लेह यानी ‘ठंडा रेगिस्तान’। वहां का कुशोक बकुला रिंपोची एयरपोर्ट। समुद्र तट से करीब 11 हजार फीट की ऊंचाई। करीब 10 हजार फीट लंबा रनवे। टेक आफ और लैंडिंग के लिहाज से भारत का संभवतः सबसे मुश्किल एयरपोर्ट। ऐसा एयरपोर्ट जहां के लिए उड़ान भरने वाले पायलट और काकपिट क्रू को पहाड़ी इलाके और चुनौतीपूर्ण मौसम में काम करने की स्पेशल ट्रेनिंग मिली हुई होती है। ऐसा एयरपोर्ट जो सालभर में करीब 11 लाख यात्रियों को संभालता है।
विगत दिनों यहां से 12 फ्लाइटें कैंसल हो चुकी थी। वजह जानकर चैंक जाएंगे। वजह है तापमान का 36 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाना। ऐसी जगह जहां आमतौर पर तापमान -20 डिग्री सेल्सियस तक रहता है। जहां आम तौर पर बर्फ जमी होती है। लेह में फ्लाइट का कैंसल होना, हम सबके लिए चेतावनी है। क्लाइमेट चेंज के प्रत्यक्ष खतरे की चेतावनी। चेतावनी कि अगर अभी नहीं सुधरे तो सबकुछ खत्म हो जाएगा। सवाल उठता है कि 36 डिग्री सेल्सियस तापमान की वजह से आखिर फ्लाइट क्यों कैंसल करनी पड़ी। उड़ानें तो 45-50 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी भरी जाती हैं तो लेह में ऐसा क्यों?
इसकी वजह है लेह एयरपोर्ट का काफी ऊंचाई पर होना। एयरपोर्ट 10700 फीट की ऊंचाई पर है। ऊंचाई का मतलब है कि वहां हवा विरल होगी यानी पतली होगी। अब ऊपर से तापमान और बढ़ जाए तो हवा और ज्यादा विरल हो जाएगी। पतली हो जाएगी। इससे टेकआफ और लैंडिंग मुश्किल हो जाती है। अब आते हैं जलवायु परिवर्तन के खतरों पर।
लेह में कैंसल होने वाली फ्लाइटों में आईआईटी प्रफेसर चेतन सोलंकी की भी फ्लाइट थी। उनका कहना था कि, उनके लिए ये अकल्पनीय था कि लेह में 11 हजार फीट की ऊंचाई पर जहां आमतौर पर तापमान माइनस 20 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है, में वे ग्लोबल वार्मिंग का शिकार बन गये। हैरानी फ्लाइट कैंसल होने से नहीं हुई, उसके कारण से हुई यानी ज्यादा तापमान। आज वे शिकार बने हैं। पर हर किसी को जानना चाहिए कि उनकी भी बारी आएगी और उनके बच्चों की बारी भी आएगी।’
लेह हमारे लिए कुदरत की तमाम वार्निंग में से एक है। ये जलवायु परिवर्तन के खतरे की निशानी है। जलवायु परिवर्तन यानी किसी क्षेत्र विशेष में आमतौर पर जो मौसम रहता है, उसमें काफी बदलाव का आना। भारत पहले से ही जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना कर रहा है।
सन् 1901 से 2018 तक देश के औसत तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ चुका है। इतना ही नहीं, दुनिया भर में औसत तापमान भी बढ़ा है। 2016 दुनिया में सबसे गर्म वर्ष के रूप में रिकार्ड किया गया। बीते सवा लाख वर्षों में 2023 का जुलाई अब तक का सबसे गर्म महीना रहा। अगर क्लाइमेट चेंज की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया गया तो इस सदी के अंत तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 3 से 10 फारेनहाइट बढ़ सकता है।
क्लाइमेट चेंज की वजह से एक्स्ट्रीम वेदर कंडिशन में इजाफा देखने को मिल रहा है। बहुत ज्यादा बारिश या बहुत ज्यादा सूखा जैसी स्थितियों के लिए जिम्मेदार क्लाइमेट चेंज ही है। कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति में इजाफा। गर्मी के दिनों में भीषण लू। जाड़ों में कड़कड़ाती ठंड। भारत में पहले ही 1950 के बाद से मानसूनी बारिश में कमी दर्ज हुई है।
विश्व बैंक की 2013 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, क्लाइमेट चेंज की वजह से भारत को सूखे की मार झेलनी पड़ी है। 1987 और 2002-03 में भारत में कुल फसलों का करीब आधा क्षेत्र सूखे की चपेट में रहा, जिससे उत्पादन में भी काफी गिरावट दर्ज की गई।
भारत के उत्तर-पश्चिम हिमालय और काराकोरम की पहाड़ियों पर स्थित ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। उसके सतह का तापमान भी बढ़ रहा है। इस वजह से मुंबई, कोलकाता समेत तटीय शहरों के लिए खतरा बढ़ रहा है। ग्लेशियरों के पिघलने और समुद्र का जलस्तर बढ़ने से तटीय शहरों के वजूद को भी खतरा हो सकता है।
क्लाइमेट चेंज की वजह से भारत को बड़ा आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। रिजर्व बैंक आफ इंडिया की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, बहुत ज्यादा गर्मी और उमस की वजह से श्रम घंटों को होने वाले नुकसान की वजह से 2030 तक भारत की जीडीपी को 4.5 प्रतिशत तक का नुकसान हो सकता है।
स भाव्या सिंह