पर्वतीय कृषि और कृषि यंत्रों की ज्यामितीय वैज्ञानिकता

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लोकजीव एक कृषि आधारित जीवन होता है, इसे अशिक्षित या अर्धशिक्षित जीवन मान जाता है। लोकजीवन की मान्यताओं आस्थाओं और ज्ञान विज्ञान को अभी तक वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसका वह हकदार है। जबकि वास्तविकता यह है कि कृषि आधारित जीवन जीने वाले लोक जीवकों के जीवन में भी गणित और विज्ञान का ज्ञान गहन रूप से समाया हुआ है। जिसके लिए उनके अपने मानक और मापक है। प्रस्तुत लेख में लेखक द्वारा पर्वतीय क्षेत्र के विशेषताओं और उत्तराखण्ड की कृषि में वैज्ञानिकता की पड़ताल की गई है, साथ ही यहां के कृषि यंत्रों को ज्यामिति वैज्ञानिकता की दृष्टि से देखने का प्रयास किया है। लेख से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि विज्ञान तर्क के साथ हमारी परंपराओं के साथ भी जुड़ा हुआ है। हमारे पारम्परिक कृषक भी किसी कृषि विज्ञानी से कम नहीं है। हमें इनके पारम्परिक ज्ञान का लाभ उठाकर इसे मानवजाति के कल्याण में लगाना चाहिए और इनके पारम्परिक ज्ञान की सहायता से कृषि यंत्रों का निर्माण करना चाहिए।
मानव जीवन और विज्ञान का संबंध उतना ही पुराना है जितना पुराना मानवीय सभ्यता है। ‘‘विज्ञान’’ शब्द जो कि ‘विशिष्ठ ज्ञान‘ के लिए प्रयुक्त होता है किसी कार्य को रकने की विशिष्ठता की ओर इशारा करता है। ईश्वर प्रदत्त बौद्धिक शक्ति से ही मानव अपने आरम्भिक विकास क्रम में ही अन्य जीवों से विशिष्ठता प्राप्त करने लगा। आग और पहिए के आविष्कार ने उसे इतनी विशिष्ठता और शक्ति प्रदान की है कि वह अपने परिवेश व प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने लगा। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव की विज्ञान से घनिष्ठता बढ़ती गई। आज तो विज्ञान के बिना मानव अस्तित्व की कल्पना भी असंभवव सी लगती है। यहां तक कि मानवीय भाषाओं का निर्माण भी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया रही। लोक संस्कृतियों के उदय ने विशिष्ठ ज्ञान विज्ञान के तकनीकीयों को प्रश्रय दिया। जो देखने में सहज किंतु लोक जीवन को आसान बनाने वाली, उपयोगी तकनीकियां साबित हुई।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत के उत्तरी अंचल में स्थित प्रदेश उत्तरांचल के लोगों के जीवन का मुख्य आधार कृषि है। यहां पारम्परिक खेती करने की विशिष्ठ विधियां फसल चक्र कृषि उपकरण तथा कृषि संबंधी रस्में व त्यौहार है। जिनका यहां के समाज में विशिष्ठ महत्व है, जिनको अपनाने के तार्किक और वैज्ञानिक कारण है। यहां के समाज में कृषि के लिए ‘खेती-पाती’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।
उत्तरांचल प्रदेश 2 मंडलों में विभाजित है कुमाऊॅं और गढ़वाल। दोनों अंचलों में लगभग एक जैसी कृषि व्यवस्था प्रचलित है और दोनों मंडलों की फसल और फसल चक्र भी लगभग समान है। विशेषतः पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी पारंपरिक तरीकों से खेती की जाती है। इन्हीं पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी लोकजीवन बचा हुआ हैं।
यहां के समाज ने पारंपरिक रूप से कृषि भूमि की उत्पादकता के आधार पर यहां के कृषि क्षेत्र को तीन भागों में विभाजित किया है-
1. तलाऊँ भूमि, 2. उपराऊँ भूमि, 3. इजरान भूमि
तलाऊँ भूमि :- यह नदी तटों पर स्थित सिंचित भूमि है, यह सबसे अधिक उपजाऊ जमीन होती है और इसमें सबसे अच्छी श्रेणी के धान (लाल धान) की पैदावार होती है। यह भूमि सिंचाई के लिए गुल या नहरों पर निर्भर होती है। इस भूमि में गेहूं इत्यादि अनाज भी पर्याप्त होता है, तलाऊँ भूमि साल में तीन फसल देने वाली भूमि है, इस भूमि को शेरों की भूमि भी कही जाती है। इस भूमि को स्वर्ग के समान सुख देने वाली भूमि माना जाता है।
उपराऊँ भूमि :- यह सिंचाई के लिए केवल वर्षा जल पर निर्भर रहती है। किन्तु मिट्टी के उर्वर होने के कारण इसमे साल में दो बार फसलें उगाई जा सकती है।
इजरान भूमि :- इस जमीन में केवल मोटा अनाज ही उगाया जा सकता है। इसकी उत्पादकता काफी कम होती है, इसे कंटील/खेडी/उमेड़ी/उज्खेड़ी या रेतीली एवं रोखड़ की जमीन भी कहा जाता है। इसमें साल में एक ही फसल हो पाती है, जिससे भट, सोयाबीन, गहत, अरहर, झुंगरा, मडुवा ही हो पाता है। इस जमीन में सिंचाई हेतु जल की उपलब्धता भी बहुत कम होती है, यह बलुवी एवं कंकड़-पत्थर वाली जमीन है। इस जमीन को केवल बरसात के समय ही जोता जाता है।
कृषि भूमि वर्गीकरण के लाभ –
– जमीन की प्रकृति के आधार पर बीज निर्धारण में सहायक
– बीज की मात्रा प्रति नाली कृषि भूमि में खपत निर्धारण में सहायक
– खाद की मात्रा के निर्धारण में सहायक
– जमीन की उत्पादकता निर्धारण होने से फसल चयन में सहायक
– जमीन की उत्पादकता के आधार पर भूमि की कीमत निर्धारण में भी सहायता मिलती है।
उत्तराखंड में मिश्रित खेती का प्रचलन है, कई प्रकार के अनाजों को एक साथ बोना और कृषि के साथ पशुपालन यहां का प्रमुख व्यवसाय है। यहां मुख्यतः तीन प्रकार की फसलें बोई जाती है-
1. रवि की फसल, 2. खरीफ की फसल, 3. जायद की फसल
रवि की फसल सितंबर-अक्टूबर के महीने में बो कर अप्रैल-मई में काटी जाती हैं। इसमें मुख्यतः गेहूं, चना, मटर, सरसों, अरहर-मलका आती है।
खरीफ की फसल बरसात के समय बोई जाने वाली फसल है इसमें मुख्य रूप से मडुवा, मक्का, चौलाई, गडेरी, अरबी, अदरक, मिर्च, गहत, सोयाबीन, उड़द, लोबिया, हल्दी, कोंणी, झुगंरा, ज्वार, ओगल, बथुवा आदि उगाया जाता हैं।
जायद की फसल में मुख्यतः सब्जियां उगाई जाती है। यह बरसात के मौसम में उगायी जाने वाली फसल है।
फसल चक्र अपनाने के कारण तथा लाभ :-
लोक जीवन में अपनाया जाने वाला फसल चक्र हमारी लोक विज्ञानियों की देन है, जिन्होंने विज्ञान को कभी पढ़ा नहीं बल्कि अनुभूत किया। यह केवल दस एक साल के शोध का परिणाम नहीं बल्कि पीढ़ियों और शताब्दियों के ज्ञान का संचित एवं परिष्कृत रूप है। कौन सी फसल का पौधा किस समय सर्वाधिक उपयोगी होता है और किन फसलों के साथ उसकी पैदावार उसे कीड़ों से बचाएगी, इसकी निर्धारण करता है फसल चक्र।
स्यारी परंपरा
आधुनिक चकबंदी से मिलती-जुलती एक परम्परा गांव घरों में प्रचलित है जिसे स्यारी परंपरा कहा जाता है। जिससे सारे गांव की जमीन को दो भागों में बांट लिया जाता है, खेतों को गांव की स्थिति को आधार मानकर तल स्यारी (नीचे की भूमि), मल स्यारी (ऊपरी भूमि) गांव के वल स्यारी (इस तरफ की भूमि), पल स्यारी (गांव के उस तरफ की भूमि) में बांट लिया जाता है। इन स्यारियों में क्रम से और रवि और खरीफ की फसलें उगाई जाती है। यदि एक स्यारी में रवि की फसल बोई गई है तो दूसरे में खरीफ की फसल बोई जाएगी। केवल सावन भादो और अषाढ़ के महीने ही ऐसे होते है जिनमें दोनों स्यारियों में फसल खड़ी होती है। एक स्यारियों में धान तो दूसरे में मंडुआ, मास, भट, गहत इत्यादि।
खेतों की संरचना
पर्वतीय अंचल होने से यहां छोटे-छोटे जोत काटकर बनाए जाते है। प्रयास यह किया जाता है कि खेत अंदर की तरफ गहरा हो ताकि खेतों की उपजाऊ मिट्टी बहकर अपरदित न हो। खेतों की मेडों और दीवारों पर घास होती है जो कि मृदा अपरदन को रोकती है। नदी किनारे घाटियों में उपजाऊ मैदानी भाग पाया जाता है। जिन्हें सेरा कहा जाता है। उनके बीच में मेड़ बना ली जाती है ताकि गूल या नहर से लाए गए पानी को खेत में सिंचाई हेतु रोका जा सके।
कृषि यंत्र
कृषि कार्य की सफलता कृषि यंत्रों की गुणवत्ता व उपयोगिता पर निर्भर करती है। कृषि यंत्रों के कई प्रकार है-
1. खेत जुताई/खुदाई करने वाली यंत्र जैसे- हल, फावड़ा, कुदाल।
2. फसल की कटाई करनेवाले यंत्र जैसे- दराती, बसूला,।
3. फसल की मड़ाई के यंत्र जैसे- मुंगरी, लट्ठे।
4. बीज सुखाने और छनाई करने की यंत्र – मादेरी, मटियाल, सूप।
5. बीज मापक यंत्र जैसे- मुट्ठी, माणा, सेर, नाली, पाथा, दूण, मण।
जुताई से संबंधित यंत्र
हल
उत्तराखंड के लोक जीवन में हल मात्र एक खेत जुताई का साधन नहीं वरन् वह कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। प्रत्येक वर्ष यहां हल पूजा का त्यौहार मनाया जाता है, जिसे ‘हलजोति‘ के नाम से पूजा जाता है। इस दिन से खेतों की जुताई का काम शुरू हो जाता है। हल के निर्माण के लिए विशिष्ठ प्रकार की लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता है। जो ठोस और जल्दी ना घिसने वाली, ना ही जल्दी सड़ने वाली, मजबूत और हल्की होती है। इसके निर्माण के लिए बांज, देवदार, साल, सागौन, महेल, शीमल, अमलतास वृक्ष की लकड़ी उपयोगी मानी जाती है। हल के कई भाग होते है, जिसमें किलड़ी, लट्ठे, निसूड़, फाल, हत्था होते है। एक हल को उसके लट्ठे, किलड़ियों, पचरा, निसूड़ से जोड़ने का भी अपना एक विज्ञान है। हल तथा फाल के बीच 105 अंश का कोण, हल तथा हत्थे के बीच 95 अंश का कोण, हल तथा लट्ठे के बीच 105 अंश का कोण होता है इसमें भी हल तथा फाल के बीच के कोण को पच्चरों की सहायता से 105 अंश से 130 अंश के बीच घटाया बढ़ाया जा सकता है जो कि खेत की मिट्टी की जुताई या दोहराई या बुआई के लिए गहराई के अनुरूप होता है। पारंपरिक हल के निर्माण में पूरी तरह से लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता है। केवल हल के फाल में एक लोहे की सींक लगती है जिसे बाण कहा जाता है। हल के फाल भी तीन प्रकार होते है। इन्हें निसूड़ कहा जाता है। पारंपरिक फाल तीन प्रकार के होते है। पहला एक हाथ या 18 इंच से बड़ा फाल दूसरा 18 इंच का फाल तीसरा एक जुआ फाल – बैलों और हल को जोड़ने के लिए जुआ नामक यंत्र प्रयुक्त किया जाता है। जुए की लंबाई 3 हाथ होती है। लगभग 54 इंच , जुए को नाड़े की सहायता से हल से जोड़ा जाता है। बड़े फाल का उपयोग खेत की जुताई के लिए, मध्यम आकार वाले का उपयोग दोहराई के लिए और छोटे आकार के फाल का उपयोग बुवाई के लिए किया जाता है।
जुआ –
बैलों और हल को जोड़ने के लिए जुआ नामक यंत्र प्रयुक्त किया जाता है। जुए की लंबाई 3 हाथ होती है, लगभग 54 इंच, यह पूर्णतः लकड़ी का बना हुआ यंत्र है। जुए पर रस्सी के सहारे बैलों को जोता जाता है। जुए को नाड़े की सहायता से हल से जोड़ा जाता है।
जोत (पाटा)
जुताई के बाद मिट्टी के ढेले को तोड़ने और खेत को समतल करने के लिए जोल का इस्तेमाल किया जाता है। यह एक चौकोर लकड़ी का भारी गिल्टा होता है जो कि एक लट्ठे से जुड़ा हुआ होता है। लट्ठे पर दो किलड़ियां होती है। लट्ठे की लंबाई 6 हाथ होती है, जोल दोनों किनारों पर थोड़ा मोटा होता है, किनारे से 6 इंच की दूरी पर दोनों तरफ से इसे पतला कर दिया जाता है और इस का बीच का भाग 15 डिग्री के कोण तक दोनों कोनों से उठा रहता है। खेत में जुताई के बाद जोल लगाने के दो प्रमुख फायदे है, एक तो मिट्टी के ढ़ेले टूट जाते है दूसरा बीज बोने के बाद बीज ढक जाता है। साथ ही खेत समतल होने से मृदा अपरदन से भी बच जाता है।
दन्याल
दन्याल यंत्र पूर्णतः लकड़ी का बना होता है। इसका उपयोग फसल की निराई-गुडाई व खरपतवार निकालने के लिए किया जाता है। एक दान्याल की लंबाई 2 फीट तथा चौड़ाई 6 इंच होती है। इस पर लकड़ी के बने घन होते है जो कि छोटे छोटे पच्चरों की सहायता से ठोके जाते है। ‘दन्याल‘ के प्रत्येक धन की लंबाई 1 हाथ या 18 इंच होती है। इसमें ऊपर से पकड़ने के लिए दो हत्थे लगे हुए होते है। दन्याल के घन उसके मुख्य आधार से 45 डिग्री झुके हुए होते है। दन्याल के हत्थे अंग्रेजी के एल आकार की लकड़ी से बनाए जाते है। दन्याल पर भी लठ् लगा होता है। दन्याल का उपयोग मुख्यतः मडुवे और धान में किया जाता है। कहीं कहीं विशेष क्षेत्र में मिर्च में भी खेत के ऊपर जमी हुई पपड़ी निकालने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। यह मिट्टी में दरारें बनाकर पौधों को हवा में मौजूद नाइट्रोजन उपलब्धता कराता है। इससे बहुत ही कम समय में खरपतवार व अधिक घने जमें पौधों को निकाल लिया जाता है। जिससे जमे हुए फसल के पौधे स्वस्थ एवं मोटे होते है।
कुदाल
कुदाल का उपयोग खेत खोदने, मिट्टी के ढेले तोड़ने, निराई-गुड़ाई करने, गोबर फैलाने और वह कम्पोस्ट निकालने के लिए किया जाता है। यह पारंपरिक रूप से लकड़ी के एक चौकोर एक से डेढ़ हाथ लंबे टुकड़े पर छेद कर इसमें लोहे की बनी हुई छड़ फंसा कर किया जाता है। कुदाल का सिरा उसके हत्थे से 45 डिग्री के कोण पर झुका हुआ होता है। ताकि उससे आसानी से गहरी खुदाई हो सके। ये तीन प्रकार के होते है-
1. बडे़ कुदाल :- इसका उपयोग जमीन खोदने हेतु किया जाता है इसके लकडी का हत्था एक हाथ से बडा होता है।
2. मध्यम कुदाल :- एक हाथ के बराबर हत्थे वाला कुदाल मिट्टी के ढेले तोड़ने के लिए बनाया जाता है।
3. लघु कुदाल :- एक हाथ से छोटे हत्थे वाला कुदाल केवल गुड़ाई और रोपाई में प्रयुक्त किया जाता है।
गैंती का भी प्रयोग जमीन खुदाई के लिए किया जाता है। यह विशेष गहरी खुदाई के लिए बनाया गया यंत्र है जिसका एक सिरा नुकीला तथा दूसरा सिरा चपटा होता है। चपटा सिरा मिट्टी वाली जमीन को खोदने के काम आता है और नुकीला सिरा ठोस एवं पथरीली जमीन को खोदने के लिए काम में लाया जाता है। गैंती का नुकीला सिरा हत्थे से 75 डिग्री झुका हुआ होता है और चपटा सिरा हत्थे से 105 डिग्री विपरीत दिशा में मुड़ा होता है।
बसूला –
उत्तराखण्ड की पारंपरिक कृषि यंत्रों में बसूले का स्थान महत्वपूर्ण है। बसूले का प्रयोग कृषि यंत्रों के निर्माण/शिल्प कला के लिए किया जाता है। बसूला लोहे का बना हुआ ‘एल’ आकृति का यंत्र होता है। जिस पर लकड़ी का हत्था लगा होता हैं। बसूले का वजन 1 किलो से 1.5 किलो तक होता है। बसूले का हत्था अपने आधार के साथ 60 अंश का कोण बनाता है।
बसूले दो प्रकार के होते है, एक बसूला बहुउद्देशीय होता है जिसे कई कामां में लाया जा सकता है। दूसरे बसूले की संरचना अंग्रेजी के उल्टे टी के जैसी होता है।
इसे मंड़ाई के लिए अनाज से उसकी बालें काटकर अलग करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। विशेष पहुंच का प्रयोग गेहूं मड़ाई के लिए किया जाता है। दूसरे प्रकार के वसूले बीच में से 45 अंश के कोण पर मुड़ा हुआ होता है।
दरांती
दरांती का निर्माण लोहे की छड़ को मोड़कर किया जाता है। दरांतियों को आकार के आधार पर 3 भागों में बांटा जा सकता है। सबसे बड़ी दराती क्षेत्रीय भाषा में थमाल कहा जाता है। यह लोहे की बनी हुई भारी दरांती होती है, वनज 1 किलो से अधिक होता है। इसका उपयोग मुख्यतः लकड़ी और पेड़ की मोटी टहनियों को काटने के लिए किया जाता है, मध्यम आकार की दरांती पर लकड़ी का हत्था होता है और इसका उपयोग पेड़ों से चारा काटने के लिए मुख्यतः किया जाता है। लघु आकार की दरांती आकार और वजन में छोटी होती है इसका उपयोग घास काटने के लिए किया जाता हैं।
मुंगरी और लट्ठे –
पर्वतीय कृषि में पारंपरिक रूप में अनाज मंडाई के लिए मुंगरी और लट्ठे का प्रयोग किया जाता है या अनाज की फलियों को सुखाकर उनके ऊपर बैलों को घुमाकर भी अनाज मंडाई की जाती है। जिसे ‘दै‘ करना कहा जाता है। अनाज की बालों को कूटकर मंडाई करने के लिए मुंगरी या लट्ठे का प्रयोग भी यहां काफी प्रचलित है। मुंगरी लकड़ी का बना हुआ एक डेढ़ हाथ लंबा यंत्र होता है, जो पूर्णतः लकड़ी का बना होता है। लट्ठा एक लकड़ी की छड़ है जिसकी लंबाई लगभग 5 हाथ होती हैं, यह मुख्यतः सोयाबीन, भट और गहत, मंडुवा की मड़ाई में काम आता है।
फसल की मड़ाई के बाद उसे साफ करने के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले यंत्रों में सूप, मटियाल ओर मादेरी का महत्वपूर्ण स्थान है। सूप अनाज को फटकने के काम आता है। इसकी सहायता से अनाज से भूसा ओर कंकड़ पत्थर अलग कर साफ किया जाता हैं। सूप अपने आधार से 45 अंश का कोण बनाते हुए मुड़ा होता है। सूप का निर्माण बांस से किया जाता है।
मटियार
मटियार एक लोहे के तसले के आकार के पात्र पर बीच में छोटे छोटे छेद कर बनाया जाता है। मटियाल में अनाज रखकर हिलाने से अनाज में मिले छोटे-छोटे कंकड़ पत्थर और मिट्टी मटियाल से नीचे गिर जाते है। यह मुख्यतः अनाज साफ करने में प्रयुक्त होने वाला यंत्र है, मदेरी मुख्यतः अनाज सुखाने में प्रयुक्त होती है। इसका प्रयोग अनाज और अनाज भूसा अलग करने के लिए भी किया जाता है।
परंपरागत पर्वतीय कृषि में मापक यंत्र भी विशिष्ठ है। जिनमें मुट्ठी, माणा, सेर, नाली, पाथा, दूण, कुलथा, मन प्रचलित है। इन इकाईयों के आधार पर आज भी माप की जाती है। साथ ही भूमि के नाप के लिए भी उसमें बोई जाने वाले बीज की माप के आधार पर इन इकाइयों का प्रयोग किया जाता है।
इन सभी पारंपरिक मापक यंत्रों का निर्माण मुख्यतः लकड़ी से किया जाता हैं। अपवाद स्वरूप कुछ यंत्र ‘पीतल’, ‘तांबे’, या कांसे के भी मिल जाते हैं। इन सभी मापक यंत्रों की संरचना भी विशिष्ठ होती है। छोटे मापक यंत्र ठोस लकड़ी से बनाए जाते है। बड़े मापक यंत्रों का निर्माण बांस या रिंगाल से भी किया जाता है।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते है कि पर्वतीय कृषि में वैज्ञानिकता और कृषि यंत्रों में ज्यामितिय वैज्ञानिकता विद्यमान है। ये यंत्र देखने में सरल किंतु निर्माण ओर संरचना प्रक्रिया में काफी जटिल है। इनके निर्माण का अपना एक व्यापक विज्ञान है। आज जब पूरा वैश्विक समाज पर्याप्त वैज्ञानिक विकास करने के बावजूद अनेक बीमारियों और मानव निर्मित समस्याओं से ग्रसित है, ऐसे समय में हमें परंपरागत ज्ञान विज्ञान और तकनीकीयों के सहारे भी मानव समाज के कल्याण के रास्ते ढूंढने चाहिए। (साभार : वैज्ञानिक)
कु. प्रतीक्षा जोशी
शोध छात्रा, भारतीय पेट्रोलियम संस्थान देहरादून