मौसम परिवर्तन संकट पर जनसंख्या का दुष्योगदान

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दिनांक 14 दिसम्बर 2021 को रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर में इंडियन पब्लिक एडमिनेस्ट्रशन एसोसियेशन के समक्ष गोष्ठी में प्रस्तुत विचारों पर आधारित लेख)

मौसम परिवर्तन (क्लाईमेट चेंज) के सम्बन्ध में, मेरा यह लेख अपने अनुभव पर आधारित मौलिक भाव है। इंटरनेट की दुनिया, अंतर्राष्ट्रीय समाचार, दूरदृश्य इत्यादि माध्यमों पर उपलब्ध जानकारी एवं ज्ञान के साथ अपने जीवनकाल के कठोर अनुभवों के आधार पर, इस विषय पर मेरे भाव व्यक्त हैं।
सबसे पहले संक्षेप में ये समझते हैं कि, क्लाईमेट चेंज क्या है? क्लाईमेट चेंज क्यों हो रहा है? और इसे हम कैसे नियंत्रित कर सकते हैं? इसके कारणों में जाने पर पाते हैं कि कुछ तो ‘‘प्राकृतिक कारण’’ हैं, जिनमें हम कुछ भी हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
परन्तु, अन्य जो ‘‘मानव निर्मित कारण’’ हैं, उनमें हम हस्तक्षेप अवश्य कर सकते हैं। क्योंकि वे हमारे द्वारा निर्मित हैं और हमें उन कारणों को समाप्त करने के लिए कोषिष करना बहुत जरूरी है। आज अंतर्राष्ट्रीय प्रयास जो चल रहे हैं, वे उसी दिषा में हैं। ये कोषिष, 1960 से 1970 के दशक में वैज्ञानिकों को तापमान में वृद्धि के दृढ़ संकेत प्राप्त हुए, उसके बाद इंटरगवर्नमेंट पैनल आन क्लाईमेट चेंज ने 1990 के दशक में अपने प्रतिवेदन में सुनिश्चित किया कि ग्लोबल वार्मिंग ग्रीन हाउस इमीषन के कारण हो रही है।
1994 में सम्पन्न क्योटो प्रोटोकाल की बैठक में इस पर गंभीरता से चिंतन आरंभ हुआ। उसके बाद UNFCCC की शुरूआत हुई। तब से अभी तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी देषों के प्रमुखें द्वारा राजनीतिक समझौतों के द्वारा ये प्रयास जारी हैं। लगभग हर साल ये बैठक होती है। अभी 26वीं बैठक हो चुकी है, जिसे कांफ्रेस आफ पार्टीज कहते हैं, जो ग्लासगो में संपादित हुई।
चॅूंकि, ये बहुत ही बड़ा विषय है, विषाल विषय है। इस विषय पर एक छोटे से लेख के अंदर कुछ गंभीर निष्कर्ष तक पहुॅंचना शायद कठिन हो। किन्तु एक दिषा हम निर्धारित कर सकते हैं कि कैसे हमें, हमारे चिंतन को इस दिषा में बढ़ाना चाहिए? और कैसे हमारे स्तर पर समाधान विकसित करना चाहिए। इस समस्या के कारकों में जो मुख्य बिंदु, मैं अपने जीवनकाल से अनुभव में बताना चाह रहा हूं, वह हैं-
1. जनसंख्या विस्फोट :- इस पूरी समस्या के स्रोत में सबसे बड़ा कारण जनसंख्या विस्फोट है।
2. उपभोग में वृद्धि : दूसरा बड़ा कारण उपभोग में वृद्धि है।
3.पर्यावरण के लिए घातक अर्थव्यवस्था के सिद्धांत : तीसरा वर्तमान अर्थव्यवस्था के जो सिद्धांत हैं, वे पर्यावरण के लिए घातक हैं। ये पर्यावरणीय कल्याण के लिए संरक्षणकारी एवं धारणीय नहीं हैं।

4.राष्ट्रों के बीच परस्पर राजनैतिक एवं आर्थिक विद्वेष : चौथा राष्ट्रों के बीच निरंतर बढ़ रहे राजनैतिक एवं आर्थिक विद्वेष के कारण सामरिक तैयारियों पर किए जाने वाले अनावष्यक व्यय एवं अनावष्यक उत्सर्जनकारी कानून, जिसका कोई सही-सही मापदंड या स्तर किसी भी राष्ट्र के द्वारा रिपोर्ट नहीं किया जाता है।
5.पर्यावरण के लिए घातक तकनीकियां : पांचवा कारण तकनीकियों में ऐसी तकनीकियों का प्रवेष, जो कि पर्यावरणीय स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। इनमें कुछ घातक तकनीकियां निम्नानुसार हैं-
(अ) कोयले से विद्युत का उत्पादन सर्वाधिक घातक तकनीकियों में एक है। (ब) पेट्रोलियम उत्पादों का भूमि से दोहन, इसका शोधन एवं आटोमोबाइल में उपयोग। (स) स्टील, एल्यूमीनियम, तांबा एवं अन्य धातुओं के उत्पादन में जीवाष्म ईंधनों का बेतहाषा प्रयोग। (द) यातायात वाहनों में सड़क परिवहन, जल परिवहन तथा वायु परिवहन में जीवाष्म ईंधनों पर आधारित वाहनों में विस्फोटक स्तर तक वृद्धि। (य) कृषि तकनीकी में परम्परागत पषुकर्षण आधारित कृषि पद्धति का लोप, जैव कृषि पद्धति का लोप। इसके स्थान पर भारी मात्रा में यांत्रिक, रासायनिक, कीटनाषक, रोगनाषक, खरपतवारनाषक एवं उर्वरकों का उपयोग। (र) भवन एवं अधोसंरचना निर्माण में काष्ठ जैसी धारणीय निर्माण सामग्रियों का लोप। उसके स्थान पर लोहा, सीमेंट और कांच आधारित भवन। (ल) यूॅं तो ऐसी अनेकों तकनीकियों को इसके अंतर्गत सूचीबद्ध किया जा जा सकता है, जिसमें वस्तु निर्माण, रसायन निर्माण, आधुनिक हथियार निर्माण इत्यादि सभी वर्तमान विज्ञान एवं तकनीकी पर आधारित औद्योगिक प्रक्रियाएं प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण को क्षतिग्रस्त कर रही हैं।
6. पर्यावरण विपरीत जीवनषैलीः छठवें कारण में जीवनषैली में ऐसे संस्कारों का प्रवेष, जो कि पर्यावरण के लिए अहितकारी हैं।
7. राजनीतिक, प्रषासनिक, धार्मिक व्यवस्था में कुसंस्कारों का प्रवेषः सातवें कारण में राजनीतिक, प्रषासनिक, धार्मिक व्यवस्था में ऐसे कुसंस्कारों का प्रवेष, जो कि प्रकृति एवं पर्यावरण के लिए घातक हैं।
अब प्रष्न यह है कि इनका समाधान हम कैसे करें? इसके समाधान के लिए प्रत्येक राष्ट्र अपने-अपने लक्ष्यों को निर्धारित अवष्य करता है, किन्तु 1994 से 2020 तक जो भी लक्ष्य निर्धारित हुए हैं, उनकी पूर्ति नहीं हो रही है।
सभी देष आपस में मिलकर, बैठकर राजनीतिक समझौते अवष्य करते हैं। तदुपरांत उन समझौतों के अनुरूप कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित कैसे किया जावे? पर, जब उस पर राष्ट्रों के अंतर्गत (देष के अंदर) कोई नियोजन की आवष्यकता होती है, तो उसमें गंभीर असफलता दिखाई पड़ती है। सबसे बड़ी चिंता का कारण यही है।
अब हम सबसे पहले जनसंख्या के दुष्प्रभावों पर एक दृष्टिपात करते हैं। औद्योगिक क्रांति के प्रथम वर्ष 1918 में जनसंख्या क्या थी? और वर्ष 1970 में जब से तापमान वृद्धि के संकेत मिले, तब जनसंख्या क्या थी? और 2010

जनसंख्या विस्फोट के पर्यावरण एवं प्रकृति पर दुष्प्रभावों को विश्व के सभी नागरिकों को समझाया जावे। धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक विद्वेषों से ऊपर उठकर इस भूमंडल की सुरक्षा के लिए मानव संख्या को जल्दी से जल्दी सीमित किया जावे। यदि हम नहीं करेंगे तो प्रकृति विनाश का सृजन कर हमारी संख्या अवश्य कम कर देगी। नाना प्रकार की नित नई विभीषिकाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

एवं 2020 में जनसंख्या क्या है? और इन वर्षों में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन कितना था? और सकल कार्बन उत्सर्जन कितना था? और कितना हो गया है?
इस स्थिति में सबसे बड़ा संकट यह है कि यदि हम प्रति व्यक्ति वर्तमान कार्बन उत्सर्जन दर को नहीं भी बढ़ने देते हैं, पर यदि जनसंख्या वृद्धि फिर भी जारी रहेगी तो 2030 से 2050 और 2100 तक पृथ्वी की जनसंख्या में इतनी वृद्धि हो जाएगी कि, 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान वृद्धि नियंत्रण हेतु 1918 के कार्बन सांद्रता स्तर को या उत्सर्जन स्तर को प्राप्त करना पूरी तरह से असंभव हो जाएगा।
चूंकि वर्तमान जनसंख्या वृद्धि के अनुमान पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि 2030 तक 855 करोड़, 2050 तक 975 करोड़ और वर्ष 2100 तक 1087 करोड़ जनसंख्या हो जाएगी। जबकि 1918 में पृथ्वी की आबादी 180 करोड़ थी एवं प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन दर मात्र 1.93 टन प्रतिवर्ष/व्यक्ति था। तो पृथ्वी की आबादी अगर वर्ष 2100 में कई गुना बढ़कर 1087 करोड़ हो जाएगी और प्रति व्यक्ति कार्बन उत्जर्सन को उस स्तर तक बनाए रखने हेतु हमें प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन एक/10 तक लाना पड़ेगा या शून्य करना पड़ेगा? पर ये कैसे संभव होगा?
चूॅंकि अगर हम 1918 की जीवनषैली पर दृष्टिपात करते हैं कि उस समय जीवनशैली क्या थी? और 2021 में क्या है? और 2100 में क्या होगी? तब क्या हम 1918 की जीवनशैली में दुखपूर्वक जीने के लिए विवश होंगे या आधुनिक तकनीकी क्षेत्र के वैज्ञानिक विकास के द्वारा ही कार्बन उत्सर्जन इतना कम किया जा सकेगा कि बिजली उत्पादन के लिए 1 किलो भी कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन न हो, सीमेंट बनाने के लिए 1 किलो भी कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन न हो, लोहा बनाने के लिए, एल्यूमीनियम बनाने के लिए कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन न हो? क्या ऐसा संभव है? क्योंकि वर्तमान जनसंख्या वृद्धि दर में कमी भी आती है तो भी वर्ष 2100 तक 1087 करोड़ लोग पृथ्वी पर होंगे।
जनसंख्या की वृद्धि वर्षवार
– 1918 में 180 करोड़ थी। इस समय पूरे विश्व का कार्बन उत्सर्जन केवल 348 करोड़ टन था । अर्थात प्रति व्यक्ति 1.93 टन प्रति व्यक्ति था ।
– 2021 में जनसंख्या 795 करोड़ हो गई। इस समय पूरे विश्व का कार्बन उत्सर्जन कुल 3481 करोड़ टन हो गया है। अर्थात प्रति व्यक्ति 4.38 टन प्रति व्यक्ति हो गया है। अर्थात 2.27 गुना प्रति व्यक्ति उपभोग बढ़ गया है। पर सकल उपभोग में 10 गुना वृद्धि हुई है।
– पर चुनौती यह है की अगर 2030 तक उत्सर्जन वापस औद्योगिक क्रांति के पूर्व वर्ष 1918 के अनुरूप केवल 348 करोड़ टन प्रतिवर्ष तक लाना है, तो कैसे संभव होगा? जब वर्ष 2030 तक 855 करोड़ जनसंख्या होगी तो प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 0.41 टन तक प्रति व्यक्ति/वर्ष लाना होगा । जब 2050 तक जनसंख्या 975 करोड़ होगी प्रति उत्सर्जन 0.36 टन तक प्रति व्यक्ति लाना होगा।
– वर्ष 2100 में 1087 करोड़ होगी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन शून्य ही लाना होगा या कम से कम 0.32 टन तक प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष तो लाना ही होगा ।
क्या जनसंख्या नियंत्रण किये बिना, केवल कार्बन उदासीन तकनीकियों के आधार पर यह संभव है ? या फिर हमें फिर से 1918 के जीवनषैली में लौटकर जीना होगा? उस पर भी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अपेक्षित स्तर से 6 गुना होगा। इसका सीधा-सीधा मतलब क्या है?
यह बात सभी को पता होना चाहिए की हम प्रति दिन जितना भी कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं वह वायुमंडल में जुड़ता जा रहा है । उसकी मात्रा में कमी करने के प्राकृतिक साधन बहुत ही सीमित हैं या यूँ कहें की नहीं जैसे ही हैं। चूँकि पृथ्वी में वन क्षेत्र कम हो गए हैं, तापमान बढ़ने से समुद्रों में भी कार्बन को घोल कर शोषण करने की क्षमता कम हो गयी है। एक बहुत बड़ा खतरा यह है की यदि पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस किसी भी कारणों से बढ़ ही गया तो ध्रुवों में जमा लाखो करोड़ों टन पषुमल ‘‘मिथेन’’ में परिवर्तित हो कर उत्सर्जित होने लगेगा, चूँकि मीथेन की वार्मिंग पोटेंषियल लगभग 52 गुना अधिक है फिर तो ऐसी स्थिति में पृथ्वी को प्रलय से बचाने के कोई भी मार्ग शेष नहीं बचेगें।
अतः इसलिए आवश्यक है कि जनसंख्या विस्फोट के पर्यावरण एवं प्रकृति पर दुष्प्रभावों को विश्व के सभी नागरिकों को समझाया जावे। धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक विद्वेषों से ऊपर उठकर इस भूमंडल की सुरक्षा के लिए मानव संख्या को जल्दी से जल्दी सीमित किया जावे। यदि हम नहीं करेंगे तो प्रकृति विनाश का सृजन कर हमारी संख्या अवश्य कम कर देगी। नाना प्रकार की नित नई विभीषिकाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
जनसंख्या विस्फोट का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है कि प्रत्येक नए मानव के लिए वह और अधिक पर्यावरणीय विपन्नता पैदा करती है, पर्यावरणीय दरिद्रता पैदा करती है तथा इस पर्यावरणीय दरिद्रता को दूर करने का कोई भी मार्ग वर्तमान आर्थिक समीकरणों में संभव नहीं है। अतः मनुष्यों को सभी धार्मिक, जातीय एवं आर्थिक भ्रमों को त्यागकर सर्वप्रथम जनसंख्या नियंत्रण हेतु तत्काल ठोस प्रयास करना ही चाहिए।
ललित कुमार सिंघानिया