किसी देश की समृद्धि में उस देश में मिलने वाले खनिज पदार्थों का बहुत महत्त्व होता है। यदि मिलने वाले खनिज पदार्थों का विवेकपूर्ण दोहन किया जाए, तो वे उस देश को समृद्ध बना सकते हैं, लेकिन इसके विपरीत, यदि खनिज पदार्थों का अत्यधिक दोहन किया जाए, तो वे उस भूभाग को नष्ट भी कर डालते हैं। नारू, जो विश्व का सबसे छोटा गणतांत्रिक देश है और जिसकी कोई राजधानी और अपनी मुद्रा तक नहीं है, कभी विश्व का एक समृद्ध देश माना जाता था और इसका कारण था, वहाँ पर यहाँ पाया जाने वाला फास्फेट नामक खनिज।
क्या नारू अपनी इस समृद्धि का आनंद उठा पाया? कहाँ पर स्थित है नारू नामक ये छोटा-सा देश और आज किस स्थिति में है? भारत-प्रशांत द्वीपीय सहयोग शिखर सम्मेलन के कारण दक्षिणी प्रशांत महासागर में स्थित, जिन छोटे-छोटे द्वीपीय देशों का नाम चर्चा में रहने लगा है, उनमें से ही एक देश है नारू।
नारू अथवा नारू गणराज्य वेटिकन सिटी और मोनैको के बाद दुनिया का तीसरा सबसे छोटा देश है। साथ ही यह दुनिया का सबसे छोटा द्वीपीय राष्ट्र भी है, जो केवल एक द्वीप पर बसा हुआ है। इसका क्षेत्रफल मात्र 21 वर्ग किलोमीटर है। नारू गणराज्य की वर्तमान जनसंख्या चौदह हज़ार चार सौ के लगभग है, लेकिन क्षेत्रफल के अनुसार यहाँ जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक बैठता है।
नारू दक्षिणी प्रशांत महासागर में स्थित है। नारू प्रशांत महासागर में स्थित मार्शल आइलैंड्स, किरीबाती, तुवालू, सोलोमन आइलैंड्स, पापुआ न्यू गिनी आदि द्वीपीय देशों से घिरा हुआ है, लेकिन ये सभी द्वीप इससे सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। इसके सबसे पास किरीबाती गणराज्य का एक द्वीप है। किरीबाती गणराज्य का बनाबा नामक द्वीप भी नारू से 300 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। आस्ट्रेलिया के सिडनी से नारू की दूरी 4,000 किलोमीटर है।
31 जनवरी सन् 1968 को स्वतंत्र होने वाला नारू गणराज्य विश्व का सबसे छोटा स्वतंत्र गणराज्य है। पहले इसे प्लेजंट आइलैंड के नाम से जाना जाता था। सन् 1798 में ब्रिटिश कप्तान जार्ज फ़र्न अपने व्यापारिक जलयान हंटर द्वारा यहाँ पहुँचे थे और इस द्वीप की आकर्षक स्थिति के कारण, उन्होंने इसे प्लेजंट आइलैंड नाम दिया था। इसका कारण था यहाँ के लोगों का जीवन।
दुनिया से दूर समुद्र के बीच की धरती पर, वे आराम से अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। नारू को क़रीब तीन हज़ार साल पहले माइक्रोनेशियंस और पालिनेशियंस द्वारा आबाद किया गया था। पारंपरिक रूप से यहाँ बारह क़बीलों का आधिपत्य था। आज यहाँ अधिकतर लोग ईसाई धर्म को मानते हैं और साथ ही ऐसे लोग भी हैं, जो किसी भी धर्म को नहीं मानते।
नारू में अंग्रेज़ी के अतिरिक्त नारुई अथवा नारुअन भाषा का प्रयोग किया जाता है। नारू गणराज्य की अपनी कोई मुद्रा नहीं है। नारू की मुद्रा आस्ट्रेलियन डालर है। यह विश्व का एकमात्र ऐसा गणतांत्रिक राष्ट्र भी है, जिसकी कोई राजधानी भी नहीं है। जिस देश का कुल क्षेत्रफल ही 21 वर्ग किलोमीटर हो, उस देश में कोई बड़ा शहर कहाँ से आएगा और राजधानी कहाँ बनेगी? दुनिया का सबसे छोटा देश वेटिकन सिटी है और वेटिकन सिटी ही उसकी राजधानी भी है। ऐसे ही दुनिया का दूसरा सबसे छोटा देश मोनैको है। उसकी राजधानी भी मोनैको ही है।
नारू गणतंत्र वेटिकन सिटी और मोनैको के बाद दुनिया का तीसरा सबसे छोटा देश है। यारेन को नारू गणतंत्र का सबसे बड़ा नगर माना जाता है। नारू का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, यहाँ का संसद भवन व सरकारी कार्यालय सब यहीं पर स्थित हैं, अतः यारेन को नारू गणराज्य की अनाधिकारिक राजधानी कहा जा सकता है। नारू एक गणतांत्रिक राष्ट्र है, जिसकी एक संसद है। नारू की संसद को भी आठ निर्वाचन क्षेत्रों में बाँटा गया है। प्रशासन की दृष्टि से नारू को चौदह ज़िलों में विभाजित किया गया है। यारेन भी उनमें से एक ज़िला है।
नारू के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम है नारू इंटरनेशनल एयरपोर्ट। यही इसे पूरी दुनिया से जोड़े हुए है। अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा होने के बावजूद नारू में आने वाले विदेशी पर्यटकों की संख्या बहुत ही कम रहती है। एक वर्ष में दो सौ से भी कम पर्यटक यहाँ पहुँचते हैं। नारू में पर्यटकों के न पहुँचने का कारण है इसकी स्थिति।
संसार की मुख्य आबादी अर्थात् महाद्वीपों से ये बहुत दूर स्थित है, अतः यहाँ पहुँचना मुश्किल ही नहीं बहुत महँगा भी पड़ता है। साथ ही पर्यटकों के लिए भी किसी प्रकार का कोई आकर्षण यहाँ नहीं है। अत्यधिक खनन के कारण यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य भी नष्ट हो चुका है। नारू में न नदी-नाले ही हैं और न कोई झील अथवा पर्वत ही। यहाँ स्थित कमांड रिज नामक पठार की समुद्र तल से ऊँचाई मात्र 71 मीटर है। पीने का पानी तक यहाँ नहीं मिलता। प्राकृतिक संसाधनों का पूर्णतः अभाव ही है। ऐसे में इस छोटे-से देश की अर्थव्यवस्था चले तो कैसे चले? इसी कारण इसे दुनिया के सबसे पाँच ग़रीब देशों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया जाता है।
आज नारू की स्थिति दयनीय है, लेकिन एक समय था जब ये छोटा-सा द्वीपीय देश दुनिया के समृद्ध देशों में गिना जाता था। इसका कारण था यहाँ पाया जाने वाला फास्फेट नामक खनिज। फास्फेट के कारण ही नारू की अर्थव्यवस्था में वृद्धि हुई और नारू के लोगों के जीवन में समृद्धि आई, लेकिन नारूवासी अपनी इस समृद्धि को पचा नहीं पाए। उन्होंने रोज़ सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को मारकर एक ही दिन सारे अंडे निकालने का प्रयास किया, जो अव्यावहारिक था। यहाँ इतने बड़े पैमाने पर खनन कार्य हुआ, कि सब तहस-नहस हो गया।
फास्फेट के खनन व निर्यात से उत्पन्न समृद्धि से उन्होंने न केवल द्वीप का विकास प्रारंभ किया, अपितु व्यक्तिगत उपभोग के लिए भी विदेशों से खाद्य सामग्री और दूसरी विलासिता की वस्तुओं का आयात बड़े पैमाने पर किया। इसके लिए स्वयं की एयरलाइन भी स्थापित की। लेकिन हर चीज़ की एक सीमा होती है। अत्यधिक खनन के कारण कुछ दशकों के उपरांत ही फास्फेट के भंडार समाप्त हो गए और नारू की स्थिति दयनीय हो गई।
फास्फेट का इस्तेमाल उर्वरक बनाने के लिए किया जाता है। दुनिया की धरती को उर्वर बनाने के लिए नारू के फास्फेट का इस्तेमाल किया गया, लेकिन अत्यधिक खनन के कारण आज स्वयं नारू की ज़मीन में कुछ नहीं उगता। जैवविविधता की दृष्टि से भी नारू की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। फास्फेट के अत्यधिक खनन के कारण न केवल यहाँ की ज़मीन पर बुरा असर पड़ा, अपितु जैवविविधता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
जीव-जंतुओं व वनस्पतियों की अनेक प्रजातियाँ नष्ट अथवा विलुप्त हो गईं। ज़मीन ही नहीं समुद्र तट तक प्रदूषित हो गए। नारू का एकमात्र उपजाऊ क्षेत्र एक संकरी तटीय पट्टी है, जहाँ नारियल के पेड़ उगते हैं। बुआडा लैगून के आसपास की ज़मीन पर केले, अनानास, पपीते, अमरूद, ब्रेडफ्रूट, पैंडेनस और कुछ सब्ज़ियाँ उगती हैं, लेकिन ये सब वहाँ के लोगों की आवश्यकता को पूरा करने अथवा नारू की अर्थव्यवस्था को ठीक-ठाक बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं।
आज नारू के लोग अपनी ख़राब हुई ज़मीन को सुधारने में लगे हुए हैं, जो असंभव तो नहीं, लेकिन कठिन अवश्य है। धरती पर जैवविविधता को नष्ट होने से बचाए रखने के लिए पूरी दुनिया को नारूवासियों की अदूरदर्शिता से सबक़ लेना चाहिए।
- सीताराम गुप्ता,
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