अंटार्कटिका बर्फ के नीचे 100 ज्वालामुखी

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धरती के सबसे दक्षिण में स्थित अंटार्कटिका महाद्वीप 100 से ज्यादा ज्वालामुखी का घर है। ये ज्वालामुखी बर्फ की मोटी परत के नीचे छिपे हुए हैं। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि इन ज्वालामुखी में विस्फोट हो सकता है जिससे दुनियाभर के समुद्र में जलस्तर बढ़ सकता है। यह चेतावनी ऐसे समय पर आई है जब हाल ही में वैज्ञानिकों ने धरती के सबसे बड़े ज्वालामुखी क्षेत्र का खुलासा किया है। वैज्ञानिकों के मुताबिक अंटार्कटिका महाद्वीप के पश्चिमी तरफ बर्फ की मोटी चादर के दो किमी नीचे ये ज्वालामुखी मौजूद हैं। इनमें से एक ज्वालामुखी तो करीब 4 हजार मीटर ऊंचा है। ब्रिटेन के एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी के एक दल ने साल 2017 में इन ज्वालामुखी की खोज की थी। अब इस दल ने दावा किया है कि यह अंटार्कटिका का पूरा इलाका पूर्वी अफ्रीका के ज्वालामुखी क्षेत्र को भी पीछे छोड़ सकता है।
दुनिया के अन्य ज्वालामुखी से पूरी तरह से अलग
पूर्वी अफ्रीका के ज्वालामुखी क्षेत्र को दुनिया में ज्वालामुखी का सबसे घना क्षेत्र माना जाता है। वर्तमान समय में केवल दो सक्रिय ज्वालामुखी अंटार्कटिका पर हैं। इनका नाम माउंट इरेबस और डिसेप्शन आइलैंड। ये अपनी भूगर्भीय बनावट के आधार पर बहुत खास हैं और दुनिया के अन्य ज्वालामुखी से पूरी तरह से अलग हैं। अंटार्कटिका पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि इन ज्वालामुखी के जल्द फटने का खतरा बहुत कम है। हालांकि कई ऐसे भी हैं जो यह कह रहे हैं कि अगर ये ज्वालामुखी फटते हैं तो दुनियाभर में समुद्री प्रलय आ जाएगा। यूनिवर्सिटी आफ लिसेस्टर में ज्वालामुखी के विशेषज्ञ प्रफेसर जान स्मेली ने कुछ समय पहले कहा था कि कभी भी ये ज्वालामुखी काफी ज्यादा पानी पिघला सकते हैं। यह पानी धीरे-धीरे पिघलेगा और फिर वह समुद्र में मिल जाएगा जिससे जलस्तर बहुत बढ़ जाएगा।
समुद्र का जलस्तर विश्वभर में 60 मीटर तक बढ़ जाएगा
बता दें कि धरती का 80 फीसदी ताजा पानी अंटार्कटिका पर है। अगर यह पिघल जाए तो समुद्र का जलस्तर विश्वभर में 60 मीटर तक बढ़ जाएगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक इससे हमारी धरती इंसानों के रहने लायक नहीं रह जाएगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि ज्वालामुखी में विस्फोट इस पूरी प्रक्रिया को गति दे सकता है।

बंजर भूमि में साजी की खेती

बंजर, लवणीय और अनुपयोगी भूमि पर बीकानेर के सीमावर्ती किसानों ने साजी की व्यवस्थित खेती करनी शुरू कर दी है। अभी तक पाकिस्तान से आयात होने वाली साजी के पौधे की इसी के साथ देश में पहली बार खेती की शुरुआत हुई है। इसके पौधे को जलाकर काले रंग की पत्थर माफिक साजी बनती है। जिसका उपयोग पापड़ बनाने में किया जाता है। इस साल नहरों में पानी नहीं मिलने से जहां सीमावर्ती सिंचित क्षेत्र की उपजाऊ भूमि में फसलें बहुत कम है, वहीं बंजर पड़ी भूमि पर साजी के पौधों की हरियाली नजर आ रही है।
बीकानेर जिले के खाजूवाला क्षेत्र में किसानों ने पिछले साल बंजर भूमि पर कहीं-कहीं उगे झाड़ीनुमा साजी के पौधों को जलाकर साजी तैयार की थी। जिसे बीकानेर के पापड़ निर्माताओं 200 रुपए प्रति क्विंटल तक के भाव से खरीदा। इसके साथ ही किसानों को अनुपयोगी समझे माने वाले वाले इस पौधे की अहमियत समझ में आई। किसानों ने साजी के बीज एकत्र किए और डेढ़-दो महीने पहले बंजर भूमि पर बीजों को फेंक दिया। वह पौधे अब खेतों में खड़े नजर आने लगे हैं।
बजंर को बनाता उपजाऊ
साजी का पौधा जिस भूमि पर लगातार दो-तीन साल उग जाता है, उसे उपजाऊ बना देता है। प्रगतिशील किसान शंभूसिंह राठौड़ ने बताया कि लवणीय और पक्की भूमि पर ही पौधा उगता है। पौधा भूमि से नमक को सोखकर अपनी बढ़वार करता है। ऐसे में भूमि से लवणीय मात्रा कम हो जाती है और खेती योग्य भूमि हो जाती है। साजी का पौधा कड़वा होने से इसे कोई पशु भी नहीं खाते।
सरकार के रेकार्ड में नहीं साजी
राज्य सरकार ने साजी की पौधों से बनने वाले कृषि उत्पाद साजी को लेकर कृषि या कृषि उत्पाद में सूचीबद्ध नहीं किया है। पौधे को जलाकर साजी बनती है। अनाज मंडियों की गुड्स (कृषि उत्पाद से बने उत्पाद) में शामिल नहीं है। कृषि अनुंसाधन से जुड़े वैज्ञानिकों को तो मालूम भी नहीं कि साजी क्या है।
बीकानेर में पापड़ उद्योग की सौ से अधिक बड़ी और दर्जनों छोटी इकाइयां हैं। दो साल पहले पाकिस्तान से साजी के निर्यात पर रोक लगाने के बाद पापड़ उद्योग ने साजी के विकल्प के रूप में समुंद्री खार का उपयोग शुरू किया। परन्तु यह प्रयोग सफल नहीं रहा और वापस साजी पर निर्भरता बढ़ गई।
साजी एक तरह का औषधीय पौधा है। इसे जलाने पर निकलने वाले रस को ठंडा करने पर वह काले पत्थर का रूप ले लेता है। जिसके घोल को पापड़ गूंदने के पानी में मिलाया जाता है। साजी से पापड़ कई दिन तक खराब नहीं होते। साथ ही खाने वाले का हाजमा ठीक रहता है। पापड़ में प्राकृतिक स्वाद भी साजी से ही आता है।

ग्लासगो क्लाईमेट पैक्ट के 8 महत्वपूर्ण समझौते

ग्लासगो क्लाईमेट पैक्ट में जिन 8 महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर समझौते हुए हैं, वे हैंः-
1. वैज्ञानिक अध्ययनों से स्थापित मौसम परिवर्तन के खतरनाक परिणामों को स्वीकारते हुए इसके तत्काल समाधान की अनिवार्यता को स्वीकारा गया है।
2. इंटरगवर्नमेंट पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज की चेतावनी को अंगीकृत करते हुए स्थानीय राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नियोजनों को सभी देशों के द्वारा लागू करने हेतु संकल्प किया गया।
3. वित्तीय संकल्प : विकसित देशों से विकासशील देशों के कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण प्रयासों हेतु पर्याप्त निधि उपलब्ध कराने आव्हान किया गया।
4. मिटिगेशन (शमन) प्रयास : यह संकल्प कर स्वीकार किया गया कि पृथ्वी पर तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित करने हेतु 2010 में कार्बन उत्सर्जन की तुलना में 2030 तक 45 प्रतिशत कटौती करना आवश्यक है। इस हेतु विकसित देशों से आव्हान किया है कि विकासशील देशों को आवश्यक तकनीकी और ज्ञान उपलब्ध करावें। इस दिशा में प्रकृति, पारिस्थितिकी के पुनरूत्थान हेतु वन, वन्यजीव, जलचर, थलचर के संरक्षण के साथ जैव विविधता संरक्षण तथा सामाजिक एवं पर्यावरणीय सुरक्षा पर बल दिया गया है।
5. वित्त समर्थन, तकनीकी हस्तांतरण एवं क्षमता विकास द्वारा शमन तथा अंगीकरण को संभव करना : इस संकल्प में कोरोना वायरस के दुष्प्रभावों को संज्ञान में रखते हुए विकसित देशों को 100 बिलियन यूएस डालर की निधि समर्पण हेतु आव्हान किया गया। तकनीकी हस्तांतरण को गतिशील करने एवं क्षमता विकास को भी सक्षम करने हेतु संकल्प लिया गया।
6. क्षति एवं हानि पूर्ति संकल्प : इसे स्वीकार किया गया कि मौसम परिवर्तन के कारण पहले ही बहुत क्षति पहुॅंची है और भविष्य में भी पहुॅंचेगी। तदैवइस क्षति से बचने हेतु स्थानीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय लोगों के योगदान को रेखांकित किया गया। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को क्षतिपूर्ति हेतु बेहतर योगदान का आव्हान किया गया। इस दिशा में पूर्व पारित समझौतों के संकल्पों को रेखांकित किया गया।
7. निष्पादन संकल्प : पिछले वर्षों के समझौतों में 2020 के पूर्व समझौतों को ध्यान में लाते हुए ठोस कदम हेतु संकल्प लिया गया।
8. सहयोग संकल्प : पूर्व के समझौतों को परिदृश्य में रखते हुए राष्ट्रों के बीच सहयोग तथा राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की भागीदारी तथा पहल पर भी बल दिया गया।

अमेज़न के जंगल बचाना धरती की रक्षा के लिए ज़रूरी

यक्तिगत, ब्राज़ील के अमेज़न वर्षा वनों के व्यापक पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इन्हें बचाना सदा ज़रूरी रहा है, पर जलवायु बदलाव के इस दौर में तो यह पूरे विश्व के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इन घने जंगलों में बहुत कार्बन समाता है व इनके कटने से इतने बड़े पैमाने पर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन होगा कि विश्व स्तर के जलवायु सम्बंधी लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। अतः जब ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावन में क्षति की बात होती है तो पूरे विश्व के पर्यावरणविद चौकन्ने हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त अमेज़न वर्षावनों की रक्षा से ब्राज़ील के आदिवासियों का जीवन भी बहुत नज़दीकी तौर पर जुड़ा है। 274 भाषाएं बोलने वाले लगभग 300 आदिवासी समूहों की आजीविका और दैनिक जीवन भी इन वनों से नज़दीकी तौर पर जुड़े हुए हैं।
इस महत्व को देखते हुए ब्राज़ील के 1988 के संविधान में आदिवासी समुदायों के संरक्षित क्षेत्रों की पहचान व संरक्षण की व्यवस्था की गई थी। फुनाय नाम से विशेष सरकारी विभाग आदिवासी हकदारी की रक्षा के लिए बनाया गया। अमेज़न के आदिवासियों को इतिहास में बहुत अत्याचार सहने पड़े हैं, अतः बचे-खुचे लगभग नौ लाख आदिवासियों की रक्षा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जर्मनी और नार्वे की सहायता से इन वनों की रक्षा के लिए संरक्षण कोश भी स्थापित किया गया है।
जहां ब्राज़ील में कुछ महत्वपूर्ण कदम सही दिशा में उठाए गए थे, वहीं दूसरी ओर इससे भी बड़ा सच यह है कि अनेक शक्तिशाली तत्व इन वनों को उजाड़ने के पीछे पड़े हैं। इसमें मांस (विशेषकर बीफ) बेचने वाली बड़ी कंपनियां हैं जो जंगल काटकर पशु फार्म बना रही हैं। कुछ अन्य कंपनियां खनन व अन्य स्रोतों से कमाई करना चाहती हैं। पर इनका सामान्य लक्ष्य यह है कि जंगल काटे जाएं व आदिवासियों को उनकी वन-आधारित जीवन पद्धति से हटाया जाए। इन व्यावसायिक हितों को इस वर्ष राष्ट्रपति पद पर जैर बोल्सोनारो के निर्वाचन से बहुत बल मिला है क्योंकि बोल्सोनारो उनके पक्ष में व आदिवासियों के विरुद्ध बयान देते रहे हैं। बोल्सोनारो के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासी हितों की संवैधानिक व्यवस्था को बहुत कमज़ोर किया गया है तथा वनों पर अतिक्रमण करने वाले व्यापारिक हितों को बढ़ावा दिया गया है।
उपग्रह चित्रों से प्राप्त आरंभिक जानकारी के अनुसार जहां वर्ष 2016 में 3183 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर वन उजड़े थे, वहीं इस वर्ष सात महीने से भी कम समय में 3700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर वन उजड़ गए हैं। वन विनाश की गति और भी तीव्र हो रही है। 2017 में जुलाई महीने में 457 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े थे, जबकि इस वर्ष जुलाई के पहले तीन हफ्तों में ही 1260 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े।
इसके साथ आदिवासी हितों पर हमले भी बढ़ गए हैं। हाल ही में वाइअपी समुदाय के मुखिया की हत्या कर दी गई। इस समुदाय के क्षेत्र में बहुत खनिज संपदा है। इस हत्या की संयुक्त मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कड़ी निंदा की है। इस स्थिति में ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावनों तथा यहां के आदिवासियों की आजीविका व संस्कृति की रक्षा की मांग को विश्व स्तर पर व्यापक समर्थन मिलना चाहिए।
भारत डोगरा

धरती और अंतरिक्ष जहां गायब हो जाता वायुमंडल

पृथ्वी के वायुमंडल में एक अजीबोगरीब घटना देखी गई है। उत्तरी ध्रुव से करीब 250 मील (402 किमी) की ऊंचाई पर एक ‘फनल के आकार का गैप’ मिला है जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में खुलता है और दिन में सिर्फ एक बार ही दिखाई देता है। इसे सिर्फ स्थानीय समयानुसार दोपहर में ही देखा जा सकता है जब सूरज अपने उच्चतम बिंदु पर होता है। हालांकि यह ज्यादा चिंता की बात नहीं है, उत्तर ध्रुव का चुंबकीय क्षेत्र सूर्य के कणों को पृथ्वी तक पहुंचने से रोकता है।
द मिरर में दी गई रिपोर्ट के अनुसार नया गैप सैटेलाइट और स्पेसक्राफ्ट के लिए परेशानी पैदा कर सकता है। इसे देखने वाले नासा के वैज्ञानिकों ने भी देखा है कि इस क्षेत्र में रेडियो और जीपीएस सिग्नल में बाधा पैदा हो रही है। इस गैप के खुलने पर इस क्षेत्र से गुजरने वाला कोई भी विमान धीमा हो जाता है। नासा ने कहा है कि वह इसके पीछे के कारणों की खोज कर रहे हैं लेकिन अभी तक उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली है।
विमान महसूस करते हैं खिंचाव
इसके लिए नार्वे से एक साउंडिंग राकेट को शूट करके परीक्षण किया जाएगा। यूनिवर्सिटी आफ अलास्का फेयरबैंक्स के प्रमुख जांचकर्ता और भौतिकविद मार्क कोंडर ने कहा है कि धरती से 250 मील की ऊंचाई पर उड़ते वक्त स्पेसक्राफ्ट जब इस क्षेत्र से गुजरते हैं तो वह अधिक खिंचाव महसूस करते हैं जैसे वह किसी स्पीड ब्रेकर से टकरा गए हों। नासा के मुताबिक आयनमंडल में विद्युत और चुंबकीय प्रभाव इस गैप का एक प्रमुख कारण हो सकता है।
ओजोन परत में सबसे बड़ा छेद
कुछ दिनों पहले खबर आई थी कि धरती के दक्षिणी ध्रुव पर हर साल ओजोन परत में छेद बनता है, लेकिन इस साल यह अंटार्कटिका से ज्यादा बड़ा है। यूरोपियन यूनियन की कापरनिकस अटमास्फीरिक मानिटरिंग सर्विस ने गुरुवार को इसका खुलासा किया। हर साल अगस्त से अक्टूबर के बीच ओजोन की मात्रा कम होती है और अंटार्कटिक के ऊपर यह छेद दिखता है।
कापरनिकस के मुताबिक अमूमन इसका सबसे बड़ा आकार सितंबर के मध्य से अक्टूबर के मध्य तक रहता है। इस बार यह काफी बड़ा हो गया है। नेचर में छपी एक स्टडी में कहा गया था कि अगर मांट्रियल प्रोटोकाल के तहत ब्थ्ब्े पर बैन नहीं लगाया गया होता तो वैश्विक तापमान 2.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की ओर होता और ओजोन की परत खत्म होने लगती।