इस वर्ष हम फिर 5 जून 2022 को विश्व पर्यावरण दिवस का आयोजन कर रहे हैं। पुनः इस दिन संपूर्ण विश्व में पर्यावरण संरक्षण के प्रति चेतना जागृत करने हेतु नाना प्रकार के आयोजन शासकीय संस्थानों, अर्द्धशासकीय संस्थानों एवं शिक्षा संस्थानों के स्तर पर आयोजित किए जावेंगे। इस वर्ष इस दिवस का ध्येय सूत्र ‘‘केवल एक पृथ्वी’’ (Only One Earth) रखा गया है। ताकि सम्पूर्ण विश्व जगत का ध्यान इस ओर आकृष्ट हो सके कि, इस अनंत ब्रह्मांड में केवल पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है, जहां सुरक्षित पर्यावरण के कारण ही जीवन संभव हुआ है और अभी तक सुरक्षित भी है।
पृथ्वी पर जीवन के आविर्भाव की एक लम्बी गाथा है, जिसका उल्लेख करना आज के लिए आवश्यक नहीं है। अपितु, समझना यह है कि वर्तमान में पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व का आधार वास्तव में क्या है और पृथ्वी पर जीवन के लिए इस आधार को बचाना कितना जरूरी है। अस्तु, यह समझ लेना अवश्य चाहिए कि पृथ्वी अन्य ग्रहों की तरह मात्र एक खनिज पिंड नहीं है। यह पिरयाडिक टेबल में उद्धृत सैकड़ों तत्वों का संघनित द्रव्य मात्र नहीं है। अपितु इसमें व्याप्त इन द्रव्यों का एक ऐसा संतुलन भी है, जिससे कि इस ग्रह में जीवन संभव हुआ है। यह द्रव्य तथा ऊर्जा के सार्थक संतुलन का एक ऐसा अनुपम ग्रह है, जिसके समकक्ष इस विशाल ब्रह्मांड में अरबों, खरबों ग्रहों, ताराओं एवं आकाशगंगाओं के बीच में भी, जीवन के लिए इस पृथ्वी जैसा कोई संतुलित ग्रह नहीं है। तदैव समझना आवश्यक है कि ये कैसा संतुलन है और जीवन के सुरक्षा के आधार क्या हैं?
यद्यपि सभी को मालूम है और काफी पुराने समय से ऋषियों, मुनियों ने भी हजारों वर्षों पूर्व उल्लेख किया है कि जीवन पांच तत्वों के संतुलित समाहित होने से संभव हुआ है। जिसे हम क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा के नाम से जानते हैं। जब पृथ्वी एक आग के तप्त गोले से ठंडी होते हुए वर्तमान स्वरूप पर पहुॅंची तो करोड़ों वर्षों पूर्व इसमें जीवन का आविर्भाव हुआ। जब पृथ्वी की मिट्टी में पर्याप्त रूप से पोषक तत्व, जैवांश तथा सूक्ष्म जीव सक्रिय रूप से उपलब्ध हुए, वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड, नत्रजन तथा आक्सीजन का संतुलन हुआ, पृथ्वी का तापमान जीवन के लिए सुरक्षित हुआ, सागर के खारे जल से वाष्पीकरण के द्वारा निरंतर निर्मल जल का सिंचन धरा पर संभव हुआ, जिससे मीठे जल की नदियां, बर्फीले पहाड़, झील संभव हुए, तो आकाश में भी पूरी निर्मलता निरंतर हुई।
एक कोशकीय जीव अमीबा से लेकर मनुष्य के वर्तमान बौद्धिक देह के सृजन तक के सफर में पृथ्वी ने न जाने कितने हजारों उल्कापिंडों के प्रहार को झेला, भूकंप, बाढ़, प्रलय को पार किया, फिर भी आज तक पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक पर्यावरण सुरक्षित रहा। साथ ही पृथ्वी पर व्याप्त जैव विविधता हजारों वर्षों से अक्षुण्ण बनी रही।
पर सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इस आधुनिक विज्ञान के युग में मानव ने तकनीकी आधारित सभ्यता के दंभ में पृथ्वी पर व्याप्त सुरक्षित प्राकृतिक पर्यावास को परास्त करने का दुष्कृत्य किया है। इससे अब कभी-कभी लगता है कि हमने स्वतः महाविनाश का सृजन शुरू कर लिया है।
आज जब हम अपने चारों ओर के पर्यावरण पर दृष्टिपात करते हैं, तो हम पाते हैं कि धन पिपासु मानव सभ्यता ने आर्थिक सृजन की होड़ में पर्यावरण को बहुत गंभीर रूप से क्षत-विक्षत कर दिया है। हम वायुमंडल में निरंतर भारी मात्रा में धूल कण के साथ जहरीली गैसों जैसे- सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, मरकरी (पारा),कार्बन मोनो ऑक्साइड, डाय आक्सीन, परसिस्टेंट आर्गनिक पालूटेंट आदि उड़ेल रहे हैं, तो लगभग-लगभग सभी नदियां, नाले, तालाब, झील, मानव मल युक्त दूषित जल, औद्योगिक एवं नगरीय दूषित जल से जहरीले हो गए हैं। यहां तक कि समुद्रों का जल भी अब सुरक्षित नहीं रहा है।
अनाज तथा फल, सब्जियां पैदा करने वाले खेतों की मिट्टियों में भी इतना अधिक खरपतवारनाशी, कीटनाशक, फंफूंदनाशक तथा रासायनिक उर्वरकों का उपयोग हुआ है कि मिट्टी तो लगभग मर चुकी है। मिट्टी में अब प्राणशक्ति (इम्यूनिटी) युक्त अन्न, फल, सब्जी पैदा करने की क्षमता समाप्त हो चुकी है। आकाश की स्थिति भी अब बद से बदतर है। पूरे नभमंडल में इतने हजारों सेटेलाइट छोड़ दिए गए हैं और इतने ज्यादा वायुयान निरंतर उड़ान भर रहे हैं कि पूरा नभमंडल आकाशीय कचरों से पट गया है। रही-सही कसर, यूक्रेन-रूस के युद्ध में प्रयुक्त हो रहे मिसाईल, बम्ब, राकेट आदि भी सर्वनाश को सृजन कर रहे हैं। इस सबका संचयित असर है कि पृथ्वी को सुरक्षा देने वाले ओजोन कवच में छिद्र हो रहा है। वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर (422 चचउ) खतरनाक सीमा तक पहुॅंच चुका है। मौसम परिवर्तन के परिणाम साक्षात हैं और स्पष्ट हैं।
उपरोक्त उल्लेखित परिस्थितियों का संज्ञान लगभग सारी दुनिया के वैज्ञानिकों, राजनेताओं एवं प्रशासकों तथा बुद्धि सम्पन्न लोगों को है। इससे बाहर निकलने के उपायों पर भी निरंतर चर्चा होती है। पर कोई भी पर्यावरणविद, विज्ञान विशेषज्ञ या राजनेता या धार्मिक नेता या समाज सुधारक या प्रशासनिक अधिकारी इस समस्या की जड़ का सबसे बड़ा कारण, ‘जनसंख्या विस्फोट’ को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। जबकि यह भी सच है कि सारे विश्व के वैज्ञानिक इस बात को जानते भी हैं और स्वीकारते भी हैं कि पृथ्वी पर जो उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन हैं, वे वर्तमान जनसंख्या का मुश्किल से ही भरण-पोषण कर सकते हैं। पर किसी भी सूरत में पृथ्वी पर उपलब्ध नैसर्गिक संसाधन एवं प्राकृतिक पर्यावरण 790 करोड़ मानवों के ऐश्वर्यमयी जीवन के बोझ को ढोने की शक्ति नहीं रखते। वर्तमान पृथ्वी के पर्यावरण में तो यह क्षमता कदाचित नहीं है। फिर भी इस कड़वे सच को स्वीकार करके सभी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अपने-अपने देशों पर जनसंख्या नियंत्रण हेतु कानून बनाकर बाध्यता पैदा करने को तत्पर नहीं हैं।
फलस्वरूप सीमित संसाधनों के ज्यादा से ज्यादा उपभोग करने की अंधी दौड़ मची है। भौगोलिक क्षेत्र सीमित है, जिसमें वृद्धि की कोई संभावना नहीं है। तदैव ऐश्वर्यमयी नगरीय जीवन के विस्तार की जद में बहुमूल्य कृषि क्षेत्र और वन क्षेत्र संकुचित हो रहे हैं। वहीं जीवन के लिए अनिवार्य उपादानों पर बाजार का कब्जा हो जाने के कारण प्रतिदिन मंहगाई बढ़ रही है, अतः जीवन की लागत बढ़ रही है। पर इसका दोष जनसंख्या वृद्धि को देने कोई तत्पर नहीं है।
वर्तमान परिवेश में सबसे अधिक दुर्गति सम्पूर्ण विश्व में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, इंडोनेशिया, मलेशिया तथा अफ्रीकी देशों में विस्फोटक हो चुकी जनसंख्या वाले देशों में हुई है। अस्तु, एक अत्यंत लघु अभियान संचालक समूह की ओर से हमारा यह आग्रह एवं आव्हान है कि संयुक्त राष्ट्र संघ तथा सभी विकसित एवं विकासशील देश सतत रूप से पृथ्वी के पर्यावरण पर मानव जनसंख्या के दबाव के दुष्परिणामों पर वैज्ञानिक तथा दार्शनिक जानकारियां सतत प्रकाशित करें, ताकि जन सामान्य में यह चेतना आ सके कि उनका वर्तमान जीवन तथा भविष्य में भी बचपन से लेकर जवानी, जवानी से लेकर बुढ़ापा तक का जीवन केवल और केवल सुरक्षित-स्वस्थ पर्यावरण से ही सुखद हो सकता है। धन और अर्थ या शास्त्र या शस्त्र शक्तियों से नहीं। अतः जनसंख्या पर नियंत्रण तथा पर्यावरण संरक्षण पर दृढ़ संकल्प की शपथ लेकर विश्व पर्यावरण दिवस पर इस दिशा में कार्य आरंभ करें।
विश्व पर्यावरण दिवस पर अभिनंदन एवं मंगल कामनाएं।
संपादक