नदियों को जीवंत घोषित करने मात्र से असंभव है उनकी प्रदूषण मुक्ति

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बहुत पहले मध्य प्रदेश सरकार ने विधान सभा में कानून पारित करके नर्मदा नदी को मनुष्यों की तरह ही जीवंत घोषित कर दिया। उससे कुछ दिन पूर्व हाई कोर्ट ने भी अपने एक फैसले में देश की कुछ नदियों को मनुष्यों की तरह ही जीवंत माना था। उसके बाद उत्तराखंड सरकार ने ही हाई कोर्ट के फैसले के खि़लाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है कि नदियों को जीवंत मानने का आदेश रद्द किया जाए। इससे एक तरह से नदियों को जीवंत मानने या न मानने की जंग छिड़ने की संभावना उत्पन्न हो गई।

प्रश्न उठता है कि क्या कानूनी रूप से नदियों को जीवंत घोषित करने मात्र से उनका उद्धार संभव है? दूसरे यदि न्यायालय कोई आदेश नहीं देता क्या उस स्थिति में नदियों की उपेक्षा करना अथवा उनको प्रदूषित होने से बचाना या उनकी रक्षा करना हर नागरिक और सरकार का दायित्व नहीं है?

जहाँ तक एक नदी के जीवंत होने की बात है इससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन क्या झीलें, झरने, तालाब व अन्य जलस्रोत जीवंत नहीं हैं? क्या समुद्र जीवंत नहीं है? क्या ये समस्त धरा व पर्वत श्रेणियाँ जीवंत नहीं हैं? क्या संपूर्ण प्रकृति जीवंत नहीं है? क्या ये सभी प्रदूषण की चपेट में नहीं हैं? हम संपूर्णता की बात क्यों नहीं करते? हम समग्र उपचार की बात क्यों नहीं करते? कभी हम केवल नदियों की बात करते हैं तो कभी केवल गंगा, यमुना अथवा नर्मदा की ही बात करते हैं। कभी एक राज्य की बात करते हैं तो कभी एक शहर की ही बात तक सीमित रह जाते हैं। हम समस्त प्रकृति की बात क्यों नहीं करते? हम समस्त जलस्रोतों के संरक्षण की बात क्यों नहीं करते? हम गौवध के विरुद्ध हैं बड़ी अच्छी बात है लेकिन अन्य जीवों की हत्या अथवा उनके प्रति क्रूरता के प्रति संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाते? हम समस्त जैव विविधता के संरक्षण की बात क्यों नहीं करते?

समस्या का उपचार खण्डों में किया जा सकता है लेकिन समस्या को उसके समग्र रूप में देखना-समझना ज़रूरी है। नदियों के संबंध में भी समस्या को समग्र रूप से जानना-समझना ज़रूरी है। नदियों को जीवंत मानना तो ठीक है लेकिन नदियों को मात्र जीवंत मानने व मनुष्यों जैसा दर्जा देने से क्या लाभ होगा?

संविधान ने देश के नागरिकों को बहुत से अधिकार दिए हैं, लेकिन क्या अधिकार देने की घोषणा मात्र से उन सभी का जीवन उन्नत हो गया है? नदियों को मनुष्यों जैसा दर्जा देने के संबंध में भी यही कहा जा सकता है। मान लिया कि अब नदियों के प्रति अपराध मनुष्य के प्रति अपराध जैसा ही गंभीर अपराध माना जाएगा लेकिन इससे फ़र्क़ क्या पड़ेगा? मनुष्य जब मनुष्य के प्रति अपराध कर सकता है, उसका शोषण कर सकता है तो वह नदी के प्रति ऐसा नहीं करेगा इस बात की संभावना न के बराबर ही है।

जहाँ तक कानून की बात है अवैध खनन, जंगलों की अवैध कटाई व अन्य अवैध कार्यों के प्रति बहुत सख्त कानून बने हुए हैं लेकिन क्या अवैध धंधों में कमी आई है? जहाँ हम व्यक्ति को व्यक्ति न मानकर उसे धर्म, जाति, क्षेत्र अथवा राष्ट्र से जोड़कर देखते हैं वहाँ एक नदी को व्यक्ति मानकर उसके अनुरूप व्यवहार करने लगेंगे इसमें भी संदेह है।

हम माँ को बहुत महत्त्व देते हैं। अपनी जननी को ही नहीं जिस अन्य स्त्री को भी सम्मान देना हो उसे भी माँ कहते हैं। गाय को भी गौमाता कहते हैं। नदी को भी माँ कहते हैं। गंगा को भी गंगामैया कहते हैं। धरती को भी धरती माता कहते हैं। जो जन्म देती है और जिससे पोषण पाते हैं वो माँ ही है। माँ एक महत्त्वपूर्ण संबंध का नाम है। प्रश्न उठता है कि जब हम अपने माँ-बाप को वृद्धाश्रमों का रास्ता दिखलाने में संकोच नहीं करते तो नदियों को माँ कहने से या उन्हें जीवंत घोषित कर देने मात्र से उनकी स्थिति में कोई अंतर आएगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं दिखलाई पड़ता।

हम सुबह उठते ही धरती माता को प्रणाम करते हैं। धरती पर कदम रखने से पहले उसे पैर से स्पर्श करने के लिए उससे क्षमायाचना करते हैं। लेकिन वास्तव में हम उसके प्रति कितने चिंतित हैं, कितने सचेत हैं यह किसी से छिपा नहीं है।

नदियों को भी हम देखते ही प्रणाम करते हैं। नहाते समय देश की सभी पवित्र नदियों का स्मरण करते हैं। किसी नदी को पार करने के लिए जब उसके ऊपर से होकर गुज़रते हैं तो नदी की तरफ एक सिक्का उछालकर अपनी श्रद्धा प्रकट करने के साथ-साथ उसके ऋण से मुक्त होने का प्रयास भी करते हैं।

जिस प्रकार से एक क़ातिल अपने गुनाह का सबूत मिटाने के लिए लाश को नदी के हवाले कर देता है, उसी प्रकार से हम अपनी धार्मिकता के दंभ को पुष्ट करने के लिए पूजापाठ की सामग्री के साथ-साथ और न जाने कितने तरह का कचरा पवित्र नदियों के हवाले कर उन्हें अपवित्र करने का कोई अवसर नहीं चूकते और न ऐसा करने में संकोच ही करते। हमारी औद्योगिक प्रगति के कचरे को भी हमारी पवित्र नदियाँ ही वहन करती हैं।

जहाँ तक नदियों को प्रदूषणमुक्त करने की बात है क्या उनको नदी ही मानकर ये सब नहीं किया जा सकता? हमारी धरती की तरह ही हमारी नदियों पर भी जनसंख्या का दबाव बहुत बढ़ गया है। हमारी बदलती जीवनशैली के कारण हमारा उपभोग असीमित ही नहीं अनियंत्रित सा ही हो गया है। हम जलस्रोतों का अपरिमित दोहन ही नहीं कर रहे हैं अपितु जल का उचित उपयोग करना भी नहीं जानते हैं।

दुरूप्रयोग से अधिक जल निरर्थक बहकर नष्ट हो जाता है। औद्योगिकीकरण के कारण एक ओर जहाँ पानी की माँग अत्यधिक बढ़ गई है, वहीं दूसरी ओर उद्योगों का गंदा व विषैला पानी पुनः नदियों में जाकर मिल जाता है। शहरी जल मल नदियों में जाकर मिल जाता है। कई बार ये पानी इतना अधिक प्रदूषित होता है कि इसे साफ करना भी संभव नहीं होता और इस कारण से शहरों के जल संशोधन संयंत्र बंद तक करने की नौबत आ जाती है जिससे शहरों में पीने के पानी के लिए हाहाकार मच जाता है।
नदियों के बचाव के लिए सख्त कानून बनाने से ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा? न्यायालयों में मामले और बढ़ जाएँगे। फैसले लंबित पड़े रहेंगे। बाद में कुछ जुर्माना अदा कर दिया जाएगा। जहाँ करोड़ों की कमाई हो वहाँ कुछ लाख या कुछ हज़ार रुपए जुर्माना भरना कौन सा घाटे का सौदा है? समरथ को नहिं दोस गुसाईं वाली बातें आगे नहीं होंगी इस बात की कोई गारंटी नहीं।

एक तरफ हम धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दे रहे हैं तो दूसरी ओर नदियों व पर्यावरण को बचाने की चिंता में मरे जा रहे हैं। सभी धार्मिक स्थल पर्वतों पर व नदियों अथवा अन्य जलस्रोतों के किनारों पर ही तो स्थित हैं। सुरम्य पर्वतीय स्थलों व नदियों को प्रदूषण से बचाना है तो पर्यटन के रूप में बढ़ते दबाव को कम करना भी अनिवार्य है। और ये संभव नहीं। फिर नदियों को मनुष्यों की तरह ही जीवंत मानकर उन्हें मनुष्यों जैसा दर्जा देने का क्या प्रयोजन हो सकता है?

नदियाँ न केवल हमारी प्यास बुझाती हैं अपितु प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से हमारा संपूर्ण व समग्र पोषण करती हैं अतः उनका संरक्षण व प्रदूषणमुक्ति हमारा स्वयं का ही पोषण व संरक्षण है। जब तक मन में ये बात नहीं बैठ जाती तब तक नदियों को मनुष्यों जैसा दर्जा देने, उनका माता कहकर सम्मान करने, उनकी प्रशंसा में स्तुतिगान व मंत्रोच्चारण करने अथवा उनकी शुद्धि के लिए निरर्थक कर्मकाण्ड के नाम पर उनमें दूध-दही व फल-फूल बहाने से कुछ नहीं होगा।

नदियों को सचमुच प्रदूषणमुक्त करना है तो अपनी जीवनशैली को बदलना होगा। अपने निरंकुश उपभोग पर अंकुश लगाना होगा। जल का समुचित व सार्थक उपयोग करने के तरीके सीखने होंगे। पर्यटकों को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी। और सबसे ज़रूरी बात है सरकार व प्रशासन द्वारा कानूनों को सख्ती से लागू करवाना होगा। सरकार को ईमानदारी से समस्या के हल के लिए अग्रसर होना चाहिए व हम सबको इसमें पूर्ण सहयोग करना चाहिए। यदि नदियाँ ही नहीं रहेंगी तो हम भी नहीं बच पाएँगे।

स सीताराम गुप्ता
ए.डी. 106 सी., पीतमपुरा, दिल्ली – 110034