हम कुछ ऐसे तारों से परिचित हैं, जो पृथ्वी से अधिक बड़े नहीं हैं। परन्तु अधिकांश तारे इतने बड़े होते हैं कि हर एक में सैकड़ों, हजारों पृथ्वियां समा सकती हैं और तब भी उनमें खाली स्थान बचा रहेगा। कहीं-कहीं तो लाखों-करोंड़ों पृथ्वियों को समा सकने वाले महाकाय तारे भी हैं। इस विश्व के तारों की कुल संख्या संसार के सारे समुद्र तटों में फैले हुए रेत कणों की कुल संख्या के बराबर होगी। विश्व के समस्त पदार्थ की तुलना में इतना लघु और नगण्य है हमारी पृथ्वी का अस्तित्व।
ये असंख्य तारे अंतरिक्ष में विचरते रहते हैं। उनमें कुछ तारे साथ-साथ समूहों में घूमते हैं। पर उनमें से अधिकांश अकेले ही घूमते हैं। ये ऐसे विस्तुत अंतरिक्ष में भ्रमण करते हैं कि किसी एक तारे की, दूसरे के निकट आने की संभावना बहुत कम है। अपनी यात्रा के एक बड़े भाग तक हर एक तारा उसी प्रकार पूर्णतया एकांत में विचरता रहता है, जैसे महासागर पर एक अकेला जहाज। यदि हम तारों के स्थान पर जहाजों की कल्पना करें तो एक साधारण जहाज अपने निकटतम जहाज से दस लाख मील से भी अधिक दूर होगा और इससे यह समझना आसान हो जाता है कि एक जहाज के पास कहीं कोई दूसरा जहाज क्यों नहीं दिखाई देता।
विश्वास किया जाता है कि दो सौ करोड़ वर्ष पहले एक ऐसी असाधारण घटना घटी की निरूदेश्य अंतरिक्ष में घूमने वाला कोई दूसरा तारा संयोग से सूर्य के निकट आ पहुॅंचा। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा पृथ्वी पर ज्वार-भाटा उत्पन्न करते हैं, वैसे ही इस दूसरे तारे में सूर्य के तल पर ज्वार-भाटे उत्पन्न किए होंगे। परन्तु हमार पृथ्वी के महासागरों पर लघु द्रव्यमान वाले चन्द्रमा के कारण उत्पन्न होने वाले क्षुद्र ज्वार-भाटों से तो ये सर्वथा भिन्न होंगे। सूर्य के तल पर ज्वार की एक विशाल तरंग उठी होगी आर वह अंत में ऊॅंचा पर्वत सा बन गई होगी, जो इस क्षोभ उत्पन्न करने वाले तारे के निकट आने के साथ-साथ अधिक ऊॅंचा बनता गया होगा और उस तारे के दूर हटने से पहले उसका ज्वार-बल इतना अधिक हो गया होगा कि यह पहाड़ छिन्न-भिन्न हो गया और उसके टुकड़े ठीक उसी तरह बिखरे होंगे, जैसे एक तरंग श्रृंग से फुहार निकलती है। ये छोटे-छोटे टुकड़े उसी समय से अपने जन्मदाता सूर्य के चारों ओर घूमते आ रहे हैं। ये ही अंत में विभिन्न आकार के ग्रह बन गए, जिनमें से हमारी पृथ्वी भी एक है।
सूर्य और दूसरे तारे जो आकाश में दिखाई देते हैं, अत्यधिक गरम होते हैं। ये इतने अधिक गरम हैं कि प्राणियों का वहां पहुॅंचना या जीवित रहना असंभव है। यही हाल उन टुकड़ों का भी रहा होगा, जब कि पहले-पहल वे बिखरे होंगे। धीरे-धीरे वे ठंडे होते गए और अंत में अब तो उनकी आंतरिक ऊष्मा बिल्कुल समाप्त हो गई है और उन्हें ऊष्मा केवल सूर्य के विकिरणों से ही प्राप्त होती है। कालांतर में न मालूम कैसे, कब और क्यों ऐसा हुआ कि उन्हीं ठंडे होने वाले खंडों में से किसी एक में जीवों की उत्पत्ति हुई। उसका आरंभ ऐसे छोटे जीवधारियों से हुआ होगा, जिनकी प्राण-भूत शक्तियां प्रजनन और मरण इन दो क्रियाओं तक ही सीमित थीं। परन्तु इन्हीं प्रारंभिक छोटे जीवधारियों में से एक ऐसा क्रम निकला जा अधिकाधिक जटिल होता हुआ, उन जीवों तक पहुॅंच गया है, जिनका जीवन मुख्यतः उनकी भावनाओं, अभिलाषाओं, सौंदर्य बोध और ऐसे धर्मों में केन्द्रित हुआ, जिनमें उनकी उच्चतम आकांक्षाएं और श्रेष्ठतम आदर्श विद्यमान हैं।
यद्यपि हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते, फिर भी यह मानना अधिक उपयुक्त मालूम होता है कि ऐसी ही किसी रीति से मानव का आर्विभाव हुआ होगा। बालू के कण जैसी अपनी इस क्षुद्र पृथ्वी पर खड़े होकर हम अपने चारों ओर स्थित ब्रह्मांड के स्वरूप और उद्देश्य को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं। पहले तो हम इससे भयभीत से हो जाते हैं।
विश्व के भयानक लगने का कारण यह है कि वह अत्यधिक विशाल है। उसकी व्यापकता हमें अर्थहीन मालूम होती है और उसकी काल अवधि इतनी वृहत और अग्राह्य है कि इसमें मानव इतिहास का काल निमिपवत सूक्ष्म हो जाता है, और इस विस्तृत ब्रह्मांड में हम अकेलेपन का अनुभव करते हैं।
इस विशाल अंतरिक्ष की व्याप्ति में हमारी पृथ्वी इतनी क्षुद्र है कि उसका अस्तित्व संसार के समुद्र तटों की समस्त बालू की राशि में एक रेत कण का भी दस लाखंवां भाग मात्र होगा। इन सबसे बढ़कर यह विश्व इसलिए भयानक लगता है कि वह हमारे जैसे जीवों के प्रति उदासीन प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि हमारी भावनाएं, अभिलाषाएं, साध्ना, संसिद्धियां, कला और धर्म इन सबका इस ब्रह्मांड के क्रम में कोई स्थान नहीं है।
कदाचित हमें ऐसा कहना पड़ेगा कि वह हमारे जीवन में सक्रिय रूप से बाधक है। रिक्त अंतरिक्ष का अधिकांश भाग इतना ठंडा है कि उसमें किसी भी तरह का प्राणी ठंड से जम जाएगा और अंतरिक्ष का अधिकांश पदार्थ इतना गरम है कि उसमें प्राणियों का जीवित रहना भी असंभव है। इसके अतिरिक्त अंतरिक्ष विभिन्न प्रकार के ऐसे विकिरणों से भरा पड़ा है, जो खगोलीय ग्रहों पर निरंतर पड़ते रहते हैं और इनमें से अधिकांश जीवों के लिए प्रतिकूल और संभवतः विनाशकारी भी हैं।
ऐसे एक विश्व में हम यदि गलती से नहीं तो किसी आकस्मिक घटना के फलस्वरूप ही आ पड़े हैं। पृथ्वी के अस्तित्व के संबंध में ‘आकस्मिक’ शब्द के प्रयोग में विस्मय का कोई कारण नहीं, क्योंकि आकस्मिक घटनाएं घटेंगी ही और अगर यह विश्व काफी लम्बे समय तक बना रहा तो समय के प्रवाह में सब तरह की संभाव्य आकस्मिक घटनाएं घट सकती हैं।
मेरे विचार में हक्सले ने ठीक ही कहा था कि यदि छःह बंदर टाइप की मशीन पर लाखों-करोड़ों वर्ष निरूद्देश्य उछलते रहें तो कालांतर में वे निश्चय ही ब्रिटिश म्युजियम के समस्त ग्रंथ छाप डालेंगे। यदि हम विशेषकर किसी एक बंदर के छापे हुए अंतिम पृष्ठ की परीक्षा करें और उसकी विचारहीन छपाई में संयोगवश शेक्सपीयर का एक सानेट छपा हुआ पाएं तो हम उसे एक उल्लेखनीय आकस्मिक घटना मानेंगे। लेकिन यदि हम उन बंदरों के करोड़ों वर्षों में छापे हुए करोड़ों पृष्ठों को देखते जाएं तो हम उनमें कहीं न कहीं, संयोग मात्र से उत्पन्न, शेक्सपियर का एक सानेट आवश्य देख पाएंगे।
उसी प्रकार अंतरिक्ष में लाखों, करोड़ों वर्षों से अंधाधुंध भटकते रहने वाले लाखों करोड़ों तारों को भी हर प्रकार की घटना का सामना करना ही होगा। उनमें परिमित संख्या में कुछ तारे अवश्य उस विशेष प्रकार की दुर्घटना का सामना करेंगे, जिससे ग्रह-निकायों की उत्पत्ति होती है। फिर भी हिसाब लगाने पर मालूम होता है कि आकाश के तारों की कुल संख्या से तुलना करने पर इनकी संख्या बहुत कम होगी और ग्रह-निकाय अंतरिक्ष में अत्यधिक विरले ही होंगे।
ग्रहों के निकायों का इतना कम होना बड़े महत्व का है, क्योंकि जहॉं तक हमें ज्ञात है, पृथ्वी जैसे ग्रहों में ही जीवों की उत्पत्ति हो सकती है। उनके आविर्भाव के लिए उपयुक्त भौतिक परिस्थितियां अपेक्षित हैं, जिनमें सबसे प्रधान एक ऐसा तापमान है, जिसमें पदार्थ तरल अवस्था में रह सकते हैं।
अत्यधि गरम होने के कारण तारे भी उसके अनुकूल नहीं हैं। तारों को हम सारे अंतरिक्ष में बिखरे हुए बड़े-बड़े अग्निपिंड मान सकते हैं। अंतरिक्ष का ताप ज्यादा-से-ज्यादा परम शून्य से चार डिग्री अधिक होगा (अर्थात् फारेनहाइट तापमान में हिमांक से लगभग -18.1 डिग्री) और आकाशगंगा (मिल्कीवे) से परे तो तापमान और भी कम होता है। ये तारे विस्तृत अंतरिक्ष में भी ऊष्मा प्रदान करते हैं। अग्नि पिंडों से दूर ऐसी अत्यधिक ठंड होती, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। लेकिन उनके निकट तो हजारों डिग्री का ताप होता है, जिसमें सभी ठोस पदार्थ पिघल जाएंगे और द्रव पदार्थ उबलने लगेंगे।
जीवन का अस्तित्व एक संकीर्ण शीतोष्ण क्षेत्र में ही संभव है, जो इन अग्नि पिंडों के चारों ओर एक निश्चित दूरी पर स्थित रहता है। इस क्षेत्र के बाहर कोई भी जीव ठंड से जम जाएगा और इसके अंदर झुलस जाएगा। मोटे तौर पर गणना करने से पता चलता है कि जीवन की संभावना वाले समस्त क्षेत्रों का आयतन सारे अंतरिक्ष के सौ लाख करोड़वें भाग से भी कम ही होगा और इन क्षेत्रों में से भी बहुत कम ऐसे होंगे, जिनमें प्राणी का अस्तित्व हो। क्योंकि हमारे सूर्य से जैसे ग्रह बने हैं, उस सूर्य के चारों ओर शीतोष्ण कटिबंध में निवास करने वाले अर्वाचीन युग के हम लोग भी दूर भविष्य की ओर झांकने पर एक दूसरे प्रकार के हिमयुग को उतरता हुआ देखते हैं।
टंटालस के एक ऐसे तालाब में खड़े होने पर भी, जो इतना गहरा था कि वह केवल डूबने से बच सकता था, उसके भाग्य में यही लिखा था कि वह प्यास के मारे मर जाए। उसी तरह मानव जाति के भाग्य में भी यही शोकमय भविष्य लिखा है कि वह शीत में ठिठुर कर मर जाए। जबकि विश्व का अधिकांश पदार्थ इतना अधिक गरम है कि वहां जीवों की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। बाहर से ऊष्मा प्राप्ति का कोई उपाय न होने के कारण सूर्य से जीवनदायक विकिरण का उत्सर्जन कम होता जाएगा और ऐसी अवस्था में शीतोष्ण कटिबंध, जहॉं जीवन का अस्तित्व हो सकता है, सूर्य के समीपतर होता जाएगा। जीवन के लिए उपयुक्त आवास बने रहने के लिए हमारी पृथ्वी को सदा ह्रासमान सूर्य के अधिकाधिक निकट आते रहना होगा।
तथापि विज्ञान से पता चलता है कि अंदर की दिशा में चलने के बजाए, पृथ्वी निमर्म गतिक नियमों के अनुसार अब भी सूर्य से दूर, बहुत दूर बाहरी शीत और अंधकार की ओर धकेली जा रही है। जहॉं तक अनुमान है कि यह क्रम तब तक चलता रहेगा, जब तक कि ठंड से पृथ्वी पर समस्त जीवों का अंत न हो जाए या किसी खगोलीय टक्कर अथवा महा-प्रलय से पृथ्वी के समस्त जीव अधिक द्रुत गति से और पहले ही नष्ट न हो जाएं। यह भविष्य केवल हमारी ही पृथ्वी का विशेष दुर्भाग्य नहीं है, दूसरे सूर्यों का भी हमारे सूर्य की ही तरह अंत होगा और दूसरे ग्रहों में भी जो भी जीव होंगे, उनके भाग्य में भी यही बदा है।
भौतिकी से भी वही सब पता चलता है, जो खगोल विज्ञान से। क्योंकि खगोलीय विचारों से अलग, सामान्य भौतिक नियम अर्थात ऊष्मा-गतिकी का द्वितीय नियम यह भविष्यवाणी करता है कि विश्व का अंत एक ही प्रकार से हो सकता है। वह है ऊष्णता से मृत्यु, जिसमें विश्व की समस्त ऊर्जा समान रूप से वितरित होगी और विश्व का समस्त पदार्थ एक ही तापमान पर होगा। यह तापमान इतना कम होगा कि जीवन असंभव हो जाएगा। इसका कोई महत्व नहीं है कि यह स्थिति किस प्रकार आएगी। ‘‘सभी मार्ग रोम को ही जाते हैं’’ और यात्रा का अंत सर्वव्यापी मृत्यु के सिवा और कुछ नहीं हो सकता।
संजय गोस्वामी
यमुना जी/13, अणुशक्ति नगर, मुॅंबई-94