प्राकृतिक खेती हमारी परंपरा से जुड़ी हुई है और अब ये समय की मांग बन चुकी है। खेती के आधुनिक तौर तरीकों को अपनाकर हमने अपनी खाद्य जरूरतों को तो पूरा कर लिया, लेकिन दूसरी ओर रसायन के अंधाधुंध प्रयोग की वजह से, हमारी धरती और हमारे जीवन पर इसका बहुत दुष्प्रभाव पड़ा है। रासायनिक खेती के कारण धरती की घटती उर्वरक शक्ति और बढ़ते प्रदूषण ने पूरी दुनिया को चिंता में डाल दिया है। लेकिन इसका समाधान हमारी परंपरागत खेती यानी प्राकृतिक खेती में मौजूद है। अब भारत में इस ओर पूरा ध्यान दिया जा रहा है।
हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी इस तरह की खेती को प्रोत्साहित कर रहे हैं। भारत सरकार ने परंपरागत कृषि विकास योजना में भी भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति के नाम से एक उप योजना तैयार की है। इसके अंतर्गत किसान को 3 साल के लिए प्रति हेक्टेयर 12,200 रुपए की आर्थिक सहायता दी जाती है।
इस उपयोजना में अब तक 4 लाख 9 हजार 400 हेक्टेयर क्षेत्र कवर हो चुका है और 8 राज्यों के लिए 4981 लाख रुपए जारी किए जा चुके हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी 35 जिलों की 98,670 हेक्टेयर जमीन को प्राकृतिक खेती के लिए प्रस्तावित किया है। इस पर 19,772 लाख रुपए खर्च होंगे। इससे 51,450 किसानों को फायदा मिलेगा। अकेले प्रयागराज जिले में 1000 हेक्टेयर से भी ज्यादा जमीन भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति के अंतर्गत आ गई है, जो यहां के 913 किसानों को फायदा पहुंचा रही है।
प्राकृतिक खेती पूरी तरह से प्राकृतिक संसाधनों या दूसरे शब्दों में कहें तो कुदरती सामग्री पर आधारित होती है। इसके अंतर्गत बताए गए तरीकों से खेती करने पर, मिट्टी की भौतिक संरचना में सुधार होता है और वो प्राकृतिक तौर पर अधिक उपजाऊ बन जाती है। इस तरीके से की गई खेती में फसलों में जलवायु-परिवर्तन की मार को सहन करने की ताकत रहती है। इसमें लागत कम आती है, पानी की बचत होती है और उत्पादन भी बढ़ जाता है।
इस प्रकार की खेती में, केवल एक देसी गाय से ही 30 एकड़ जमीन के लिए खाद तैयार हो जाती है। यानी प्राकृतिक खेती मुख्य रूप से देसी गाय पर आधारित है और ये जमीन को सेहतमंद बनाने के सिद्धांत पर काम करती है। क्योंकि पौधे अपना सारा पोषण मिट्टी से ही लेते हैं, इसलिए मिट्टी जितनी ताकतवर होगी, उपज उतनी ही ज्यादा और बेहतर क्वालिटी की होगी।
दरअसल खेती में रसायनों का प्रयोग न केवल मिट्टी को कमजोर करता है, बल्कि फसलों को भी जहरीला बना देता है। रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक पर्यावरण को भी प्रदूषित कर रहे हैं। कई बार मानक से ज्यादा कीटनाशक पाए जाने पर विदेशी खरीदार हमारी फसलों को खरीदने से मना कर देते हैं। इसका काफी नुकसान कहीं न कहीं हमारे कृषि क्षेत्र को हुआ है। ये रसायन सिंचाई के पानी के साथ भूमिगत जल में जा मिलते हैं और उसे प्रदूषित कर देते हैं। इसीलिए अब प्राकृतिक खेती समय की मांग है और जरूरत भी बन गई है। मिट्टी में 16 तरह के पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो फसलों की अच्छी बढ़वार और ज्यादा पैदावार के लिए जरूरी हैं। इनमें से एक भी तत्व की कमी हो जाने पर, बाकी 15 तत्वों का भी विशेष लाभ फसल को नहीं मिल पाता। देसी गाय के गोबर में ये सभी तत्व मौजूद रहते हैं। गाय के गोबर और मूत्र की गंध, केंचुओं की संख्या बढ़ाने में सहायक होती है और ये केंचुए किसानों के मित्र माने जाते हैं।
इसके अलावा प्राकृतिक खेती में गहरी जुताई की जरूरत नहीं होती। इसमें सिंचाई भी पौधों से कुछ दूरी पर की जाती है, जिसमें केवल 10 फीसदी ही पानी लगता है। दूर से पानी देने की वजह से पौधों की जड़ों की लंबाई बढ़ जाती है और तनों की मोटाई के साथ-साथ पौधों की लंबाई में भी बढ़ोत्तरी होती है।
प्राकृतिक खेती में पौधों की दिशा उत्तर-दक्षिण रखी जाती है, ताकि पौधों को सूरज की ऊर्जा और रोशनी ज्यादा समय तक मिले। इससे पौधों का अच्छा विकास हो जाता है, उनमें न सिर्फ कीट लगने की आशंका कम हो जाती है, बल्कि पौधों में पोषक तत्व भी संतुलित मात्रा में एकत्र हो जाते हैं। प्राकृतिक कृषि में मुख्य फसल के साथ सहयोगी फसलों को भी उगाया जा सकता है। खेती करने के इस तरीके में देसी बीजों की भी काफी अहम भूमिका होती है। देसी बीज न केवल पोषक तत्व कम लेते हैं, बल्कि पैदावार भी ज्यादा देते हैं।
भारत में प्राकृतिक खेती की शुरुआत डा. सुभाष पालेकर ने की। इसलिए इन्हें इस तकनीक का जनक कहा जाता है। इन्होंने नागपुर में कृषि की स्नातक डिग्री हासिल की। वैसे तो इनकी पूरी पढ़ाई रासायनिक तरीकों पर ही आधारित थी। पहले इन्होंने अपने फार्म में रासायनिक तरीके से ही खेती करनी शुरू की। लेकिन कई वर्षों के बाद, फिर इन्हें प्राकृतिक खेती का विचार उपनिषदों और वेदों से मिला।
इन धार्मिक ग्रंथों में प्रचलित कुछ सूत्रों से प्रेरित होकर, इन्होंने प्राकृतिक खेती की शुरुआत की और इस पर वैज्ञानिक शोध शुरू किए। व खेती के ऐसे तरीके तलाश करने लगे, जिससे मिट्टी में मौजूद जीवों की रक्षा हो सके और ये तभी संभव था, जब खेत जहरीले रसायनों से मुक्त हों और मिट्टी की सेहत मजबूत हो। डॉ. पालेकर ने रासायनिक खेती करते हुए पाया कि लगभग 12-13 वर्षों तक तो खेती में पैदावार बढ़ती रही, लेकिन उसके बाद घटनी शुरू हो गई।
इसके अलावा आदिवासियों के साथ काम करते हुए सुभाष पालेकर को पता चला कि जंगलों में पौधों के विकास के लिए किसी बाहरी तत्व की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि बढ़वार के लिए जरूरी सभी साधन प्रकृति से ही उपलब्ध हो जाते हैं। इसके बाद उन्होंने अपने फार्म पर शोध करके, 6 साल की कड़ी मेहनत के बाद, बिना रसायनों वाली प्राकृतिक खेती की तकनीक विकसित करने में सफलता हासिल की। जिसका उन्होंने नाम दिया, ‘कम लागत प्राकृतिक खेती।’ अब वो इसे पूरे भारत में प्रोत्साहित कर रहे हैं। सरकार भी इसमें उनकी पूरी मदद कर रही है और उन्हें इसके लिए 2016 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। प्राकृतिक खेती की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। विशेषकर छोटे और सीमांत किसान इसे लेकर काफी उत्साहित हैं, क्योंकि इसमें उर्वरकों और कीटनाशकों पर कोई खर्च नहीं आता और उपज भी भरपूर मिलती है। छोटे और सीमांत किसानों के लिए प्राकृतिक खेती किसी वरदान से कम नहीं है, क्योंकि ऐसे किसानों के पास आय के काफी कम साधन होते हैं और खेती में लगने वाली भारी लागत इनकी कमर तोड़ देती है।
कई लोगों को लगता है कि प्राकृतिक खेती से शुरुआत में उपज कम रहेगी, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। पहले ही साल में किसान भरपूर उपज ले सकते हैं। खाद और कीटनाशक, खेती के लिए जरूरी होते हैं। इन्हें प्राकृतिक खेती की तकनीक में घर पर ही मौजूद सामग्री से बनाया जा सकता है। इसमें खाद को दो तरह से बनाया जा सकता है। पहले तरीके में एक देसी गाय का 24 घंटे का गोबर लेना है, जो करीब 10 किलो होना चाहिए, साथ ही 24 घंटे में ही इकट्ठा किया गया 8-10 लीटर गोमूत्र हो, डेढ़-दो किलो गुड़ होना चाहिए, इतनी ही मात्रा में किसी भी दाल का बेसन हो और पेड़ के नीचे की एक मुट्ठी मिट्टी होनी चाहिए। इन पांचों चीजों को प्लास्टिक के एक ड्रम में 180 लीटर पानी में मिलाकर, एक लकड़ी के डंडे से, सुबह-शाम पांच-पांच मिनट डंडे को क्लाकवाइज घुमाते हुए मिलाना है। इस मिश्रण के ड्रम को बोरी से ढक कर किसी छायादार स्थान में रखना है। 4 से 6 दिन में ये खाद तैयार हो जाएगी, जो 1 एकड़ जमीन के लिए पर्याप्त है। इसी तरह ज्यादा जमीन के लिए ज्यादा खाद तैयार की जा सकती है। ये खाद मिट्टी की भौतिक दशा को सुधार देगी, इसे जीवामृत कहते हैं।
दूसरी खाद, जिसे घनजीवामृत कहते हैं, इसमें 100 किलो गाय के गोबर को सुखाकर बारीक कर लेते हैं, साथ ही 24 घंटे का गोमूत्र, डेढ़ किलो गुड़, डेढ़ किलो बेसन और एक मुट्ठी मिट्टी मिलाकर, छायादार जगह पर हफ्ते भर तक सुखाया जाता है, फिर इसे कूट कर महीन कर लिया जाता है। इस खाद को यूरिया की तरह ही 6 से 7 महीने तक कभी भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी तरह कीटनाशक बनाने के लिए गोबर, गौमूत्र, पौधे के पत्ते, तम्बाकू, लहसुन और लाल मिर्च का प्रयोग किया जाता है।
खेती को अक्सर मौसम की मार भी झेलनी पड़ती है, जिससे किसानों का बहुत नुकसान होता है और कड़ी मेहनत करने के बावजूद उनकी फसलें बर्बाद हो जाती हैं। ऐसे में प्राकृतिक खेती के तरीके को अपनाकर ही इन चुनौतियों का समाधान निकल सकता है।
प्राकृतिक खेती में फसलें मौसम की मार और जलवायु में हो रहे परिवर्तन को आसानी से सहन कर लेती हैं। रासायनिक खेती में लागत अधिक आती है और रसायनों ने जिस तरह से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति पर वार किया है, उससे ये लागत और बढ़ जाती है। ऐसे में प्राकृतिक खेती किसानों के मन में नई उम्मीदें जगा रही है।
बढ़ती लागत और रसायनों से परेशान बहुत से किसान प्राकृतिक खेती को अपनाने लगे हैं। देसी गाय पालन करने वाले किसानों के लिए तो प्राकृतिक खेती और भी आसान है, क्योंकि ये विधि देसी गाय पर आधारित है। रासायनिक खेती से पैदा हुई फसल जहरीली होती है और अनेक बीमारियों को जन्म देती है, जबकि प्राकृतिक खेती से पैदा हुई फसल बेहतर स्वास्थ्य प्रदान करती है और पर्यावरण संतुलन भी बना रहता है। इसीलिए अब किसान इस जीरो बजट खेती को अपना रहे हैं। ये रासायनिक खेती की तुलना में कम खर्चीली और बेहतर मुनाफा देने में सक्षम है।
प्राकृतिक खेती में साल दर साल मिट्टी की उर्वरता बढ़ती जाती है, जिससे किसान फसलों का अधिक उत्पादन करने और अधिक मुनाफा कमाने में सक्षम हो जाते हैं। इसकी प्राथमिक जरूरत है पशुपालन, क्योंकि पशुओं के अपशिष्ट से खाद और कीटनाशक बनाए जाते हैं। इसमें सबसे अधिक उपयोगी है देसी गाय, क्योंकि देसी गाय के गोबर और गोमूत्र में जो तत्व पाए जाते हैं वे किसी अन्य पशु के अपशिष्ट में नहीं मिलते।
हमारे देश में पहले इसी प्रकार से खेती की जाती थी और उससे उत्पन्न अन्न, फल, सब्जियों आदि की अलग ही विशेषता होती थी। आज फिर उसी तकनीक को अपनाने की जरूरत है, जिससे स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा धरती के बंजर होने के खतरे को रोका जा सके और फिर से हम अपनी प्राचीन समृद्धि को प्राप्त कर सकें। दरअसल मिट्टी में पाए जाने वाले जीव मित्र ही खेती में बेहद सहायक होते हैं। रसायनों के प्रयोग से वे मरने लगते हैं, जिससे धीरे-धीरे धरती की उपजाऊ शक्ति कम होने लगती है और वो बंजर होने की कगार तक पहुंच जाती है। प्राकृतिक खेती में प्रयुक्त खाद और जीवामृत मिट्टी में पाए जाने वाले इन जीव मित्रों की संख्या को कई गुना बढ़ा देते हैं, जिससे धरती की उर्वरता, फसलों की क्वालिटी और मात्रा में भी बढ़ोत्तरी होती है। इसमें न तो खाद की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और ना ही पानी की। इस तरह यह खेती हर प्रकार से किसानों, धरती और पर्यावरण के लिए बहुत ही उपयोगी है।
रंजना मिश्रा
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