पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में एक नदी और जल निकायों के संरक्षण करने वाले तापस दास कई स्थानीय प्राकृतिक जल निकायों को बचाने की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं। तापस दास अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहते है। “जब मैं अपने कालेज के दिनों में छात्र राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल हुआ, तब मेरे आस-पास कई ऐसी घटना घटी जिसने कई हद तक मुझे जल निकायों पर सोचने पर मजबूर कर दिया। और इसी से मुझे नदी संरक्षण पर काम करने की प्रेरणा मिली’’।
एक संयुक्त परिवार में पले-बढ़े दास की यात्रा साल 2007 में शुरू हुई थी तब उन्होंने भारत के समुद्र तट पर नंगे पांव ही यात्रा की थी। उन्होनें पश्चिम बंगाल के गंगासागर से अपनी यात्रा शुरू की और देश के कई राज्यों को कवर करते हुए गुजरात पहुंचे थे । हालाँकि इस दौरान हर 100 किलोमीटर पर लोगों की भाषा, भोजन और संस्कृति तो बदल गई थी लेकिन पानी की उपलब्धता और समस्या सब जगह एक जैसी थी। जिसके बाद उन्होंने भारत के जल संकट के मुद्दे पर कड़ी नज़र रखने और जल निकाय संरक्षण के प्रयासों में शामिल होने का फैसला लिया । एक जल-समृद्ध देश, जहां भरपूर बारिश होती है और भीतरी इलाकों में सैकड़ों नदियां बहती हैं, वहां भी विभिन्न स्थानों पर पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। दास कहते हैं कि ‘‘हम मानसून के दौरान बाढ़ और गर्मियों में सूखे का सामना करते हैं। और यह समस्या पानी के लिए बेहतर योजाना नहीं बनाने के कारण उत्पन्न हुई है क्योंकि हम पर्यावरण की स्थिति के बारे में बिना सोचे-समझे बुनियादी ढांचे का निर्माण करने लगते है। भारत का हमेशा नदियों और प्रकृति के साथ जो संबंध रहा है,उसे संरक्षित करना होगा और मेरा काम भी नदियों को केंद्र में रखने के आस-पास रहता है।’’
भारत में वर्तमान में 5000 से अधिक बड़े बांध हैं, जिन्होंने कई मामलों में नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को नष्ट कर दिया है जिसके कारण अप्राकृतिक नदी बन रही है और उससे सूखे और बाढ़ जैसी स्थिति और आर्सेनिक प्रदूषण की समस्या पैदा हो रही है। क्योंकि बांध के पीछे तलछट में आर्सेनिक जैसी भारी धातुएं जमा हो रही है ।
कई सम्मेलनों का नेतृत्व कर चुके दास ने, इस समस्या से लड़ने के लिए बड़ी संख्या में लोगों को एक साथ लाने का काम किया है । वर्ष 2017 में हुए मोरीग्राम कन्वेंशन में उनकी टीम ने इस मुद्दे से निपटने के लिए एक स्पष्ट रोडमैप तैयार किया और सरकार सहित विभिन्न साझेदारों में जागरूकता बढ़ाने के लिए अपनी लड़ाई जारी रखी।
दास को अपने गृह राज्य बंगाल की भी चिंता है। राज्य की कृषि विकास दर राष्ट्रीय औसत से कई अधिक रही है जिसका सबसे बड़ा कारण कई नदियों और उनकी सहायक नदियों की उपस्थिति है । हालांकि, पिछले कई दशकों से कई जगह बंगाल में जल संकट और आर्सेनिक प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है। राज्य की और से बांधों,नहरों और चैनलों को बनाकर नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बदला गया है।
यह नहर स्थानीय रूप से लोकप्रिय है और क्षेत्र को ठंडा रखने के अलावा भूजल पुनर्भरण में भी मदद करती है। दास सरकार के उस अल्पकालिक दृष्टिकोण पर अफसोस जताते हैं जिसमें बड़े पैमाने पर इंफ्ररास्ट्राकर का विकास करते समय पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल दुष्प्रभावों को नजरअंदाज कर दिया जाता है दास कहते है । ‘‘भारत इस तरह की गतिविधियों के विरोध में कई संधियों और सम्मेलनों का हस्ताक्षर कर चुका है, फिर भी कोलकाता नगर निगम ऐसे काम करना जारी रखता है जो इन्हें कमजोर करते हैं साथ ही बुनियादी ढांचे के निर्माण की सदियों पुरानी औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है, इससे प्रकृति को होने वाले नुकसान की कोई परवाह नहीं की जाती है।’’
उनका मानना है कि इस तरह की गतिविधियों के लिए कार्यकर्ताओं को अधिक संघर्ष करना पड़ता है। जिसमें अधिवेशनों के आयोजन से लेकर प्रशासन को पत्र लिखने और धरना प्रदर्शन तक शामिल है। जलाशयों में अंधाधुंध अतिक्रमण के खिलाफ दास आज भी अपनी आवाज उठाने ने से पीछे नहीं हटते है।
दास का काम केवल शहरी केंद्रों तक ही सीमित नहीं रहा है, बल्कि पश्चिम बंगाल के दक्षिण दिनाजपुर के उत्तरी जिले के एक गांव तपन जैसे दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों तक भी पहुंच गया है। गाँव का नाम एक विशाल स्थानीय जल निकाय के नाम पर रखा गया है – ‘तपन दिघी’ (बंगाली में दिघी का अर्थ झील है)। स्थानीय प्रशासन इस समय झील की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर दीवार बना रहा है।
दास को यह तर्क एकदम बेतुका लगता है जब वह ये बोलते है कि यह दीवार प्रकृति और मनुष्यों के बीच एक अवरोध पैदा करती है। दीवार का निर्माण स्थानीय समुदाय को इसके सौंदर्य दृष्टिकोण से वंचित करने के साथ विभिन्न कार्यो के उपयोग करने के लिए पाबंध करता है साथ ही समुदाय को इससे प्राप्त होने वाली पारिस्थितिकी की सेवाओं को प्रतिबंधित करता है। तापस दास आंदोलन में सबसे आगे रहे हैं और स्थानीय समुदाय को एक साथ लाकर जागरूकता बढ़ाने का काम कर रहे है । सड़क पर विरोध प्रदर्शन आयोजित करने से लेकर मानव श्रृंखला बनाने तक उनकी टीम जागरूकता बढ़ाने और झील में बनी लंबी दीवार गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है।
रवींद्रनाथ टैगोर और गांधीजी के अनुयायी होने के नाते, तापस दास का मानना है कि हम ऐसी परियोजनाओं के साथ आकर प्रकृति से लगातार दूर हो रहे है । ये परियोजनाएं सरकार के वित्त को खा रही हैं और कभी न ख़त्म होने वाले निवेश को खोल रही है ऐसे में ये जरूरी है कि उन नए समूहों को सुरक्षित किया जो विकास के चलते खासे प्रभावित हुए है। दास आगे कहते है कि हमने दोषपूर्ण विकास परियोजनाओं के साथ एक लंबा सफर तय किया है और अब पर्यावरण की रक्षा के लिए बुनियादी ढांचे को विकसित करने की जरूरत है।
दास ने नदियों के आधार पर अपना आंदोलन ‘नदी बचाओ, जीवन बचाओ ’ के रूप में साल 2014 में शुरू किया। वह तब प्रमुखता से सामने आए जब उन्होंने गंगा पर हर 100 किलोमीटर की दूरी पर बैराज के निर्माण के विरोध में गोमुख से गंगासागर तक 2200 किलोमीटर की एक साइकिल रैली का आयोजन किया। अधिकांश पर्यावरणविदों की तरह उनका भी मानना था कि इससे गंगा कई टुकड़ों में बट जाएगी और प्राकृतिक मार्ग को अवरुद्ध करके छोटी झीलों में बदल जायेगी ।
शहरी क्षेत्रों में तेजी से बढ़ती आबादी ने प्रकृति के लिए जगह कम कर दी है। पिछले 5-10 वर्षों में शहरी स्थानीय निकायों द्वारा सड़कों और घरों को बनाने के लिए तालाबों और झीलों को अंधाधुंध भरते हुए देखा गया है। हाल ही में, दास ने यह स्थिति अपने पड़ोसी क्षेत्र बेहाला (कोलकाता) में भी देखी। जहां राज्य सरकार सड़क बनाने के लिए 22 किमी लंबी चरियाल खल (चारियल नहर) के कुछ हिस्से को भर रही है। चारियल सबसे पुरानी नहरों में से एक है और इसका ऐतिहासिक उल्लेख जहांगीर (मुगल सम्राट) और अंग्रेजों के शासन काल में भी हुआ है। पहले भी कई बार इसकी जांच कर पुनर्निर्मित किया गया था, लेकिन साल 1980 के दशक में इसकी लम्बाई 3 किलोमीटर तक बढ़ा दी गई थी। तापस दास का मानना है कि वह इस तरह की गतिविधियों के खिलाफ लोगों की भावनाओं को प्रसारित करने में सक्षम होंगे और उम्मीद करते हैं कि नई पीढ़ी जल निकायों के संरक्षण के आंदोलन को आगे बढ़ाने में उनका साथ देगी।
शुभ्रज्योति कर्माकर