वनों और पानी के आपसी संबंध को पिछले अध्ययनों में वैज्ञानिक धारणाओं के आइने में देखने की कोशिश की गई थी। इसी परिप्रेक्ष्य में यह सवाल उठता है कि यदि वन और पानी आपस में जुड़े हुए हैं तो क्या वनों से वृक्षों का विदोहन जलधाराओं में प्रवाह की मात्रा और गुणवत्ता को भी प्रभावित कर सकता है? भारत में शासकीय वनों का प्रबंध तथा वृक्षों का विदोहन आमतौर पर हर जिले के वनों के लिए बने एक तकनीकी दस्तावेज के आधार पर किया जाता है, जो ‘कार्य आयोजना’ या अंग्रेजी में वर्किंग प्लान कहलाता है।
वनों के प्रबंध के लिए बनाई जाने वाली कार्य आयोजना के प्रावधान इस बात को ध्यान में रखकर तय किए जाते हैं कि वन क्षेत्र में वृक्षों की कटाई से स्थायी रिक्त स्थान न बनने पाएं। इसके लिए मौके पर मौजूद पेड़-पौधों के घनत्व व स्वास्थ्य को देखते हुए वनों को विभिन्न कार्यवृत्तों में बांटा जाता है।
विभागीय विदोहन में वन वर्धनिक दृष्टि से उन्हीं वृक्षों को काटकर निकाला जाता है, जिनके हटाए जाने से नई पौध की बेहतर वृद्धि सुनिश्चित की जा सके। इसी प्रकार जहॉं नए पौधों की संख्या कम होती है, वहां रोपण करके वनों का घनत्व बढ़ाने का प्रयास किया जाता है।
कार्य आयोजनाओं में जल धाराओं के कगारों पर वृक्षों की कटाई या तो संयमित रूप से ही प्रस्तावित की जाती है अथवा विदोहन पर पूरी तरह रोक लगाकर इन क्षेत्रों को संरक्षण कार्यवृत्त में रख दिया जाता है।
इसके पीछे प्रमुख उद्देश्य कगारों की मिट्टी के कटाव पर अंकुश लगाए रखना है, जो अच्छा वनस्पति आवरण होने की दशा में ही संभव है। इस दृष्टि से देखे तो नदी कगारों पर त्रृटिपूर्ण वन विदोहन मिट्टी का क्षरण गंभीर रूप से बढ़ा सकता है और जल की मात्रा व गुणवत्ता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकता है।
परिपक्व वृक्षों का विदोहन करना तथा नई पौध को बढावा देना वनवर्धन के मूल सिद्धांतों में सम्मिलित है। सतत प्राप्ति के सिद्धांत (प्रिंसिपल आफ सस्टेंड यील्ड) को आधार बनाकर हमारे देश में भी वनों से परिपक्व वृक्षों का विदोहन किया जाता है, ताकि नई पौध को पनपने के लिए खुला स्थान और अन्य आवश्यक तत्व मिल सकें।
वन वर्धनिक दृष्टि से की जाने वाली वृक्षों की कटाई भी जल धाराओं के प्रवाह पर असर डालती है। यह असर कैसा होगा यह अनेक कारणों पर निर्भर करता है। लम्बी अवधि तक किए गए अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों से वन विदोहन से जल धाराओं के प्रवाह पर होने वाले असर के बारे में जानकारी मिली है। इनमें से कुछ उल्लेखनीय प्रयोगों के निष्कर्ष निम्नानुसार हैं।
– ब्राउन व बिंकले (1994) ने पाया कि नदियों और जल धाराओं के किनारे के वृक्ष बड़ी संख्या में काट दिए जाएं तो छाया में कमी होने से जल की सतह तक पहुॅंचने वाली सूर्य की किरणों में वृद्धि हो जाती है, जिससे जल का तापमान 5 डिग्री सेंटीग्रेट या उससे भी अधिक तक बढ़ जाता है। जल का तापमान बढ़ने से उसमें घुली आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है, जिससे मछलियों व अन्य जलीय जंतुओं के लिए संकट पैदा हो जाता है।
– फ्लोरिडा के कृषि और उपभोक्ता विभाग के वानिकी मंडल द्वारा ‘उत्तम वन प्रबंधन पद्धतियों’ (1993) पर एक पुस्तक जारी करके वानिकी गतिविधियों से जल गुणवत्ता पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों के बारे में जानकारी दी गई। इन पद्धतियों को लागू करके वानिकी से जुड़ी गतिविधियों के कारण होने वाले जल प्रदूषण को कम करके पारिस्थितिक लाभ सुनिश्चित कटाई के तुरंत बाद पानी का तापमान, रंग, रासायनिक आक्सीजन की मांग आदि में बढ़ोत्तरी हो गई। बड़े पैमाने पर सफाचट कटाई करने की स्थिति में जल में बह जाने वाले जैविक द्रव्य की मात्रा में 73 प्रतिशत तक की वृद्धि तथा पानी में घुले हुए फास्फोरस की मात्रा बढ़कर 55 कि.ग्रा./वर्ग कि.मी. तक दर्ज की गई। जलधारा में जैविक द्रव्य और फास्फोरस की मात्रा में कटाई के दूसरे वर्ष में भी वृद्धि देखने में आई, जबकि तीसरे वर्ष से इसमें कमी आने लगी।
– एच. बोर्ग (1988) ने पश्चिमी आस्ट्रेलिया के चार छोटे जलग्रहण क्षेत्रों, क्रोबिया, पूल, इफले तथा यूरैलप में वृक्षों की कटाई और उसके बाद आए पुनरूत्पादन के कारण जलधाराओं पर पड़ने वाले प्रभावों का लगभग एक दशक तक अध्ययन किया।
इस अध्ययन में सफाचट कटाई और चयन पद्धति से कटाई के बाद आने पुरूत्पादन के कारण जल धाराओं में लवणता तथा भूमिगत जल स्तर पर पड़ने वाले प्रभावों को देखा गया। अध्ययन में पाया गया कि वन विदोहन के बाद प्रारंभिक चार वर्षों तक भूजल स्तर में बढ़ोत्तरी हुई और उसके बाद इसमें गिरावट आने लगी।
विदोहन के कारण प्रारंभिक दो वर्षों 1977 तथा 1978 में जल धारा में प्रवाह की मात्रा बढ़ गई। अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया कि कटाई के बाद लगभग 15 वर्षों में भूजल स्तर तथा जलधाराओं में प्रवाह तथा जल में लवणता का स्तर कटाई के पहले के स्तरों तक वापस पहुॅंच जाएगा।
– एम.जे. ब्राउनली (1988) व उनके सहयोगियों ने ब्रिटिश कोलंबिया में 1971 से 1975 के बीच एक जलग्रहण क्षेत्र का अध्ययन करके वन विदोहन के कारण पानी की गुणवत्ता पर पड़ने वाले प्रभावों का पता लगाया। गहन वन विदोहन से प्रभावित जल ग्रहण क्षेत्र से आती जलधारा में तैरते हुए अवसाद की मात्रा 4 से 12 गुना तक बढ़ गई, जबकि सरिताओं के किनारे वृक्ष कटा जाने से जल के औसत तापमान में 1 से 3 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि दर्ज की गई तथा अधिकतम और न्यूनतम तापमान स्तर में उतार-चढ़ाव का दायरा बढ़ गया।
– आई.सी. कैम्पबेल (1989) ने आस्ट्रेलिया में वन विदोहन से सरिताओं के प्रवाह व जल की गुणवत्ता पर पड़े प्रभावों का अध्ययन करने पर पाया कि तैरते अवसाद में बढ़ोत्तरी के कारण जल की पारदर्शिता घट जाने से जलीय कशेरूकी व अकशेरूकी जीव-जंतुओं पर हानिकारक प्रभाव पड़े। सरिताओं के किनारे वृक्षों की कटाई से छाया में कमी होने के कारण जलीय पारिस्थितिक तंत्र को अधिक प्रकाश मिलने लगता है, जिससे अकशेरूकी जलीय जंतुओं की संख्या बढ़ जाती है।
– डेल डी. हफ (2000) व उनके सहयोगियों ने अमेरिका में मध्य कैलीफोर्निया के सिएरा नेवादा के पर्वतीय जलग्रहण क्षेत्रों में वनों के विरलन व सफाई के कारण जल की मात्रा में बढ़ोत्तरी का अध्ययन किया। इन वैज्ञानिकों ने एक विशेष पद्धति विकसित करके जल ग्रहण क्षेत्र के वनस्पति आवरण के मौजूद रहने और उसकी सफाई के बाद की दो भिन्न-भिन्न स्थितियों में जलधाराओं में पानी की मात्रा का आंकलन किया। लगभग 40000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले अध्ययन क्षेत्र से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर इनके द्वारा बताया गया कि जलधाराओं में औसतन वार्षिक प्रवाह का क्षेत्र के आकार से काफी गहरा संबंध है।
जैसे-जैसे विदोहित क्षेत्र का फैलाव बढ़ता है, वैसे-वैसे वार्षिक प्रवाह की मात्रा बढ़ती जाती है, जो लगभग 1 प्रतिशत तक हो सकती है। छोटे आकार के अध्ययन क्षेत्रों में तो विरलन के कारण हुए बदलावों का मापन आसानी से हो जाता है, जबकि बड़े क्षेत्रों में प्रति इकाई प्रवाह की मात्रा बढ़ने को आसानी से नापना संभव नहीं हो पाता।
इन्हीं अध्ययनकर्ताओं द्वारा पाया गया कि काष्ठीय वृक्षों के स्थान पर सफेद चीड़ के वृक्ष लगा देने से मासिक और वार्षिक औसत जल प्रवाह में काफी कमी आ गई, जबकि यहीं पर वनों के स्थान पर घास के मैदान बन जाने से वार्षित औसत प्रवाह में 5.8 इंच की वृद्धि दर्ज की गई।
संजय गोस्वामी