गर्माते जलवायु से क्या हमारा भविष्य भूमिगत होगा?

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आज दुनिया की 8 अरब की आबादी का आधे से थोड़ा अधिक हिस्सा शहरों में रहता है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि आने वाले 25 सालों में शहरों में बसने वालों की आबादी बढ़कर दो तिहाई हो जाएगी। यानि 2050 तक हर 10 में से 7 लोग शहरी क्षेत्रों में रह रहे होंगे। यह वृद्धि सबसे अधिक एशिया और अफ्रीका में होगी जहां जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास अधिक तेज़ी से हो रहा है।

शहरों में भीड़ बढ़ जाएगी और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती गर्मी को बर्दाश्त करना मुश्किल और महंगा हो जाएगा। इससे इमारतों को ठंडा रखने के लिए ऊर्जा की खपत बढ़ेगी और साथ ही कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा। मगर एक उपाय हो सकता है। और वह यह है कि शहरों का विस्तार ज़मीन के ऊपर या इर्द-गिर्द करने के बजाय ज़मीन के नीचे किया जाए।

अंडरग्राउंड दुनिया
मध्य तुर्की में 5000 वर्ग किलोमीटर में फैला एक ऐसा ख़ूबसूरत इलाका है जहां दूर दूर तक कोन के आकार के पत्थरों के ढांचे दिखाई देते हैं। लाखों साल पहले ज्वालामुखियों के फटने से निकली राख की वजह से ये बने थे। अगर इन प्राकृतिक शिखरों को ग़ौर से देखें तो वहां बगल में दरवाज़े बने दिखाई देते हैं। इनके भीतर घुसते ही कमरों, गलियारों, और सुरंगों की एक विशाल दुनिया उभरती है।

वहां ऐसा एक परिसर है- डेरेनकूयू शहर। वहां ज़मीन के 85 मीटर नीचे कमरों, गलियारों और सुरंगों का एक अत्यंत बड़ा जाल मौजूद है। सदियों तक लोग दुश्मनों से बचने के लिए इन जगहों का इस्तेमाल करते रहे हैं।

सबटेरेनिया ब्रिटानिका संस्था ज़मीन के नीचे मनुष्यों द्वारा रहने के लिए बनायी गयी जगहों पर शोधकार्य करती है। संस्था के ट्रस्टी मार्टिन डिक्सन कहते हैं कि वो दुनिया की ऐसी कई जगहों पर शोध कर चुके हैं। डेरेनकूयू की इन सुरंगों के मुहाने को भारी गोल पत्थरों से बंद कर दिया जाता था ताकि बाहर से शत्रु भीतर ना घुस पाए। वो बताते हैं, ‘‘इन गोलाकार पत्थरों को भीतरी गलियारों से सुरंग के मुंह पर ठेल दिया जाता था जिससे बाहर से उन्हें हटाना असंभव होता था। ऐसे दरवाज़ों के इर्द-गिर्द सुरंगें होती थीं जहां से बाहर से घुसने वाले शत्रुओं पर भाले जैसे हथियारों से हमला किया जा सकता था।’’

मार्टिन डिक्सन का मानना है कि जब ज़मीन पर लड़ाई होती थी तो लोग ऐसी भूमिगत जगहों में शरण लेते थे। उन्होंने बताया कि यह स्थायी ठिकाने तो नहीं थे लेकिन ज़मीन पर संघर्ष से बचने के लिए लोग यहां लंबे समय तक रहते थे। इन भूमिगत परिसरों में कुएं थे, रोशनदान थे, मवेशियों के लिए बाड़े और अस्तबल थे जहां लोग सुरक्षित रह सकते थे।

शत्रुओं और जंगली जानवरों से बचने के साथ साथ मौसम की मार से बचने के लिए भी मनुष्य सदियों से गुफाओं में शरण लेते रहे हैं। लगभग 100 साल पहले दक्षिणी आस्ट्रेलिया के कूबर पेडी इलाके में खनिकों ने कीमती ओपल पत्थर निकालने के लिए खनन शुरू किया था। लेकिन फिर चिलचिलाती गर्मी से बचने के लिए उन्होंने ज़मीन के नीचे एक पूरी दुनिया बसा ली।

आज कूबर पेडी के लगभग 1500 निवासी ज़मीन के नीचे ही रहते हैं। वहां दुकानें चलाते हैं, ख़रीदारी करते हैं और यहां तक की भूमिगत चर्च में प्रार्थना भी करते हैं। स्थानीय लोग इसे ‘डग आउट’ कहते हैं। कूबर पेडी में गर्मियों में तापमान 40 डिग्री के आसपास रहता है जिस वजह से लोग ज़मीन के नीचे बनाए गए घरों में रहते हैं जहां तापमान पूरे साल 20 डिग्री के करीब रहता है। इसलिए कूबर पेडी की कुल आबादी का दो तिहाई हिस्सा पूरे साल अंडरग्राउंड रहता है।

ज़मीन के नीचे उनका जीवन बहुत प्यारा होता है। पत्थर में एक नारंगी झांई होती है और उसकी सतह आकर्षक लगती है। आमतौर पर उनका लिविंग रूम एंट्रेंस या मुहाने के नज़दीक होता है और वहां खिड़की होती है। इस कमरे में वो दिन का ज़्यादा समय बिताते हैं। और भीतरी कमरों को स्टोरेज या बेडरूम के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। बाहर तेज़ गर्मी होती है मगर भीतरी कमरों में सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती इसलिए यहां तापमान आरामदेह होता है।

कूबर पेडी के निवासियों ने गर्मी से बचने के लिए भूमिगत मकानों का उपाय निकाला है। दुनिया में और भी कई ऐसी जगहें हैं जहां लोग मकान तो ज़मीन के ऊपर बनाते हैं लेकिन अपनी रोज़मर्रा की गतिविधियां ज़मीन के नीचे करते हैं।

भूमिगत शहरों का निर्माण
दुनिया के 60 से अधिक देशों में मेट्रो या भूमिगत रेल चलती है। इन अंडरग्राउंड स्टेशनों के भीतर लोगों के कार्यालय हैं, जहां वो ट्रेन से उतर कर सीधे अपने आफ़िस में जा सकते हैं। खाने पीने का सामान ख़रीद सकते हैं। और इसके लिए लिफ़्ट से ज़मीन के ऊपर की इमारत में जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। अंडरग्राउंड परिसर बनाने की एक वजह और है। वो है मौसम। मिसाल के तौर पर पूर्वी कनाडा में सर्दियों के दौरान तापमान शून्य से 30 डिग्री नीचे तक पहुंच जाता है।

980 के दशक में असोसिएटेड रिसर्च सेंटर फ़ार अर्बन अंडरग्राउंड स्पेसेज़ के सहसंस्थापक ज़्याक बेसनर ने मोंट्रियल शहर में भूमिगत परिसरों के निर्माण में काम किया था। मोंट्रियल का अंडरग्राउंड शहर 30 किलोमीटर तक फैला है जिसमें सैकड़ों दफ़्तर, दुकानें और यहां तक की म्यूज़ियम भी हैं। प्रतिदिन लगभग पांच लाख लोग इसका इस्तेमाल करते हैं।

ज़्याक कहते हैं इन जगहों को डिज़ाइन करते समय सुरक्षा और सुविधा पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इन जगहों पर गलियारे बहुत चैड़े बनाए जाते हैं और दीवारों पर साफ़ तरीके से साईनबोर्ड लगे होते हैं ताकि लोगों को आवाजाही में दिक्कत ना हो और लोग सुरक्षित महसूस करें।

आधुनिक टेक्नोलाजी और भवन निर्माण सामग्री से अब पहले से मौजूद इमारतों को नुकसान पहुंचाए बिना भूमिगत परिसरों में शापिंग माल जैसी बड़ी इमारतें बनायी जा सकती हैं। 100 साल पहले जब लंदन में भूमिगत मेट्रो रेल का जाल बिछाया जा रहा था तब मौजूदा इमारतों का नुकसान ना हो इसलिए ज़मीन में बहुत गहरायी में सुरंगें खोदनी पड़ी थीं।
पुराने शहरों में यह काम मुश्किल तो होता है लेकिन यहां कि विरासत का भरपूर इस्तेमाल अंडरग्राउंड परिसरों के लिए किया जा सकता है। कई शहरों में ज़मीन के नीचे ऐसे ‘डगआउट’ मध्यकाल से लेकर शीत युद्ध के दौरान तक बनाए गए थे। शहरों में लड़ाई के दौरान बमबारी से बचने के लिए भूमिगत परिसर बनाए गए थे। इन ऐतिहासिक जगहों का इस्तेमाल अब पर्यटन के लिए होता है क्योंकि यह जगह काफ़ी रोचक होती है। लेकिन इन जगहों को आधुनिक अभिरूचि के अनुसार ढाल कर यहां रेस्त्रां और दुकानें खोली जा सकती हैं जो आजकल काफ़ी फ़ैशनेबल है।

फ़िलहाल लोग इन अंडरग्राउंड जगहों का इस्तेमाल सीमित समय के लिए करते हैं। मगर क्या भविष्य में जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव से बचने के लिए यहां लंबे समय तक रहने की व्यवस्था के बारे में सोचा जा सकता है?

जलवायु परिवर्तन से बाढ़ और आग लगने की वारदातें बढ़ जाएंगी और ज़मीन के ऊपर गर्मी इतनी तेज़ हो जाएगी कि लोग अंडरग्राउंड में ठंडी जगहों में रहने के बारे में ज़रूर विचार करेंगे। गर्मी और उमस से बचने के लिए अंडरग्राउंड परिसर अच्छा उपाय बन सकते हैं।

मोंट्रियल का अंडरग्राउंड शहर 60 साल पहले बना था। भविष्य के बदलावों को देखते हुए 21वीं सदी के आर्किटेक्ट अब नये किस्म के भूमिगत परिसर बनाने की योजना बना रहे हैं।

रोशनी की किरण
भूमिगत निर्माण क्षेत्र में एक साहसी योजना को दक्षिण कोरिया में अंजाम दिया जा रहा है। राजधानी सोल के गंगनम इलाके में ज़मीन के नीचे आधा किलोमीटर लंबा पार्क या ‘लाइट वाक’ बनाया जा रहा है जिसके ऊपर शीशे की छत होगी जिससे रोशनी ज़मीन के नीचे पार्क और वहां बने परिसर तक पहुंचेगी।

स्विट्ज़रलैंड की एम्बर्ग इंजिनियरिंग कंपनी की प्रोजेक्ट मैनेजर और इंटरनेशनल टनेलिंग एंड अंडरग्राउंड स्पेस असोसिएशन की अंडरग्राउंड स्पेस कमिटी की सहप्रमुख एंटोनिया कोरनारो ने का कहना है कि, यहां ज़मीन के नीचे दो आधुनिक पार्क बनाए जाएंगे। जिस तरह न्यूयार्क में सेंट्रल पार्क और लंदन में हाइड पार्क है उसी तर्ज़ पर सोल में यह लाइट वाक पार्क बन रहा है। इसकी ख़ास बात यह होगी कि यह सोल की मेट्रो रेल से जुड़ेगा। साथ ही यहां लोगों के मनोरंजन के कई साधन होंगे। अगर ज़मीन पर गर्मी और उमस ज्यादा हो तो लोग नीचे पार्क के ठंडे मौसम में समय बिता सकेंगे।

सूरज की रोशनी की कमी भूमिगत परिसरों की एक ख़ामी रही है लेकिन शीशे की छत से इसे भी दूर किया जा सकता है। आधुनिक आर्किटेक्चर या वास्तुकला में रिफ्लैक्शन यानि अपवर्तन और फ़ाइबर आप्टिक केबल के इस्तेमाल से सूरज की रोशन का इस्तेमाल भूमिगत परिसरों में करने की कोशिश की जा रही है।

लेकिन यहां दूसरी बड़ी समस्या है कि ज़मीन के नीचे खुदाई बड़ा खर्चीला काम है। न्यूयार्क में ऐसे ही एक अंडरग्राउंड ‘लोलाइन’ पार्क का निर्माण 2019 में शुरू हुआ लेकिन एक साल बाद ही धन की कमी के कारण बंद पड़ गया। मगर उम्मीद की जा रही है कि यह दोबारा शुरू होगा।

एंटोनिया कोरनारो ने कहा कि इस पार्क में ज़मीन के नीचे कई प्रकार के पौधे उगाने का परीक्षण किया गया है। यह बेहद सुंदर सार्वजानिक पार्क बन सकता है जहां लोग साल के किसी भी समय दिन या रात में जा पाएंगे। फ़ाइबर आप्टिक केबल के ज़रिए वहां सूरज की रोशनी पहुंचाई जाएगी जिससे वहां पेड़ पौधे फल-फूल सकेंगे।

अगर ‘लोलाइन पार्क’ में पौधे उगाए जा सकते हैं तो क्यों ना ऐसी ख़ाली पड़ी भूमिगत जगहों पर पौधे उगाने या खेती करने के बारे में गंभीरता से सोचा जाए जिससे प्रतिकूल स्थितयों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चत की जा सके? खेती की ऐसी जगहें अस्तित्व में हैं और एंटोनिया कोरनारो ने ऐसी दो जगहों का दौरा भी किया है।

लंदन में एक अंडरग्राउंड खेती का व्यापार काफ़ी सफल रहा है। यहां एलईडी लाइटों से रोशनी की गयी है। ऐसा ही एक प्रोजेक्ट स्विट्ज़रलैंड में भी चल रहा और यहां भी यही तरकीब अपनायी गयी है। कई अंडरग्राउंड जगहों पर मशरूम उगाए जा रहे हैं। सोल के एक भूमिगत मेट्रो स्टेशन में सलाद उगा कर यात्रियों को बेचे जाते हैं।

ऐसी ही एक योजना फ्रांस में भी शुरू की जा रही है। वहीं यूके में बंद पड़ी कोयला खदानों के भीतर खेती करने का सुझाव भी आया है। अंडरग्राउंड जगहों पर खेती करने का एक फ़ायदा यह होता है कि वहां कीट और पक्षी नहीं होते जिनसे फ़सल को नुकसान पहुंचे। वहीं खेत से अनाज को शहरों तक ले जाने में यातायात से होने वाला कार्बन उत्सर्जन भी कम किया जा सकता है।

ज़मीन पर अनाज उगाने की तुलना में ज़मीन के नीचे फ़सलों को कम पानी और जगह की आवश्यकता होती है। भूमिगत परिसरों में तापमान स्थिर रहता है इसलिए उन्हें ठंडा करने के लिए ईंधन की ज़रूरत नहीं होती और उनका रखरखाव भी सस्ता होता है।

खुदाई की चुनौती
अमेरिका की मैरीलैंड यूनिवर्सिटी में शहरी योजना अध्ययन कार्यक्रम की निदेशक प्रोफ़ेसर क्लारा इराज़ाबेल का मानना है कि अब दुनिया की बहुसंख्यक आबादी शहरों में रहने लगी है। ऐसे में जगह की कमी को दूर करने के लिए भूमिगत परिसरों का निर्माण अच्छा मगर साहसी विकल्प हो सकता है।

उनके मुताबिक़, ‘‘अंडरग्राउंड इमारतें बनाने में खर्च अधिक होगा और प्रक्रिया पेचीदा होगी। फिर इमारत के ढांचे की स्थिरता सुनिश्चित करना, वाटरप्रूफ़िंग, वेंटिलेशन और उसकी मरम्मत करना भी अधिक चुनौतीपूर्ण होगा। इन सब के लिए आधुनिक टेक्नोलाजी की आवश्यकता होगी।

अंडरग्राउंड इमारतों की डिज़ाइन बनाते समय यह भी सोचना होगा कि वहां रहने से हमारे दिमाग़ पर क्या असर पड़ेगा क्योंकि बाढ़ या आग के ख़तरे के साथ ऐसी जगह पर रहना आसान तो नहीं है। प्राकृतिक दुनिया से अलग थलग आसमान और सूरज की रोशनी के बगैर रहने से मनोवैज्ञानिक प्रभाव निश्चित ही पड़ेगा। इस नकारात्मक पहलू को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

अंडरग्राउंड जीवन के साथ अगली समस्या है इसके साथ जुड़ी धारणाएं। आस्कर पुरस्कार जीतने वाली कोरियाई फ़िल्म ‘पैरासाइट’ में बेसमेंट में रहने वाले एक ग़रीब परिवार की कहानी दर्शाई गयी थी। सोल में लगभग दो लाख लोग ऐसे ‘बंजिया’ मकानों में रहते हैं। बाढ़ और कीड़े मकोड़ों की समस्या से जूझते हैं। इन समस्याओं को हल कर भी लिया जाए तब भी इस प्रकार के जीवन से जुड़ी नकारात्मक धारणा का उपाय मुश्किल है।

ज़मीन के नीचे रहने को हमेशा से ग़रीबी से जोड़ कर देखा गया है। और माना जाता रहा है कि जिनके पास ज़मीन के ऊपर रहने के संसाधन नहीं होते वही अंडरग्राउंड मकानों में रहते हैं। इसके अलावा दूसरी बात यह है कि इंसान ज़मीन के ऊपर रहने के आदी रहे हैं वो रीति रिवाजों के साथ जीते हैं इसलिए हमारे लिए आदत बदलना आसान नहीं होता। मगर हमें साहसी और रचनात्मक सोच अपनानी होगी।

कई शहरों में माल, कसीनो और रेल भूमिगत हैं। हमें उस व्यवस्था को और मज़बूत और बेहतर बनाना होगा ताकि ज़मीन के नीचे आवासीय परिसर भी बनाए जा सकें।
अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर- क्या हमारा भविष्य भूमिगत होगा? जैसे-जैसे अधिकाधिक लोग शहरों का रुख़ कर रहे हैं, शहर में जगह की किल्लत बढ़ रही है। फिर ज़मीन के नीचे तापमान को नियंत्रित करना आसान होता है और टेक्नोलाजी की मदद से हम वहां प्राकृतिक रोशनी भी ला सकते हैं, सब्ज़ियां भी उगा सकते हैं। दरअसल हमारे सामने असली चुनौती भूमिगत जीवन से जुड़ी धारणा को बदलने की और ज़मीन के नीचे इमारतें बनाने के लिए संसाधन जुटाने की है। मगर आधुनिक दुनिया के सामने खड़ी जलवायु परिवर्तन और बढ़ती आबादी की समस्या के मद्देनज़र हमारे पास गहराई में उतरने के अलावा शायद दूसरा रास्ता विकल्प भी नहीं है।

स उत्तम सिंह गहरवार