कहते हैं सीखने की कोई उम्र नहीं होती। समझ के आधार पर विकसित व्यावहारिक ज्ञान की ऊँचाई की कोई सीमा नहीं होती। सटीक ज्ञान के आधार पर सम्पन्न सफल काम का आनन्द अवर्णनीय होता है। यदि किसी मनपसन्द काम को करने का संकल्प दिल में उतर जाए तो रुकावटें भी अपने आप मार्ग देने लगती हैं। अच्छे कामों से व्यक्ति की सही पहचान बनती है। सही पहचान स्थायी होती है। उसके बनने का सुख अलग ही होता है। कुछ-कुछ ऐसा ही नदी चेतना यात्रा के लिए होमवर्क करते लोगों के लगातार बढ़ते जुड़ाव और जुनून को देखकर लग रहा है।
उल्लेखनीय है कि बिहार में ‘‘पानी रे पानी’’ अभियान के आयोजकों द्वारा नदी चेतना यात्रा के लिए प्रति दिन होमवर्क चलाया जा रहा है। लगता है कि इस होमवर्क के माध्यम से नदी-शुभचिन्तकों का ऐसा कैडर तैयार हो रहा है जो नदी और समाज के बिसराए परम्परागत सम्बन्ध को पुनःस्थापित कर कछार की जल संकट से जुडी समस्याओं से निजात दिलाने के लिए नई इबारत लिखेगा।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए नदी चेतना यात्रा से जुड़े लोग समाधानों पर केन्द्रित वीडियो देखते हैं। सफलता की कहानियों के मर्म को समझने का प्रयास करते हैं। प्रश्नोत्तर तथा अनुभवों को साझा कर शंकाओं का समाधान करते हैं। लेकिन दूसरी ओर, नदी चेतना यात्रा के आयोजक इस हकीकत को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि यदि उनके होमवर्क में खामी रही या उसका सामाजिक पक्ष कमजोर रहा तो सारी यात्रा बेकार हो जावेगी।
नदियों के प्रवाह की मौसमी घट-बढ़ पर पहले भी अलग-अलग मौकों पर चर्चा हुई है लेकिन होमवर्क की कड़ी में 22 अगस्त 2020 को हुई चर्चा अहम थी, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से नदी चेतना यात्रा से जुड़े लोग नदी प्रवाह की मौसमी घट-बढ़ को समझने का प्रयास कर रहे थे। इसलिए उन्होंने सबसे पहले, बरसात, ठंड और गर्मी के मौसम में नदियों के प्रवाह के लगातार घटने की चर्चा की।
चर्चा में यह भी सामने आया कि पिछली सदी में यह घट-बढ़ कुदरती थी। अब उसमें मानवीय हस्तक्षेप अर्थात पानी की सीधी पम्पिंग और भू जल दोहन का घटक जुड गया है। इन घटकों ने बरसात के प्रवाह की मात्रा को तो उतना नहीं घटाया जितना सूखे दिनों के प्रवाह को घटाया है। इस कडी में छोटी-छोटी सहायक नदियों पर यह असर अधिक देखा गया है। उसके बाद, बोल्डर, बजरी, रेत और सिल्ट (मिट्टी के बेहद महीन कण) के नदी मार्ग के कुदरती क्रमिक वितरण पर चर्चा हुई। बोल्डर, बजरी, रेत और सिल्ट की बाढ़ तथा प्रवाह नियोजन क्षमता और जैव-विविधता से संबद्ध बिन्दुओं पर समझ बनाई गई।
उनके महत्व को रेखांकित किया गया। साथ ही साथ उदगम से लेकर संगम तक नदी की बढ़ती चौड़ाई, और बाढ़ क्षेत्र तथा राईपेरियन जोन (नदी के दोनों किनारों से लगा क्षेत्र) की नदी तथा समाज हितैषी भूमिका को समझा गया। इसके उपरान्त बरसाती प्रवाह पर चर्चा केन्द्रित की। सभी जानते हैं कि बरसात के दिनों में नदी में प्रवाह की अधिकता होती है।
चर्चा के दौरान प्रतिभागियों ने जानकारी दी कि प्रवाह की यह अधिकता पूरी बरसात में एक समान नहीं होती। कछार में पानी के बरसने से प्रवाह बढ़ जाता है। बरसात के नही होने से प्रवाह घट जाता है। यदि बरसात कछार के ऊपरी भूभाग में बरसात होती है तो कुछ समय बाद प्रवाह पर उसका असर दिखाई देता है पर यदि बरसात कछार के निचले इलाकों में होती है तो ऊपरी भूभाग पर उसका असर नहीं होता। इसके बाद नदी के पर्यावरणीय प्रवाह अर्थात प्रवाह की उस न्यूनतम मात्रा पर चर्चा हुई जो हर हालत में नदी में मिलना ही चाहिए। इस पूरी चर्चा का लब्बोलुआब यह था कि सिल्ट के सुरक्षित निपटान के लिए नदी की धारा अवरोध मुक्त और बालू की माईनिंग, नदी अस्मिता तथा जैव-विविधता को सुरक्षित रख करना चाहिए। बालू की गीली परतों की माईनिंग को प्रतिबन्धित करना चाहिए।
बाढ का प्रबन्ध राहत बांटना नही है। उसका प्रबन्ध बाढ़ के पानी की सुरक्षित निकासी है। अर्थात जन-धन की हानि से बचने के लिए बाढ़ क्षेत्र में बसाहट नहीं होना चाहिए। अनुभव सिद्ध करता है कि तटबन्धों से फायदे कम और नुकसान अधिक हुआ हैं। इस तरह के कामों की हानि-लाभ पड़ताल होना चाहिए। बैठक में उन स्थानों को चिन्हित करने पर सहमति बनी जहाँ भूजल रीचार्ज के लिए बालू की परत तक गहरे तालाब बनाने का उतना काम किया जाना चाहिए जिससे नदी-तंत्र जीवन्त हो सके।
नदी चेतना यात्रा के साथियों ने पछली बैठकों में नदी कछार के सीमांकन और उसके ढ़ाल को जानने के लिए सर्वे आफ इंडिया की टोपोशीट (स्केल 1ः50000) के अध्ययन की आवश्यकता को रेखांकित किया था। आन्तरिक चर्चा में चार किस्म के नक्शों यथा ड्रेनेज मेप, कछार के ढ़ाल का नक्शा, भूमि आच्छादन और भूमि उपयोग, हाईड्रोजियालाजिकल मैप पर चर्चा की आवश्यकता प्रतिपादित की गई।
इन नक्शों के उपयोग से नदी के कछार में कामों के निर्धारण में सुविधा होती है। चयनित नदी और उसकी सहायक नदियों में प्रवाह बहाली का मार्ग प्रशस्त होता है। पंकज मालवीय ने इन नक्शों को प्राप्त करने की जिम्मेदारी स्वीकारी। उपर्युक्त नक्शों के मिलने के बाद उन पर संवाद होगा। प्रीति और आकृति उनके प्रस्तुतिकरण की व्यवस्था करेंगी और उनके उपयोग के तरीकों पर साथियों से चर्चा करेंगी। यह प्रयास नदी चेतना यात्रा का हिस्सा होगा। यदि इस जानकारी के साथ समाज, अधिकारियों या पंचायत के साथ चर्चा होती है तो नदी मित्रों के सुझाव ग्राह्य होंगे और काम में समाज की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित होगी।
चयनित नदी कछार में कुछ पुराने तालाब हो सकते हैं। नदी चेतना यात्रा के दौरान उन पुराने तालाबों की स्थिति की जानकारी प्राप्त होगी। इनमें से कुछ तालाब आधुनिक तो कुछ पुराने परंपरागत तालाब हो सकते हैं। इन तालाबों के अध्ययन के लिए अभियान के आयोजक पंकज मालवीय ने नदी चेतना यात्रा के साथियों के बीच एक विस्तृत प्रपत्र जारी किया है।
इस प्रपत्र में तालाब से सम्बन्धित अधिक से अधिक जानकारी एकत्रित की जावेगी। उस जानकारी के आधार पर उनके पुनर्जीवन के लिए समाज से सम्वाद किया जायेगा। गौरतलब है कि स्वयंसेवी संगठनों के समूह द्वारा मध्यप्रदेश के उत्तर-पूर्व में स्थित बुन्देलखंड इलाके में पुराने तालाबों के पुनर्जीवन और प्रबन्ध के लिए तालाब प्रबन्ध कमेटी बनाई जाने का प्रयास चल रहा है। यह कमेटी तालाब से गाद निकलवाने, उसके और पानी के न्यायोचित वितरण जैसे अनेक काम करेगी। यह सारा काम समाज सम्मत पारदर्शी तरीके से सम्पन्न किया जावेगा। नदी चेतना यात्रा के आयोजकों का मानना है कि इन अभिनव प्रयासों का भी अध्ययन होना चाहिए। नदी चेतना यात्रा, यही जागरुकता हासिल कराने के लिए प्रयास करेगी। यदि यह प्रयास सफल होता है तो समाज की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित होगी। नदियों के कछारों की पुरानी उपयोगिता बहाल होगी।
सुनील यादव
जलमार्गों में एंटीबायोटिक निपटान के प्रभाव का अध्ययन
भारत में हर साल औसतन 58 हजार शिशुओं की मौत सुपरबग संक्रमण के कारण होती है, जो उनकी माताओं से उनके शरीर में प्रवेश करता है। यूरोपीय संघ में हर साल दवा प्रतिरोधी रोगजनकों के कारण 28 हजार से 38 हजार तक अतिरिक्त मौतें होती हैं। ।डत्सिवू नाम से एक शोध प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है, जिसमें न्यूकैसल विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ भी शामिल हैं। प्रोजेक्ट का उद्देश्य रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) को बढ़ाने में भारत की नदियों की भूमिका का पता लगाता है। इस काम (प्रोजेक्ट) के लिए यूके और भारत ने 1.2 मिलियन यूरो की फंडिंग की है।
पूरा प्रोजेक्ट यूके के प्राकृतिक पर्यावरण अनुसंधान परिषद और भारत के जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा समर्थित है, जिसमें क्रॉस-डिसिप्लिनरी टीम में न्यूकैसल विश्वविद्यालय, स्कॉटलैंड की जेम्स हटन संस्थान, आइआइटी गांधीनगर और आइआइटी मद्रास के शोधार्थी शामिल हैं। विशेषज्ञ भारत की दो विपरीत नदियों – हैदराबाद की मुसी नदी और चेन्नई की अड्यार नदी का नमूना लेंगे और मॉडल तैयार करेंगे। मुसी नदी का चयन इसलिए किया गया है क्योंकि इसमें एंटीबायोटिक्स की उच्च सांद्रता है, जबकि अड्यार नदी अपेक्षाकृत कम प्रदूषित है।
प्रोजेक्ट में न्यूकैसल की टीम का नेतृत्व पर्यावरणीय इंजीनियर डेविड ग्राहम करेंगे। डेविड ने दुनियाभर में एंटीबायोटिक प्रतिरोध के पर्यावरणीय संचरण का अध्ययन कर करने में बीस साल बिताए हैं। प्रो. ग्राहम के नेतृत्व में उनके सहयोगियों द्वारा हाल के वर्षों में किए गए कार्य से पता चला है कि एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीनों को रोगाणुओं के बीच आसानी से आदान प्रदान किया जाता है और ये कई मार्गों से होकर गुजरते हैं। यहां तक कि उन मार्गों से भी गुजरते और आदान प्रदान होते हैं जहां कार्यात्मक रूप से ये एंटीबायोटिक मौजूद नहीं हैं।
यूके और भारत के इस प्रोजेक्ट के बारे में बात करते हुए प्रो. ग्राहम ने कहा कि एएमआर का ये अध्ययन मात्रात्मक और भावीसूचक तरीके से किया जाएगा, जिसे पर्यावरणीय जोखिम का तत्काल आंकलन करने की आवश्यकता है। इसलिए इस परियोजना में बहुत अधिक संभावनाएं हैं। इसके अतिरिक्त हमारी जानकारी व ज्ञान के लिए प्रतिरोध जीन विनिमय के आनुवांशिकी से लेकर मेटागेनोमिक्स तक माइक्रो और मैक्रो-स्केल संख्यात्मक मॉडलिंग विभिन्न पैमानों पर अध्ययन को जोड़ती है। ऐसा पहले कभी नहीं किया गया है।
प्रो. ग्राहम ने हाल ही में एंटीबायोटिक प्रतिरोध के प्रसास से निपटने की प्रो. ग्राहम द्वारा दी गई सिफारिशों को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जून में प्रकाशित किया गया है। नए निर्देशनों का उद्देश्य देशों को स्थानीय स्तर पर संचालित राष्ट्रीय कार्य योजना बनाने के लिए एक ढांचा प्रदान करना है, तो उनकी स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप हो।
ये प्रो. ग्राहम के शोध सहित सुपरबग की समस्या के बढ़ते प्रमाणों पर विचार भी करता है, जिसमें बताया गया है कि ‘सुपरबग समस्या केवल एंटीबायोटिक का उपयोग करने से ही हल नहीं होगी। इसमें पर्यावरणीय और कारकों का समान या अधिक महत्व भी हो सकता है।’ बर्मिंघम विश्वविद्यालय के यूके प्रोजेक्ट लीड कर रहे जन क्रेफ्ट का कहना है कि हमें नहीं पता कि पर्यावरण में एंटीबायोटिक दवाओं का क्षरण कितनी जल्दी होता है और बारिश तथा बड़ी नदियों में प्रवेश करने के बाद ये पानी में कितना घुल जाता है।
एएमआर परियोजना में हम सीखेंगे कि विनिर्माण से एंटीबायोटिक्स और उनके द्वारा चुने गए प्रतिरोधी बैक्टीरिया नदी नेटवर्क के माध्यम से कैसे बहेंगे और उन्हें नदियों में कितनी दूर तक ले जाया जा सकता है, जहां से वे बाढ़ के दौरान खेतों और समुदायों में फैल सकते हैं। इसमें हम जल निकायों में एंटीबायोटिक दवाओं की सुरक्षित सांद्रता के लिए पर्यावरण मानकों को बनाने में मदद करने के लिए एक मात्रात्मक जोखिम मूल्यांकन करेंगे।
आइआइटी हैदराबाद से भारत में परियोजना के प्रमुख प्रोफेसर शशिधर थाटीकोंडा ने कहा कि हम पिछले शोध से ही जानते हैं कि मुसी नदी अब सुपरबग्स का कारखाना है। पर्यावरण में प्रतिरोधी बैक्टीरिया के भाग्य की भविष्यवाणी करने में मॉडलिंग जल प्रवाह महत्वपूर्ण होगा और हमारा लक्ष्य ऐसे मॉडल बनाना है, जो अन्य नदियों और देशों में लागू होंगे।
वैज्ञानिक प्रगति एंटीबायोटिक दवाओं के निर्माण से अलग-अलग उपचार, विकेंद्रीकृत सीवेज उपचार या रोकथाम जलाशय जैसे विभिन्न हस्तक्षेपों की प्रभावशीलता की तुलना करने की अनुमति देगी। प्रोफेसर शशिधर ने कहा कि जो सिफारिशें हम करेंगे वें पर्यावरण में प्रतिरोध के स्तर को कम करने में मदद करेंगी। यह प्रतिरोधी रोगजनकों की अधिकता को कम करने में योगदान देगा, जो संक्रमण को अनुपयोगी बनाते हैं।
द कन्वर्सेशन यूके में इस वर्ष के शुरुआत में प्रकाशित प्रोफेसर ग्राहम के लेख ‘इनसाइट्स’ में लिखा गया है कि पानी की खराब गुणवत्ता और स्वच्छता के अभाव वाले स्थानों में मौजूदा एंटीबायोटिक दवाओं का प्रतिरोध कैसे बढ़ता है। लेख में प्रोफेसर ग्राहम और आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में आफ इंफेक्शियस डिजीज एंड माइक्रोबायोलॉजी के प्रोफेसर सह-लेखक पीटर कोलिग्नन इससे निपटने के प्रभावी तरीकों के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं कि ‘स्थानीय स्थिति एंटीबायोटिक प्रतिरोध के प्रसार को कम करने के लिए महत्वपूर्ण है। ‘हर देश भिन्न है, इसलिए दुनिया भर की सरकारों को एक साथ काम करना चाहिए और प्रतिरोध के खिलाफ स्थानीय आवश्यकताओं और योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
प्रोफेसर ग्राहम कहते हैं, ‘एंटीबायोटिक प्रतिरोध के प्रसार की कोई सीमा नहीं है, इसलिए यह सभी की समस्या है और समस्या को हल करने में भी सभी देशों को अपनी भूमिका अदा करनी होगी। ।डत्सिवू समर्थित अनुसंधान यूके-भारत सरकार के पांच मिलियन पाउंड के पैकेज का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध से निपटने के लिए पांच नए कार्यक्रमों के साथ मौजूदा वैज्ञानिक अनुसंधान सहयोग को बढ़ाना है, जो एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया और जीन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में महत्वपूर्ण प्रगति का कारण बन सकता है।
रविन्द्र गिन्नौरे
फ्लडप्रूफ बना हरपुर बोचहा
बिहार के समस्तीपुर जिले के विद्यापतिनगर ब्लाक में एक गांव है हरपुर बोचहा। लगभग साढ़े 11 हजार की आबादी और 2349 घरों वाले इस गांव में सालभर बारिश और बाढ़ का पानी लगा रहता था। यही नहीं, इस गांव तथा अन्य 6 पंचायतों की मिलीजुली 6400 एकड़ जमीन थी, वहां भी सालभर पानी लगा रहता था, जिससे वहां एक फसल भी नहीं होती थी।
लेकिन पिछले एक दशक से गांव जलजमाव के अभिशाप से स्थायी तौर पर मुक्त हो गया है। यहां अब बाढ़ भी आती है और जलजमाव भी होता है, लेकिन पहले की तरह सालभर पानी नहीं ठहरा नहीं रहता है। पानी अब मेहमान की तरह आता है और एक हफ्ते 10 दिन में चला जाता है। गांव के लोग अब पानी को देखकर डरते नहीं हैं, वे उसका सत्कार करते हैं। जिस 6400 एकड़ जमीन जलजमाव के कारण सालभर खेती लायक नहीं रहती थी, अभी वहां साल में तीन फसल उग रही है।
ये सब स्थानीय लोगों के सहयोग और मुखिया की रचनात्मक सोच से ही संभव ही हो सका है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि बाढ़ आने पर या बरसात के मौसम में बारिश का पानी यहां जम जाता था, तो सालभर जमा ही रह जाता था। लोगों ने 6400 एकड़ जमीन में खेती करना ही छोड़ दिया था। ऐसा नहीं है कि ये समस्या कोई दो-चार दशक पहले की है। पारंपरिक तौर पर ये गांव और जमीन जलजमाव की समस्या से अभिशप्त था। 6400 एकड़ जो जमीन थी, वहां जलजमाव का इतिहास इतना पुराना है कि पुराने सरकारी दस्तावेज में वो जमीन खेत नहीं बल्कि एक जलाभूमि के तौर पर दर्ज है।
लोग बताते हैं कि सन् 77 में जब इंदिरा गांधी आई थी, तो गांव के कुछ लोगों ने उन्हें भी मांगपत्र सौंपा था और जलजमाव की समस्या से निजात दिलाने की गुजारिश की थी, लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई।
स्थानीय मुखिया प्रेम शंकर सिंह बताते हैं, ‘‘मैं जब स्कूल में था तभी से ये समस्या मेरी आंखों में चुभती थी। हमलोग कई नेताओं से मिल चुके थे और जलजमाव की समस्या खत्म करने की अपील कर चुके थे, लेकिन कोई पहल नहीं हुई।’’
वर्ष 2001 में मुखिया का चुनाव हुआ, तो प्रेम शंकर सिंह ने चुनाव लड़ा और जीत गए। लेकिन, उस वक्त तक ऐसी कोई योजना नहीं थी, जिसकी मदद से जलजमाव की समस्या का स्थाई समाधान निकल पाता।
मनरेगा की मदद से खोदी 6 किलोमीटर लंबी नहर
फिर 2006 में वह दोबारा मुखिया बन गए। उसी समय महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) शुरू हुई। इस योजना में नहर व तालाब की खुदाई, वृक्षारोपण आदि योजनाएं शामिल थीं। मनरेगा स्कीम इस गांव के लिए वरदान बनकर आई।
वह कहते हैं, ‘‘मैंने देखा कि मनरेगा में नहर की खुदाई भी शामिल है, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने सोचा कि क्यों न एक लंबी नहर खोदी जाए ताकि 6400 एकड़ जमीन और गांव में जमने वाला पानी नहर के रास्ते नदी में चला जाए।’’
लेकिन, इस सोच को अमलीजामा पहनाना मुश्किल काम था। गांव के आसपास दो नदियां बहती हैं। एक नून नदी और दूसरा बाया नदी। नून नदी गांव से लगभग 20 किलोमीटर दूर है, जबकि बाया नदी 6 किलोमीटर दूर। नून नदी बाढ़ के समय लबालब भरी रहती है और गांव में बाढ़ भी इसी नदी से आती है।
ऐसे में नहर को इस नदी से जोड़ने का कोई फायदा नहीं मिलता, तो ग्रामीणों ने बाया नदी से नहर को जोड़ने का फैसला किया, क्योंकि बाया नदी आगे चलकर गंगा नदी से मिल जाती है। गंगा नदी से बहुत कम बाढ़ आती है।
स्थानीय लोगों से मिला सहयोग
साल 2007 से नहर का काम शुरू हुआ। वर्ष 2009 तक काम पूरा होने को था कि उस साल भी गांव में बाढ़ आई, लेकिन इस बार उस आधी-अधूरी नहर का असर दिखा। बाढ़ का पानी थोड़े ही दिनों में खेत और गांव से निकल गया, तो लोगों को अहसास हुआ कि ये नहर उनके लिए कितना फायदेमंद है। इसके बाद तो लोगों ने भरपूर सहयोग दिया और वर्ष 2010 तक नहर का काम पूरा हो गया। मनरेगा स्कीम का लाभ उठाकर 30 फीट चौड़ी, 20 फीट गहरी और 6 किलोमीटर लंबी नहर की तामीर कर दी गई।
नहर खोदने से न केवल गांव और खेत में जलजमाव की समस्या से निजात मिली है, बल्कि सूखे के वक्त इस नहर के पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए भी होता है।
ग्रामीणों ने बताया कि बरसात का पानी नहर में जमा रहता है, जो सूखे के वक्त हमारी सिंचाई की जरूरत पूरी कर देता है।
कटाव रोकने के लिए लगाए 1 लाख से अधिक पेड़
बारिश और बाढ़ के समय नहर में पानी की रफ्तार तेज होने से एक नई समस्या सामने आ गई थी। रफ्तार तेज होने से नहर के दोनों तरफ मिट्टी का कटाव बढ़ गया था। पहले तो सोचा गया कि इसके दोनों किनारों को पक्का कर दिया जाए, लेकिन पर्याप्त फंड नहीं होने के कारण इस योजना को टाल दिया गया। फिर ये तय किया गया कि दोनों ओर पेड़ लगाया जाय।
प्रेम शंकर सिंह ने बताया, ‘‘नहर का पक्कीकरण नहीं हुआ था, तो शुरुआत में पानी की रफ्तार अधिक होने से कटाव बढ़ गया था। इस समस्या के समाधान के लिए हमने नहर को पक्का करने के बजाय दोनों किनारों पर पेड़ लगाने का फैसला लिया।
वर्ष 2010 में ही दोनों किनारों पर करीब सवा लाख पेड़ लगाए गए। इस काम को भी मनरेगा के जरिए ही अंजाम तक पहुंचाया गया। इससे न केवल कटाव रुका बल्कि यहां हरियाली भी बढ़ी।’’
जल संरक्षण के लिए खोदे 10 तालाब
नहर का निर्माण तो जल निकासी के लिए किया गया, लेकिन साथ जल संरक्षण भी जरूर था, क्योंकि सूखे के वक्त पानी की किल्लत के चलते सिंचाई व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो जाती थी। इसके लिए गांव में तालाब खोदने का निर्णय लिया गया।
प्रेम शंकर कहते हैं, ‘‘इस काम के लिए भी हमने मनरेगा स्कीम को ही चुना। मनरेगा की मदद से ही यहां जल संरक्षण के लिए 10 तालाब खोदे गए हैं और इन तालाबों को नहर से जोड़ दिया गया है। इससे फायदा ये हुआ कि अतिरिक्त पानी नहर के रास्ते निकल जाता है। तालाब में मछली पालन भी होता है और खेतों में सिंचाई भी हो जाती है।’’
हालांकि, कुछ लोगों का कहना है कि बहुत कम जमाव होने पर वह नहर से नहीं निकल पाता है। 6400 हेक्टेयर जमीन में गांव के एक स्थानीय निवासी परमानंद सिंह का 7 बीघा खेत है। उन्होंने कहा, ‘‘अभी मेरे खेत में 4 फीट पानी लगा हुआ है। ये पानी नहर से नहीं निकल पा रहा है।’’
दिनेश झा
राजसमंद झील हुई फिर जिंदा
रेतीली जमीन पर बसा राजस्थान जल संकट की दृष्टि से काफी संवेदनशील है। हजारों साल पहले हमारे पूर्वजों ने राजस्थान की इसी धरती पर जल संरक्षण और जल संग्रहण की विभिन्न पांरपरिक तकनीकों को अपनाया था, जिससे लोगों के सामने काफी हद तक जल की समस्या दूर हुई थी।
उस दौरान नदी, तालाब और बावड़ियों सहित विभिन्न जल प्रणालियों का संरक्षण भी किया जाता था, लेकिन विकास की अंधी दौड़ की आंधी राजस्थान को भी ले उड़ी। जिससे यहां के वातावरण को काफी नुकसान पहुंचा।
राजस्थान के इलाकों को सबसे बड़ा खामियाजा मार्बल के अनियमित खनन से उठाना पड़ा। मार्बल की खानों में खनन से राजसमंद जिला में नौ चौकी झील सूख गई। झील क्या सूखी मानों पर्यावरणप्रेमियों का दिल टूट गया। इसी झील को शिक्षक दिनेश श्रीमाली के प्रयासों से फिर से पुनर्जीवित किया गया और अब ये पानी से लबालब भरी है।
राजस्थान में मार्बल का खनन शुरूआत से ही होता आया है। विश्वभर में राजस्थान के मार्बल की मांग है। साथ ही ये भारत में भी बड़े पैमाने पर सप्लाई किया जाता है, लेकिन तब मकराना से निकलने वाले संगमरमर से वैश्विक बाजार की मांग पूरी नहीं हो पा रही थी। एक प्रकार से जितना मार्बल राजस्थान से निकाला जा रहा था, वो बाजार की मांग को पूरा करने के लिए अपर्याप्त था।
इसी कारण वर्ष 1982 में मार्बल का खनन काफी तेजी से बढ़ा। मांग को पूरा करने के लिए अनियमित तरीके से खनन किया जाने लगा। धन के लालच और मांग पूरी करने के लिए खनन करने के वैज्ञानिक तरीको का भी पालन नहीं किया गया। मार्बल के खनन में अव्यवस्था का ये दौर वर्ष 1990 तक चला।
परिणामतः अवैज्ञानिक और अनियमित खनन से न तो व्यापारियों को लाभ हुआ और न ही जनता को सस्ता मार्बल मिल सका, लेकिन पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचा।
अपनी गलतियों और पर्यावरण को होने वाले नुकसान से भी किसी सरकारी विभाग ने सीख नहीं ली। इसी दौर में औद्योगिक विकास की जरूरत बताकर राजस्थान की ऐतिहासिक राजसमंद झील (जल क्षमता 3750 मीट्रिक घनफीट) को कुर्बान करने की कवायद सिंचाई विभाग ने शुरू कर दी।
सिंचाई विभाग ने अनापत्ति प्रमाण पत्र के बिना ही झील के कैचमेंट क्षेत्र में खनन की खानों के प्लॉट आवंटित कर दिए। ऐसे में अच्छी बारिश होने के बाद भी गोमती नदी का पानी झील में नहीं पहुंच पा रहा था। झील को पानी देने वाली नहरों में खनन के कारण अवरोध उत्पन्न हो गए थे। जिस कारण पानी की मात्रा कम हो गई और फिर 324 साल पुरानी ये झील वर्ष 2000 में सूख गई।
दिनेश श्रीमाली ने बताया कि मैं राजसमंद झील और गोमती नदी के जलागम क्षेत्रों के संरक्षण के लिए वर्ष 1989 से अभियान चला रहा हूं। जब झील को पानी देने वाली नहरों में रुकावट उत्पन्न होने लगी तो मुझे अंदाजा होने लगा था कि इससे झील को खतरा है और झील सूख सकती है। मेरा अंदाजा सही भी निकला। झील को बचाने के हमने कई प्रयास किए, लेकिन झील सूखते ही लगा कि अब छोटे-छोटे प्रयासों से कुछ नहीं होगा। झील को पुनर्जीवित कर पुराने स्वरूप में लाने के लिए आंदोलन करने की जरूरत है।
उन्होंने बताया कि मुझे पता था कि झील या तालाब की गाद काफी उपजाऊ होती है। गाद वाली मिट्टी का उपयोग खेतों में किया जा सकता है। इससे फसल काफी अच्छी होती है, लेकिन इतनी बड़ी झील से अकेले गाद निकालना संभव नहीं था और न ही हम आर्थिक रूप से इतने सक्षम थे कि मजदूरों और मशीनों से गाद निकलवा सकें। इसलिए गाद निकालने की इस मुहिम से किसानों को जोड़ने की योजना बनाई। इससे किसान खुद गाद निकालते और अपने खेतों में डालते। इसकी योजना बनाकर मैंने जिला प्रशासन को सौंपी। प्रशासन ने इसे गैर-व्यावहारिक बताकर पल्ला झाड़ लिया। यहां प्रशासन से हमारी उम्मीद खत्म हो चुकी थी।
प्रशासन से हर प्रकार की उम्मीद खत्म होने के बाद भी श्रीमाली अपने निर्णय पर अडिग रहे। उन्होंने अपने कुछ साथियों को साथ लेकर रोजाना पांच तगारी मिट्टी निकालने का निर्णय लिया और अभियान की शुरूआत की। रोज विशालकाय झील में वें अपने कुछ दोस्तों के साथ जाते और मिट्टी निकालते। उनके इस कार्य में प्रकृति और अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम की झलक अलग ही दिखती थी।
इसी प्रेम के सहारे वे अपनी संस्कृति की प्रतीक इस ऐतिहासिक झील को पुनर्जीवित करने के असंभव कार्य को संभव करने में जुटे रहे। 16वें दिन जयपुर के जीटीवी के रिपोर्टर पीयूष मेहता ने उनके कार्य की रिपोर्ट तैयार कर प्रमुखता से चौनल पर चलाई। इसके बाद विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाएं और प्रशासन भी उनकी मदद में जुट गया। 16वें दिन चली खबर का असर इतना व्यापक स्तर पर हुआ कि 18वें दिन झील में 10 हजार लोग श्रमदान कर रहे थे।
हालांकि भागीरथी अभियान शुरू होने का मतलब समस्या का समाधान होना नहीं था। वर्ष 2005 में एक नई समस्या खड़ी हो गई थी। बामण टूंकड़ा (राजस्थान में एक स्थान का नाम है) में मार्बल स्लरी का पहाड़नुमा बड़ा-सा ढेर लग गया था या खनन माफियाओं द्वारा लगाया गया था। जिस कारण गोमती व खारी नदी का पानी झील में नहीं आ पा रहा था। लोगों ने इस मार्बल स्लरी से बने पहाड़ को हटाने की मांग की। प्रशासन लोगों की इस बात से सहमत नहीं था। क्योंकि पहाड़ को गिराने से जान-माल की हानि होने का डर था। दिनेश श्रीमाली ने पहाड़ गिराने की बजाय पहाड़ के किनारे झिरी बनाने का सुझाव दिया, ताकि झिरी से पानी निकलकर झील में आ सके। प्रशासन इस काम के लिए भी तैयार नहीं था, लेकिन लोगों के दबाव में मंजूरी मिल गई। श्रीमाली ने बताया कि एक झिरी निकालने के लिए लगभग 10 हजार टन मार्बल स्लरी को हटाना पड़ा। जिसमें तीन दिन का समय लगा। वर्ष 2009 में बारिश होते ही खारी व गोमती नदी का पानी झील में पहुंचने लगा। इस प्रयास से झील 19 फीट तक भर गई।
एक बार झिरी बना देना समस्या का स्थाई समाधान नहीं था। क्योंकि बारिश के कारण पानी के साथ आने वाली मिट्टी से या फिर किसी अन्य कारण से भी झील को पानी देने वाली नहरों के रास्ते में रुकावट उत्पन्न हो जाती थी। इससे झील में पानी की मात्रा पुनः कम होने लगती थी। इसका एक स्थायी समाधान चाहिए था, जो फिलहाल किसी के पास नहीं था।
ऐसे में जलग्रहण का प्राकृतिक प्रवाह क्षेत्र मानवीय गतिविधियों के कारण अव्यवस्थित हो रहा था। परिणामतः राजमार्ग 8 पर 4 फीट तक पानी भर जाता था। सड़के टूटने से आवाजाही प्रभावित होती थी। ऐसा इससिए भी होता था, क्योंकि नदी में पानी के ज्यादा बहाव व मात्रा को नियंत्रित करने के लिए ही झील का निर्माण किया गया था। ताकि अतिरिक्त पानी झील में आए और लोगों को पानी उपलब्ध हो। ये जल संग्रहण और जल संरक्षण का अच्छा माध्यम भी है।
उन्होंने बताया कि इस समस्या से बचने के लिए पुलिया के पास 35 स्थानों पर 18 फीट गहरे गड्ढ़े खोदे गए। बेकार पानी को जलागम क्षेत्र तक पहुंचाने के लिए पाइप डाले गए। इससे झील को पानी मिलने का रास्ता साफ हुआ। फिलहाल झील में 6 फीट से ज्यादा पानी है। साथ ही हमारा अभियान भी निरंतर जारी रहेगा। झील को मिलने वाले पानी के रास्ते में पुनः रुकावट उत्पन्न न हो, इसके लिए लोग अपनी अपनी सीमा में सफाई करते हैं। पत्थर और मार्बल स्लरी को हटाते हैं।
हिमांशु भट्ट
तालाब, नदी और कुंड का संरक्षण करते छत्तीसगढ़ के वीरेन्द्र
छत्तीसगढ़ का नाम सुनते ही लोगों के मन में एक आदिवासी राज्य की छवि बनती है, जो विकास की दौड़ में शामिल होने के लिए संघर्ष कर रहा है, लेकिन इसी छत्तीसगढ़ में सैंकड़ों मीलों तक जंगल का इलाका फैला है, जो इस राज्य को प्राकृतिक संपदाओं से समृद्ध राज्य बनाता है।
यहां सैंकड़ों नदी, तालाब और झरने आदि सहित विभिन्न जलस्रोत इंसानों सहित विभन्न जीव-जंतुओं की प्यास बुझाते हैं, लेकिन विकास की अंधी दौड़ में छत्तीसगढ़ भी स्वार्थ की भेंट चढ़ गया है। जिस कारण प्रकृति एवं जंगलों को नुकसान पहुंच रहा है और नदी, तालाब आदि प्रदूषित होते जा रहे हैं।
भूजल स्तर भी लगातार नीचे गिरता जा रहा है। खतरे में पड़ती प्रकृति और जल संसाधनों को बचाने के लिए ही वीरेंद्र सिंह पिछले 20 सालों से कार्य कर रहे हैं। वीरेंद्र के कार्यो की सराहना जलशक्ति मंत्रालय सोशल मीडिया पर अपनी एक पोस्ट के माध्यम से भी कर चुका है।
वीरेंद्र का जन्म बालोद जिला के दल्लीराजहरा गांव में एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था। बचपन से ही वें प्रकृति से काफी करीब से जुड़े हुए थे। बी.कॉम, एम कॉम और अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री लेने के बाद उन्होंने रोजी-रोटी के लिए वर्ष 2000 में निजी स्कूल में पढ़ाना शुरू किया।
इसी के साथ 25 बच्चों की टीम बनाकर उन्होंने पर्यावरण संरक्षण का कार्य भी करना शुरू कर दिया। बीस साल पहले घर के पास ही पीपल का एक पौधा रोपकर अपने काम की शुरूआत की। बच्चों को भी वें पढ़ाई के साथ साथ पर्यावरण का महत्व समझाते थे।
वीरेंद्र सिंह ने बताया कि ‘‘मैं बचपन से देखता था कि लोग अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए जंगल से पेड़ व लकड़ी काटकर ले जाते थे। खनन आदि गतिविधियों से भी पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचता था। ये देखकर काफी पीड़ा होती थी। इसलिए अपना जीवन प्रकृति के प्रति समर्पित करने का निर्णय लिया और अपने वेतन का एक अंश इस कार्य में लगाता हूं।’’
वीरेंद्र पौधारोपण के साथ साथ स्वच्छता अभियान भी चलाते थे। जब उन्होंने कार्य की शुरूआत की तो लोग उन्हें पागल कहते थे। लोग उनके घर पर शिकायत करते थे कि ‘पेड़ लगाने और गंदगी साफ करने में कुछ नहीं रखा है। ये क्या करते रहते हो।’’
शुरुआत में वीरेंद्र के परिजनों को भी ये काम पसंद नहीं आता था, लेकिन फिर परिजनों को अपने बेटे के काम का महत्व पता चला तो वें वीरेंद्र को प्रोत्साहित करने लगे।
वीरेंद्र ने बताया कि अभी तक मैं जन सहयोग से 35 हजार से ज्यादा पौधें लगा चुका हूं। जिनमें से अधिकांश पौधे जीवित हैं। मैंने 17 साल पहले बंजर पथरीली जमीन पर 250 पौधें लगाए थे। सभी पौधों की नियमित देखभाल की जाती थी। पिताजी जो खाद खेतों में डालने के लिए देते थे, उन्हें बिना बनाए इस खाद को मैं अपने लगाए पौधों में डाल देता था। आज सभी पौधें पेड़ बन चुके हैं। हम हर साल इन पेड़ों का जन्मदिवस भी मनाते हैं।
वीरेंद्र का कार्य केवल इतने तक ही सीमित नहीं रहा। वें पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए कई पदयात्राएं भी कर चुके हैं। सबसे पहले वीरेंद्र ने 2007 में दस लोगों के साथ दुर्ग जिले से नेपाल तक की साइकिल यात्रा की। 2008 में 11 लोगों के साथ छत्तीसगढ़ का भ्रमण कर पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिया।
पर्यावरण बचाने का संदेश देने के लिए राजहरा से कुसुमकसा तक सात किलोमीटर तक 15 हजार स्कूली छात्रों को साथ लेकर मानव श्रृंखला बनाई। आज भी वें जागरुकता के लिए विचरण करते रहते हैं। वीरेंद्र ने दस सालों तक निजी स्कूल में पढ़ाया, लेकिन यहां से इतना वेतन नहीं मिल पाता था कि घर का खर्च ठीक से चल सके। इसलिए दस साल पहले उन्होंने माइनिंग साइट पर काम करना शुरू किया। बीस सालों के इस काम में वें साप्ताहिक छुट्टी का दिन अपने अभियान के लिए रखते थे।
विभिन्न प्रकार के रचनात्मक तरीको के माध्यम से वें पर्यावरण बचाने का संदेश देते हैं, इनमें शरीर पर पेंटिंग करके जागरुक करना भी शामिल है। साथ ही प्लास्टिक के उपयोग को बंद करना भी उनके अभियान का हिस्सा है। समय समय पर एड्स जागरुकता, मतदान जागरुकता, साक्षरता जागरुकता आदि अभियान चलाए जाते हैं।
13 साल पहले उन्होंने जल संरक्षण का काम भी शुरू किया। दरअसल, छत्तीसगढ़ में विभिन्न प्रकार की जल प्रणालियां (प्राकृति जलस्रोत, नदी, तालाब, कुंए आदि) हैं, लेकिन इनमे लगातार जलस्तर कम होता जा रहा है। कई स्थानों पर लोगों ने नदियों और तालाबों को कूड़ादान बना दिया और नियमित रूप से उसमें कूड़ा फेंकते हैं।
कई जल प्रणालियों का जल प्रदूषित हो चुका है। इसका असर भूजल स्तर में गिरावट के रूप में सामने आ रहा है। जिस कारण लोगों को जल संकट का सामना करना पड़ता है। समस्या का विकरालता और वक्त की जरूरत को देखते हुए वीरेंद्र जल को बचाने के लिए भी सफाई अभियान चला रहे हैं।
उन्होंने बताया कि 13 साल पहले एक कुंड़ की सफाई की थी। सरकार की मद्द से कुंड में घाट बनाया गया। अब कुंड के किनारे इसी घाट पर बैठकर लोग आनंद लेते हैं। हमारे कार्य से कई लोग भी जुड़ गए हैं और सभी कार्य हम सामूहिक रूप (जन सहयोग से) से करते हैं। जिनमें पेरी पत्नी भी साथ देती है। अभी तक हम 35 तालाब, एक नदी (तन्दला नदी) और 2 कुंड सहित विभिन्न नालों को साफ कर चुके हैं।
बीस साल पहले तंज कसने वाले लोग भी अब उनके कार्यों की प्रशंसा करने लगे हैं। साथ ही वीरेंद्र को ‘जल स्टार’ और ‘ग्रीन कमांड़ों’ जैसे नामों से भी जाना जाता है। साथ ही खंडि नदी के सरंक्षण के लिए भी महिलाओं को शपथ दिलाई गई है।
उन्होंने अन्यों को भी नदी संरक्षण के लिए प्रेरित किया जा रहा है। क्योंकि वीरेंद्र का मानना है कि हर नदी गंगा है। इसके अलावा उनके कुछ प्रमुख नारे भी हैं – ‘‘बच्चा एक, वृक्ष अनेक’’, पर्यावरण बचाना है हमने ये ठाना है, स्वच्छ घर स्वच्छ शहर आदि। वें ‘खेत में मेड और मेड पर पेड़’ लगाने के लिए भी प्रेरित कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने अपने खेत की मेड पर विभिन्न प्रजाति के 150 फलदार पौधे लगाए हैं। वें कहते हैं कि प्रकृति का संरक्षण सभी का कर्तव्य है। मैं अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहा हूं और जीवन भर करता रहूंगा।
पोषण चन्द्राकर