जो अपनी मदद खुद नहीं कर सकता, उसकी भगवान भी मदद नहीं कर सकते। संकट की घड़ी में मदद के लिए हाथ ही होते हैं। भगवन के भरोसे अपने को छोड़ देना मूर्खता है और उससे बड़ी बात खुद कुछ नहीं करना और तोहमत बनाना भगवन पर। ईश्वर कुछ नहीं करता लेकिन सब कुछ करता है। प्रकृति की हर चीज अनमोल है। दुनिया के हर जीव-जंतुओं के लिए प्रकृति बराबर है।
प्रकृति से खिलवाड़ ईश्वर का अनादर है। मक्का से लेकर वेटिकन और हिन्दुओं के धाम सभी कोरोना वायरस की वजह से ठप हैं। कोरोना वायरस से इन्सान भयभीत है, क्योंकि इन्सान ने प्रकृति के धर्म से छेड़छाड़ की है।
हम कह सकते हैं ईश्वर असहाय है, अपने आप की तसल्ली करने के लिए। हमारी धारणा बन चली है की धार्मिक स्थल में प्रतिष्ठान हमारे ईश्वर नतमस्तक हो गए हैं। एक कोरोना वायरस के चलते वेटिकन सिटी में पोप कुछ भी कर सकने में सक्षम नहीं हैं। इबादत के बाद भी कोरोना की गति कम नहीं हो रही है। यह सही है और यह भी सही है जो प्रकृति की नियामक शक्ति की अवहेलना करता है ईश्वर उसे दंड देता है। हम अंजान हैं कि उसका दंड विधान कैसा है। किस अपराध का दंड कितना है, हम जान नहीं सकते।
संकट की घड़ी में विज्ञान और वैज्ञानिक बचाव कर रहे हैं। डॉक्टर उन इंसानों को जिन्दगी दे रहे हैं, जो भयावह वायरस से ग्रसित हैं। धरती में भगवान के बाद डाक्टर ही भगवान हैं, जो हमें मृत्यु से जीवन की ओर ले जाते हैं। बीमारी और दर्द से छुटकारा दिलाते हैं।
डाक्टर वे हैं, जिन्होंने चिकित्सा विज्ञान को आत्मसात किया है, जिसका अपना एक लिखित सिद्धांत है, जिसे मानना और उस पर चलकर ही डाक्टर इंसानों के जीवन की रक्षा करता है। जिसका पालन हम करते हैं अपना जीवन बचने के लिए। ठीक इसी तरह प्रकृति का अपना एक अलिखित सिद्धांत है, जिससे हम अंजान हैं। लेकिन जो अंजन हैं, वे प्रकृति के पूजक हैं। प्रकृति को अपना भगवान मानने वाले कम हो रहे हैं। प्रकृति पर विजय पाने के लिए विज्ञान का सहारा ले रहे हैं, जो हर किसी की पूर्ति करती है, उस प्रकृति का बिगाड़ ही ईश्वर की खिलाफत है।
ईश्वर के नाम अलग-अलग हैं, परन्तु वह है तो केवल एक पूरी धरती के लिए, ब्रह्माण्ड के लिए, कोरोना वायरस से उपजी त्रासदी के लिए ईश्वरीय स्थल के दरवाजे बंद कर दिए गए और धर्म स्थलों के ईश्वर कुछ नहीं कर सके यह कहकर हम प्रसिद्धि पा लें, तो क्या दुनिया से ईश्वर का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा?
ईश्वर का अस्तित्व तो कबका खत्म हो चुका है। जब इन्सान ईश्वर बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। सभी सभ्यताएं, वहां के सभी इंसान, नर पिशाच बन गए हैं। केवल और केवल इंसानों के खात्मे के लिए हथियार बना रहे हैं। अपने देश का बाजार विकसित कर रहे हैं। प्राकृतिक साधन संपन्न देश उनके गुलाम बन गए हैं। तोप, बम और बमवर्षा के विमान बिकें, इसके लिए दुनिया के हर देश की सीमा पर गोलीबारी हो रही है। एक देश के सैनिक शहीद हो रहे हैं तो वह दूसरे देश का दुश्मन है। इन्सान मारे जा रहे हैं, ऐसा कहने वाला कोई नहीं है। इसलिए कि हमारे विज्ञान ने, हमारे वैज्ञानिकों ने जिन हथियारों को विकसित किया है, उसका बाजार विकसित हो रहा है।
अब ईश्वर मर रहा है और मरता रहेगा। विज्ञान प्रतिष्ठित होगा और होता रहेगा, जिसमें इंसानियत की जगह तंग हो रही है। अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए बड़े देश अपना बाजार बना रहे हैं। सशक्त अर्थव्यवस्था वाला देश दुनिया के बाजार पर कब्जा कर रहा है। अपना बाजार बनाये रखने के लिए कई देश ऐसा अपराध कर रहे हैं, जो इंसानियत के दायरे में नहीं आता। युद्ध के लिए हथियार का बाजार और इसकी मांग बनाने के लिए आतंकवाद को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इसी कड़ी में जैविक हथियार के जरिये बाजार पर कब्जा भी गलत नहीं है।
चीन के वुहान शहर से कोविड-19 फैला, अपने तरह का बिलकुल नया। सारी दुनिया में वायरस तेजी से फैला। हर जगह लाक डाउन और थम गई जिन्दगी। कहीं लाशों का अम्बार लगा है, जिनका अंतिम संस्कार करने से लोग भयभीत हैं। आर्थिक मंदी की बयार के चलते शेयर बाजार गिर रहे हैं , अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है। लोग बेबस हैं, भूखे हैं, कई तड़पते हुए मौत का इंतजर कर रहे हैं। इस बीच चीन का जीडीपी उतना नहीं गिरा, आखिर यह क्या है?
प्रकृति से खिलवाड़ के चलते जलवायु परिवर्तन के अनेक संकट सामने आ खड़े हैं। इसी के साथ दुनिया की डगमगाती अर्थव्यवस्था का जिम्मेदार कोविड-19 है, जो दिखता नहीं। भयावह गतिविधियों को इंसान बढ़ावा दे रहा है। सचमुच अब ईश्वर मर रहा है। 21 वीं सदी का इंसान अपने ईश्वर को खत्म करने का अपराध कर रहा है। वह जानता है फिर भी वह अपने ईश्वर को मिटाने के लगातार कोशिश कर रहा है।
रविन्द्र गिन्नोरे
बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि से उजड़े खेत खलिहान
बेमौसम बारिश, ओलों ने किसानों की उपज पर पानी फेर दिया। गेंहू, दलहन और तिलहन फसलों की कटाई में मौसम की वजह से देर हुई और फिर खड़ी फसल ओला और बारिश की वजह से बर्बाद हो गई। इतने नुकसान को देखकर सदमें में पहुंचे कई किसानों ने आत्महत्या कर ली। उत्तर भारत सहित दक्षिण भारत के कई इलाकों में ओला और बारिश के चलते फसलें किसानों के हाथ नहीं आई।
किसानों की फसलें बर्बाद होना एक बड़ी समस्या बन गई है। सरकारी योजनायें किसानों की भरपाई नहीं कर पा रहीं हैं। वहीँ फसल बीमा योजना छलावा साबित हो रहीं हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते मौसम की मार कृषि पर पड़ रही है, जिसमें किसान किसान जो खेती पर निर्भर हैं वे आर्थिक रूप से टूट रहे हैं। यही कारण है कि किसान आत्महत्या के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं।
उत्तर भारत में ठंड के समय गेंहू, जौ,तिल, सरसों, अलसी, मसूर, राहर जैसी फसलें बोई जाती हैं। वसंतकाल में फसल कटाई शुरु होती है। फसले तैयार हुई कि तेज बारिश के साथ ओले से फसल बरबाद हो गई। पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजिस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ की फसलें बेमौसम बारिश ओले की भेट चढ़ गई।
उत्तरप्रदेश में एक अनुमान के अनुसार लगभग 225 करोड़ रूपए मूल्य की फसल बरबाद हो गई। प्रदेश के 35 जिलों में ज्यादा नुकसान हुआ। इस करण लगभग 6.5 लाख किसान प्रभावित हुए। किसानो को हुई नुकसान की रिपोर्ट राज्य सरकार को भेजी गई है। राज्य सरकारने किसानों की फौरी मदद के लिए 6.6 करोड़ रूपए मदद भेजी है।
देश के 20 करोड़ से अधिक किसान हैं। देश की कृषि क्षेत्र की सेहत का सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। आधी से अधिक आबादी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर करती है। यही करण है की मुनाफा देने वाली उपज से खपत बढ़ती है। कीमतें वाली फसलें मंदी ला सकती हैं।
2019 में अत्यधिक बारिश के चलते मानसूनी बारिश वाली फसलें बरबाद हुई थीं। किसान सर्दी की फसलों पर अपनी उम्मीद लगाये बैठे थे। बेमौसम बारिश, ओलाबृष्टि से फसल का अधिकांश भाग नष्ट हो गया।
सर्दी की फसल आने पर अर्थव्यवस्था दोबारा उभर पाएगी ऐसा लगता था। परन्तु फसलों के बाजार में पहुचने से पहले कोरोना वायरस ने दस्तक दे दी। फसलों की कीमतें कम हो गई। मक्का, सोयाबीन, कपास, प्याज जैसी फासलों की कीमतें 50 फीसदी तक गिर गई। वैसे भी रूस की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था छह साल से धीमी गति पर चल रही है।
बाजार के दाम और मौसम अच्छे नजर आ रहे थे, पर पहले बेमौसम बारिश, ओलाबृष्टि से बरबाद हुई फसलें और कोरोना वायरस की वजह से बाजार में कीमतें गिर गई। मुर्गियों के दाम कोरोना वायरस को लेकर फैली अफवाह के चलते गिर गए। सोशल मीडिया में ऐसे पोस्ट वायरल हुए कि चिकन के करण कोरोना वायरस चिकन के कारण फैल रहा है।
एक और अनुमान के अनुसार राजस्थान में बारिश, ओला पड़ने से 13 जिले बुरी तरह प्रभावित हुए। उन जिलों में लाखो एकड़ में खड़ी फसल की बरबादी हुई। गेहू, सरसों, चना, जों, धनिया, जीरा, व सब्जियां नष्ट हो गई। प्रदेश के सदस्यों की कुल पैदावार की 10 फीसदी फसल खत्म हो जाने का अनुमान है। बताया जा रहा है की नुकसान की वजह से भरतपुर जिले के चार किसान सदमे और दिल के दौरे से मर गए।
राजस्थान के नागौर क्षेत्र के सांसद ने लोकसभा में बेमौसम बारिश ओलावृष्टि से अरबो रुपयोँ की फसल नष्ट होनें व भरतपुर के किसान द्वारा आत्महत्या कर लेने का मुद्दा उठाया।
पंजाब के किसानों को भी भारी नुकसान हुआ जहां हजारो एकड़ में खड़ी गेहूं की फसल नष्ट हो गई। नुकसानी की रिपोर्ट राज्य सरकार को भेजी गई है। सरकार स्थिति का आंकलन कर रही है। किसान संगठन का कहना है की राज्य में गेहूं की 30 प्रतिशत से ज्यादा और 70 फीसदी सब्जियां नष्ट हो चुकी हैं। किसानों को उसके अनुसार ही मुआवजा मिलना चाहिए।
फसल बीमा योजना कई दशकों से चलाई जा रही है। बीमा योजना किसानों के नुकसान की सही भरपाई करने से असफल रही है। सूचना के अधिकार से मिली एक जानकारी के अनुसार नई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत पिछले साल किसानी नष्ट होने का 3000 करोड़ रूपए से ज्यादा का हर्जाना किसानों को अभी तक नहीं मिल सका है।
दयानंद और आर्यसमाज की उपलब्धियां
19वीं सदी में गुजरात में समाज सुधर एवं संस्कृति के उत्थान के लिए कई आन्दोलन हुए। यहाँ के समाज सुधारकों में अग्रणी रहे- मेहता जी दुर्गाराम मंचाराम। इनका जन्म 1819 ईस्वी में हुआ, मृत्यु 1876 ईस्वी में हुई। इन्होंने गुजरती समाज में व्याप्त विषमताओं को मिटाने का हर संभव प्रयास किया और पूरे विश्व के लोगों को एक बिरादरी का माना।
1844 ईस्वी में उन्होंने मानव धर्म सभा की स्थापना की और पूरे विश्व के लोगों को एक बिरादरी का माना। वे यूनिवर्सल रितिजानस सोसाइटी के भी संस्थापक थे। उनके इन सभाओं ने गुजरात में नवजागरण का वातावरण तैयार किया। गुजरात में सबसे बड़े सामाजिक एवं सांस्कृतिक आन्दोलन की शुरुआत की। आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती थे।
उनके मत उग्र थे और उन्होंने क्रन्तिकारी रूप अपनाया था। उनके ऊपर ना तो इसाई धर्म का और ना ही इस्लाम धर्म का कोई प्रभाव था। उन्होंने महसूस किया कि हिन्दू धर्म की विकृतियों के खिलाफ जेहाद छेड़ने के लिए भारत के लोगों को दूसरे धर्म एवं संस्कृति का मोहताज होने की आवश्यकता नहीं है। विधिक धर्म के पालन मात्र से भारतीय समाज की सारी रूढ़ियाँ अपने आप खत्म हो जाएँगी और एक स्वस्थ एवं संतुलित भारत का निर्माण होगा।
निसंदेह दयानंद सरस्वती भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक थे। उनका जन्म 1824 ईस्वी में गुजरात के मोरवी राज्य के टंकारा नमक छोटे नगर में हुआ था। उनका नाम मूलशंकर था और पिता थे कृपाशंकर। मूलशंकर बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि के व्यक्ति थे और विद्रोही स्वाभाव के थे। 14 वर्ष के उम्र में ही उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया। एक रात उन्होंने देखा कि शिवलिंग के ऊपर बार-बार चूहा चढ़ रहा है और उसे गन्दा कर रहा है। उनके मन में तब यह बात आई कि जो देवता एक चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर सकता, वह हमारी क्या रक्षा करेगा।
उनके मन में तरह तरह के विचार कौंधने लगे। घर त्यागकर उन्होंने पंद्रह वर्षों तक भारत के कई पहाड़ियों का भ्रमण किया और भटकते-भटकते अंत में मथुरा के दंडीस्वामी प्रज्ञा चक्षु स्वामी विरजा के सानिध्य में आये। जैसे ही वे नेत्रहीन स्वामी के समक्ष उपस्थित हुए, स्वामी के मुख से आवाज आई कि दयानंद तुम्हारा भटकाव पूरा हुआ, अब तुम मेरी शरण में आओ।
इस कथन ने मूलशंकर को काफी प्रभावित किया और उन्होंने स्वामी विरजानंद के सान्निध्य एवं मार्गदर्शन में भारतीय धर्म्शास्त्रों का, विशेष कर वैदिक, ग्रंथों का अध्ययन करना शुरू किया। उपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतान्तरों की अविद्या को मिटाओ एवं वैदिक धर्म का प्रचार करो। आगरा, अजमेर, मुंगेर, पटना, कलकत्ता, हरिद्वार, पंजाब जैसे जगहों का भ्रमण कर अपने गुरु की शिक्षा को और उनके सन्देश को उन्होंने फैलाना शुरू किया।
उन्होंने अपनी शिक्षाओं को ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ के रूप में प्रकाशित किया। 10 अप्रैल, 1875 को उन्होंने बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। लाहौर में भी इस समाज की शाखा खोली गई। यह ध्यान देने लायक बात है कि स्वामी दयानंद ने अपने विचारों को लोगों तक पहुँचाने में उत्तरी-पश्चिमी भारत के क्षेत्रों में अधिक सफलता पाई।
स्वामी दयानंद ने ‘‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका’’ नामक पुस्तक की रचना की और वेद को मानवतावाद का आदि ग्रन्थ और प्राचीनतम ईश्वर का ज्ञान कहा। उन्होंने कहा की ऋग्वैदिक कल में भारतीय समाज समता व्यवस्था वंशानुगत नहीं हो कर, कर्म या व्यवसाय पर आधारित थी। उसने समाज को एक निश्चित आकार प्रदान किया था और उसे गति प्रदान की थी।
ऋग्वेद में असंख्य देवी-देवताओं के स्थान पर सार्वभौम ईश्वर की परीकल्पना की गई है। वह ईश्वर सच्चिदानन्द है। उसकी उपासना से ही मानव-मात्र का कल्याण हो सकता है। निश्चित रूप से दयानन्द सरस्वती ने भारत के लिए एक जाति विहीन समाज की कल्पना की।
वैदिक धर्म को विश्व धर्म घोषित किया। एकेश्वरवाद का प्रचार वेदों के आधार पर किया और एकेश्वरवाद का आधार उन्होंने निर्गुण और निराकार बताया।
उनके अनुसार परमात्मा सर्वोपरी है। वह सत्त है, चित्त है, आनंद है। वह सर्वशक्तिमान है, न्यायशील, दयालु, अजात, अविकार, अनादि, अद्वैत, सर्वाधारं, सर्वव्यापी, अन्तर्यामी, अभय, शाश्वत, पवित्र और सृजन हर है।
दयानन्द की यह परिकल्पना अव्यवहारिक नहीं है। उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज का गुण अध्ययन किया और महसूस किया कि भारतीय समाज को सबसे ज्यादा अलगाव एवं पृथकता की भावना ने तोड़ा है। इसलिए तत्काल भारतीय समाज को जोड़ने की आवश्यकता है। यह कार्य तब तक नहीं होगा, जब तक भारत के लोग असंख्य देवी-देवताओं के नाम पर एक दूसरे से लड़ते रहेंगे। अतः उनके देवी-देवताओं के स्थान पर एक ऐसे देवता की स्थापना की जरुरत है, जिसको स्वीकार करने में किसी भी मत के लोगों को कोई कष्ट नहीं होगा।
उन्होंने कहा की सर्व सत्य विद्या और विद्या से जो पदार्थ बनते हैं, उन सबका आदि मूल परमेश्वर है। उन्होंने इस परमेश्वर की आराधना के नाम पर भारत की सभी जाति एवं वर्ण के लोगों का आव्हान किया कि वे अपना आपसी भेद भुलाकर एकजुट हों और फिर से भारत की खोई हुई गरिमा को प्राप्त करें।
वेद सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद को पढ़ना, पढ़ाना और सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सदा तत्पर रहना चाहिए। सत्काम धर्मानुसार होना चाहिए। संसार का उपकार करना, इस समाज का मुख्य उपदेश है। अर्थात् शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक उन्नति करना हर समाज का सबसे पहला कर्तव्य है। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। प्रत्येक मनुष्य को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट नहीं रहना चाहिए, बल्कि सबकी उन्नति में ही अपनी उन्न्ति समझनी चाहिए। सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी नियम पालने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
निश्चित रूप से महात्मा गांधी को छोड़कर भारत के सभी समाज सुधारकों में दयानन्द सरस्वती सबसे साहसी और निर्भीक सुधारक थे। उन्होंने समाज में बुद्धि, विवेक एवं विज्ञानवादिता के आधार पर एक ऐसा माहौल तैयार करना चाहा, जिसमें जन्म के नाम पर कोई ऊॅंचा-नीचा नहीं था। सभी समान रूप से स्वतंत्र पैदा हुए थे और उन्हें अपना-अपना कर्म करने का पूर्ण अधिकार था। समाज में स्थिति का निर्धारण व्यावसायिक कर्मों के आधार पर ही निश्चित किया जा सकता था।
मनुस्मृति का ही हवाला देते हुए उन्होंने सिद्ध किया कि उत्तम विद्या और उत्तम प्रकृति वाला व्यक्ति ही ब्राह्मण कहलाने योग्य है। अतः कोई भी मनुष्य अपने सत्कर्मों के द्वारा और सुविद्या के द्वारा ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर सकता था। निश्चित रूप से वर्ण व्यवस्था कर्मानुसार होनी चाहिए। कर्म की प्रधानता पर जोर देते हुए उन्होंने भारत के लोगों का आव्हान किया कि वे अपने हृदय में किसी प्रकार की हीनता की ग्रंथि को जन्म न लेने दें। वे आर्य हैं और आर्यों का इतिहास स्वर्णिम रहा है। आर्यों की अपनी महान संस्कृति रही है, जिसे वैदिक ग्रंथों में सुरक्षित रखा गया है। निःसंदेह वैदिक महान संस्कृति में कालांतर में कुछ कुरीतियां समा गई हैं। उन कुरूतियों को तत्काल निकाल बाहर करने की जरूरत है।
उन्होंने कहा कि भक्त और ईश्वर के बीच कोई अज्ञानता का घटाटोप नहीं हो सकता है। मनुष्य विद्या के द्वारा और ज्ञान के द्वारा अपने को परमेश्वर में विलीन कर सकता है। इसके लिए किसी पुरोहित की आवश्यकता नहीं है।
स्वामी दयानन्द ने संस्कृत भाषा को दुनिया की सबसे समृद्ध भाषा माना और उसे विश्व का ज्ञान कोष माना। लेकिन उन्होंने अपने उपदेश का माध्यम हिन्दी भाषा को बनाया। ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ की रचना भी उन्होंने हिन्दी में ही की। उनके अनुसार हिन्दी भाषा ही पूरे भारत के लोगों की सम्पर्क भाषा बन सकती थी। उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखने की कोई कोशिश नहीं की।
एक अंग्रेज विद्वान ने उनसे कहा कि यदि आपको अंग्रेजी भाषा आती और उसके माध्यम से आप अपने उपदेशों को लोगों तक पहुॅंचाते तो निश्चित रूप से आपके उपदेश सार्वभौम प्रभाव डालते। जिसका जवाब स्वामी दयानन्द ने यह कह कर दिया कि काश! दुनिया के दूसरे धर्म के लोग संस्कृत जानते तो उन्हें दुनिया के सबसे बड़े ज्ञान के खजाने से विमुख नहीं होना पड़ता और पूरे विश्व का कल्याण होता। दयानन्द सरस्वती को प्रखर राष्ट्रवाद का अग्रदूत माना जा सकता है। उन्होंने जिस ढंग से अपने विचारों को बेहिचक लोगों के सामने रखा, उससे भारत के लोगों में आत्मगौरव और आत्मचेतना का विकास हुआ। दयानन्द ने लोगों को हर जुल्म का प्रतिकार करने की प्रेरणा दी। इससे कालांतर में भारत के जुझारू राष्ट्रवद को प्रेरणा मिली।
दयानन्द सरस्वती ने भारत के लोगों को सचरित्र होने का संदेश दिया। उनके अनुसार स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास हो सकता है। अतः उन्होंने शारीरिक सौष्ठव के निर्माण पर बल दिया। उन्होंने शिक्षा के महत्व को समझा और भारत के पारम्परिक शिक्षा पद्धति को सर्वश्रेष्ठ माना। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके कुछ शिष्यों ने हरिद्वार में गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना की, जहॉं पर संस्कृत साहित्य एवं धर्म के अतिरिक्त स्वस्थ शरीर के निर्माण की दिशा में गुरूओं द्वारा शिक्षा दी गई। उनके मृत्यु के पश्चात भी उनके कुछ शिष्यों, खासकर लाला हंसराज के नेतृत्व में अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने की व्यवस्था की गई। लाहौर में दयानन्द-एंग्लो वैदिक संघ की स्थापना की गई और इसके तहत डी.ए.वी. कालेज एवं स्कूलों की स्थापना की गई। पंडित लेखाराम, लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानंद, लाला हंसराज, भाई परमानंद, सरला देवी, रामभज देव एवं रमा बाई जैसे महान आर्य समाजियों ने आर्य समाज आंदोलन को और आगे बढ़ाया।
आर्य समाज से पहले भारत में कोई ऐसा सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलन नहीं मिलता, जो किसी न किसी कारणवश हिन्दू धर्म से विमुख हुए लोगों को फिर से एक बार हिन्दू धर्म में शामिल होने का मौका देता। आर्य समाज के अंतर्गत् ‘‘शुद्धि आंदोलन’’ चलाया गया, जिसके तहत कुछ धार्मिक अनुष्ठान के पश्चात बड़े पैमाने पर ईसाई धर्म एवं इस्लाम धर्म में परिवर्तित हुए हिन्दुओं को फिर से हिन्दू समाज में शामिल किया गया। स्वाभाविक है कि इस आंदोलन ने भारत के ईसाईयों एवं मुसलमानों का ध्यान आकर्षित किया। कुछ लोगों के बहकावे में आकर स्वामी जी के रसोइये ने दूध में विष मिलाकर स्वामीजी को पिला दिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन स्वामीजी इतने दयायु थे कि रसोईया को फांसी से बचाने हेतु यह बात जानते हुए भी राजा को नहीं बताई।
निःसंदेह आर्य समाज आंदोलन ने भारत में एक आक्रामक एवं क्रांतिकारी सामाजिक एवं धर्म सुधार आंदोलन का सूत्रपात किया और भारतीय राष्ट्रवाद को उसने काफी ठोस आधार प्रदान किया।
संजय गोस्वामी
यमुना जी/13, अणुशक्ति नगर, मुॅंबई-94