लोकसभा में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किए गए 2022-23 के बजट से साफ हो गया है कि नरेंद्र मोदी सरकार पाँच राज्यों में चल रही चुनाव प्रक्रिया के बावजूद लोक लुभावन बजट देने के पक्ष में नहीं रही। अतएव सरकार रियरतों के रास्ते पर चलने की बजाय, ठोस एवं दीर्घकालिक उपाय अपनाने के मूड में है। शायद इसीलिए प्रस्तावित बजट में अर्थव्यवस्था की तात्कालिक जरूरतों से कहीं ज्यादा भविष्य की लंबी योजनाओं को जमीन पर उतारने का संकल्प लिया गया है।
ये योजनाएं पूरी होने में कई दशक जरूर लगेंगे, लेकिन स्थायी ढांचागत विकास होगा, जो कालांतर में देशव्यापी खुशहाली लाने का आधार बनेंगे। इन परियोजनाओं के अंतर्गत नदियां परस्पर जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना तो है ही, सड़क, जलमार्ग, रेल, बंदरगाह ओर हवाईअड्डे विकसित किए जाने भी प्रस्तावित हैं। गोया, रोजगार के बड़े अवसर तो सृजित होंगे ही, खेती-किसानी में भी बहार आएगी। किसान की आमदनी बढ़ने की उम्मीद बढ़ेगी और ग्रामीण क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता बढ़ेगी। इस दृष्टि से पानी की कमी से जूझ रहे बुंदेलखंड के लोगों को सिंचाई और पेयजल उपलब्ध कराने के लिए केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना को बजट में 1400 करोड़ रुपए देने का प्रावधान भी कर दिया है। इसके अलावा वित्तमंत्री ने अन्य पांच नदियां जोड़ने के लिए विस्तृत परियोजना प्रतिवेदन (डीपीआर)पर भी राज्यों के बीच सहमति बनते ही, केंद्रीय वित्त पोषण का वचन बजट भाषण में दे दिया है। इन नदी परियोजनाओं में दमनगंगा-पिंजाल, पार-तापी-नर्मदा, गोदावरी-कृष्णा, कृष्णा-पेन्नार और पेन्नार-कावेरी शामिल हैं।
किसी देश की विकासशील अर्थव्यव्स्था के तीन प्रमुख सिरे हैं, पानी, बिजली और आधुनिकतम तकनीक। तकनीक की उपलब्धता भारत में सर्व-सुलभ हो गई है। इस दिशा में तेजी से डिजिटलीकरण भी हो रहा है। ड्रोन से खेतों में दवा एव कीटनाशक छिड़काव के बन्दोबस्त किए जा रहे हैं। बावजूद पानी और बिजली की समस्या से कमोवेश पूरा देश जूझ रहा है। हालांकि सौर्य ऊर्जा से भी बिजली की कमी को दूर किया जा रहा है। दुनिया का तीन चौथाई हिस्सा पानी से लबालब होने के बावजूद करोड़ों लोग शुद्ध पेयजल से वंचित हैं। इसलिए देश की सर्वाच्च न्यायालय को भी कई मर्तबा केंद्र सरकार को निर्देश देना पड़ा है कि नदी जोड़ने की महात्वाकांक्षी परियोजना को समयबद्ध तरीके से जल्द लागू किया जाना चाहिए।
न्यायालय को नदियों को जोड़ने की बात आसान लग सकती है, किंतु मैदान में इस परियोजना को उतारना बेहद जटिल, दुष्कर और जोखिम भरा काम है। पर्यावरणीय और भौगोलिक संतुलन की चुनौतियां तो हैं ही, राज्यों में परस्पर टकराव के साथ कई देशों से भी मतभेद उत्पन्न होने की आशंकाएं हैं।
चीन से ब्रह््रापुत्र नदी के जल को लेकर विवाद पहले से ही बना हुआ है। बंगलादेश, पाकिस्तान और नेपाल से भी तालमेल बिठाना कठिन है। बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों के विस्थापन और पुनर्वास का संकट भी झेलना होगा। हालांकि नदियां जुड़ जाती हैं तो किसी हद तक बाढ़ की विनाश लीला से तो निजात मिलेगी ही, 2050 तक 16 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में सिंचाई भी होने लगेगी। जबकि वर्तमान में सिंचाई के सभी संसाधनों व तकनीकों का उपयोग करने के बावजूद 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि में ही बमुशिकल सिंचाई हो पा रही है।
वैसे नदियों को जोड़ना तब आसान होगा जब देश की जिन नदियों को जोड़ा जाना है उन्हें राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर केंद्र सरकार के हवाले कर दिया जाए और इस परियोजना को, ‘राष्ट्रीय परियोजना’ की श्रेणी में लाकर इस पर अमल शुरू हो। 1980 में केंद्रीय सिंचाई मंत्रालय ने कुल 30 परियोजनाओं को राष्ट्रीय स्वरूप की नदियां बताया था। इनमें 14 हिमालयी क्षेत्र में बहने वाली नदियां हैं।
देश की विभिन्न नदियों को जोड़ने का सपना स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद देखा गया था। इसे डॉ मोक्षगुडंम विश्वेश्वरैया ने देखा था। डॉ राममनोहर लोहिया, डॉ एपीजे अब्दुल कलाम और अटलबिहारी वाजपेयी जैसी हस्तियों का इसे समर्थन मिलता रहा है। हालांकि परतंत्र भारत में नदियों को जोड़ने की पहली पहल आर्थर कॉटन ने बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में की थी। लेकिन इस माध्यम से फिरंगी हुकूमत का मकसद देश में गुलामी के शिंकजे को और मजबूत करने के साथ देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा को लूटना भी था। क्योंकि उस समय भारत में सड़कों और रेल-मार्गों की संरचना अपने पहले चरण में थी, इसलिए अंग्रेज नदियों को जोड़कर जल-मार्ग विकसित करना चाहते थे।
हालांकि आजादी के बाद 1971-72 में तत्कालीन केंद्रीय जल एवं ऊर्जा मंत्री एवं अभियंता डॉ कनूरी लक्ष्मण राव ने गंगा-कावेरी को जोड़ने को प्रस्ताव भी बनाया था। राव खुद जवाहरलाल नेहरु, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों में जल संसाधन मंत्री रहे थे। लेकिन जिन सरकारों में राव मंत्री रहे उन सरकारों ने इस महत्वाकांक्षी प्रस्ताव को कभी गंभीरता से नहीं लिया, अन्यथा बयालीस साल पहले ही नदी जोड़ो अभियान की बुनियाद रख गई होती। हालांकि इस प्रस्ताव से प्रभावित होकर प्रख्यात तमिल कवि सुब्रमण्यम भारती ने अपनी कविताओं में कामना की थी कि उत्तर भारत की पवित्र नदिया की अटूट जलराशि दक्षिण की शुष्क भूमि के लिए वरदान बने ?
लेकिन पहली बार अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में इस योजना को मूर्त रुप देने की योजना बनी। परंतु एक कार्यबल बनाने के सिवा वाजपेयी भी इस योजना का क्रियान्वयन नहीं कर पाए। दरअसल, इस योजना के औचित्य पर इतने सवाल खड़े कर दिए थे कि इसे शुरू कर पाना संभव ही नहीं हो पाया।
खासकर पर्यावरणविद् नदियों के प्राकृतिक बहाव में किसी भी तरह के कृत्रिम हस्तक्षेप के विरुद्ध थे। इसके साथ ही इस योजना के अमल में बड़ी मात्रा में धन जुटाने और भूमि अधिग्रहण जैसी चुनौतियां भी पेश आनी थीं। इन्हीं विवादों के क्रम में यह योजना उच्चतम न्यायालय विवाद के हल के लिए पहुंचा दी गई। अंततः 28 फरवरी 2012 को न्यायालय ने सरकार को नदी जोड़ो परियोजनाओं को चरणबद्ध तरीके से