अमेरिका के कैलीफोर्निया राज्य के लास एंजेल्स शहर में स्थानीय समय के अनुसार 07 जनवरी 2025 को 7ः30 बजे पैलीसेड्स, ईटन, हर्स्ट, सनसेट क्षेत्रों (उपनगरों) में स्थित नगरीय वनों में आग लग गई। तदुपरांत स्थानीय सरकार तथा राष्ट्रीय प्रशासन द्वारा त्वरित कार्यवाही किए जाने के बावजूद आज तक (10 जनवरी 2025) तक इन जंगलों में लगी आग को पूरी तरह नहीं बुझाया जा सका है। इन पांच स्थानों में लगी आग के कारण लगभग 29000 एकड़ क्षेत्र में स्थित जंगल तथा आवासीय क्षेत्र पूरी तरह से भस्म हो चुके हैं। यद्यपि लास एंजेल्स के फायर बिग्रेड को दुनिया की सबसे सशक्त फायर फाइटिंग एजेंसी के रूप में जाना जाता है, फिर भी बदलते मौसम के कारण उत्पन्न सूखा तथा बढ़ते तापमान के कारण बह रही तेज गर्म सूखी हवाओं ने स्थिति को नियंत्रण से बाहर बना दिया।
इस अग्निकांड में एक अनुमान के अनुसार 8 बिलियन डालर (लगभग 72000 करोड़ रूपए) से अधिक का नुकसान हुआ है, वहीं लगभग 180000 लोगों को घर छोड़ना पड़ा और 5 लोगों की मौत हो गई। लगभग और 2 लाख लोगों को अपना घर खाली करने की चेतावनी दे दी गई है। इस अग्निकांड की अफरा-तफरी में चोरी और लूट की वारदातें भी सामने आई हैं। सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि आग लगने के मूल कारणों में परिवर्तित मौसम होने के फलस्वरूप आग को बुझाना अत्यंत कठिन हो रहा है। बढ़ता तापमान, सूखी गर्म तेज हवाएं इस अग्नि कांड में घी का काम कर रही हैं। पृथ्वी के बढ़ते तापमान से परिवर्तित हो रहे मौसम के प्रति चेतावनी निरंतर दी जा रही है। पर गंभीरता का अभाव सर्वत्र व्यापक है। पता नहीं क्यों इस भस्मासुरीय समस्या का समाधान सहज होते हुए भी इतना विकराल क्यों हो गया है? क्यों लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि धन से ही इस समस्या का और अन्य सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है?
धर्म को त्याग कर धन के पीछे दौड़ रही इस सभ्यता ने अपने आप को इस बुरी तरह इस समस्या के जाल में उलझा लिया है कि इससे मुक्ति के आसार अत्यंत धूमिल नजर आते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में ही मौसम परिवर्तन के कारण अमेरिका के फ्लोरीडा राज्य में ही ‘मिल्टन’ एवं ‘हेलना’ तूफान के कारण भारी तबाही हुई थी, जिसमें भारी मात्रा में जन-धन की हानि हुई थी। मार्च 2019 में ईदाई साइक्लोन ने जिम्बाबे, मालावी, मोजम्बिक आदि दक्षिण अफ्रीकी देशों में भारी तबाही मचाकर 1000 से अधिक लोगों को कालग्रस्त कर दिया था। वर्ष 2020 में आस्ट्रेलिया में फैली आग ने लगभग एक करोड़ हेक्टेयर जंगल को भस्म कर दिया था, जिसमें 38 लोगों की मृत्यु हुई थी। पूर्वी अफ्रीका में वर्ष 2011, 2017 एवं 2019 में आए भयावह सूखे ने लगभग 1.5 करोड़ लोगों को अपना गांव, शहर, देश छोड़ कर पलायन को विवश किया था। इन्हें शरणार्थी की तरह अन्य देशों में पलायन करना पड़ा था। लगभग पूरी खेती चौपट हो गई थी, मनुष्यों को तथा पशुओं को भी पीने के लिए पानी और खाने के लिए भोजन और चारा नहीं बचा था। दक्षिण एशिया देशों में बढ़ते बाढ़ की बारंबारता ने भारत, पाकिस्तान, मध्य एशियाई देशों में भी बहुत तबाही मचाई। अभी हाल ही में सऊदी अरब में हुई भयावह बारिश ने जल प्रलय की स्थिति पैदा कर दी थी। उसके पूर्व यूनाईटेड अरब एमीरात में भी ऐसी ही बाढ़ की स्थिति बनी थी। तो हाल ही में ऐसे ही भयावह वर्षा स्पेन में भी एकाएक हुई थी, जिससे जल प्रलय सी स्थिति बन गई थी। सेंट्रल अमेरिका में ग्वेटेमाला, अल्सेल्वाडोर और निकारागुआ देशों में सूखा मौसम तीन महीने की जगह 6 महीने हो चुका है। फलस्वरूप इन देशों में खेती में भारी नुकसान हुआ है। 35 लाख लोगों के सामने खाने और जीने का संकट पैदा हो चुका है।
मौसम परिवर्तन की मार अब समक्ष है। अब यह कोई भविष्य की दुर्घटना की चेतावनी नहीं है। विडम्बना यह है कि इसका दुष्प्रभाव सबसे अधिक गरीब लोगों पर, संसाधन हीन लोगों पर ज्यादा होता है। इस दुष्प्रभाव से मुक्ति के मार्ग में धन की आवश्यकता होती है और धन संचय के समस्त ज्ञात मार्ग पुनः दुष्प्रभाव पैदा करते हैं। यह एक अत्यंत चिंताजनक स्थिति है और ऐसा दुष्चक्र है कि इस चक्रव्यूह से मुक्ति का मार्ग या तो समझ में नहीं आता और यदि आता है तो उसे अपनाने को कोई तैयार होता भी नजर नहीं आता। एक सामान्य आदमी के लिए अपनी ओर से सबसे सहज योगदान है- सादा जीवन, संयमित जीवन, आडम्बर मुक्त जीवन, ऊर्जा का कम से कम व्यय, वस्तुओं का कम से कम उपभोग, अधिक से अधिक वस्तुओं का पुनः-पुनः उपयोग या फिर पुनःचक्रण से उपयोग। किन्तु, अर्थवादी सभ्यता के लिए ऐसा करना अर्थव्यवस्था को धीरे करना माना जाता है। इसलिए वर्तमान आर्थिक सिद्धांतों की आमूल-चूल समीक्षा कर संशोधन करने की आवश्यकता है। कोई भी मनुष्य यदि जन्म ले लिया तो उसे उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो संसाधनों के उपभोग से मना नहीं किया जा सकता। किन्तु चिंता का विषय है कि आज की स्थिति में पृथ्वी पर रहने वाले 820 करोड़ लोग यदि जैन साधुओं की तरह संयमित जीवन जीने का संकल्प लेकर भी केवल एक समय भोजन कर, एक बार पानी पीकर, निर्वस्त्र भी जीवन जीना चाहें तो भी इतने कम उपभोग से उत्पन्न होने वाली हरितकारी गैसों को वातावरण में संभालकर पृथ्वी के तापमान को बढ़ने से रोकना संभव नहीं प्रतीत होता है। कहने का आशय यह है कि वर्तमान में लोगों ने जो ऐश्वर्यमय जीवन जीने का मार्ग अपना लिया है और उसके बावजूद जनसंख्या नियंत्रण पर चर्चा करने को कोई तैयार नहीं हैं, तो ऐसी स्थिति में इस विश्व को मौसम परिवर्तन के भयावह दुष्परिणामों से मुक्ति का कोई मार्ग साक्षात नहीं दिखाई देता। विज्ञान, तकनीकी की सीमाओं को समझ कर हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि उपभोग शमन का सार्थक मार्ग संस्कारों से है, केवल कानून के रास्ते हम उपभोग को कम नहीं कर सकते। सैकड़ों कानून बन चुके हैं और बनाए जा सकते हैं, किन्तु क्या कानून के कटघरे में खड़ा कर, सजा देते भर रहने से पृथ्वी पर तबाह होती प्रकृति और पर्यावरण को बचाये रख सकते हैं? शायद नहीं? पर, कानून का भय जरूरी है, ताकि लोगों को निरंकुश होने से भी बचाया जा सके। तो कानूनों की आवश्यकता के प्रति ज्ञान उससे भी पहले और ज्यादा जरूरी है। हमारे प्राथमिक शिक्षा से उच्चतम शिक्षा तक हमें यह पढ़ाना, सिखाना, बताना जरूरी है कि हमारे प्रकृति तथा पर्यावरण की क्या सीमाएं हैं? वो कितना बोझ हमारे मानव जनसंख्या का वहन कर सकती हैं, तो कितना बोझ हमारे ऐश्वर्यमयी जीवन का वहन कर सकती हैं? हमें यह बताना जरूरी है कि तमाम तरह के कानूनों के रहते हुए भी तथा तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान के रहते हुए भी और तमाम तरह की आर्थिक समृद्धियों के बावजूद और सर्वोच्च शासकीय एवं राजनैतिक शक्ति सम्पन्नता के बावजूद भी दिल्ली की जहरीली यमुना को ठीक नहीं किया जा सका और न ही दिल्ली के वायुमंडल को विषाक्त होने से रोका जा सका और न ही प्रदूषित हो चुके वायुमंडल को ठीक किया जा सका। कहने का आशय कि केवल धन-कानून या विज्ञान से ही सभी समस्याओं का समाधान 100ः संभव नहीं है। इस हेतु संकल्प और संस्कृति भी आवश्यक है, क्योंकि संस्कारों की ताकत अद्भुत है।
हम इस वर्ष 13 जनवरी 2025 से आरंभ हो रहे महाकुंभ का ही उदाहरण लें, तो हम देखते हैं कि लगभग 45 करोड़ लोग इस युग के इस सर्वाधिक विशाल धार्मिक-सांस्कृतिक पर्व में भाग लेने के लिए पूरे विश्व से शामिल होने जा रहे हैं। इस दौरान ये सभी तीर्थयात्री शाकाहारी भोजन और सादगीमय जीवन के न्यूनतम उपभोग के संकल्प में होंगे। इस जन समुद्र में कोई न छोटा होगा न कोई बड़ा होगा, न कोई गरीब होगा और न कोई अमीर होगा, न कोई ऊंची जाति का होगा और न कोई छोटी जाति का होगा, न कोई काला-गोरा का भेद होगा और न ही अन्य किसी प्रकार का भेद होगा। एक सांस्कृतिक महाकुंभ के इस पर्व में पूरे विश्व से आए लोग एक मानवीय संस्कारों की श्रेष्ठता का अनुभव करेंगे। जिसमें नदियों के जल की शुद्धता की अनिवार्यता के साथ ही प्रकृति, पर्यावरण के संरक्षण के प्रति स्वाभाविक भाव भी उत्पन्न होंगे। तदैव ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर आसन्न प्रलयकारी संकट के समाधान के एक मार्ग के रूप में हमारे आस्था का यह महापर्व जो 144 वर्षों बाद मनाया जा रहा है, पथ प्रदर्शन करेगा। हमें यह स्वीकार करने में देर नहीं करना चाहिए कि भारत के सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर यदि जनसंख्या का दबाव और ज्यादा बढ़ेगा तो यह सबके लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा।
सभी पाठकों को मकर संक्रांति पर्व एवं गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं।
-संपादक