विश्व की पहली त्रिआयामी कृत्रिम आंख
जून माह में हांग कांग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (एचकेयूएसटी) के एक अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान दल ने अभी तक विकसित की गई सभी जैवनिक यानी बायोनिक आंखों से बेहतर क्षमता वाली, विश्व की पहली त्रिआयामी यानी 3डी आंख निर्मित करने की घोषणा की है। दावे के अनुसार कुछ मामलों में तो यह कृत्रिम आंख, क्षमता में मानव की प्रकृति प्रदत्त आंखों से बेहतर है, जो ह्यूमैनाइड रोबोट में दृष्टि हेतु तथा दृष्टि बाधित रोगियों के लिए एक नई आशा के रुप में दिखाई दे रही है।
संवेदक (सेंसर) किसी भी कृत्रिम आंख का एक अति महत्वपूर्ण भाग होता है, जो इस पर पड़ने वाले प्रकाश को संसूचित कर उसे विद्युत संकेतों में बदल देता है। कैमरे में प्रयुक्त होने वाले पारंपरिक संसूचक समतल होते हैं परंतु एचकेयूएसटी के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई युक्ति में हमारी प्राकृतिक आंख के दृष्टिटपटल (रेटिना) के समान ही अर्धगोलाकार बनाए गए हैं।
रुप और कार्य में प्राकृतिक आंख से मिलती-जुलती इस कृत्रिम आंख से जैव-अनुहारी वैद्युत रासायनिक आंख (बायोमिमैटिक इलेक्ट्रोकैमिकल आई) कहा गया है।
इसका मुख्य घटक प्रकाश संवेदी नैनों तारों से बना एक सघन व्यूह है जो दृष्टिटपटल (रेटिना) का कार्य करता हैं। तारों और नैनों तारों के मध्य इसके समुचित अनुयोजन को सुनिश्चित करने के लिए कृत्रिम दृष्टिटपटल (रेटिना) सिलिकन पॉलिमर से निर्मित सॉकेट के माध्यम से बंधा रहता है। प्राकृतिक आंख की भांति कृत्रिम आंख को संपूरित करने के लिए युक्ति के सामने लेंस व कृत्रिम आइरिसको लगाया जाता हैं। लेंस व आइरिस पीछे लगे दृष्टिपटल के साथ मिलकर एक गोलाकार कोष्ठ (नेत्र गोलक या आई बॉल) बनाते है। प्राकृतिक आंख के अंदर भरे काचाभ द्रव (विट्रीअस ह्यूमर) की भांति ही इस नवीन कृत्रिम आंख के कोष्ठ में एक आयनिक द्रव भरा जाता है।
कृत्रिम आंख की सबसे अधिक प्रभावित करने वाली विशेषताओं में से एक है, इसमें निहित नैनों तारों से निर्मित सघन व्यूह के परिणामस्वरुप, इसके दृष्टिपटल द्वारा प्राप्त की गई उच्च विभेदन प्रतिबिंबन क्षमता।
हालांकि एचकेयूएसटी द्वारा विकसित की गई नवीन कृत्रिम आंख का संपूर्ण कार्य प्रदर्शन इस प्रकार की युक्तियों के संदर्भ में एक लंबी छलांग है, परंतु इसे श्रेष्ठतर बनाने के लिए अभी बहुत कुछ कार्य किया जाना शेष है।
अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि अभी कृत्रिम आंख (ऑक्युलर प्रॉस्थेसिस) के साथ प्रयोग होने वाले बाह्य ऊर्जा स्रोत अथवा परिपथिकी की आवश्यकता को अलग करते हुए कुछ और संशोधनों के बाद नवीन आंख स्वचालित प्रतिबिंब संवेदक हो सकती है। तब यह वर्तमान में उपलब्ध प्रौद्योगिकी की तुलना में कहीं अधिक प्रयोक्ता अनुकूल होगी।
क्रिस्टलीय नाइट्रोजन का सृजन
जून 2020 में, जर्मनी में बायरेथ विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने नाइट्रोजन से बनी एक क्रिस्टलीय संरचना के सृजन की सूचना दी, जैसा कि सामान्य परिस्थितियों में ब्लैक फॉस्फोरस और आर्सेनिक के मामले में पाया जाता रहा है। यह विदित है कि कार्बन, ऑक्सीजन और अन्य हल्के तत्वों की संरचना, अत्यधिक उच्च दबाव में रखने पर, उसी तत्व समूह के भारी तत्वों के समान होती है। परंतु अब तक यह देखा जाता रहा है कि नाइट्रोजन का आचरण असंगत रहता है। परंतु अब तक प्रचलित यह धारणा कि संपीडित किए जाने पर नाइट्रोजन, इस तत्व समूह के अन्य भारी तत्वों जैसे, फॉस्फोरस, आर्सेनिक और ऐन्टिमनी आदि द्वारा सामान्य दशा में दिखाई देने वाली संरचना प्रदर्शित नहीं करती है, निर्मूल सिद्ध हो गई है।
‘ब्लैक नाइट्रोजन‘ नामक एक नए पदार्थ की संरचना में द्विआयामी परमाण्विक परतें समाविष्ट हैं। अतः यह उच्च तकनीकी इलेक्ट्रॉनिकी के लिए अत्यधिक रूचि का विषय है। वैज्ञानिकों का मत है कि ब्लैक नाइट्रोजन, नाइट्रोजन का एक नया अपर रुप (एलोट्रोप) है, जो तब बनता है जब नाइट्रोजन को डायमंड के स्टैम्प सेल के दो विपरीत डायमंड के बीच में रखकर अति उच्च दाब में संपीडित किया जाता है।
काले नाइट्रोजन का उत्पादन वास्तव में चरम परिस्थिति में हुआ, जहां पर संपीडित दबाव पृथ्वी के वायुमंडल के दाब से लगभग 14 लाख गुना अधिक और तापमान 4,000 डिग्री सेल्सियस अधिक था। यह द्विआयामी परतों से बना होता है, जिसमें नाइट्रोजन परमाणु, ग्रैफीन के समान ही, एकसमान रुप से टेढ़े-मेढ़े प्रतिरूप में तिर्यकबद्ध (क्रॉस लिंक्ड) रहते है। उच्च तकनीकी अनुप्रयोगों में इस पदार्थ के उपयोग की अत्यधिक संभावनाएं दिखाई दे नही हैं।
शुक्र ग्रह में फॉस्फीन की खोज
सितंबर माह में खगोलविज्ञानियों के अंतर्राष्ट्रीय दल ने, शुक्र ग्रह को पूर्ण रुप से आच्छादित रखने वाले अम्लीय बादलों के ऊपरी भाग के निकट फॉस्फीन नाम की एक दुर्लभ गैस के पाए जाने की घोषणा की।
साधारणतः पृथ्वी पर फॉस्फीन जीवों द्वारा उत्पन्न होती है, अतः शीघ्र ही शुक्र ग्रह में जीवन की उपस्थिति के कयास लगाए जाने लगे। इस खोज ने तत्काल पार्थिवेतर जीवन की खोज की चर्चा के द्वार एक बार फिर से खोल दिए। फॉस्फीन एक बदबूदार और अत्यंत विषैली गैस है जिसका इस्तेमाल रासायनिक हथियार बनाने में भी किया गया है। फॉस्फीन अणु, फॉस्फोरस के एक तथा हाइड्रोजन के तीन परमाणुओं के मेल से बनती है। इसकी आणविक संरचना एक पिरामिड के सामान है, जिसके एक शीर्ष पर फॉस्फोरस का परमाणु स्थित रहता है। सामान्यतः यह प्रकृति में पाई जाने वाली एक दुर्लभ गैस है।
फॉस्फीन को बनाने में एक असामान्य बल अथवा क्रियाविधि की आवश्यकता होती है। पृथ्वी पर फॉस्फीन बैक्टीरिया या फिर औद्योगिक प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न होती हैं। अतः पृथ्वी के बराबर आकार के एक ग्रह, जिसके वायुमंडल को दूरबीन की सहायता से देखा जा सकता है, के वायुमंडल में ऑक्सीजन के अतिरिक्त, फॉस्फीन की उपस्थिति को जैवचिन्हक (बायोसिग्नेचर) के रुप में माना जा रहा है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ग्रह के वायुमंडल, बादलों, सतह तथा अधस्थल पर स्थाई रासायनिक प्रक्रिया, प्रकाशरसायन पथ व शुक्र के अजैविक उत्पादन के मार्ग या तड़ित ज्वालामुखीय और उल्कीय अंतरण के व्यापक अध्ययन के बाद भी फॉस्फीन की उपस्थिति के कारण की व्याख्या नहीं की जा सकी है।
भारत की प्रथम हाइड्रोजन ईंधन चालित कार के आदिप्रारूप शुभारंभ
अक्टूबर माह में भारत की पहली, प्रदूषण न करने वाली हाइड्रोजन ईंधन चालित कार का आदिप्रारूप बनकर तैयार हुआ। इसे वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (सीएसआईआर) और पुणे स्थित बहुराष्ट्रीय कारपोरेशन केपीआईटी टेक्नोलॉजी द्वारा देश में ही विकसित किया गया है।
हाइड्रोजन ईंधन सेल (एचएफसी) प्रौद्योगिकी, विद्युत ऊर्जा का उत्पादन करने के लिए हवा में उपस्थित हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के बीच रासायनिक अभिक्रियाओं का उपयोग करती है और जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से मुक्त करती है।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि ईंधन सेल प्रौद्योगिकी निर्वातक (इग्जॉस्ट) के रुप में केवल जल उत्सर्जित करती है। अतः इससे किसी भी प्रकार की ग्रीन हाउस गैसें तथा अन्य वायु प्रदूषक नहीं निकलते।
इसमें प्रयुक्त सेल एक निम्न तापमान प्रोटोन विनिमय झिल्ली (पीईएम-प्रोटोन एक्सचेंज मेंम्ब्रेन) ईंधन सेल हैं, जो मोटर वाहनों के लिए उपयुक्त 65-75 डिग्री सेल्स्यिस तापमान पर कार्य करते है। पीईएम ईंधन सेल प्रौद्योगिकी का हृदय यानी मुख्य भाग मेम्ब्रेन इलेक्ट्रोड एसेम्बली जिसकी तकनीकी जानकारी पूर्णरूपेण सीएसआईआर द्वारा उपलब्ध कराई गई है।
सन् 2016 में सीएसआईआर की राष्ट्रीय रासायनिक अनुसंधान प्रयोगशाला (एनसीएल), पुणे और केंद्रीय विद्युतरसायन अनुसंधान संस्थान (सीईसीआरआई), कराईपुडी द्वारा न्यू मिलेनियम इंडियन टेक्नोलॉजी लीडरशिप इनीशिएटिव (एनएमआईटीएलआई) योजना के उद्योग उद्भूत प्रोजेक्ट (आईओपी-इंडस्ट्री ओरिजिनेटेड प्रोजेक्ट) संवर्ग के अंतर्गत मोटर वाहन स्तर के पीईएम ईंधन सेल प्रौद्योगिकी के विकास के लिए केपीआईटी के साथ साझेदारी की गई थी। एनएमआईटीएलआई योजना अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में, निजी और सार्वजनिक साझेदारी को स्थापित करने के लिए एक पहल है।
दक्षिण कोरिया के ‘कृत्रिम सूर्य‘ ने एक नया कीर्तिमान बनाया
दक्षिण कोरिया के वैज्ञानिकों द्वारा बनाए गए ‘कृत्रिम सूर्य’- एक अतिचालक संलयन युक्ति (सुपरकन्डक्टिंग फ्यूजन डिवाइस) – ने 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस का तापमान 20 सेकेंड तक बनाए रखकर चीन के एक्सपेरिमेंटल एडवांस्ड सुपरकंडक्टिंग टोकामैक (ईएएसटी) युक्ति द्वारा बनाए गए 10 सेकेंड के पिछले कीर्तिमान को ध्वस्त कर दिया।
वैज्ञानिकों ने संलयन के लिए हाइड्रोजन से प्लाज्मा (पदार्थ की चार मूल अवस्थाओं में से एक अवस्था) प्राप्त की, जो कि अतितप्त 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस से भी अधिक तापमान के आयनां से बनी थी। इस प्रकार की आयनित अवस्था को बनाए रखने के लिए इस अविश्वसनीय उच्च तापमान को निरंतर बनाए रखना आवश्यक होता है।
कोरियन इंस्टिट्यूट ऑफ फ्यूजन एनर्जी (केएफई) के अनुसंधान केंद्र केएसटीएआर द्वारा 24 नवम्बर 2020 को सोल राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (एसएनयू) और अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय के साथ मिलकर यह उपलब्धि हासिल की गई। केएसटीएआर द्वारा टोकामैक युक्तियां, सूर्य में होने वाली नाभिकीय अभिक्रियाओं को पृथ्वी पर उत्पन्न करने के लिए प्रयुक्त की जा रही है।
इंस्टिट्यूट फॉर रेडिएशन प्रोटेक्शन एंड न्यूक्लियर सेफ्टी (आईआरएसएन) के अनुसार विश्व में इस समय 250 टोकामैक युक्तियां कार्यरत है। संस्थान का लक्ष्य वर्ष 2025 तक एक बार में कम से कम 300 सेकेंड तक के लिए संलयन प्रज्वलन की अवस्था को प्राप्त करना है। (साभारः वैज्ञानिक)
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