बातचीत में हम ‘फ’ और ‘व’ अक्षरों का आसानी से उच्चारण कर लेते हैं। लेकिन एक समय था जब इन अक्षरों का उच्चारण करना इतना आसान न था, बल्कि ये अक्षर तो भाषा में शामिल भी नहीं थे। हाल ही में नेचर इंडिया में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि मानवों में ‘फ’ और ‘व’ बोलने की क्षमता, खेती के फैलने और मानवों द्वारा पका हुआ भोजन खाने की संस्कृति की बदौलत विकसित हुई है। 1985 में अमेरिकी भाषा विज्ञानी चार्ल्स हाकेट ने इस ओर ध्यान दिलाया था कि हज़ारों वर्ष पहले शिकारियों की भाषा में दंतोष्ठ्यध्वनियां शामिल नहीं थीं। उनका अनुमान था कि इन अक्षरों की कमी के लिए आंशिक रूप से उनका आहार ज़िम्मेदार था। उनके अनुसार खुरदरा और रेशेदार भोजन चबाने से जबड़ों पर ज़ोर पड़ता है जिसके कारण दाढ़ें घिस जाती हैं। इसके फलस्वरूप निचला जबड़ा बड़ा हो जाता है। इस तरह धीरे-धीरे ऊपरी और निचला जबड़ा और दांत एक सीध में आ जाते हैं। दांतों की इस तरह की जमावट के कारण ऊपरी जबड़ा नीचे वाले होंठ को छू नहीं पाता। दंतोष्ठ्यध्वनियों के उच्चारण के लिए ऐसा होना ज़रूरी है।
डैमियल ब्लैसी और स्टीवन मोरान और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में चार्ल्स हॉकेट के इस विचार को जांचा। अध्ययन के अनुसार मानव द्वारा मुलायम (पका हुआ) भोजन खाने से जबड़ों पर कम दबाव पड़ा। कम दबाव पड़ने के कारण उनका ऊपरी जबड़ा निचले जबड़े की सीध में न होकर निचले जबड़े को थोड़ा ढंकने लगा। जिसके कारण इन ध्वनियों को बोलने में आसानी होने लगी और भाषा में नए शब्द जुड़े। अध्ययनकर्ताओं ने हॉकेट के विचार को जांचने के लिए कंप्यूटर माडलिंग की मदद ली। इसकी मदद से उन्होंने यह दिखाया कि ऊपरी और निचले दांतों के ठीक एक के ऊपर एक होने की तुलना में जब ऊपरी और निचले दांत ओवरलैप (ऊपरी जबड़ा निचले जबड़े को ढंक लेता है) होते हैं तो दंतोष्ठ्य (फ और व) ध्वनि के उच्चारण में 29 प्रतिशत कम ज़ोर लगता है। इसके बाद उन्होंने दुनिया की कई भाषाओं की जांच की। उन्होंने पाया कि कृषि आधारित सभ्यताओं की भाषा की तुलना में शिकारियों के भाषा कोश में सिर्फ एक चौथाई दंतोष्ठ्यअक्षर थे। इसके बाद उन्होंने भाषाओं के बीच के सम्बंध को देखा और पाया कि दंतोष्ठ्यध्वनियां तेज़ी से फैलती हैं। इसी कारण ये अक्षर अधिकांश भाषाओं में मिल जाते हैं। इस अध्ययन के नतीजे इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि जीवन शैली में बदलाव हमें कई तरह से प्रभावित कर सकते हैं, ये हमारी भाषा को भी प्रभावित कर सकते हैं।
पिघलते एवेरस्ट ने कई राज उजागर किए
माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचना हमेशा से एक बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इसके शिखर पर पहुंचने का रास्ता जितना रहस्यों से भरा है उतना ही बाधाओं से भी भरा है। गिरती हुई बर्फ, उबड़ खाबड़ रास्ते, कड़ाके की ठंड और अजीबो-गरीब ऊंचाइयां इस सफर को और चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। अभी तक जहां लगभग 5,000 लोग सफलतापूर्वक पहाड़ की चोटी पर पहुंच चुके हैं, वहीं ऐसा अनुमान है कि 300 लोग रास्ते में ही मारे गए हैं।
पर्वतारोहियों के अनुसार अगर उनका कोई साथी ऐसे सफ़र के दौरान मर जाता है तो वे उसको पहाड़ों पर ही छोड़ देते हैं। तेज़ ठंड और बर्फबारी के चलते शव बर्फ में ढंक जाते हैं और वहीं दफन रहते हैं। लेकिन वर्तमान जलवायु परिवर्तन से शवों के आस-पास की बर्फ पिघलने से शव उजागर होने लगे हैं।
पिछले वर्ष शोधकर्ताओं के एक समूह ने एवरेस्ट की बर्फ को औसत से अधिक गर्म पाया। इसके अलावा चार साल से चल रहे एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि बर्फ पिघलने से पर्वत पर तालाबों के क्षेत्र में विस्तार भी हो रहा है। यह विस्तार न केवल हिमनदों के पिघलने से हुआ है बल्कि नेपाल में खम्बु हिमनद की गतिविधि के कारण भी हुआ है। अधिकांश शव पहाड़ के सबसे खतरनाक क्षेत्रों में से एक, खम्बु में जमे हुए जल प्रपात वाले इलाके में पाए गए। वहां बर्फ के बड़े-बड़े खंड अचानक से ढह जाते हैं और हिमनद प्रति दिन कई फीट नीचे खिसक जाते हैं। 2014 में, इस क्षेत्र में गिरती हुई बर्फ के नीचे कुचल जाने से 16 पर्वतारोहियों की मौत हो गई थी।
पहाड़ से शवों को निकालना काफी खतरनाक काम होने के साथ कानूनी अड़चनों से भरा हुआ है। नेपाल के कानून के तहत वहां किसी भी तरह का काम करने के लिए सरकारी एजेंसियों को शामिल करना आवश्यक होता है। एक बात यह भी है कि ऐसे पर्वतारोही शायद चाहते होंगे कि यदि एवरेस्ट के रास्ते में जान चली जाए तो उनके शव को वहीं रहने दिया जाए।
ब्लैक होल की मदद से अंतरिक्ष यात्रा
किसी कल्पित एलियन सभ्यता द्वारा यात्रा करने के तरीके क्या होंगे? कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक खगोल विज्ञानी ने कुछ अटकल लगाई है। उनके अनुसार एलियन इसके लिए बायनरी ब्लैक होल पर लेज़र से गोलीबारी करके ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं। गौरतलब है कि बायनरी ब्लैक होल एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं। दरअसल, यह नासा द्वारा दशकों से इस्तेमाल की जा रही तकनीक का ही उन्नत रूप है। फिलहाल अंतरिक्ष यान सौर मंडल में ग्रेविटी वेल का उपयोग गुलेल के रूप में करके यात्रा करते हैं। पहले तो अंतरिक्ष यान ग्रह के चारों ओर परिक्रमा करते हैं और अपनी गति बढ़ाने के लिए ग्रह के करीब जाते हैं। जब गति पर्याप्त बढ़ जाती है तो इस ऊर्जा का उपयोग वे अगले गंतव्य तक पहुंचने के लिए करते हैं। ऐसा करने में वे ग्रह के संवेग को थोड़ा कम कर देते हैं, लेकिन यह प्रभाव नगण्य होता है।
यही सिद्धांत ब्लैक होल के आसपास भी लगाया जा सकता है। ब्लैक होल का गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है। लेकिन यदि कोई फोटान ब्लैक होल के नज़दीक एक विशेष क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो वह ब्लैक होल के चारों ओर एक आंशिक चक्कर पूरा करके उसी दिशा में लौट जाता है। भौतिक विज्ञानी ऐसे क्षेत्रों को ‘गुरुत्व दर्पण’ और ऐसे लौटते फोटॉन को ‘बूमरैंग फोटान’ कहते हैं। बूमरैंग फोटान पहले से ही प्रकाश की गति से चल रहे होते हैं, इसलिए ब्लैक होल के पास पहुंचकर उनकी गति नहीं बढ़ती बल्कि उन्हें ऊर्जा प्राप्त हो जाती है। फोटॉन जिस ऊर्जा के साथ गुरुत्व दर्पण में प्रवेश लेते हैं, उससे अधिक उर्जा उनमें आ जाती है। इससे ब्लैक होल के संवेग में ज़रूर थोड़ी कमी आती है।
कोलंबिया के खगोलविद डेविड किपिंग ने आर्काइव्स प्रीप्रिंट जर्नल में प्रकाशित एक पेपर में बताया है कि यह संभव है कि कोई अंतरिक्ष यान किसी बायनरी ब्लैक होल सिस्टम पर लेज़र से फोटॉन की बौछार करे और जब ये फोटॉन ऊर्जा प्राप्त कर लौटें तो इनको अवशोषित कर अतिरिक्त ऊर्जा को गति में परिवर्तित कर दे। पारंपरिक लाइटसेल की तुलना में यह तकनीक अधिक लाभदायक होगी क्योंकि इसमें ईंधन की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इस तकनीक की भी सीमाएं हैं। एक निश्चित बिंदु पर अंतरिक्ष यान ब्लैक होल से इतनी तेज़ी से दूर जा रहा होगा कि वह अतिरिक्त गति प्राप्त करने के लिए पर्याप्त प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित नहीं कर पाएगा। अंतरिक्ष यान से पास के किसी ग्रह पर लेज़र को स्थानांतरित करके इस समस्या को हल करना संभव हैः लेज़र को इस तरह सटीक रूप से निशाना लगाया जाए कि यह ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण से निकल कर अंतरिक्ष यान से टकराए। किपिंग के अनुसार हो सकता है आकाशगंगा में कोई ऐसी सभ्यता हो जो यात्रा के लिए इस तरह की प्रणाली का उपयोग कर रही हो।