पर्यावरण संरक्षण में हमारा दायित्व

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महाकवि कालिदास ने अपनी कृति ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में कहा है –
‘न दत्ते प्रिय मण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम।’

इसका अर्थ यह है कि शकुंतला फूलों से इतना प्रेम करती थी कि वह अपने श्रंगार तक के लिए फूलों और पत्तियों को नहीं तोड़ती थी। प्रकृति और पर्यावरण से प्रेम और उनके प्रति मानवीय दायित्वों के निर्वहन का यह एक उत्तम उदाहरण हो सकता है। सुखी, शांत और आपदा रहित जीवन की प्रथम शर्त है कि हम उस प्रकृति एवं पर्यावरण को संरक्षित करें, जिसने अपने अनमोल कोष को खोलकर मानव जीवन को न केवल सुखमय बनाया है, अपितु उसे आकर्षक और स्वास्थ्यप्रद बनाया है। प्रकृति ने हमें सदैव सबकुछ प्रदान ही किया है. हमसे कुछ लिया नहीं। अस्तु, प्रकृति को संरक्षित करना हमारा गुरुतर दायित्व है।

पर्यावरण का सीधा संबंध प्रकृति से है
पर्यावरण दो शब्दों से बना है – परि$आवरण, परि (जो चारों ओर है), आवरण (घेरे हुए), अर्थात जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है। पर्यावरण उन सभी भौतिक, रासायनिक और जैविक कारकों की समष्टिगत इकाई है जो किसी जीवधारी को प्रभावित करती है तथा उसके रूप, जीवन और जीविता को तय करती है। अपने परिवेश में हम भिन्न-भिन्न प्रकार के जीव – जंतु, पेड़ – पौधे तथा अन्य सजीव – निर्जीव वस्तुएँ पाते हैं। ये सब मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं।

पर्यावरण असंतुलन विश्व की गंभीर समस्या
भारत में पर्यावरण के प्रति प्रेम और उसके संरक्षण का इतिहास बहुत पुराना है। भारतीय मनीषियों ने संपूर्ण प्रकृति ही क्या, सभी प्राकृतिक शक्तियों को देव रूप माना। ऊर्जा के स्रोत सूर्य देवता, जल देवता, नदियों, पेड़ – पौधों आदि को जीवनदायी और दैवी वरदान माना। पर्यावरण से लगातार छेड़छाड़ का परिणाम हमारे समक्ष भयावह रूप में उपस्थित है। प्रकृति विरोधी आचरण एवं प्राकृतिक संसाधनों के अधिकाधिक दोहन के कारण आहत प्रकृति ने हम पर पलटवार करना शुरू कर दिया है। पर्यावरण के संरक्षण और संतुलन के लिए जो दायित्व हमें निभाने चाहिए थे, हम निभा नहीं पा रहे हैं। फलतः पर्यावरण असंतुलन का प्रभाव मौसम पर सबसे अधिक पड़ रहा है।

वैश्विक ताप वृद्धि पर्यावरण के लिए घातक
वैश्विक ताप वृद्धि औद्योगिक क्रांति की देन है। वर्ष 1861में वैज्ञानिक टिडेल ने ताप बढ़ने की समस्या की ओर ध्यानाकृष्ट करते हुए बताया कि वायुमण्डल में जल, वाष्प तथा कार्बन डाइआक्साइड तथा लंबे तरंग दैध्र्य विकिरण को अवशोषित कर लेते हैं, जिससे वातावरण का ताप बढ़ता है। कोयले के दहन से भी कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन होता है, जिससे ग्रीन हाउस प्रभाव बढ़ता है। इस कारण धरती का ताप बढ़ता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पिछली सदी के अंतर्गत धरती का औसत तापमान आधा डिग्री सेंटीग्रेट बढ़ गया है। इस ताप वृद्धि की दर से वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान विनाशक स्थिति तक बढ़ जाएगा।

वैश्विक ताप बढ़ रहा है, तो ग्लेशियरों के पिघलने से नई – नई समस्याएँ आ रही हैं। बड़े-बड़े भूखण्ड आने वाले दिनों में जलमग्न हो सकते हैं। ग्लेशियर के पिघलने और समुद्र तल बढ़ने से महासागरों के अथाह जल भण्डार के वितरण में खिसकाव आने से धरती पर दबाव बढ़ा है। इससे भूकम्प और धरती में दरारें आने की संभावनाएँ बढ़ी हैं।

पर्यावरण असंतुलन के कारण ही ओजोन परत के क्षीण होने तथा उसमें छेद होने की समस्या आई है। ओजोन आक्सीजन का ही एक रूप है, जिसमें दो की जगह तीन अणु होते हैं। यदि यह परत नष्ट हो जाए या कमजोर पड़ जाए, तो पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक पहुँचती हैं,वे न केवल जीव-जंतुओं के लिए, अपितु वनस्पतियों के लिए भी हानिकारक होती हैं। भौतिक रूप से जीवन को सुखमय बनाने के चक्कर में हमने उन रसायनों का जमकर प्रयोग किया, जो ओजोन परत को क्षति पहुँचाते हैं। इसके दुष्प्रभाव विभिन्न बीमारियों के रूप में सामने दिख रहे हैं, जिनके निकट भविष्य में और बढ़ने की संभावना है।

बिगड़े पर्यावरण से प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि
पर्यावरण की स्थिति इस सीमा तक बिगड़ चुकी है कि अब और छेड़छाड़ असह्य हो चुकी है। पिछले दो दशकों में दुनिया भर में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में चार गुना वृद्धि हुई है। वैज्ञानिक भूकम्प, सुनामी, ज्वालामुखी विस्फोट तथा भूस्खलन जैसी आपदाओं को भूमण्डल तापन (ग्लोबल वार्मिंग) से जोड़ कर देख रहे हैं।
पर्यावरण असंतुलन के कारण जलवायु परिवर्तन का आरंभ भयावह है। इससे मौसम का चक्र प्रभावित हो रहा है। बेमौसम वर्षा तथा अधिक बर्फबारी इसी का परिणाम है। कहीं-कहीं वर्षा नहीं हो रही है और अकाल की स्थिति आ गई है। ठण्डे स्थान और अधिक ठण्डे हो रहे हैं, जबकि गर्म स्थान और गर्म हो रहे हैं। भीषण गर्मी, लू, बाढ़, सूखा जैसी घटनाओं का प्रकोप भी बढ़ा है। मौसम विज्ञानियों के अनुसार वर्ष 2050 तक दुनिया के 60 वर्ष या ऊपर आयु के वृद्ध लोगों की संख्या 210 करोड़ पहुँच सकती है और उन्हें भीषण गर्मी से कहीं अधिक खतरा है।

जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव
पर्यावरण असंतुलन से जीवों और पौधों की अनेक प्रजातियाँ जहाँ विलुप्त हो चुकी हैं, वहीं कुछ विलोपन के कगार पर हैं। चिकित्सा विज्ञान में प्रगति के बाद भी अनेक प्राणघातक बीमारियाँ बढ़ रही हैं। पूरा पारिस्थितिकीय तंत्र छिन्न-भिन्न हो रहा है। इससे कृषि पैदावार में कमी का खाद्यान्न संकट बढ़ गया है।

प्रकृति का प्रकोप सारे कोपों से बढ़क
शास्त्रों में कहा गया है कि प्रकृति का प्रकोप सब कोपों से बढ़कर है। यदि हमने संतुलित विकास पर ध्यान दिया होता, तो कदाचित् आपदाओं के रूप में हमें प्रकृति का यह क्रूर और विनाशकारी चेहरा न देखना पड़ता। अभी प्रकृति के कोप, जो अभी खण्ड प्रलय के रूप में हमें हिला रहे हैं, वे पूर्ण प्रलय का रूप धर हमें निगल जाएँगे। हमें अपने आचरण में बदलाव लाकर पर्यावरण से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाकर विकास के पथ पर बढ़ना होगा। चूँकि यह वैश्विक समस्या है, अतएव प्रयास भी वैश्विक स्तर के होने चाहिए।

पर्यावरण संरक्षण में हमारा दायित्व
पर्यावरण समस्या से उबरने के लिए वैश्विक मंचों पर बहसें तो खूब होती हैं, किंतु व्यावहारिक पहल नहीं होती। हमें कुछ विंदुओं पर समवेत रूप में विशेष ध्यान देना होगा।

ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना
विश्व में ग्रीन हाउस गैसों के शीर्ष उत्सर्जक चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ, इंडोनेशिया तथा भारत हैं। इन देशों को विशेष रूप से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना होगा। ऐसी तकनीकें विकसित की जाएँ, जिनसे कार्बन का उत्सर्जन कम हो तथा इन्हें अधिक से अधिक प्रयोग में लाने के लिए विश्व के सभी देशों को प्रोत्साहित किया जाए। बायोगैस और सौरऊर्जा, विद्युत वाहन के प्रयोग को बढ़ावा देकर इस समस्या से निपटा जा सकता है।

वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जाए
वृक्षारोपण को बढ़ावा देकर धरती को हरा-भरा बनाया जाए। वृक्ष दूषित वायु अवशोषित करते हैं और प्राणवायु देते हैं। वृक्षारोपण को केवल प्रोत्साहित ही न करें, अपितु वनों की कटान, वृक्षों की कटान का भरपूर विरोध किया जाए। पेड़ों को अपनी संतान की भाँति प्यार और संरक्षण देकर हमें देश में वृक्ष क्रांति लानी होगी। हमारी देश में वृक्षों के पोषण और पल्लवन की समृद्ध परंपरा रही है। हमारे यहाँ वृक्षों को पूजनीय माना गया है। शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में वृक्षों को शिव का स्वरूप माना गया है-

औषधयो वै पशुपतिः। (शत.ब्रा.6.1.3.12)
यजुर्वेद में वृक्षों की रुद्र रूप में स्तुति की गई है- –
नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः। वनानां पतये नमः। ओषीधीनां पतये नमः। (यजुर्वेद 16. 17 – 19)
अतः हर व्यक्ति जीवन में यदि मात्र एक-एक वृक्ष लगाने और उसकी देखभाल का संकल्प ले, तो स्थिति अत्यंत सुखद हो सकती है।

वैदिक संस्कृति से संभव है पर्यावरण की सुरक्षा
वैदिक संस्कृति में पर्यावरण को निर्मित करने वाले पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, चंद्र और सूर्य आदि मूलभूत तत्त्वों को देवता की संज्ञा दी गई है। इसमें इन तत्त्वों के संरक्षण के लिए तन-मन-धन से अर्पित होने का आदेश दिया गया है। इनकी शुद्धि के लिए यज्ञ, हवन आदि करने का निर्देश है। पर्यावरण के महत्व को देखते हुए, प्रातःकाल पंचतत्वों के स्मरण करने का विधान रहा है। वामन पुराण में भावना की गई है कि पृथ्वी अपनी सुगंध, जल अपने बहाव, अग्नि अपने तेज, अंतरिक्ष अपनी शब्द – ध्वनि और वायु अपने स्पर्श गुण के साथ हमारे प्रातःकाल को भी आशीर्वाद दे। प्रकृति जीवन को पोषित करती है और स्वस्थ पर्यावरण हमारे अस्तित्व का आधार है, इस तथ्य को हमारे ऋषिगण प्रकृति को परमेश्वरी कहते हुए देवशक्ति के रूप में उसकी उपासना और अर्चना करते थे।

आजतक पूरी दुनिया में कोई भी ऐसा उपकरण नहीं बना है, जो वायुमण्डल के प्रदूषण को स्वच्छ कर सके, परंतु हमारे प्राचीन आर्ष ग्रंथों में स्पष्ट बताया गया है कि यज्ञ (हवन /अग्निहोत्र) से वायु और वर्षा – जल की शुद्धि हो सकती है। महर्षि दयानंद जी ने अपने अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में (अथर्ववेद काण्ड – 19 अनुवाक 7,सूक्त – 55,मंत्र – 3 तथा 4) को उद्धारित करते हुए कहा है कि ‘‘जो संध्या काल में हवन अर्थात अग्निहोत्र किया जाता है, वह सायंकाल से लेकर प्रातःकाल तक और जो प्रातःकाल में हवन किया जाता है, वह प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक वायु की शुद्धि द्वारा सुख देने वाला, घातक कृमिनाशक तथा आरोग्यकारक होता है।

अतः हम प्रकृति के विविध घटकों में परमेश्वर की पराचेतना को अनुभव करें और उनके उपयोग के साथ समुचित संरक्षण का दायित्व समझें एवं आक्रामक व्यवहार त्याग कर इनके विकास पर ध्यान दें।
हम अपनी जीवनचर्या पर्यावरण के अनुकूल विकसित करें। इसके लिए हमें प्रकृति की ओर लौटना होगा। कुछ छोटे-छोटे प्रयास से हम पर्यावरण को बचा सकते हैं-
¨ बाइक, स्कूटी या कार का प्रयोग करने के बजाय साइकिल या सार्वजनिक परिवहन के साधनों का प्रयोग करें। विद्युत वाहनों का चलन को बढ़ावा दिया जाए।
¨ बाजार जाते समय पालिथीन के स्थान पर कपड़े या जूट का थैला ले जाएं।
¨ पानी को व्यर्थ न बाएँ, बहता हो तो उसे रोकें। जलस्रोतों को गंदा न करें।
¨ उन पदार्थों का प्रयोग को वरीयता दें। जिनका पुनर्चक्रण(रिसाइकिं्लग) आसानी से हो सके।
¨ बिजली से चलने वाले संसाधनों जैसे एसी, फ्रिज, मिक्सी का कम से कम प्रयोग कर या इन उपकरणों को बंद रखकर पर्यावरण की क्षति कम की जा सकती है।
¨ पेड़ काटने से बचाएँ और स्वयं घर की गृहवाटिका बनाएँ, जिसमें फूलदार, फलदार, औषधीय और सब्जी वाले पौधे लगाएँ।
¨ पार्क, तालाब, मंदिर, कार्यालय तथा सड़कों के दोनों ओर एवं फुटपाथों पर पीपल, बरगद, अशोक, नीम, आंवला, सहजन, बेल, बोगेनवेलिया जैसे पेड़ लगाए जाएँ।
¨ जन्मदिवस आदि अवसरों पर उपहार में पौधे दें।
¨ वृक्ष मित्र, जल मित्र, पर्यावरण मित्र टोली बनाएँ तथा उनके न्यूनतम कार्य तथा कार्यक्रम सुनिश्चित करें।
¨ घर तथा परिसर में कूड़ा – कचरा प्रबंधन हेतु पहले स्वच्छता फिर उसकी छँटाई, संग्रह पात्र तथा उसके उचित निस्तारण की व्यवस्था बनाएँ। कहीं कूड़ा या पन्नियों को जलाया न जाए।
¨ घरों में सौर ऊर्जा पैनल लगवाने पर जोर दिया जाए जिससे विद्युत व्यय पर निर्भरता कम की जा सके।
¨ घरेलू उपयोग किए गए पानी से प्रदूषण न फैले, इस हेतु भू-जल री-चार्ज व्यवस्था की जाए। घरों में वर्षा जल के भू – जल – भरण की संरचना बनाई जाए।
पर्यावरण की सुरक्षा किसी एक व्यक्ति, संस्था या केवल सरकार का दायित्व नहीं है, अपितु यह हम सबका पुनीत कर्तव्य है कि हम पर्यावरण को स्वच्छ और स्वस्थ रखें। प्रति वर्ष 5 जून को अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। पर्यावरण प्रदूषण आज पूरे विश्व की समस्या है, अतः इसका समाधान भी सभी को मिलजुलकर करना होगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति जागरूक हो और अपने दायित्व का निर्वाह करे, तो स्थिति में पर्याप्त सुधार हो सकता है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः’ की सर्वोदय भावना तथा ‘जिओ और जीने दो’ की मानवतावादी अवधारणा फलीभूत होने के लिए विश्व में पर्यावरण का संरक्षण अपरिहार्य है।

स गौरीशंकर वैश्य विनम्र
117 आदिलनगर, विकासनगर, लखनऊ 226022