ध्वनि तरंगों की वैज्ञानिकता

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ध्वनि कंपन है। जब संगीततज्ञ वाद्ययंत्र को झंकृत करता है अथवा बेखुरी नाद (भ्रामरी प्राणायाम, गायन, ओउम् उच्चारण, मंत्रोच्चारण) द्वारा गूंज उत्पन्न होती है तो हवा के चारों ओर यह झंकार सिकुड़कर फैल जाती है। मानव का संपूर्ण शरीर ध्वनि की प्रतिक्रिया है। मनुष्य एक जैव दोलक है। वैज्ञानिकों के अनुसार जब हम सुखद स्थिति में होते हैं तब आदर्श कार्य करते हैं। ध्वनि मापने की इकाई डेसीबल है। 180 डेसीबल ध्वनि प्राणघातक होती है। 140-150 डेसीबल जैट प्रस्थान के समय की ध्वनि है जो शारीरिक और मानसिक क्षति पहुंचाने में समर्थ है। 130 डेसीबल ध्वनि तंत्रिकाओं के लिए कष्टदायी है। 110-120 डेसीबल की विस्तृत ध्वनि चरम स्थिति की है। इतनी ध्वनि भी ध्वनि प्रदूषण के अंतर्गत आती है। इसके नीचे के स्तरों ध्वनियां मध्यम किंतु परेशान करने वाली मानी गयी है। 10 डेसीबल की मंद हल्की ध्वनि मानवी श्वासाच्छवास की तरह मंद मानी गयी है। नागयोग इसी श्रेणी में आता है।
भौतिक विज्ञान की दृष्टि से ध्वनि तरंग यांत्रिक तरंग की श्रेणी में आती है। जो कि द्रव्यात्मक माध्यम के कणों की सीमित गति के द्वारा ऊर्जा तथा संवेद का संचरण करती है, परंतु माध्यम अपने ही स्थान पर बना रहता है। यदि हम किसी माध्यम में लगातार तरंगे उत्पन्न करते रहें तो माध्यम के कण लगातार कंपन करते रहते है। इस अवस्था में माध्यम में उत्पन्न हुए विक्षोभ को प्रगामी तरंग धारा कहते है। इसी प्रकार तब कभी दो लगभग समान आवृत्ति वाली तरंगें एक साथ उत्पन्न की जाती हैं तो उसके अध्यारोपण से जो परिणामी ध्वनि उत्पन्न होती है उसकी तीव्रता बारी-बारी से घटती है। जिसे निस्पंद कहते हैं।
जब किसी बंद आर्गन पाइप के खुले सिरे पर फूंक मारते है तो पाइप की वायु में अनुदैर्ध्य तरंग खुले सिरे से बंद सिरे की ओर चलती हैं। पाइप का बंद सिरा एक दृढ़ परिमीमा की भांति इसे परावर्तित करके खुले सिरे की ओर वापिस भेज देता है। खुला सिरा एक मुक्त परिसीमा की भांति इसे परावर्तित करके पुनः बंद सिरे की ओर भेज देता है। इस प्रकार वायु स्तंभ में दो अनुदैर्ध्य तरंगे विपरीत दिशाओं में चलने लगती है। जिनके अध्यारोपण से अप्रगामी अनुदैर्ध्य तरंगे उत्पन्न होती है। पाइप के बंद सिरे पर वायु के कणों के कंपन करने की बिल्कुल स्वतंत्रता नहीं होती। अतः वहां सदैव निस्पंद होता है। इसके विपरीत पाइप के खुले सिरे पर वायु के कणों को कंपन्न करने की सबसे अधिक स्वतंत्रता होती है, अतः वहां सदैव प्रस्पंद होता है। प्रस्पंद बढ़ने से स्वर की आवृत्ति में वृद्धि होती जाती हैं।
ध्वनि की गूंज से उत्पन्न कंपन के प्रभाव को इस प्रकार से समझा जा सकता है कि सड़क पर गतिमान वाहन के गियर बदलते समय, गति के बढ़ने या घटने पर ऐसी स्थिति आती है कि वाहन में थरथराहट (कंपन) अधिक होने लगता है और उस स्थिति में वाहन पर लगा या जमा सूखा कीचड़ भी दरक कर टूटने लगता है तथा अपने स्थान से झड़ने लगाता है। पुनः रेस देकर गति बढ़ाने या गति कम करने पर वाहन सामान्य स्थिति में गतिमान रहता हैं। अधिक कंपन उस समय उत्पन्न होता है जब वाहन के इंजन की बॉडी तथा ध्वनि के बीच ध्वनि प्रतिध्वनि का अधिक सामंजस्य हो जाता है।
इसी प्रकार कंठ स्वर अथवा संगीत ध्वनि तरंगों का कंपन उस समय अधिक प्रभावी हो सकता है जब सिर की संरचना तथा स्वर की ध्वनि प्रतिध्वनि में अधिक सामंजस्य उत्पन्न हो जाये। आवश्यक नहीं कि स्वर की तारता अधिक ही हो। उपरोक्त सिद्धांत के आधार पर नाद योग द्वारा मस्तिष्क की नस नाड़ियों को अधिकाधिक कंपित करके किसी भी प्रकार के नस नाड़ियों के अवरोध को तोड़ा जा सकता है।
जीवनचर्या करते प्राणी के संपूर्ण शरीर को गति मिलती रहती है। इस कारण जाने अनजाने शरीर के अन्य अंगों का हलका-फुलका व्यायाम होता रहता है। किंतु मानव मस्तिष्क सिर का हड्डियों के बीच इस प्रकार से स्थित होता है कि उसे गति नहीं दी जा सकती ना ही किसी प्रकार से उसकी स्थूल पदार्थों द्वारा मालिश की जा सकती है। मस्तिष्क में कोई रूकावट आ जाने पर मानसिक एवं शारीरिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। पागलखानों में गंभीर रूप के मनोरोगियों को यंत्रों द्वारा विद्युत के झटके भी कंपन के लिए दिए जाते है किंतु उससे हानियों की संभावनाएं भी होती हैं।
मानव जाने अनजाने में नाद योग का उपयोग करता रहा है। मंत्र, भजन, संकीर्तन, यज्ञ, संगीत, आदि के द्वारा स्वाभाविक क्रिया के रूप में यहां तक कि बीमार पड़ने, चोट लगने पर मनुष्य एवं पशु भी प्रकृति प्रदत क्रिया के रुप में हूं हूं करके कराहते हैं, उससे उन्हें आराम मिलता है। उपयोगी ध्वनि कंपन अनेकों प्रकार से शरीर के ऐसे भागों को भी प्रभावित करता है, जिनको मानव देख भी नहीं पाता। ध्वनि ओर संगीत में व्यक्ति को स्वस्थ करने की क्षमता है। तनावों को शांत करने, तांत्रिकाओं को शिथिल करने और शरीर को निरापद बनाने में ध्वनि और संगीत उपयोगी है। अधिकांश शास्त्रीय संगीत और प्राकृतिक ध्वनियां शक्तिशाली और समर्थ बनाती है।
बल्गारिया के डॉ. गार्गी खोजानोव ने पाया कि ‘जब विशेष ताल का उपयोग किया गया। तब सामान्य अवस्था गहरी शिथिलीकरण अवस्था में बदल गयी। डॉ. हेंस जैसी के अनुसार ‘तरंगे पदार्थों के निर्माण का कार्य तथा रूपांतरण भी करती है’।
कानों की झिल्ली स्वर का एक स्थान पर केंद्रित करके भीतर की नली में भेज देती है। वहां वे तरंगे विद्युत तरंगों में बदल जाती है। इसी केंद्र में तीन छोटी किंतु अतिसंवेदनशील हड्डियां जुड़ती हैं। वे परस्पर मिलकर एक पिस्टन का काम करती है। इसके आगे लसिकायुक्त घोंघे की आकृति वाले गह्यर में पहुंचते ही आवाज का स्वरूप फिर स्पष्ट हो जाता है।
इस तीसरे भाग की झिल्ली का सीधा संबंध मस्तिष्क से है। कान के बाहरी पर्दे पर टकराने वाली आवाज को लगभग 35,000 कणिकाओं द्वारा आगे धकेला जाता है और मस्तिष्क तक पहुंचने में उसे सेकंड के हजारवें भाग से भी कम समय लगता हैं। मस्तिष्क उसे स्मरण शक्ति के कोष्ठकों में वितरित एवं विभाजित करता है। नाद योग में अल्फा तरंगों का प्रकीर्णन होता है, जो मस्तिष्क पर लाभकारी प्रभाव हेतु उपयोगी होती है। यहीं से ध्वनि से कंपन द्वारा ग्रंथियों में उत्तेजना के कारण रसों का स्त्राव संतुलन में आता है। मस्तिष्क सहित पूरे शरीर का रक्तपरिसंचरण सुचारू रूप से होकर रक्तपरिशोधन होता है और चिंता अथवा तनाव कम होने लगता है।
मनुष्य जीवन में चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने ही वातावरण मे व्याप्त ध्वनि तरंगों से साक्षात्कार करता रहता है। उन्हें ग्रहण करता रहता है। ये ध्वनि तरंगें चाहे कानों से सुनी जा सकती हों या नहीं। ध्वनि कभी समाप्त नहीं होती और वायुमंडल में तैरती रहती है।
दिनोंदिन ध्वनि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। चाहे यांत्रिक हो या मानवीय चीख पुकार अथवा नकारात्मक शब्द के माध्यम से प्रत्येक मनुष्य प्रभावित होता रहता है। हानिकारक ध्वनि तरंगों से नकारात्मक, चिंता आदि मानसिक समस्याएं एवं शारीरिक समस्याएं उत्पन्न होती है। व्यक्ति का जीवन गुणवत्तास्तर स्वाभाविक रूप से आप-पास के वातावरण से प्रभावित होता है। एक तत्व का दूसरी वस्तु पर चोट की जाती है, उसके परमाणुओं में कंपन उत्पन्न होता है। वह कंपन आस-पास की वायु को भी प्रकंपित करता है। हवा में उत्पन्न कंपन की तरंगें मंडलाकार गति से फैलती है। जब कंपन कान के पर्दे से टकराते हैं, तो कान की भीतरी झिल्ली समानुपाती गति से हिलने डुलने लगती है और विद्युत चुंबकीय तरंगों के रूप में कान की नसों से होती हुई मस्तिष्क के श्रवण केंद्र तक जा पहुंचती हैं। शरीर में नाड़ियों की संख्या और बनावट अत्यधिक और सघन है। बाह्यघात से उत्पन्न तरंगें जब मस्तिष्क के श्रवण केंद्र तक पहुंचती हैं, तब वे इसी विद्युत आवेशीय सिद्धांत के आधार पर शरीर के संपूर्ण परमाणुओं में थिरकन उत्पन्न कर देती है। पर यह थिरकन कंपन ध्वनि के ताल, सुर और गति पर अवलंबित होती है। इसलिए प्रत्येक शब्द का एक सा प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता वरन् जो कुछ भी बोला और सुना जाता है, उसका प्रभाव शरीर पर भिन्न भिन्न प्रकार का पड़ता है।
शरीर की संवेदनशीलता परमाणुओं में स्थित सबसे कोमल भाग में कंपन के कारण उत्पन्न होती है। वैज्ञानिक खोजों के आधार पर हम शब्द के सोलह से पैंतालीस हजार बार तक के कंपन्न को सुन सकते हैं, इनसे कम या अधिक नहीं। इस बीच के ध्वनि तरंगों में दो तरंगों के बीच में जितना समय लगता है, ध्वनि तरंगें यदि उसी समय को स्थित परमाणुओं के कोमल तंतुओं का फैलना-सिमटना होता है। उससे उन कोषों में स्थित भारी अणु अर्थात रोग और गंदगी के कीटाणु निकलने लगते हैं। समान स्वर वाले ये कंपन ही संगीत में सुर कहे जाते है। इसी आधार पर ये तंतु भी हृदय की कार्यप्रणाली की तरह से ही परिशोधन के कार्य करते है।
डॉ. पोडीलास्की (अमेरिका) ने पथरी के रोगी पर प्रयोग किया। पाया कि संगीत की सूक्ष्म ध्वनि तरंगों के आघात से पथरी के कुछ कण प्रतिदिन टूटकर उससे अलग हो जाते और मूत्र के साथ मिलकर बाहर निकल जाते हैं। प्रयोग के दौरान प्रतिदिन मूत्र का परीक्षण किया जाता रहा। देखा गया कि जिस दिन संगीत का प्रयोग थोडी देर हुआ, उस दिन थोड़ी मात्रा में ही पथरी टूटी जबकि जिस दिन संगीत का प्रयोग नहीं हुआ उस दिन के मूत्र परीक्षण में पथरी का एक अंश भी नहीं मिला। इसके बाद यह क्रम बीच में कभी बंद नहीं किया गया तो उससे पथरी पूरी तरह घुल-टूटकर बाहर हो गयी।
विशेषज्ञों का मत है कि संगीत की विभिन्न राग-रागनियां इन्फ्रा और अल्ट्रासोनिक स्तर की ध्वनियां हैं, जो अपने में समाहित तीव्रता, मधुरता और कर्कशता के कारण अलग-अलग प्रकार के परिणाम प्रस्तुत करती है। वैज्ञानिक चार्ल्स कील एवं ऑगोलिकी ने विभिन्न स्वर माधुर्य वाले संगीत के प्रभाव को मानसिक रोगियों पर जांचा। एक अध्ययन में रोगियों को दो वर्गों में बांटकर एक को पॉप म्यूजिक तथा दूसरे समूह को भारतीय संगीत के राग सुनाये। परिणाम यह रहा कि भारतीय संगीत से अस्सी प्रतिशत मनोरोगी स्वस्थ हो गये किंतु पॉप से नहीं।
पौराणिक ग्रंथ संगीत मकरंद के चतुर्थ पाद के सूत्र 80-83 में देवर्षि नारद ने कहा है कि, संपूर्ण जाति के रागों के गायन से आयु, धर्म, यश, बुद्धि, धन- धान्य आदि की अभिवृद्धि होती है। संताने सद्गुणी बनती है। भाडव जाति के रागों के गायन-वादन से शोक संताप दूर होकर रूप लावण्य बढ़ता है। औडव जाति के गायन वादन से शारीरिक, मानसिक, व्याधियों का शमन होता है। संपूर्ण जाति जिसमें सातों स्वर प्रयोग किये जाते हैं। शडव से तात्पर्य जिसमें छः स्वर तथा औडव में पांच स्वर प्रयोग किये जाते है। इसी प्रकार रोगों के आधार पर अनेंकों ग्रंथों में उनके द्वारा पड़ने वाले प्रभाव अग्रांकित है। राग मालकोष से सदभावना, राग दीपक से गर्मी उष्णता, जैजैवन्ती से प्राणऊर्जा संवर्द्धन, कलिंगडा से हृदय की धड़कन वृद्धि, पीलू राग से अश्रुपात और शंकरा से शौर्य उत्पन्न होते है।
उपरोक्त महाज्ञान के आधार पर मानसिक एवं शारीरिक कष्ट को कम अथवा दूर करने के कार्यक्रम निर्मित करके उनका परीक्षण वैज्ञानिक उपकरणों तथा मनोवैज्ञानिक पद्धतियों के आधार पर किये जा रहे है। विश्वभर में वैज्ञानिकों ने अनेकों पैकेज टेप्स के रुप में निर्मित रोगियों पर प्रयोग करके लाभ पहुंचाना प्रारंभ कर दिया है।
संगीत में विद्यमान सूक्ष्म ध्वनि-तरंगों का मनुष्य की मनोदशा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। फलतः शरीर रसायन तंत्र में भारी परिवर्तन परिलक्षित होने लगते है। रूसी वैज्ञानिक कुद्र्यावत्सव के अनुसार ‘इन ध्वनि-तरंगों से शरीर की अंतः स्त्रावी ग्रंथियां सक्रिय हो उठती हैं और उनसे रिसने वाले हारमोन रसायन मानसिक स्थिति में परिवर्तन का स्पष्ट संकेत देते है। पार्किसन और अवसाद के मरीजों में वाद्य यंत्रों से उत्पन्न वाइब्रेशन का जबरदस्त प्रभाव देखने को मिला है इसे संगीत चिकित्सा (वाइब्रोएकोस्टिक थैरेपी) कहते हैं। इसमें अलग-अलग आवृत्ति पर संगीत ध्वनि से वाइब्रेशन उत्पन्न किया जाता है और उसे मरीज को सुनाया व महसूस कराया जाता है। वर्ष 2015 में एक शोध में इस थैरेपी के गुण सामने आए थे। इस अध्ययन में पार्किसन के 40 मरीजों को 30 हर्ट्ज वाइब्रेशन हर एक मिनट के अंतराल से एक-एक मिनट तक महसूस करवाया गया और इसके बेहद सुखद परिणाम सामने आए। अब विशेषज्ञ अल्जाइमर के मरीजों पर भी इसके प्रयोग के बारे में विचार कर रहें है।
फिनलैंड में एक शोध में यह तथ्य सामने आया है कि संगीत सुनने से शरीर में रक्त प्रवाह सामान्य हो जाता है। इससे रक्त संबंधी और हृदय रोगों में राहत मिलती है। मधुर स्वर प्रकंपनों के प्रभाव से व्यक्ति जब प्रसन्नता की स्थिति में होता है। उस समय रस स्त्राव भिन्न प्रकार का होता है और जब व्यक्ति कर्कश, कोलाहल युक्त ध्वनि सुनता है तो आवेश के कारण शरीर में भिन्न प्रकार के रसायन उत्पन्न होते है। ध्वनियों में रासायनिक परिवर्तन की त्वरित क्षमता को देखते हुए रसायन शास्त्रियों ने ‘ध्वनि रसायन’ नामक विज्ञान की शाखा का ही विकास कर लिया है। संगीत की तरंगों को ऑक्सीलोस्कोप के माध्यम से देखा परखा जाता है एवं विभिन्न स्वर लहरियों की पिच, एम्प्लीट्यूड तथा वेवलेंग्थ को मापा जाता है। बड़ी क्षमता वाले ड्यूअलबीमस्टोरेज ऑसीलोस्कोप से संगीत शुद्धता का पता लगता है। संगीत के माध्यम से तनाव शैथिल्य पॉलीग्राफ पर तथा बायोफीडबैक द्वारा पता लगाया जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने संगीत के द्वारा व्यक्तियों पर पड़ने वाले प्रभाव को जांचने में मनोवैज्ञानिक मानकीकृत मापनों तथा फिजियोलॉजिसल (धड़कने, पल्स, रेसिफ्रेटरी रेट, टेम्प्रेचर आदि) तथा बायोकेमिकल आधार पर जांचने हेतु अनेकों अध्ययन किये है। वर्तमान में वे अध्ययन प्रगति पर है। यदि वातावरण में सकारात्मक ध्वनि तरंगें, संगीत आदि उपस्थित होते हैं तो मनुष्य का जीवन गुणवत्ता स्तर उच्चस्तरीय होता है। यदि वातावरण में शोर, नकारात्मक बातें बोलने वाले लोग अथवा ध्वनि प्रदूषण होता है तो व्यक्ति का जीवन गुणवत्ता स्तर कम हो जाता है। व्यक्ति चिड़चिड़ा नकारात्मक चिंतक एवं मानसिक समस्या ग्रस्त एवं चिंताग्रस्त हो जाता है। इस कारण एकाग्रता में कमी, निर्णय लेने में कठिनाई, भय, घबराहट आदि लक्षण उपस्थित हो जाते है। (साभार : वैज्ञानिक)
डॉ. सरोज शुक्ला
केए 94/628, कुरमनचल नगर, लखनऊ