इस पृथ्वी पर करोड़ों अरबों वर्ष पूर्व जीवों की उत्पति हुई। पृथ्वी पर ही वह वातावरण उपस्थित है जिसके कारण जीवों का अस्तित्व संभव है। आक्सीजन, जल, तापमान, आद्रता, मिट्टी, प्रकाश सब कुछ संतुलित मात्रा में पृथ्वी पर उपलब्ध है। जिसके कारण जीवन संभव हो सका, विभिन्न जीवों का, फिर चाहे वह पौधे हों या वृक्ष, पशु हो या पक्षी, बैक्टीरिया वायरस हों या मनुष्य, सभी का विकास हुआ और एक दूसरे के सहअस्तिघ्व से पारिस्थितिक चक्र से, ऊर्जा प्रवाह से बरसों से सबका जीवन चलता रहा।
पृथ्वी पर पाए जाने वाले समस्त जीवों में (पेड़, पौधे, पशु-पक्षी मानव) पारस्परिक विभिन्नता पाई जाती है। यह जैवविविधता स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय व वैश्विक स्तर पर होती है, जो उस स्थान की जलवायु, तापक्रम, आद्रता मिट्टी व प्रकाश की उपलब्धता इत्यादि द्वारा निर्धारित होती है।
पृथ्वी पर होने वाले भौतिक व रासायनिक परिवर्तनों, विभिन्न खगोलीय घटनाओं व उत्परिवर्तन इत्यादि द्वारा जीवों का विकास हुआ व उनमें विविधता विकसित होती गई। सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाले जीव एक कोषीय थे, जिनके विकास के विभिन्न चरणों को पार करने पर बहुकोषीय व अत्यंत जटिल संरचना वाले जीवों का विकास हुआ।
हरे पौधों के जन्म से विकास की नई इबारत प्रारंभ हुई और आज भी वही सोलर ऊर्जा को परिवर्तित कर हम सबके लिए भोजन निर्माण करने का कार्य करते हुए इस पारिस्थितिकी तंत्र का आधार स्तंभ हैं। उनके बगैर हम सबका जीवन एक क्षण भी संभव नहीं क्योंकि वे ही हमारे लिए भोजन, जल व प्राणवायु को सतत प्रदान करते है। इन पेघ्-पौधों, जीव-जंतुओं की जितनी विभिन्न प्रजातियां होंगी, उनकी उपयोगिता मानव जीवन के लिए उतनी अधिक होगी। क्योंकि यह सब मात्र भोजन ही नहीं बल्कि फल, फूल, औषधी, लकड़ी, मसाले, जन्म से मृत्यु तक की हर उपयोगी व आवश्यक वस्तुएं प्रदान करते हैं।
मानव को टेक्नोलाजी व मशीनों के विकास के साथ इन जीवित प्राणियों का उनकी विविधता का मोल समझना होगा व इनके संरक्षण के उपाय स्वहित में ढूंढने होंगे। प्रकृति ने जैवविविधता के रूप में जो अपार प्राकृतिक संपदा दी है, पेड़-पौधों व हर प्राणी मात्र में विभिन्न प्रजातियां व उनमें विविधता निर्मित की है, उसे बचाने हेतु बनाए रखने के प्रयास करने होंगे। तभी गेहूं-चावल से लेकर आम, अनार तक व गुलाब, गेंदे से लेकर गुलमोहर, अमलतास, तक और चींटी से लेकर हाथी व सांप से लेकर शेर तक की विभिन्न प्रजातियां सुरक्षित होंगी। हमारे विकास की कीमत ये निरीह मासूम व बेगुनाह उठाते रहे हैं।
हमने अपने विकास के लिए इनके आवासों को छीना, प्रकृति, निर्मित भाजन श्रृखंला में व्यवधान डाल इनसे भोजन छीनकर इनके जीने का आधार छीनने का पाप किया है, जिससे हमारे जीवन को भी क्षति पहुंच रही है।
जैव विविधता का खतरा
मानव ने अपने विकास के लिए, औद्योगिकीकरण के लिए असंख्य प्राणियों व पेड़-पौधों को नष्ट कर दिया जिसके मुख्य कारण निम्न है –
आवासीय क्षति
जनसंख्या में अत्याधिक वृद्धि, बढ़ता शहरीकरण औद्योगिकीकरण वनों के विनाश के कारण बने, जिनके उजड़ने से हजारों पशु पक्षियों व प्राणियों का बसेरा ही खत्म हो गया व इस प्रकार उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया। कई प्रजातियां लुप्त होने की कगार पर है या लुप्त हो चुकी है।
वन्यजीवन का अवैधानिक शिकार
हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए (जैसे – भोजन व अन्य) तो प्राकृतिक संपाद अपार है, पर हमारे स्वार्थ व लालच के आगे सींग, नाखून, चमड़ा हाथी दांत, जैसी वस्तुओं के बहुमुल्य होने से इन्हें प्राप्त करने के लालच व उनसे पैसा कमाने की चाहत की बली ये मजबूर असहाय मासूम जानवर अपनी जान देकर चुका रहे है। प्रतिबंधित होने पर भी इनका शिकार बरसों से हो रहा है व हिरण बाध बारहसिंगा सबकुछ खत्म होने की कगार पर हैं। कालाहिरण, मगर, कछुए, विषहीन सर्प, सूअर, शेर, बाघ, चीता हो या पक्षियों की प्रजातियां लुप्त हो रही है जिनका संरक्षण आवश्यक है।
मानव वन्य जीवन संघर्ष
वर्तमान समय में वनों की अवैध कटाई घास स्थलों का, चारागाह स्थलों का रूपांतरण कई समस्यों का कारण है।
कृषि व अन्य कारणों से रासायनिक खादों व कीटनाशकों के प्रयोग ने पर्यावरण प्रदूषण के साथ सूक्ष्म जीवों को भी लुप्त कर दिया है। अतः विकास की हदें तय करने व लाभ के लिए वन्य जीवन को खतरे में न डालने के संकल्प तथा विकास व वन्य जीवन के बीच संतुलन बनाए रखन से ही मनुष्य वन्यजीव संघर्ष विवाद का हल संभव है।
अन्य कारणों में सड़क व रेलमार्गों के लिए वनस्पति व प्राणियों को उजाड़ा जाना। कृषि भूमि का आवासीय क्षेत्रों में परिवर्तन। उद्योगों के लिए वनों व चारागाहों का उन्मूलन। वन्य प्राणियों को भोजन, सजावट की वस्तुओं व बाजार मूल्य की अधिकता के कारण मारना।
हमें विभिन्न जातियों का विलुप्त या संकटापन्न होना रोकना होगा।
शहरीकरण औद्योगिकीकरण, जनसंख्या वृद्धि, वनों का विनाश व वन्य जीव जंतु के आवास स्थलों के खत्म होने के परिणामस्वरूप संसार में जीव जंतु की अनेक प्रजातियां प्राणी एवं पेड़- पौधों या तो विलुप्त हो चुके हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं। विलुप्त प्रजाति का पुर्ननिर्माण असंभव है, अतः उसका उसके प्राकृतिक आवास में संरक्षण आवश्यक है इस हेतु अंर्तराष्ट्रीय संघ ने 1984 में रेड डाटा बुक का प्रकाशन किया व संकटापन्न प्रजातियों की विभिन्न श्रेणियों में विभाजन किया।
संकटापन्न प्रजातियां – प्राकृतिक आवास नष्ट होने से प्रजनन की स्थिति समाप्त सी हो गई है जिससे विलुप्त होने की संभावना बढ़ गई है। उदाहरण- भारतीय सोन चिड़िया, शेर, गेंडा।
दुर्लभ जातियां – ऐसी वन्य प्रजातिया जो अब केवल विशिष्ट भू-भाग या सीमित क्षेत्र में ही रह गई हैं । उदाहरण – सफेद शेर, भारत में केवल बांधवगढ़ में ही रह गया है।
संकटमयी प्रजातियां – प्राकृतिक आवास नष्ट होने से विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच चुकी हैं ।
विलुप्त प्रजातियां – किसी समय पाई जाती थीं, लेकिन पर्यावरण व प्राकृतिक संपदा के कारण से लुप्त हो चुकी हैं। उनके होने के प्रमाण जीवाश्म के रूप में ही उपलब्ध हैं। उदाहरण- आर्कियोप्टेरिक्स, ट्राइलोबाईट।
प्रहार सुलभ प्रजातियां – वे प्रजातियां जो कुछ ही वर्षो में विलुप्त होने में है क्योंकि दिन-प्रतिदिन इनकी संख्या तेजी से घट रही है। उदा. चीता, काला हिरण, सारस, तितली (कुछ प्रजातियां)।
जैव विविधता की कीमत या मूल्य
इस पृथ्वी पर जीवन को चलाए रखने के लिए प्रकृति ने सभी जैविक घटकों के बीच परस्पर संबंध बनाया है, जो भोजन श्रृंखला व ऊर्जा प्रवाह को बनाए रखते हुए सभी के लिए भोजन, हवा पानी की व्यवस्था करता है। प्रकृति के जैविक व अजैविक घटकों का परस्पर संबंध ही इकोसिस्टम को सुचारू रूप से चला प्राकृतिक चक्रों जैसे आक्सीजन, पानी, कार्बनडाइ आक्साइड व नाइट्रोजन इत्यादि को सफलता से संचालित करते हुए वर्षो से इनकी सांद्रता को संतुलित बनाता है। पृथ्वी पर जल चक्र पानी के रूप में अमृत बरसाता है।
कार्बन डाइ आक्साइड पौधों द्वारा ली जाकर भोजन निर्माण के साथ प्राणदायी आक्सीजन की प्रचुर मात्रा वातावरण में सम्मिलित होती है। नाइट्रोजन चक्र से शरीर उपयोगी अमिनों एसिड्स व प्रोटीन्स का निर्माण होता है। इस प्रकार प्रकृति का हर घटक चाहे वह जीवित हो जैसे – पौधे, पशु, पक्षी, जंतु-जानवर या इंसान या अजीवित जैसे- समस्त तत्व व उनका चक्र तथा सौर ऊर्जा का प्रवाह, सब कुछ प्रकृति का प्रबंधन है जिसके लिए जैव विविधता अत्यंत आवश्यक है।
जैव विविधता का मूल्य निम्न प्रकार से समझा जा सकता है –
मनुष्य के उपयोग के लिए – मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक व प्रतिदिन सुबह से लेकर शाम तक हर उपयोगी वस्तु पेड़-पौधे, जीव जंतुओं द्वारा ही प्रदत्त की जाती है। भोजन, फल, फूल, सब्जी से लेकर हर औषधी, लकड़ी, चारा, मछली सबकुछ विभिन्न जीवों द्वारा ही प्रदान होते हैं।
उत्पादकीय उपयोग – मनुष्य द्वारा विभिन्न पेड़-पौधे व जीव जंतुओं द्वारा उत्पादित वस्तुओं का उपयोग किया जाता है। जड़ी-बूटियों, लाख, गोंद, अनाज दूध ऊन इत्यादि इन्हीं जीव जंतुओं व पौधों से प्राप्त होते हैं, जो मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए नष्ट करता आया है।
सामाजिक उपयोग – सदियों से हमारी संस्कृति के रीति-रिवाजों में विभिन्न पेड़-पौधों व पशुओं को पूजने की उनका आभार मानने की परंपरा है जिससे उनके प्रति श्रद्धा व दया का भाव विकसित हो उनका संरक्षण हो सकें।
भौतिक मूल्य – हमारे पौराणिक ग्रंथों व पंचतंत्र तथा जंगल बुक जैसे पुस्तकों के माध्यम से हमे पेघ्-पौधों व जीव-जंतुओं की कहानियों से जीवन मूल्य प्रतिस्थापित करने में आसानी हुई है। वृक्षों से दृढ़ता व दान का पाठ सीखने को मिलता है जो हमें छाया देते हैं, अपने फल-फूल उदारता से देते हैं। हिरण चपलता का, शेर साहस निडरता व शक्ति का, कुत्ता वफादारी का प्रतीक माना जाता है, चिड़िया परवरिश का उदाहरण समझाती है जो समय आने पर बच्चों को उड़ने की स्वतंत्रता सहजता से देती है।
सौन्दर्यगत मूल्य – सभी तरह के पेड़-पौधे अपने सुंदर, रंगीन व सुगंधी फूलों के कारण हमारे आंगन में हरियाली के साथ मन को प्रसन्नता से भर सकने की क्षमता रखते हैं। हमारे बाग-बगीचे, घर आंगन, सड़के सभी इनके कारण सुंदरता बिखेरते हैं। पक्षियों की विविधता उनके सुंदर पंखों से है, तो कोयल की कूक व चिड़िया की चहचहाट पपीहे की पी मनुष्य को तनावमुक्त कर प्रसन्नता व सुख से भर देती है जो पैसे से खरीदा नहीं जा सकता। अतः जैव विविधता हमारे जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है।
स्वहित में जैव विविधता संरक्षण
जैव विविधता के संरक्षण के लिए हमें अपने स्वंय के हित में मानसिकता विकसित करनी होगी। वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व में विभिन्न जीव व पेड़- पौधों की संख्या 1.5 से 20 करोड़ तक हो सकती थी, जो प्रतिवर्ष तेजी से घट रही है इसके संरक्षण के लिए दो प्रकार के उपाय है।
पहला स्थानास्थ – राष्ट्रीय उद्यानों व अभ्यारणों द्वारा जैव मण्डल आरक्षण स्थलों द्वारा ।
दूसरा बहि स्थानास्थ – जीन बैकों, बीज बैंक व इनविट्रो विधी द्वारा।
परंतु इनके आलावा हमारे दिन प्रतिदिन के निम्न प्रयास ही जैव विविधता को संरक्षित कर सकते हैं।
1- वनों का पौधों का पेघें का विनाश रोकना। 2- जलवायु अनुसार अधिक से अधिक वृक्षारोपण व उससे भी महत्वपूर्ण उनका संरक्षण। 3 – उपलब्ध जल संसाधनों का किफायती उपयोग। 4 – मरूस्थलीय क्षेत्रों को सिचिंत कर उन्हें उपजाऊ व हरा-भरा बनाने के प्रयास। 5 – खदानों के अनियंत्रित खनन पर पाबंदी। 6 – चारागाह क्षेत्रों में अनियंत्रित पशु चारण पर रोक लगे। 7 – कृषि भूमि का भरपूर उपयोग हो रोटेश्नल फसल लगाकर। 8 – खनिज पदार्थों की किफायती उपयोग। 9 – नदियों व जलाशयों में विषैले रसायनिक पदार्थो का मिलना प्रतिबंधित हो क्योंकि जीव-जंतुओं मछलियों की जान तो जाती ही है, मनुष्य में भी कई गंभीर बीमारियां जन्म लेती हैं। 10- जल के महत्व को समझ उसका किफायती उपयोग। 11 – सभी प्राकृतिक संसाधनों चाहे वह सोना चांदी हो या पेट्रोल, पेघ्-पौधे हो या पानी का महत्व समझ उनके संरक्षण की मानसिकता विकसित करनी होगी।
यह प्राकृतिक संपदा अपार है। इसे प्रकृति ने हमारे ही हित के लिए निर्मित किया है, लेकिन इसका मोल समझने की समझदारी हमें ही विकसित करनी होगी, तभी इस सुंदर अप्रतिम अदभुत प्रकृति का आनंद हम स्वंय भी उठा पाएंगे व आने वाली पीढ़ियों को सुख सुकून भरे जीवन की विरासत दे पाएंगें जो हमारा सर्वोपरी कर्तव्य है। इस धरती पर जीने का, बसने का, अपनी प्रजाति को विकसित करने का हक हर जीव का व उसकी हर प्रजाति का है, जब यह हम समझ लेंगे तो जैव विविधता बनी रहेगी। इसी में हमारा सच्चा विकास व प्रगति है।
डॉ. साधना सुनील विवरेकर
क्यों आवश्यक है जैव विविधता आधारित कृषि
हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है। सदियों से मानव सभ्यतायें कृषि को महत्वपूर्ण स्थान देता आ रही है। प्राचीन कृषि पूर्ण रूप से परम्परागत ज्ञान पर आधारित थी। मानव ने शताब्दियों के प्रयोगों से कृषि की कई पद्धतियाँ विकसित की हैं। प्रकृति के साथ कृषि का सबंध बहुत पुराना है। आधुनिक कृषि को हमारे देश में अपनायें जाने के बाद हमारी जैव सम्पदा, जैव विविधता, प्राकृतिक संसाधनों, पर्यावरण एवं परिस्थितिकी को काफी हद तक नुकसान पहुँचाया है।
बढ़ती हुई जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने हेतु हरित क्रांति के माध्यम से खेतों में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में किया जाने लगा। इसके साथ ही साथ फसलों में रोग एवं कीट नियंत्रण हेतु जहरीले रसायनों का प्रयोग बघ्ता चला गया जिसके परिणामस्वरूप रासायनिक तत्वों के अवशेष भूमि जल एवं वायु को प्रत्यक्ष रूप से तथा मनुष्य के जीवन को फसलों के माध्यम से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं।
आधुनिक खेती के दुष्परिणाम
खेतों में आधुनिक संसाधनों के प्रयोग से किसान धीरे-धीरे बाजार पर निर्भर होता जा रहा है। किसान खेती के लिए बीजों, रासायनिक खादों एवं रोग व कीट नियंत्रण हेतु पूरी तरह बाजार पर निर्भर हो गया है। खेती में अधिक खर्च होने की वजह से किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है।
रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से न केवल खेती में उत्पादन खर्च बघ् जाता है बल्कि रासायनिक खादों से धीरे-धीरे खेत की उर्वरा शक्ति में कमी आ जाती है तथा कीटनाशकों का कीटों व रोगों पर भी असर कम होता जाता है। एक ही प्रकार की फसलों की ज्यादा पैदावार होने से बाजार भाव में भी कमी देखी जाती है और किसानों को समुचित आर्थिक लाभ नहीं मिल पाता जिसकी वजह से किसान आर्थिक रूप से और कमजोर होता जा रहा है।
हमारे देश में कुल 170 कीटनाशक पंजीकृत हैं। जिनमें से 64% कीटनाशकों का खेती में प्रयोग होता है। यह अनुमान है की कुल कीटनाशक उपयोग में से कपास में 45.5% धान में 22.8% और गेंहूँ में 6.4% कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है।
आधुनिक खेती में प्रयुक्त होने वाले कृषि यंत्रों, रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों की खरीद से बढ़ते हुए उत्पादन मूल्य के कारण किसान बैंकों या साहूकारों से कर्जा ले रहे हैं। अधिक खर्च करने के बाद भी जब किसान को अपेक्षित उत्पादन व लाभ नहीं मिल पाता तो वह समय से कर्जा वापस नहीं कर पाता है। ऐसी स्थिति में ऋण की घ्स्ति जमा करने के लिए किसान या तो अपनी जमीन गिरवी रखता है या जमीन बेच देता है। यहाँ तक भी देखा गया है कि किसान अपने शरीर के अंगों को बेचकर ऋण मुक्त हो रहा है या अंत में ऋण न चूका पाने की स्थिति में मौत को गले लगा रहा है।
रसायनों के अधिक प्रयोग से पर्यावरणीय संतुलन दिन प्रति दिन बिगड़ता जा रहा है। जमीन की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है और जमीन बंजर होती जा रही है। अधिक रसायनों के प्रयोग से लाभदायक कीट नष्ट होते जा रहे हैं व हानिकारक कीटों का प्रकोप फसलों में बढ़ता जा रहा है। जबकि दूसरी ओर एकल फसल, विकसित व संकर बीजों के बघ्ते हुए प्रयोग के कारण जैव विविधता घटती जा रही है।
रासायनिक खादें (उर्वरक)
रासायनिक खाद वे क्षार हैं जो कि किसी भी एक तत्व की अधिकता वाले होते हैं, जैसे कि नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम इत्यादि। जब खेतों में रासायनिक उर्वरक डालते हैं तो भूमि की क्षारीयता बढ़ जाती है, और धीरे-धीरे मिट्टी बंजर होती जाती है। भूमि में अधिक वे क्षार के बढ़ने से लाभदायक सूक्ष्म जीव एवं केंचुए अधिक प्रभावित होते है, क्योंकि इन जीवों के शरीर के क्षारीयता बाहरी क्षारीयता के मुकाबले में कम होती हैं। क्षारीयता बढ़ने के कारण, मिट्टी में नाइट्रोजन, फोस्फेट, सल्फर आदि पोषक तत्वों की उपलब्धता के बावजूद पौधा इन्हें ग्रहण नहीं कर पाता जिससे उत्पादन में तीव्रता से ह््रास होता जाता है।
रासायनिक खादों में यूरिया, डीएपी पोटाश एवं जिंक ही अधिक मात्रा प्रयोग में लायें जाते हैं। आधिक रासायनिक खादों के प्रयोग से किसानों के मित्र केंचुए तथा सूक्ष्म जीवाणु, धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं, साथ ही साथ रासायनिक खादों के अंधाधुंध उपयोग से खेती की लागत भी बढ़ती जाती है।
कृषि रसायनों के कुप्रभाव
वर्तमान में खेती मूल रूप से कृषि रसायनों जैसे रासायनिक खादों, कीटनाशकों, खरपतवार नाशी, फुफंदनाशी तथा फसल बढ़ाने वाले हार्मोन इत्यादि पर निर्भर हो गई है। ये सभी रसायन पर्यावरण को दूषित करते हैं। साथ ही हमारे एवं हमारे पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हैं। वे हमारे पारिस्थितिकीय संतुलन पर भी बुरा प्रभाव डालते हैं। कृषि रसायनों के कुछ कुप्रभाव निम्नवत हैंः-
मिट्टी तथा जल पर प्रभाव
हमारे देश का दो तिहाई उत्पादक भू-भाग मिट्टी कटाव, जल भराव एवं लवणीयता की परेशानियों से ग्रसित है। रासायनिक खादों के प्रचलन के साथ ही अत्यधिक सिंचाई एवं एक जैसी खेती, जमीन की बर्बादी का एक और मुख्य कारण बन गये हैं। नाइट्रोजन तथा फास्फोरस युक्त खादों तथा कीटनाशकों के बढ़ते हुए उपयोग का एक दुष्परिणाम यह सामने आता है कि सतही तथा भूमिगत जल में नाइट्रेट के अवयव तथा भारी धातु अंशों की वृद्धि हो जाती है, और भूमिगत जल पीने योग्य नही रह जाता है। यहाँ तक कि इस जल से सिंचाई करने पर कृषि भूमि की उत्पादकता में भी ह्रास होता है जबकि अत्यधिक सिंचाई की वजह से भूमिगत जल में कमी आ जाती है। परिणाम स्वरुप मिट्टी तथा पानी का आपसी पारिस्थितिक तंत्र अंसतुलित हो जाता है।
जैव विविधता पर प्रभाव
विविधता प्रकृति का गुण है तथा पारिस्थितिक तंत्र के स्थायित्व का आधार है। जैव विविधता संसार में उपस्थित सभी प्रकार के जीवन की विविधता को व्यक्त करती है। व्यावहारिक रूप से जैव विविधता को जीवों की संख्या, उनको प्रकार या भिन्नता के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। सामान्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर विद्यमान पौधे, पशु-पक्षी तथा व अति सूक्ष्म जीवों के विविध प्रकार हमारी पृथ्वी की जैव विविधता हैं।
विभिन्न वैज्ञानिकों के शोध से यह ज्ञात हुआ है कि कृषि रसायनों के अत्यधिक उपयोग से जहाँ एक और पौधों तथा सूक्ष्म जीवाणुओं की विशिष्ट विविधता नष्ट हो रही है। वहीं दूसरी ओर फसलनाशी कीटों के प्राकृतिक दुश्मनों की विविधता में भी कमी आ रही है, साथ ही हानिकारक कीटों की विविधता में भी वृद्धि हो रही है।
खाद्य श्रंखला पर प्रभाव
सभी प्राणी जीवित रहने के लिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसी न किसी रूप में पेड़-पौधों पर आश्रित रहते हैं। पेड़-पौधे, सूर्य की उर्जा का उपयोग कर भोजन बनाते हैं, इसीलिए वे उत्पादक कहलाते हैं। शाकाहारी जन्तु वनस्पतियों को खाते हैं तथा अपनी वृद्धि एवं अस्तित्व के लिए पेड़-पौधों पर ही निर्भर रहते हैं जो प्राथमिक उपभोक्ता कहलाते हैं। माँसाहारी प्राणी, शाकाहारी प्राणियों को खाते हैं तथा पूरी तरह शाकाहारी प्राणियों पर ही निर्भर रहते हैं। ये द्वितीय उपभोक्ता कहलाते हैं। इस प्रकार सभी शाकाहारी प्राणियों पर ही निर्भर रहते हैं तथा आपस में सम्बद्ध हैं । यही क्रम खाद्य श्रंखला कहलाती है। प्रकृति में एक प्राकृतिक संतुलन स्थापित है, और स्तर पर संतुलन इस खाद्य श्रंखला को प्रभावित करता है।
खेती में कृषि रसायनों का उपयोग शत्रु तथा मित्र कीटों की संख्या को एक समान प्रभावित करता है। मनुष्य इस खाद्य श्रंखला के शीर्ष पर है इस कारण वह सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के माध्यम से भोजन में भारी धातुओं का प्रवेश होता है जो हमारे शरीर के लिए घातक हैं।
जब रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का छिघ्काव किया जाता है तो ये सारी जमीन, जल व वातावरण में फैल जाते हैं। बारिश कुछ कीटनाशी जहरों को पानी में बहाकर ले जाती है तो तालाबों एवं बड़े जलाशयों में मिल जाते हैं, जहाँ छोटे-बड़े पौधे तथा जीव-जन्तु इस जहर को खा लेते हैं जिससे ये जहर इनके शरीर में एकत्रित हो जाते हैं।
इन जीवों को छोटी मछलियाँ खाती हैं। इन छोटी मछलियों को बड़ी मछलियाँ खाती हैं। बहुत सारी बड़ी मछलियों को बड़े जीव-जन्तु एवं पक्षी जिनका आहार मछलियाँ हैं, खातें हैं। इस प्रकार कीटनाशी रसायन पक्षियों एवं बड़े जन्तुओं के शरीर में चले जाते हैं जिससे इनका स्वास्थ्य बिगड़ता है तथा कुछ जीवों की मृत्यु भी हो जाती है।
परागकण वाहक जीवों पर प्रभाव
परागकण वाहक जीव पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अध्ययन बताते हैं कि कीटनाशियों के बहुतायत उपयोग से तितलियों तथा मधुक्खियों की संख्यां निरंतर घट रही है। विदित ही है कि इन दोनों संकुलों का कृषि तंत्र में बहुत बड़ा योगदान है। ये परागकण के द्वारा उत्पादकता बढ़ाते हैं तथा फलों एवं बीजों की किस्म सुधार व विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। फसलों पर रसायनों (कीटनाशी जो कि उनके लिए विष है) के अत्यधिक उपयोग से परागकण वाहकों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। कृषि रसायन परागकण वाहकों के न केवल प्रजनन तंत्र पर बुरा प्रभाव डालते हैं बल्कि मकरंद/मधुरस को भी प्रदूषित करते हैं। ये घातक रसायन पौधों में परागकण वाहक मधुमक्खियों एवं तितलियों आदि की प्रजनन प्रक्रिया को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं, जिनसे परागकण हेतु महत्वपूर्ण इन कीटों की संख्या में तीव्रता से कमी हो रही है।
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
सभी रासायनिक कीटनाशी मनुष्य के स्वास्थ्य में विपरीत प्रभाव डालते हैं, निरंतर कृषि रसायनों के उपयोग से अनेकों बीमारियाँ उत्पन्न हो रही है। कृषि रसायनों से होने वाली कुछ प्रमुख बीमारियाँ हैं- अपच, विविध चर्मरोग, प्रजनन तंत्र का विकार, कैंसर, बांझपन, यादाशत का घटना, सिर दर्द, चक्कर आना, उबकाई, दृष्टि दोष, श्वास रोग तथा तंत्रिका तंत्र का नाश इत्यादि।
सामाजिक प्रभाव
कृषि रसायनों में बहुत खर्च करने के कारण किसान कर्जें में डूब जाते हैं। जबकि कम पौष्टिक गुणवत्ता के कारण बाजार में कृषि उत्पाद का उचित मूल्य भी नहीं मिलता। अंततः किसान कर्ज से तंग आकर मौत को गले लगा लेता है। विगत दो दशकों में हमारे देश में 2,50,000 से भी अधिक किसानों ने कर्जें में डूबने की वजह से आत्महत्यायें की हैं।
रासायनिक खेती का विकल्प जैविक प्रभाव
जैविक खेती सम्पूर्ण रूप से प्राकृतिक खेती है। जैविक खेती, कृषि का ऐसा सरल तरीका है जिसके द्वारा फसल उत्पादन के लिए मिट्टी के स्वास्थ्य तथा पर्यावरण की स्वच्छ रखते हुए पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखते हुए शुद्ध एवं पौष्टिक उत्पाद की प्राप्ति की जाती है। जैविक खेती अपनाने से खेती व वातावरण में रसायनों से होने वाले दुष्प्रभावों से मुक्ति मिल जाती है। भूमिगत जलस्तर में वृद्धि होने लगती है। क्योंकि जैविक खेती जैव विविधता के संरक्षण एवं संवर्धन में सहायक हैं अतः यह मिट्टी के सूक्ष्म जीवों की संख्यात्मक वृद्धि में लाभदायक है। किसानों को खेती के लिए बाजार पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ता। जमीन की उर्वरा शक्ति में निरंतर वृद्धि होती रहती है। खेती में कम लागत की वजह से धीरे-धीरे किसान आर्थिक रूप से मजबूत होकर पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो जाता है।
जैविक कृषि प्रकृति आधारित आर्दश सिद्धांतों एवं पारिस्थितिकी पर आधारित है। इस विधि को अपनाने से खेती में होने वाले खर्चे (रासायनिक खादें, कीटनाशी इत्यादि) कम हो जाते हैं। जैविक खेती द्वारा बहुत अच्छी गुणवत्ता वाला उत्पाद प्राप्त होता है जिससे किसानों को बहुत अच्छी कीमत व आय प्राप्त होती है।
जिस प्रकार वर्तमान रसायन आधारित कृषि में खेत की मिट्टी की उत्पादकता धीरे-धीरे कम होती जा रही है जबकि खेती का खर्च बढ़ता ही जा रहा है तो किसान के लिए सतत जीवन यापन हेतु जैव विविधिता आधारित जैविक खेती ही एक मात्र विकल्प रह जाती है। जैव विविधिता आधारित जैविक खेती अपनाने से न केवल किसान की बाजार पर निर्भरता खत्म होगी अपितु धीरे-धीरे हमारे देश के छोटे व मंझोले किसान भी आत्मनिर्भरता हो कर कर्ज व आत्महत्या जैसी विवशताओं के मायाजाल से हमेशा के लिए मुक्त हो जायेंगें।
उत्तम सिंह गहरवार
जैवविविधता का संरक्षण और उसका निरंतर उपयोग करना भारत के लोकाचार का एक अंतरंग हिस्सा है। अभूतपूर्व भौगोलिक और सांस्कृतिक विशेषताओं ने मिलकर जीव जंतुओं की इस अद्भुत विविधता में योगदान दिया है जिससे हर स्तर पर अपार जैविक विविधता देखने को मिलती है।
भारत में दुनिया का केवल 2.4 प्रतिशत भू-भाग है जिसके 7 से 8 प्रतिशत भू-भाग पर विश्व की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं। प्रजातियों की संवृधि के मामले में भारत स्तनधारियों में 7वें, पक्षियों में 9वें और सरीसृप में 5वें स्थान पर है। विश्व के 11 प्रतिशत के मुकाबले भारत में 44 प्रतिशत भू-भाग पर फसलें बोई जाती हैं। भारत के 23.39 प्रतिशत भू-भाग पर पेड़ और जंगल फैले हुए हैं।
दुनियाभर की 34 चिह्नित जगहों में से भारत में जैवविविधता के तीन हाटस्पाट हैं- जैसे हिमालय, भारत बर्मा, श्रीलंका और पश्चिमी घाट। यह वनस्पति और जीव जंतुओं के मामले में बहुत समृद्ध है और जैव विविधता को पालने का कार्य करता है।
पर्यावरण के अहम मुद्दों में से आज जैवविविधता का संरक्षण एक अहम मुद्दा है विश्व की जैवविविधता को कई कारणों से चुनौती मिलती है। राष्ट्रों, सरकारी एजेंसियों और संगठनों तथा व्यक्तिगत स्तर पर जैविक विविधता के संवंर्धन और उसके संरक्षण की बड़ी चुनौती है साथ-साथ हमें प्राकृतिक संसाधनों से लोगों की जरूरतों को भी पूरा करना होता है। चहूं ओर से जैव विविधता को बचाने का अभियान चलाया गया है।
जैव विविधता अधिनियम, 2002
जैवविविधता अधिनियम, 2002 भारत में जैवविविधता के संरक्षण के लिए संसद द्वारा पारित एक संघीय कानून है। जो परंपरागत जैविक संसाधनों और ज्ञान के उपयोग से होने वाले लाभों के समान वितरण के लिए एक तंत्र प्रदान करता है। राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) की स्थापना 2003 में जैव विविधता अधिनियम, 2002 को लागू करने के लिए की गई थी। एनबीए एक सांविधिक, स्वायत संस्था है।
यह संस्था जैविक संसाधनों के साथ-साथ उनके सतत उपयोग से होने वाले लाभ की निष्पक्षता और समान बटवारे जैसे मुद्दों पर भारत सरकार के लिए सलाहकार और विनियामक की भूमिका निभाती है।
जैव विविधता के स्तर
समुद्री जैव विविधता समुद्र और महासागरों में पलने वाले जीवन को दर्शाता है। समुद्री पर्यावरण में 33 वर्णित जंतु संघों में से 32 जंतु संघ पाये जाते हैं। इसलिए इसका स्तर बहुत ऊँचा है। वन जैव विविधता में वन क्षेत्रों में पाये जाने वाले सभी जीव जंतु हैं जो कि पर्यावरण में पारस्थितिक भूमिका निभाते हैं। अनुवांशिक विविधता में एक प्रजाति की अनुवांशिक बनावट और उसकी विशेषताएं शामिल होती हैं।
प्रजाति विविधता विभिन्न प्रजातियों की प्रभावी संख्या है जो उनके डाटा बेस में परिलक्षित होती है प्रजाति विविधता में दो तत्व होते हैं एक प्रजाति समृद्धि और दुसरी प्रजातियों की इवननैस। पारिस्थितिक तंत्र विविधता रहने वाले स्थानों के कई अलग-अलग प्रकारों के बारे में इंगित करती हैं जबकि कृषि जैव विविधता में मिट्टी, जीव, मातम, कीट, परभक्षी और देशी पौधों तथा पशुओं के सभी प्रकार और कृषि से संबंधित सभी प्रासांगिक जीवन के रूप शामिल हैं।
बायोस्फीयर और जैव विविधता भंडार
भारत सरकार ने देश भर में 18 बायोस्फीयर भंडार स्थापित किये हैं जो जीव जंतुओं के प्राकृतिक भू-भाग की रक्षा करते हैं और अकसर आर्थिक उपयोगों के लिए स्थापित बफर जोनों के साथ एक या ज्यादा राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण्य को संरक्षित रखने का काम करते हैं।
आकर्षण के केन्द्र
एक जैव विविधता वाला हाटस्पाट ऐसा जैविक भौगोलिक क्षेत्र है जिसे मनुष्यों से खतरा रहता है। विश्व भर में ऐसे 25 आकर्षण के केन्द्र हैं इन केन्द्रों में विश्व के 60 प्रतिशत पौधों, पक्षियों, स्तनपाई प्राणियों, सरीसृपों और उभयचर प्रजातियों का संरक्षण किया जाता है। प्रत्येक आकर्षण का केन्द्र आज खतरे के दौर से गुजर रहा है। और अपने 70 प्रतिशत मूल प्राकृतिक वनस्पति को खो चुका है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयास
वन्य जीव जन्तु और फ्लोरा की विलुप्त प्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन-सीआईटीईएस पर 3 मार्च, 1973 को वाशिंगटन डीसी में हस्ताक्षर किये गये थे। वर्ष 2000 के अगस्त में इस सम्मेलन के 152 देश सदस्य थे। सीआईटीईएस का उद्देश्य वन्य जीव के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर प्रतिबंध लगाना है। विश्व संरक्षण संघ-आईयूसीएन विश्व स्तर पर देशों, सरकारी एजेंसियों और विभिन्न प्रकार की गैर सरकारी संस्थाओं को एक मंच पर लाने की कोशिश करता है। खाद्य और कृषि के लिए पादप आनुवांशिक संसाधन पर अंतर्राष्ट्रीय खाद्य संधि पर नवम्बर, 2001 में रोम में हस्ताक्षर किये गये थे। जिसे कृषि के लिए सभी संयंत्र आनुवांशिक संसाधनों के संरक्षण और स्थाई उपयोग के लिए एक कानूनी रूप से बाध्यकारी रूप रेखा बनाने के लिए अपनाया गया था। जैविक विविधता पर संयुक्घ्त राष्ट्र सम्मेलन (सीबीडी) 1992 एक बहुपक्षीय संधि है। इस संधि के तीन मुख्य लक्ष्य हैं – जैसे जैविक विविधता का संरक्षण उनके घटकों का निरंतर प्रयोग और उनसे होने वाले लाभ के निष्पक्ष और समान वितरण शामिल हैं।
मरुभूमि राष्ट्रीय उद्यान
भारत में जैव विविधता के संरक्षण और विकास के लिए एक अनूठा जीवमंडल रक्षित स्थान है। यह पश्चिम भारत के राजस्थान राज्य में जैसलमेर के शहर में स्थित है। यह 3162 वर्ग किमी का क्षेत्र में फैला हुआ सबसे बड़े राष्ट्रीय पार्कों में से एक है। मरुभूमि राष्ट्रीय उद्यान थार रेगिस्तान के पारिस्थितिकी तंत्र का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उद्यान का 20 प्रतिशत भाग रेत के टीलों से सजा हुआ है ।
वन्यजीव गलियारों की भूमिका
एक निवास स्थान के गलियारे, वन्यजीव गलियारे या ग्रीन कारिडोर, जैसे सड़क, विकास के रूप में मानव गतिविधियों द्वारा अलग वन्यजीव आबादी को जोड़ने के निवास स्थान का एक क्षेत्र है। यह आबादी के बीच व्यक्तियों को के आदान प्रदान करने की अनुमति देता है जिससे प्रजनन और कम आनुवंशिक विविधता के नकारात्मक प्रभावों को रोकने में मदद मिल सकती है जो कि कि अक्सर पृथक आबादी के भीतर होते हैं।
जैव विविधता का झील संग्रह
झीलें, जटिल पारिस्थितिकी प्रणाली और और विस्तृत श्रृंखला में शामिल एक अंतर्देशीय, तटीय और समुद्री निवास हैं। इनमें बाढ़ के मैदान, दलदल, दलदल, मछली तालाबों, ज्वार की दलदल प्राकृतिक और मानव निर्मित झीलें शामिल हैं। 1971 में रामसर, ईरान में झीलों पर हुए सम्मेलन में एक अंतरराष्ट्रीय संधि हस्ताक्षर किए गये जो झीलों और अपने संसाधनों से झीलों के संरक्षण और सही उपयोग के लिए राष्ट्रीय कार्य और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए रूपरेखा प्रदान करती है।
जैव विविधता के फायदे
जैव विविधता फसलों से भोजन, पशुओं, वानिकी और मछली प्रदान करता है। जैव विविधता उन्नत किस्में प्रजनन के लिए एक स्रोत सामग्री के रूप में और नए जैव निम्नीकरण कीटनाशकों के एक स्रोत के रूप में, नई फसलों के एक स्रोत के रूप में आधुनिक कृषि के लिए उपयोग में आती है।
जैव विविधता चिकित्सीय गुणों के साथ पदार्थों की एक समृद्ध स्रोत है। कई महत्वपूर्ण औषधि संयंत्र आधारित पदार्थों के रूप में में उत्पन्न होते हैं जिनकी उपयोगिता मानव स्वास्थ्य के लिए अमूल्य है। ये संयंत्र आधारित पदार्थ के रूप में जैसे- लकड़ी, तेल, स्नेहक, खाद्य जायके, औद्योगिक एंजाइमों , सौंदर्य प्रसाधन, इत्र, सुगंध, रंग, कागज, मोम, रबर, रब-क्षीर, रेजिन, जहर और काग जैसे औद्योगिक उत्पादों को सभी विभिन्न प्रजातियों के पौधे से प्राप्त किया जा सकता है। जैव विविधता ऐसे कई पार्कों और जंगलों के रूप में कई क्षेत्रों के लिए किफायती धन का एक स्रोत है जहां जंगली प्रकृति और जानवर वहां के सौंदर्य और खुशी का स्रोत रहे हैं जो कई पर्यटकों को आकर्षित करता है। घर से बाहर विशेष रूप से पर्यावरण पर्यटन, एक बढती हुयी मनोरंजक गतिविधि है। जैव विविधता के पास महान सौंदर्यात्मक मूल्य है।
सौंदर्य पुरस्कार के फलस्वरुप जिसमें पारिस्थितिकी पर्यटन, पक्षी दर्शन, वन्य जीवन, पालतू रखने, बागवानी, आदि शामिल हैं। जैव विविधता पारिस्थितिकी प्रणालियों के साथ व्यक्तिगत प्रजातियों से वस्तुओं और सेवाओं के रखरखाव और टिकाऊ उपयोग के लिए भी आवश्यक है। इन सेवाओं में वातावरण की गैसीय संरचना के रखरखाव, जंगलों और समुद्री प्रणाली द्वारा जलवायु नियंत्रण, प्राकृतिक कीट नियंत्रण, कीड़े और पक्षियों द्वारा पौधों के परागण, मिट्टी के गठन और संरक्षण आदि शामिल हैं।
डॉ.पी.जे. सुधाकर