जुलाई में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मौसम के भयानक तूफानी तेवर देखने को मिले हैं। धरती की यह स्थिति उस समय है जब तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले के दौर से 1.3 डिग्री अधिक गर्म है। अगर तापमान दो डिग्री बढ़ गया तो 42 करोड़ अतिरिक्त लोगों को प्रचंड गर्मी झेलनी पड़ेगी। आर्कटिक में बर्फ पूरी तरह खत्म हो जाएगी। तीन डिग्री बढ़ोतरी से अकल्पनीय विनाश होगा।
अगली सदी में भारत सहित कई देशों में औसत तापमान 3.5 से 4.5 डिग्री बढ़ जाएगा। विश्व की एक चौथाई आबादी को साल में एक माह तक सूखे का प्रकोप झेलना पड़ेगा। इसलिए पेरिस जलवायु समझौते में तापमान में केवल डेढ़ डिग्री बढ़ोतरी का लक्ष्य रखा गया है। ग्रीन हाउस गैसों के प्रमुख उत्सर्जक अमेरिका ने 2050 और चीन ने 2060 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का वचन दिया है। फिर भी, इससे तापमान में बढ़ोतरी 2 डिग्री तक रहेगी।
इस अनुमान में वे नीतियां शामिल हैं जिनकी घोषणा तो हो चुकी है पर उन्हें लागू नहीं किया गया है।
मौजूदा नीति से होगी तापमान में बढ़ोत्तरी
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम-केट के अनुसार दुनिया में इस समय लागू नीतियों से तापमान में बढ़ोतरी 2.9 डिग्री तक हो जाएगी। केट और अन्य समूहों की गणना के मुताबिक अगर कार्बन उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य पूरे किए गए तब भी तापमान में अधिकतम 1.9 और 3 डिग्री तक बढ़ोतरी के 68ः आसार हैं।
तापमान में तीन डिग्री की बढ़ोतरी के नतीजे चिंताजनक होंगे। समुद्र और दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्से कम गर्म होंगे। दूसरी ओर उत्तर कनाडा, साइबेरिया, स्कैनडिनेविया सहित आर्कटिक क्षेत्र पर गर्मी का सबसे अधिक प्रभाव होगा। अधिक आबादी वाले कुछ इलाकों में औसत से अधिक तापमान रहेगा। एक स्टडी के अनुसार रूस, चीन और भारत में औसत तापमान क्रमशः 4.5, 3.5 से 4.5 और 3.5 डिग्री बढ़ जाएगा।
इन इलाकों में भीषण गर्मी पड़ेगी
उत्तर अमेरिका, यूरोप और एशिया के ऊंचाई वाले इलाकों में भीषण गर्मी पड़ेगी। अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण यूरोप, अमेरिका,मध्य अमेरिका में भयावह गर्मी को दौर दो से पांच साल के बीच आने लगेगा। अभी यह स्थिति सौ साल में एक बार बनती है। चीन में चावल, रूस में गेहूं उत्पादन बहुत कम हो जाएगा। तीन डिग्री तापमान बढ़ने से 18 करोड़ से अधिक अतिरिक्त लोग भुखमरी के दायरे में आ जाएंगे।
अंटार्कटिका में बर्फ पिघलने का दर 280 प्रतिशत बढ़ा
ग्लोबल वार्मिंग के चलते अंटार्कटिका में बर्फ के पिघलने की रफ्तार में बेतहाशा वृद्धि हुई है। वैज्ञानिकों ने बताया कि पिछले 16 सालों में बर्फ पिघलने की दर खतरनाक रूप से 280 प्रतिशत बढ़ गई है। इस कारण वैश्विक समुद्र का स्तर पिछले चार दशकों में आधे इंच से ज्यादा बढ़ गया है।
नासा की जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी और नीदरलैंड की यूट्रेक्ट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने बताया कि अगर 1979 से लेकर 1990 तक के सालों का अध्ययन करें तो औसत रूप से सालाना अंटार्कटिका में 40 गीगाटन बर्फ पिघलती थी। 2009 से लेकर 2017 के बीच इसमें बढ़ोतरी हुई और 252 गीगाटन बर्फ प्रतिवर्ष पिघलने लगी।
शोधकर्ताओं ने बताया कि चार दशकों में नाटकीय ढंग से बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ी है। अगर 1979 से लेकर 2001 तक का औसत देखें तो प्रत्येक दशक में सालाना 48 गीगाटन बर्फ पिघली। अगर 2001 के बाद के सालों पर नजर डालें तो बर्फ पिघलने की दर में 280 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। 2001 से लेकर 2017 तक प्रत्येक साल 134 गीगाटन बर्फ पिघली।
प्रोसिडिंग्स आफ द नेशनल एकेडमी आफ साइंसेज जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिका में व्यापक अध्ययन किया। उन्होंने चार दशकों तक अंटार्कटिका महाद्वीप के 18 क्षेत्रों और लगभग 176 घाटियों का अध्ययन किया।
अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एरिक रिग्नाट ने बताया कि जिस रफ्तार से अंटार्कटिका की बर्फ पिघल रही है। यहां पर समुद्र का स्तर आने वाले समय में बहुत बढ़ जाएगा। नासा की ओर से आपरेशन आइसब्रिज के तहत ग्लेशियरों की खींची गई हाई रेजोल्यूशन वाली फोटो से विस्तृत डेटा प्राप्त किया गया। रिग्नाट ने बताया कि फोटो के माध्यम से यह पता चला कि पिछले दशकों में पूर्वी अंटार्कटिका में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है। यहां पर भी सबसे ज्यादा बर्फ विल्केस लैंड सेक्टर में ही पिछली है। 1980 के पहले भी यहां भारी मात्रा में बर्फ पिघलती रही है। उन्होंने बताया कि यह क्षेत्र पारंपरिक रूप से जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक संवेदनशील है और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस क्षेत्र में ही पश्चिम अंटार्कटिका और अंटार्कटिक प्रायद्वीप से ज्यादा बर्फ मौजूद है।
तेजी से टूटती परत
सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों में बर्फ की वह परत पहले के मुकाबले तेजी से टूटती हुई नजर आ रही है, जो इस ग्लेशियर को पिघलाकर समुद्र में मिलने से रोकती है। एक नए अध्ययन में बताया गया है कि यह परत टूटते हुए विशाल हिमखंडों को जन्म दे रही है। ‘पाइन आईलैंड’ ग्लेशियर की बर्फ की परत का टूटना 2017 में तेज हो गया था।
इससे वैज्ञानिकों को चिंता सताने लगी थी कि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर का पिघलना अनुमानित कई सदियों के मुकाबले बहुत जल्दी होगा। तैरती बर्फ की यह परत तेजी से पिघलते ग्लेशियर के लिए बोतल में एक कार्क के समान है और ग्लेशियर के बर्फ के बड़े हिस्से को महासागर में बह जाने से रोकती है। अध्ययन के मुताबिक बर्फ की यह परत 2017 से 2020 के बीच ग्लेशियर से 20 किलोमीटर पीछे तक हट गई है।
टाइम लैप्स से ली गईं परत की तस्वीरें
ढहती हुई परत की तस्वीरें यूरोपीय सैटेलाइट से ‘टाइम-लैप्स’ वीडियो में ली गईं, जो हर छह दिन में तस्वीरें लेता है। टाइम लैप्स फोटोग्राफी तकनीक से लिए गए वीडियो को सामान्य गति पर चलाने से, समय तेजी से बीतता दिखता है। अध्ययन के प्रमुख लेखक, ‘यूनिवर्सिटी आफ वाशिंगटन’ के ग्लेशियर विशेषज्ञ इयान जागिन ने कहा, ‘आप देख सकते हैं कि चीजें कितनी तेजी से टूट रही हैं । इसलिए यह बिलकुल ऐसा लगता है जैसे बर्फ का तेजी से टूटना अपने आप में ग्लेशियर को कमजोर कर रहा है।
बर्फ टूटने की तीन घटनाएं हुईं
उन्होंने कहा कि अब तक हमने मुख्य परत का संभवतः 20 प्रतिशत हिस्सा गंवा दिया है। जागिन ने बताया कि 2017 से 2020 के बीच बर्फ टूटने की तीन बड़ी घटनाएं हुईं जिसमें आठ किलोमीटर लंबे और 36 किलोमीटर तक चौड़े हिमखंड उत्पन्न हो गए थे। जो बाद में बहुत से छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गए। बर्फ टूटने की छोटी-छोटी घटनाएं भी हुईं। यह अध्ययन ‘साइंस एडवांसेस’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इससे पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन कितना घातक होता जा रहा है।
शोधकर्ताओं ने कहा कि सबसे ज्यादा बर्फ खोने वालों में गर्म समुद्र से सटे क्षेत्र हैं। ग्लोबल वार्मिंग और ओजोन के घटने से महासागर गर्म हो रहे हैं और बर्फीले क्षेत्रों में ज्यादा बर्फ पिघल रही है। इससे आने वाले समय में समुद्र का स्तर बढ़ेगा, जो जलवायु परिवर्तन का संभवतः सबसे बड़ा कारण बनेगा।
उत्तम सिंह गहरवार