गंगा की सफाई : बातें ज्यादा काम कम

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गंगा की सफाई को लेकर केवल बातें हो रही हैं। इस मद में करोड़ों रुपये खर्च भी किये जा रहे हैं, किन्तु फिर भी इस नदी के प्रदूषण के स्तर में कोई सुधार नहीं हो रहा है। मानव निर्मित तटबंध, पनबिजली के लिए बड़े बांध, सिंचाई व जल परिवहन हेतु बनाये गये छोटे-बड़े ढांचे आदि के कारण नदी के प्राकृतिक प्रवाह में रुकावट होती है एवं नदी का बर्फीलापन समाप्त हो जाता है।
तीर्थयात्रियों की भीड़ इस पवित्र नदी के तट पर अपनी श्रद्धा व भक्ति प्रगट करने के लिए उमड़ती है पर उन्हे गंदगी, मल या कूड़ा इसमें प्रवाहित करने में कोई हिचक नहीं होती। गंगा के किनारे बसे गांव व शहरों की मल-जल निकास की नालियां तथा औद्योगिक कचरा ज्यादातर बिना साफ किये गंगा में डाल दिया जाता है। इसके चलते गंगा दुनिया की दूसरी सबसे प्रदूषित नदी बन गयी है।
गंगा सैकड़ों शहरों, गांवों के लगभग पचास करोड़ लोगों तक अपना पानी पहुंचाती है, जो दुनिया की किसी भी नदी की तुलना में अधिक है। इसी गंगा के पानी के स्त्रोत में निरंतर गिरावट आ रही है। गोमुख, जो गंगोत्री ग्लेषियर का मुहाना है, वर्ष 1971 के बाद से तेजी से पीछे खिसक रहा है। वर्षा की मात्रा में बढ़ोत्तरी, तापमान में वृद्धि एवं हिमपात में कमी के कारण ग्लेषियर पिघल रहे हैं जिससे छोटी बर्फीली झीलें बन गई हैं। चोरबारी में ऐसी ही झील बन जाने के कारण जून 2013 में केदारनाथ में बाढ़ की विनाषलीला देखने को मिली थी।
हरिद्वार, बिजनोर, नरोरा और कानपुर आदि के विस्तश्त क्षेत्र में अंग्रेजों के समय सिंचाई के लिए बनाये गये बांधों ने भी गंगा के प्राकृतिक प्रवाह को कम कर दिया है, जिससे उसकी गंदगी को निपटा पाने की क्षमता प्रभावित हुई है। निचली धारा में फरक्का बांध बना है जिसका पानी हुगली नदी में जाता है ताकि कलकत्ता बंदरगाह में पानी की आवष्यक मात्रा बनी रहे। यह बांगलादेष व भारत के बीच तनाव का प्रमुख कारण है।
एक रिपोर्ट के अनुसार गंगा और उसकी सहायक नदियों पर लगभग 300 बांध प्रस्तावित हैं, जबकि वर्ष 2012 में सरकार द्वारा ही गठित ग्रीन पेनल ने इनमें से कम-से-कम 34 बांधों को पर्यावरण की खातिर निरस्त करने का सुझाव दिया था।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा 2013 में गठित एक कमेटी ने भी उत्तराखंड में पनबिजली परियोजनाओं के विस्तार पर चिन्ता व्यक्त करते हुए सुझाव दिया था कि गंगा की सहायक नदियों-अलकनंदा और भागीरथी पर बांध निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये। इससे क्षेत्र का एक बड़ा इलाका डूब में आयेगा और पारिस्थितिकी प्रभावित होगी, जिससे पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंचेगी। नदियों का प्रस्तावित विखंडन पहाड़ी और मैदानी दोनों इलाकों में मछलियों की प्रजाति के अस्तित्व के लिए भी खतरा है।
जैसे-जैसे गंगा मैदानी क्षेत्र में उतरती है इसमें नगर निगम की नालियों का मलयुक्त पानी (सीवेज), औद्योगिक कचरा, विषेषतः रासायनिक कचरा जो सैकड़ों चर्मालयों, रासायनिक प्लांट, कपड़ा मिल, कोयला प्लांट, कसाईखानों एवं अस्पतालों आदि से निकलता है, को गंगा में सीधे छोड़ दिया जाता है। यद्यपि औद्योगिक कचरा गंगा में छोड़ी गयी कुल गंदगी का केवल बारह प्रतिषत है किंतु चिंता का विषय इसलिए है कि एक तो यह जहरीला है, दूसरा इसे जैविक रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता। विषेषकर कानपुर से बनारस ( उत्तर प्रदेष) एवं दक्षिणेष्वर से उलूबेरिया (प. बंगाल) तक गंगा में प्रदूषण का स्तर बहुत ऊंचा है।
इस परिस्थिति से निपटने के लिए बनी ‘गंगा एक्षन प्लान’ से लगाकर ‘नमामि गंगे’ तक गंगा के कायाकल्प की सरकारी योजनाएं त्रुटिपूर्ण हैं। ‘गंगा एक्षन प्लान’ वर्ष 1985 में प्रारंभ किया गया था, लेकिन काम नहीं होने के कारण इसकी अवधि को दो बार बढ़ाया गया।
विष्व के सबसे महत्वाकांक्षी इस नदी सफाई कार्यक्रम में तीस वर्षों में करोडों रुपये खर्च किये गये, फिर भी नदी प्रदूषित बनी रही। 85 प्रतिषत प्रदूषण मल युक्त जल को नदी में प्रवाहित करने से होता है, जबकि पचास करोड़ लीटर अन-उपचारित औद्यौगिक कचरा प्रतिदिन इस नदी में डाल दिया जाता है। यह मनुष्य और पर्यावरण दोनों के लिए एक बड़ा खतरा है।
नदी के प्रवाह को बनाये रखने के प्रयास नहीं के बराबर होते हैं जिसके कारण नदी ने प्रदूषण साफ करने की अपनी क्षमता खो दी है। मलयुक्त जल के परिषोधन के लिए बनाये गये संयंत्र, जो ‘गंगा एक्षन प्लान’ की नीति का प्रमुख हिस्सा थे, त्रुटिपूर्ण कार्ययोजना, अधूरे क्रियान्वयन, बिजली की अपर्याप्त आपूर्ति एवं क्षमता से कम के संयंत्र लगने के कारण बेकार हो गये। कानपुर का परिषोधन यंत्र त्रुटिपूर्ण डिजाइन के कारण शुरु ही नहीं हो पाया और गुरुत्वाकर्षण पर आधारित नालियां मल-जल व रसायन युक्त पानी को परिषोधन के पष्चात गंगा तक नहीं पहुंचा पा रही हैं।
वर्ष 2009 में एक नई समिति ‘राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण’ (नेषनल गंगा रिव्हर बेसिन अथारिटी) का गठन किया गया। इस समिति को गंगा की सफाई के लिए सात हजार करोड़ रुपये दिये गये। गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया और पहली बार योजना एवं कार्यान्वयन के लिए संपूर्ण नदी घाटी को आधार बनाया गया। नदी के पारिस्थितिक प्रवाह को भी ध्यान में रखा गया। योजना का लक्ष्य था, वर्ष 2020 तक मल-जल युक्त नालियों एवं उद्योगों से निकलने वाले कचरे को उपचारित करने के पष्चात ही गंगा में डालना।
पर्यावरण एवं वन पर वर्ष 2015 में बनायी गयी एक संसदीय समिति के अनुसार यह योजना असफल रही। क्योंकि गंगा के जल की गुणवत्ता में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ, बल्कि यह दिनों-दिन खराब होती जा रही है। निचली जलधारा जैसे कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना में गंगा के पानी की गुणवत्ता पर्यावरणविद् और सामान्य जन दोंनों के लिए चिन्ता का विषय है।
‘इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालाजी’ (आईआईटी) की एक समिति, जिसे ‘गंगा नदी घाटी प्रबंधन परियोजना’ पर अपने सुझाव देने थे, के अनुसार गंगा के पानी की कुल मात्रा के कम-से-कम 30 से 35 प्रतिषत पानी का एक निष्चित न्यूनतम प्रवाह बनाये रखने की आवष्यकता है।

इस न्यूनतम प्रवाह को बनाये रखने के कोई प्रयास नहीं हुए और प्रधानमंत्री के गंगा की सफाई के संकल्प के बावजूद भी कहीं भी गंगा की सफाई दिखाई नहीं दे रही है। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सक्रिय न होने के लिए फटकार लगायी है। उसने कहा है कि वर्तमान गति से काम करने पर गंगा की सफाई में 200 साल लग जायेंगे।
वर्ष 2016 में सरकार ने ‘नमामि गंगा’ परियोजना का प्रारंभ बड़ी धूमधाम, प्रचार-प्रसार के साथ किया था। अगले पांच साल के लिए बीस हजार करोड़ का बजट रखा गया था, जो इसके पहले गंगा पर किये गये कुल खर्च का पांच गुना था। सरकार ने शीर्ष अदालत में अपनी परियोजना का खाका पेष करते हुये बताया कि इससे 18 वर्षों में गंगा की सफाई हो जायेगी। इसमें गंगा की सफाई के तात्कालिक, मध्यम और दीर्घकालीन उपायों का समावेष किया गया। इसके अन्तर्गत नदी की सफाई का एक तंत्र और योजना तीन सालों के भीतर तैयार करना थी। ‘नमामि गंगा’ परियोजना की प्रगति पर ‘आडीटर एवं कंट्रोलर जनरल’ (केग) की रिपोर्ट बताती है कि इसके लिए आवंटित बजट का पूर्ण उपयोग नहीं किया गया। साथ ही वर्ष 2014-15 और 2016-17 की परियोजना संबंधी मंजूरी एवं बजट की मंजूरी में विलम्ब हुआ।
सरकार अब परियोजना में अपने खर्च में शहरों व महानगरों में मल-जल निकास तंत्र के स्थान पर जलमार्ग को प्राथमिकता दे रही है। सरकार इस बात पर बहुत अधिक जोर दे रही है कि गंगा को एक जल परिवहन मार्ग में बदल दिया जाये। इसके लिए हर सौ किलोमीटर पर बांधों (बैराज) की एक श्रृंखला बनायी जायेगी और पूरे क्षेत्र में नदी की गहराई एक-सी (तीन से पांच मीटर) रखी जायेगी, ताकि कोल, बॉक्साइट और यहां तक कि हानिकारक माल की ढुलाई बनारस से हल्दिया बंदरगाह तक हो सके।
नदी की गहराई को एक समान बनाने के लिए उसके तल को खोदना, जलमार्ग के हिसाब से जलधारा को नियंत्रित करना एवं नदी के प्रवाह को सीधा रखना, बांध (बैराज) बनाना, खुलने-बंद होने वाले गेट बनाना, अंतिम छोर पर टर्मिनल बनाना और तटबंधों को पक्का करना आदि के लिए नदी की पारिस्थिकी से छेड़छाड़ अन्याय पूर्ण व भयावह सिद्ध होगी। इस जलमार्ग परियोजना का कार्य ‘पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन’ मंत्रालय के अनुमोदन के बिना जारी है। कहा जा रहा है कि अंतरदेषीय जल परिवहन मार्गों के रखरखाव के लिए खुदाई करने हेतु मंत्रालय से अनुमोदन अनिवार्य नहीं है।
इस प्रकार की जल परिवहन परियोजना ‘नमामि गंगा’ प्रोजेक्ट पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी। ‘इंडियन इंस्टीट््यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी’ की समिति, (जिसने इस विषय पर एक विस्तश्त रिपोर्ट तैयार की है कि गंगा कैसे साफ की जा सकती है ताकि उसके प्रवाह को पुनः बहाल किया जा सके) ने भी इन परिवहन परियोजनाओं पर आपत्ति व्यक्त की है। नदी की पारिस्थितिकी को बहाल करने के लिए इस समिति ने नदी के किनारे की खेती को सीमित करने, शोर मचाने वाले जहाजों एवं नदी तल को खोदने व नदी के किनारों में परिवर्तन पर रोक लगाने का सुझाव दिया है। नदी के प्राकृतिक (पारिस्थिक) प्रवाह को बनाये रखने, औद्यौगिक प्रदूषण के मापदंडों को कड़ा करने और पारंपरिक मल-जल निकास तंत्र पर पुनर्विचार की आज भारी आवष्यकता है।
अमिता भादुड़ी

कमी पानी की नहीं : उपयोग के तरकीब की है

देषभर में पानी का संकट लगातार बढ़ रहा है। जगह-जगह ‘पानी का संकट और उसे दूर करने के उपायों’ पर मंथन जारी है। जलसंकट के लिये जनसंख्या में बढ़ोत्तरी, आम लोगों द्वारा पानी के दुरुपयोग और सिंचाई के जरिए पानी की कथित बरबादी करने वाले किसानों को जिम्मेदार ठहराने की कोषिषें भी हो रही हैं। लेकिन क्या सचमुच जलसंकट केवल इन्हीं की वजह से खड़ा हुआ है?
प्रकृति से छेड़छाड़ के कारण बारिष का मिजाज बदला जरुर है, लेकिन देष में सौ साल की बारिष की गणना बताती है कि बारिष की मात्रा लगभग समान है। देष के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में औसत बारिष हर साल जितनी होनी चाहिये, उतनी ही हो रही है। ऋतुचक्र में बदलाव के कारण चार साल में एक बार बारिष का कम या अधिक होना भी प्रकृति-चक्र के अनुरुप ही है। नदी बेसिन के हिसाब से अलग-अलग बेसिनों में प्रतिवर्ष जल उपलब्धता 300 घनमीटर से 13,393 घनमीटर तक है।
‘केन्द्रीय जल आयोग’ (सीडब्ल्यूसी) की रिपोर्ट के अनुसार भारतवर्ष में औसत 1,105 मिलीमीटर की दर से प्रतिवर्ष औसतन 4,000 अरब घनमीटर (बीसीएम) वर्षा होती है। प्राकृतिक वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन के बाद नदियों एवं जलस्रोतों के माध्यम से औसतन वार्षिक जल उपलब्धता 1,869 बीसीएम है। जिसमें से प्रतिवर्ष 690 बीसीएम सतही जल और 433 बीसीएम भूजल, यानि कुल मिलाकर 1,123 बीसीएम जल उपयोग योग्य होता है।
इसमें से फिलहाल सिंचाई के लिए 688 बीसीएम, पेयजल के लिए 56 बीसीएम तथा उद्योग, ऊर्जा व अन्य क्षेत्रों के लिए 69 बीसीएम पानी, यानि कुल मिलाकर 813 बीसीएम पानी का उपयोग किया जा रहा है। वर्ष 2010 में पानी की मांग 710 बीसीएम से बढ़कर 2025 में 843 बीसीएम और वर्ष 2050 में 1180 बीसीएम होने का अनुमान है। हरवर्ष निष्चित मात्रा में बारिष होने के बावजूद पानी का संकट लगातार बढ़ रहा है। नदियां अब सालभर नहीं बहतीं। कुछ अपवाद छोड़ दिये जायें तो देष की नदियों, नालों, तालाबों, झीलों, कुओं में अब केवल बारिष के मौसम में ही पानी दिखाई देता है।
भूगर्भ का पानी सैकड़ों, हजारों फीट नीचे चला गया है। एक बड़ी आबादी को दिनभर के लिये जरुरी पानी प्राप्त करना ही मुख्य काम बन जाता है। नीति आयोग के अनुसार वर्तमान में 60 करोड़ भारतीय अत्यधिक जल तनाव का सामना कर रहे हैं। पानी से सुरक्षित और अपर्याप्त पहुंच के कारण हर साल दो लाख लोग मारे जाते हैं। वर्ष 2030 तक देष की पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुना होने का अनुमान है जिसके चलते करोड़ों लोगों के लिये पानी की कमी होगी और देष के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में 6 प्रतिषत तक का नुकसान उठाना पडेगा।
पीने और निस्तार के पानी की आवष्यकता कुल उपलब्ध पानी की मात्र 3 प्रतिषत है। स्पष्ट है, जहां सबसे कम बारिष होती है वहां भी अगर सही जल-नियोजन किया जाता तो आबादी दोगुनी होने पर भी पीने के पानी का संकट होना संभव नहीं था। जब हम यह कहते हैं कि देष की पचास प्रतिषत आबादी जल तनाव से गुजर रही है, तो इसका मतलब होता है कि उन्हें प्रतिदिन, प्रतिव्यक्ति 40 लीटर से भी कम पानी उपलब्ध होता है। इसके अलावा तीस-पैंतीस प्रतिषत लोगों को केवल जरुरत भर पानी मिलता है। यानि पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिये प्रतिदिन, प्रतिव्यक्ति औसत 40 लीटर के हिसाब से देष की 85 प्रतिषत जनता के लिये मात्र 14 बीसीएम पानी का उपयोग हो रहा है। पेयजल के हिस्से के कुल 56 बीसीएम में से 42 बीसीएम पानी 15 प्रतिषत अमीर पी लेते हैं। जाहिर है, पानी की खपत के लिये बढती जनसंख्या नहीं, बल्कि अमीरों की जीवनषैली कारण बनी है। जलसंकट के लिये जनसंख्या को जिम्मेदार ठहराना एक साजिष है।
देष की खाद्यान्न सुरक्षा के लिये वर्षा आधारित, सिंचित फसलों को पैदा करना राष्ट्रीय कार्य है। इन फसलों के लिये पानी की खपत राष्ट्रीय उत्पादन के लिये की गई खपत है। किसान सिंचाई के लिये मौजूदा तरीके ही अपनाता है। जब सिंचाई के लिये कम पानी के तरीके ढूढें जायेंगे तो किसान भी पानी की किफायत करेगा।
सिंचाई के मौजूदा तरीकों में बड़े पैमाने पर पानी का इस्तेमाल होता है, उसमें पानी की बरबादी भी होती है और उसे नियंत्रित करने की आवष्यकता भी है, लेकिन अगर सरकार फसलों की कीमत तय करने में पानी के इस्तेमाल का खर्च ठीक से ना जोड़े और किसान को फसलों की न्यूनतम लागत भी नहीं मिले तो किसान को पानी की बरबादी के लिये दोषी बताना नाइंसाफी है। यह समझना होगा कि सिंचाई के लिये पानी का उपयोग ‘किसान के लिये नहीं, किसान के द्वारा’ होता है।
वर्षा के पानी से भूजल बढाने के लिये जंगलों की तरह खेती का भी योगदान है। जमीन की निंदाई-गुडाई, खुदाई तथा फसलें, वृक्षों व फलों की खेती पानी के रिसाव का काम करती हैं। भारत में दस करोड़ हैक्टेयर से ज्यादा भूमि पर खेती के कारण रिसाव होता है। इस प्रकार होने वाला जलसंग्रहण दूसरी किसी भी प्रक्रिया से ज्यादा होता है।
यह किसानों की तपस्या का फल है। वे लोग जिनकी जलसंरक्षण में थोड़ी भी भूमिका नहीं है, जिन्होंने शहरों में सीमेंट कांक्रीट के रास्तों से पूरी जमीन ढ़ंककर भूगर्भीय पानी खत्म कर दिया है और एक उपभोक्ता के नाते औद्योगीकरण, जल-प्रदूषण, वाष्पीकरण के लिये जिम्मेदार तापमान-वृद्धि में लगे हैं, कम-से-कम उन्हें पानी की बरबादी के लिये किसानों को बदनाम करना बंद करना चाहिए।
‘राष्ट्रीय जलनीति-2012’ और खरीफ फसलों के लिये ‘मूल्य नीति आयोग-2015-16’ में पानी की खपत के लिये किसानों को जिम्मेदार मानकर उसे बलि का बकरा बनाया जा रहा है। सिंचाई और पेयजल के लिये भूजल के उपयोग पर ‘लाभार्थी मूल्य चुकाये’ के सिद्धांत को लागू किया गया है। इस सिद्धांत में खेती के लिये पानी एवं बिजली की प्रति हेक्टर उपयोग की सीमा निर्धारित की जायेगी, सभी नहरों, नलकूपों, कुओं पर मीटर लगाकर पानी की खपत मापी जायेगी और अतिरिक्त पानी व बिजली के उपयोग के लिये घरेलू लागत की दर से कीमत वसूली जायेगी।
सिंचाई के लिये पानी और बिजली पर मिलने वाली छूट खत्म करने और चावल, गेहूं, कपास और गन्ना जैसी अधिक पानी की फसलें न लें इसलिये ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) नियंत्रित करने की सिफारिष देष के ‘नीति आयोग’ द्वारा की गई है।
भारत का विषाल जल भंडार और उसके बाजार की उपलब्धता के कारण कार्पोरेट्स और सरकार मिलकर पानी का व्यापार करने के लिये नीतियां और कानून बना रहे हैं। पानी को ‘बिकाऊ माल’ में तब्दील करना, उसे राज्य की सूची से समवर्ती सूची में लाना, ‘सुख-भोग अधिनियम-1882’ में बदलाव कर भूजल पर सरकार की मालिकी स्थापित करना, उसे व्यापार के लिये कंपनियों को बेचने का अधिकार देना, सिंचाई के लिये बने बांधों के पानी का उद्योग और व्यापार के लिये हस्तांतरण करना, ‘नदी-जोड़ परियोजना’ द्वारा जलभंडारण और जल परिवहन के लिये पानी उपलब्ध कराना आदि काम पानी के धंधे को फैलाने की खातिर ही किए जा रहे हैं। ‘घर-घर नल, घर-घर जल’ के बिजनेस मॉडल के तहत पानी की बिक्री को बढाने और घर-घर विस्तार करने का प्रयास जारी है।
संविधान में जीवन के अधिकार को संरक्षित करने वाले ‘अनुच्छेद-21’ में हवा, पानी और कृषि कार्य का समावेष है। सर्वोच्च न्यायालय ने पेयजल तक पहुंच और सुरक्षित पेयजल के अधिकार को मूलभूत सिद्धांत के रुप में स्वीकार किया है। जाहिर है, संविधान हवा, पानी आदि संसाधनों को बेचने की अनुमति नहीं देता। वैसे भी भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक पृष्ठभूमि में समस्त सृष्टि के जीवन का आधार हवा, पानी की बिक्री करना महापाप माना जाता है। लोगों की इस आस्था और सांस्कृतिक विरासत पर हाथ डालने का काम अंग्रेज भी नहीं कर पाये थे और न ही आजादी के 70 साल में किसी ने किया, लेकिन स्वतंत्र भारत की सरकार इसे कर रही है।
विवेकानंद माथन