी नहीं आएंगे। अपितु, ऋणात्मक परिणाम से इस दिशा में काम करने वालों में हतोत्साहन होगा। अंततोगत्वा पृथ्वी पर से भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र सदा के लिए समाप्त हो जाएगा। यद्यपि पारिस्थितिकी विनाश के कारणों की एक बहुत ही लम्बी श्रृंखला है, जिसे एक-दो पृष्ठों में निबद्ध करना असंभव है। तदापि अति संक्षेप में हम एक-दो कारणों पर ही चिंतन करें तो यह पाते हैं कि सबसे बड़ा कारण मनुष्य की विस्फोटक हो चुकी और हो रही जनसंख्या इसका मूल कारण है। इसके साथ ही इस विशाल जनसंख्या की धारणीय जीवनशैली में परिवर्तन दूसरा मुख्य कारण है। जिसके परिणामस्वरूप वनों की कटाई हुई, फलतः नदियों के पाट कटने लगे, जैव विविधता घटने लगी, भूजल स्तर गिरने लगा या जल की एवं भूस्तरीय जल की गुणवत्ता गिरने लगी, नदियों में बाढ़ आने लगी तो गर्मियों में नदियां सूखने लगीं।
अस्तु, सबसे बड़ी चिंता यह है कि मानव के चिंतन में प्रकृति के प्रति व्याप्त असहिष्णुता को कैसे ठीक किया जावे। मेरा मानना है, और हमारे पूर्वजों और मनीषियों का भी मानना रहा होगा कि इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा संविधान प्रकृति का अलिखित संविधान लागू है और सबसे बड़ा शासन प्रकृति पुरूष का ही है। प्रकृति के नियमों की अवहेलना के लिए वह मनुष्यों को सतत दंडित करता रहा है और करता है। किन्तु सामान्य मनुष्यों ने न तो प्रकृति के इस कानून को कभी समझने की गंभीर कोशिश किया और न ही उसके द्वारा मानवीय दुष्कृत्य के पुरस्कार में दिए गए दंड को ही समझने का प्रयास किया। उदाहरण के तौर पर नदियों में आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान को उन्होंने प्रकृति पर किए गए अतिक्रमण का प्रतिकार स्वरूप, प्रकृति का दंड न मानकर उसका प्रकोप ही मान बैठा, तदैव उसने अपनी गलतियों की विवेचना करने की कोशिश भी नहीं की, कि बाढ़ मूलतः क्यों आ रही है? या इसी प्रकार सूखा क्यों आ रहा है?
सभ्यता के प्रारंभ में, जब मनुष्य प्राकृतिक जीवनशैली से हटकर कृत्रिम जीवनशैली को अंगीकार करना शुरू किया होगा, तभी से यह प्रकृति और मनुष्य के बीच का यह द्वंद भी आरंभ हुआ होगा। उसी दौरान जब मनीषियों ने उनके कारणों का मन मंथन किया होगा तो पाया होगा कि प्रकृति पर मानवीय दुष्प्रहार के प्रत्युत्तर में वर्तमान में आ रही विभिषिकाओं का स्वरूप भविष्य में और भी भयावह हो सकता है। तभी उन्होंने मनुष्यों को प्रकृति के प्रति सम्मान की आवश्यकता और महत्व को समझाने का प्रयास किया होगा। जब सामान्य मनुष्यों को पशु-पक्षियों के प्रति अहिंसा और वृक्षों को नहीं काटना जैसे उपदेश बंधनकारी लगे होंगे, तो शायद मनीषियों ने इसे धर्म के साथ जोड़ कर जीव हत्या को पाप तो पेड़-पौधों को काटने को पाप और नदियों-जल साधनों को दूषित करने को भी अधार्मिक कृत्य बताकर रोकने का प्रयास किया होगा।
दुर्भाग्य यह है कि वर्तमान यांत्रिक सभ्यता में मनुष्य जाति ने मनीषियों की उन भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया और निर्बाध गति से वनों पर, पहाड़ों पर, नदियों पर, तालाबों पर, नम क्षेत्रों पर और यहां कि समुद्र तट एवं समुद्र का भी संहार आरंभ कर दिया। परिणाम अत्यंत भयावह है। इनकी संख्याओं और सांख्यिकियों में जाने की आवश्यकता नहीं है, चूॅंकि सब कुछ प्रत्यक्ष है। पर एक झलक में ही मेरी पीढ़ी के लोग बता सकते हैं कि आसमान से चील, गिद्ध, गौरैया, तोता, मैना, पड़की, कबूतर, कौवे तक के पक्षी गायब हो गए हैं। मनुष्य का जीवन यदि 84 लाख योनियों से विकसित होकर आया है या नहीं, पता नहीं, पर पृथ्वी में यदि इन 84 लाख योनियों के सह-अस्तित्व में हम जीते हैं, तो इसका सुख अपरिमित है। इन जीवों के लिए वानस्पतिक विविधता एवं भौगोलिक प्राकृतिक व्यवस्था का पुनरूद्धार करना भी आवश्यक है। तदैव पारिस्थितिकी के पुनः सुधार के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को जनसंख्या पर पूर्ण नियंत्रण करने हेतु अवश्य पहल करना चाहिए। साथ ही जीवन के सभी धारणीय प्रणालियों को भी पुनः स्थापित करना चाहिए। चाहे उसके लिए फिर हजारों वर्षों पूर्व की तरह मनुष्यों को पर्ण-कुटीर में ही क्यों न रहना पड़े। विश्व पर्यावरण दिवस पर समस्त पाठकों का अभिनंदन।
ललित कुमार सिंघानिया