बढ़ते पर्यावरण संकट के समाधान के लिए उपभोग में नियंत्रण आवश्यक

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प्रकृति पुरूष की कृतियां अत्यंत अद्भुत एवं जटिल हैं, जिसे शब्दों के माध्यम से समझना और समझाना बहुत कठिन है। पर मानव मस्तिष्क जितना इसको समझने और समझाने के लिए प्रयास करता है और जब कभी भी भाषा के माध्यम से परिभाषित करने का प्रयास करता है, तब-तब वह प्रकृति के रहस्यों को समझाने से ज्यादा उसकी अभिव्यक्ति के लिए उचित भाषा एवं परिभाषाओं के भ्रम में ही उलझ जाता है।

वर्तमान मानव सभ्यता अपने श्रेष्ठतम जीव होने के इस भ्रम में जी रही है कि उसने जितनी किताबें लिखी हैं और उसमें जितना ज्ञान संग्रहित किया है, वैसा अन्य किसी जीव-जंतुओं के लिए प्रकृति ने ही संभव नहीं किया है। तदैव इस स्चरचित भाषा, परिभाषा और साहित्य तथा विज्ञान के दंभ में वर्तमान मानव समाज, अत्यंत जटिल प्रकृति तथा पर्यावरण क्षय के चक्रव्यूह में पूरी सभ्यता को फंसा चुका है।

किताबों के माध्यम से संकलित और संग्रहित ज्ञान को नर्सरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों तक पढ़ाया जाता है। इस ज्ञान के उपयोग से निश्चित ही मानव सभ्यता ने काफी भौतिक संरचनाओं एवं सुविधाओं को संभव भी किया है।

किताबों के ज्ञान से सृजित भौतिक विज्ञान भले ही हमें अनेकानेक प्रकार के दैहिक सुख प्रदान कर चुका है और कर रहा है और करता रहेगा, किन्तु प्रकृति पर प्रहार कर अर्जित किया जा रहा यह सुख ज्यादा दिनों तक स्थिर और सुखद नहीं रह सकता है।

पर यह भी कड़वा सच है कि पृथ्वी पर मनुष्य के अतिरिक्त जितने भी प्राणी, जीव या अजीव हैं, उन्हें अपने अस्तित्व के विकास तथा सुरक्षा के लिए किसी भी पुस्तक को पढ़ने या किसी भी लिपिबद्ध भाषा के माध्यम से किसी भी पाठशाला, विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय से किसी शिक्षक या प्राध्यापक से किसी भी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है।

प्रत्येक जीव को प्रकृति ने उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के सुरक्षित संचालन के लिए आहार, आवास, प्रजनन, आत्म सुरक्षा हेतु आवश्यक सम्पूर्ण ज्ञान, उन सबके गुण सूत्रों (जींस) में जन्म से ही प्रदत्त किया हुआ है। इसी कारण से तो हम देखते हैं कि कोई भी बया पक्षी अपने घोंसले के सुरक्षित निर्माण हेतु आवश्यक सुरक्षित टहनी के चयन से लेकर घोंसले के निर्माण हेतु उपयुक्त तंतुओ का भी सही चयन करती है और एक अत्यंत उत्कृष्ट डिजाइन के अनुरूप अपने घोंसले का निर्माण भी करती है।

इसी प्रकार हम किसी भी अन्य सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव जीव को लें, जैसे चींटी हो या दीमक हो या मधुमक्खी हो या अन्य कोई और भी जीव, तो हम पाते हैं कि प्रत्येक जीव को अपने जीवन के सफलतापूर्वक संचालन हेतु प्रकृति ने पूरी पद्धति और प्रक्रिया को जन्म से ही जन्म सिद्ध प्रशिक्षण दिया हुआ है।
इसी प्रकार आज की सभ्यता के पूर्व के आदि मानव को भी इस सभ्यता से पूर्व प्रकृति ने निश्चित रूप से अपने सुरक्षित जीवन संचालन के लिए समस्त ज्ञान तथा शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदाय किया होगा। तभी तो आज का होमियोसेपियन्स पृथ्वी पर लाखों वर्षों में जीवित रहकर, आदि मानव से आधुनिक मानव की यात्रा कर सका है।

किन्तु, यदि यह चिंतन किया जावे कि प्रकृति ने आदि मानव को अपने आत्म रक्षा तथा जीवन के लिए किस प्रकार के ज्ञान से सुसज्जित किया था और क्या वह ज्ञान आज भी हमारे जींस में है, तो ऐसा लगता है कि किताबी ज्ञान की या भाषा-परिभाषा की श्रेष्ठता के भ्रम में (जैसा प्रकृति प्रदत्त ज्ञान मनुष्य के अलावे अन्य प्राणियों में या वनस्पतियों में है) शायद वह आत्म ज्ञान मनुष्यों के जागृत मस्तिष्क में शेष नहीं बचा है। फिर भी पृथ्वी पर ऐसे मनीषियों की भी कमी नहीं है, जो शायद उस प्रकृति-पुरूष- परमात्मा कहे जाने वाले परमेश्वर माने जाने वाले रचयिता के द्वारा प्रदत्त जन्म सिद्ध ज्ञान के ज्ञान को रखते भी हों।

इस ज्ञान के सम्बन्ध में कोई विशेष ज्ञान भले ही हमें नहीं है, पर हम सभी यह नियमित देखते हैं कि प्रकृति ने हमारे शरीर में रोग-व्याधियों से लड़ने के लिए स्वाभाविक रोगरोधक क्षमता प्रदान की है, जिसे हम अपनी जागृत बुद्धि या दिमाग से संचालित नहीं करते, अपितु वह स्वतः संचालित होती है।
शरीर के करोड़ों कोशिकाओं का संचालन भी स्वतः होता है। एक ही प्रकार के तत्वों से बने शरीर की कोशिकाएं कहीं त्वचा बन कर शरीर की रक्षा करती हैं, तो कहीं पारदर्शी आंख की पुतलियां बन जाती हैं, तो कहीं बाल, तो कहीं नाखून, तो कहीं खून, तो कहीं हड्डियां, तो कहीं धमनियां और कहीं मांसपेशियां।

प्रकृति की कृति अद्भुत है। एक ही पक्षी के पंख में नाना प्रकार के भरे हुए रंगों का रासायनिक विश्लेषण भले ही एक हो, पर पंख में सामने से रंग कुछ और हैं तो पीछे से कुछ और दिखाई देते हैं। अस्तु कहने का भाव यह है कि किताबों के ज्ञान से सृजित भौतिक विज्ञान भले ही हमें अनेकानेक प्रकार के दैहिक सुख प्रदान कर चुका है और कर रहा है और करता रहेगा, किन्तु प्रकृति पर प्रहार कर अर्जित किया जा रहा यह सुख ज्यादा दिनों तक स्थिर और सुखद नहीं रह सकता है।

विडम्बना यह है कि वैज्ञानिक तकनीकी के भौतिक सिद्धि को सार्वजनिक सुख में परिवर्तित करने की संभावना पर आर्थिक बाजार का कब्जा है और इस कब्जे को विधि सम्मत बनाए रखने के लिए प्रत्येक देश के शासन, सरकार भी इस प्रकृति शोषण से जनित अर्थ का एक छोटा सा प्रतिशत टैक्स के रूप में पाकर ही प्रसन्न हैं। इसलिए प्रकृति तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य करना इस अर्थ प्रधान बाजारू युग में अत्यंत जोखिम भरा कार्य है। चूॅंकि प्रकृति, पर्यावरण संरक्षण के लगभग सभी कार्यों को सर्वाधिक गतिरोध अर्थतंत्र द्वारा संसाधनों के शोषण से संचालित तंत्र को अपने गति में गतिरोध प्रतीत होता है।

यही कारण है कि विश्व में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से प्राप्त सम्पन्नता के विरूद्ध प्रकृति संरक्षण के कार्य में निहित लोग अक्सर हार मान जाते हैं। इस अभियान पत्रिका के प्रकाशन के इस अंक से लगभग 27 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। पर जन-जागृति का जो ज्वार अभी तक पर्यावरण संरक्षण के लिए हमें पैदा कर सकना था, उसका हमें नितांत अभाव लगता है। तदैव वर्तमान में बढ़ते पर्यावरण संकट के समाधान के लिए नागरिक दायित्वों एवं कर्तव्यों के प्रति तेजी से जागृति पैदा कर ठोस कार्य करना जरूरी है। इसमें सर्वप्रथम उपभोग में नियंत्रण आवश्यक है।

  • ललित कुमार सिंघानिया