जंगल में खेती से कैसे रुकेगा जलवायु परिवर्तन

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अमरीका के मैसाचुसेट्स राज्य के रहने वाले योनो नीगर एक किसान हैं। वो एक नए तरह का तजुर्बा कर रहे हैं। उन्होंने कनेक्टिकट नदी के किनारे अपनी जमीन के टुकड़े पर अखरोट के पेड़ लगाए हैं। ये पेड़, छह बरस में फल देने लगेंगे। उन्होंने अपने अखरोट के बागान का नाम रखा है, बिग रिवर चेस्टनट्स।
एक जमाना था जब अमरीका में अखरोट के बागान बहुत हुआ करते थे। लेकिन, बीसवीं सदी की शुरुआत में हुई एक बीमारी की वजह से ये सारे बागान खत्म हो गए। अब, अमरीकी किसान एक बार फिर से अखरोट के बागान लगा रहे हैं। पर, योनो नीगर ने जब अखरोट के पेड़ लगाए, तो उनके सामने सवाल था कि अगले छह साल तक क्या करेंगे। उनके अखरोट के पेड़ों से आमदनी तो उसके बाद ही होगी। तब तक वो क्या करें?
इस सवाल के जवाब में नीगर ने खेती का नया चलन चलाया है। उन्होंने अखरोट के इस बागान के बीच में छोटे-छोटे पेड़ और झाड़ियां रोप दी हैं। जैसे कि पपीता, रसभरी और तेंदू। ये सभी फसलें अगले दो बरस में तैयार हो जाएंगी। इनसे नीगर को आमदनी होने लगेगी। नीगर ने इस बागान में मुर्गियों को भी पाल रखा है, ताकि जमीन से फौरी आमदनी भी होने लगे।
खेती का ये नया तरीका है। जिसे किसी जमीन में वन लगाने के साथ-साथ उसके नीचे आमदनी के लिए अन्य पौधे भी रोपे गए हैं। आज के दौर में आम तौर पर हम खेतों में एक ही फसल उगाते देखते हैं। जिनका उत्पादन रासायनिक उर्वरकों से बढ़ाया जाता है। किसान, पेड़ लगाने से बचते हैं। क्योंकि उनसे आमदनी होने में वक्त लगता है। इससे धरती को दोहरा नुकसान हो रहा है। एक तो जमीन की ऊपरी परत लगातार काश्त से कमजोर हो रही है। वहीं, खेती करने के लिए पेड़ भी काटे जा रहे हैं, जिनसे जलवायु परिवर्तन की रफ्तार तेज होती जा रही है।
इन्हीं चुनौतियों के जवाब में योनो नीगर जैसे किसान फारेस्ट फार्मिंग यानी वन में खेती जैसे तजुर्बे कर रहे हैं। जिस में बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे छोटे पौधे लगा कर जमीन से दोहरा लाभ कमाया जा रहा है। साथ ही, इससे वनों का दायरा भी बढ़ रहा है। नीगर कहते हैं कि, पेड़ ऐसी जगहों पर भी उगाए जा सकते हैं, जहां खेती नहीं हो सकती। जैसे की पहाड़ी इलाके। जहां पर भी खेती होती है। लंबे समय तक जुताई-बुवाई से मिट्टी कमजोर हो जाती है। इनकी जगह हम पेड़ लगाएं, तो मिट्टी को मजबूती मिलती है और पेड़, हवा से कार्बन भी सोखते हैं। इससे हमारी खाद्य व्यवस्था में विविधता भी आती है।
एक जमाने में अमरीका में चेस्टनट या अखरोट के इतने पेड़ होते थे कि इनका आटा पिसा कर खाया जाता था। हालांकि, अब अखरोट, मक्के या गेहूं की जगह तो नहीं ले सकते। लेकिन, ये कार्बोहाइड्रेट के बड़े स्रोत हैं। हम इन्हें अपने रोजमर्रा के खान-पान का हिस्सा बना सके हैं। योनो नीगर कहते हैं कि, चेस्टनट लगाने का मतलब है कि हम पेड़ पर अनाज उगा रहे हैं।
यूं तो इंसान हजारों साल से पेड़ों के नीचे खेती करता आया है। कभी खेतों में पेड़ लगा कर। या फिर मौजूदा जंगलों के नीचे जड़ी-बूटी उगा कर या साए में उगने वाले पौधे लगा कर एग्रोफारेस्ट्री यानी वनों में खेती की जाती रही है। जैसे कि इंग्लैंड में एक जमाने में खेतो के किनारे किनारे झाड़ियां उगाई जाती थीं। नसे कई फायदे होते थे। ये कई जानवरों की प्रजातियों को आसरा देती थीं। और खेतों की हिफाजत के भी काम आती हैं।
जो नुस्खा अमरीका के योनो नीगर अपना रहे हैं, उससे कई फायदे हो सकते हैं। हमारी खाद्य व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव आ सकते हैं। इससे जैव विविधता आ सकती है। पेड़ों को काटने से बचाया जा सकता है। साएदार इलाकों में अलग-अलग तरह के पौधे, जैसे मशरूम या आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां उगा कर किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है।
कहने का मतलब ये कि खेती के लिए मौजूदा जंगलों को काटने के बजाय उन पेड़ों के नीचे ही आमदनी के वैकल्पिक संसाधन उगाए जा सकते हैं। इससे पेड़ों का भी संरक्षण होगा और किसानों को कमाई के नए अवसर भी मिलेंगे।
फारेस्ट फार्मिग से ऐसी प्रजातियों को भी बचाया जा सकता है, जो जंगलों में ही पैदा होती हैं। लेकिन, जंगलों की लगातर कटाई से उनके विलुप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है।
विकासशील देशों के लिए तो ये नुस्खा और कारगर हो सकता है। जैसे कि मध्य अमरीकी देश ग्वाटेमाला में स्थानीय समुदाय के लोग ताड़ के जंगलों के बीच रैमन नट उगा रहे हैं। इनके लिए उन्हें आश्चर्यजनक तरीके से बाजार भी मिल गया है।
ग्वाटेमाला में इस प्रोजेक्ट से जुड़े अमरीकी रिसर्चर डीन करेंट कहते हैं कि, स्थानीय लोग जंगलों में शहद, मशरूम और अन्य हर्बल पौधे उगा कर अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं। वो तरह-तरह के पौधे लगा कर प्रयोग कर सकते हैं। एक नहीं कारगर होता, तो दूसरे पौधे को आजमाया जा सकता है।
कई फायदों के बावजूद जंगलों के साथ खेती की परंपरा को मध्य युग से ही काफी नुकसान पहुंचा है। उन्नीसवीं सदी में रासायनिक खाद की ईजाद के बाद से जंगलों और खेतों के बीच बड़ा फर्क पैदा हो गया। ज्यादा अनाज उगाने के लिए बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए। ब्रिटेन में 1947 से अब तक ग्रामीण इलाकों की आधी झाड़ियां साफ हो चुकी हैं। आज दुनिया के ज्यादातर किसान खेती और जंगल उगाने को अलग-अलग कर के देखते हैं।
लेकिन, योनो नीगर जैसे किसान अब फारेस्ट फार्मिंग की सदियों पुरानी परंपरा को फिर से जिंदा कर रहे हैं। यूरोपीय यूनियन के एक अध्ययन के अनुसार, यूरोप में इस समय करीब 33 लाख हेक्टेयर जमीन पर फारेस्ट फार्मिंग हो रही है। खास तौर से स्पेन, पुर्तगाल और साइप्रस में। ब्रिटेन में भी कई किसान इस में दिलचस्पी दिखा रहे हैं। खेतों और पेड़ों का मेल करा कर दुनिया में खाद्यान्न सुरक्षा के स्तर को बढ़ाया जा सकता है। इससे जमीन भी अधिक इस्तेमाल से खराब नहीं होगी।
अब जबकि जलवायु परिवर्तन के साथ बेवक्त की बरसात और सूखा पड़ रहा है। तो, पेड़ ही हमें ऐसी मुश्किल से बचा सकते हैं। क्योंकि, खेती के बनिस्बत, पेड़ों पर बेवक्त के मौसम का बुरा असर कम पड़ता है। और इससे खान-पान में भी विविधता आएगी। जंगलों में खेती करने वालों ने पेड़ों के साए तले एक अवसर अपने लिए तलाशा है। जहां पर मशरूम, नट, जड़ी-बूटी और अन्य पौधे उगाए जा सकते हैं।
अंशिता सिंह

कहानी आलू की और यह क्यों है जरूरी

एक सदी पहले, आलू में लगी एक बीमारी ने कुछ ही साल में आयरलैंड की आधी आबादी खघ्त्म कर दी थी। आज चीन, भारत, रूस और यूक्रेन आलू के प्रमुख उत्पादक हैं।
आलू के साथ इन देशों के अंतरंग और जटिल संबंध हैं। लेकिन इनमें से कोई भी आलू को मूल रूप से अपना नहीं कह सकते।
8,000 साल पहले दक्षिण अमरीका के एंडीज में आलू की खेती शुरू की गई थी। 1500 के बाद इसे यूरोप लाया गया, जहां से यह पश्चिम और उत्तर की ओर फैला और फिर से अमरीका पहुंचा।
आलू की कहानी
खाद्य इतिहासकार रेबेका अर्ल कहती हैं, आलू दुनिया भर में होता है और सभी लोग इसे अपना समझते हैं। वो इसे दुनिया का सबसे सफल प्रवासी मानती हैं। किसान और ग्राहक, कोई भी इसकी उत्पत्ति की जगह पर ध्यान नहीं देता। अमरीका में इदाहो के किसान और ग्नोची के दीवाने इटली के लोग आलू पर उतना ही दावा करते हैं जितना पेरू के लोग। आलू की कहानी किसी एक देश या भौगोलिक क्षेत्र की नहीं है। इसकी कहानी बताती है कि पिछली कुछ पीढ़ियों में इंसान ने जमीन और खाने के साथ अपना रिश्ता कैसे बदला है।
आलू कितना जरूरी?
चावल, गेहूं और मक्का के बाद आलू दुनिया की चौथी सबसे अहम फसल है। गैर-अनाजों में इसका पहला नंबर है। आलू की कामयाबी के पीछे है इसकी पौष्टिकता, खेती में आसानी और जमीन में छिपे रहने की वजह से युद्धों में इसकी सुरक्षा।
आलू की उत्पत्ति को समझने की एक सही जगह है इंटरनेशनल पोटैटो सेंटर (CIP), जहां आलू से जुड़े तमाम तरह के शोध होते हैं। पेरू की राजधानी लीमा के एक उपनगर में बनाए गए इस केंद्र में हजारों तरह के आलू के नमूने मिलते हैं। CIPजीन बैंक के सीनियर क्यूरेटर रेने गोमेज कहते हैं, चिली से लेकर संयुक्त राज्य अमरीका तक आलू कहीं भी मिल जाएगा लेकिन इसकी आनुवंशिक विविधता एंडीज में ही मिलती है।
आलू की खेती सबसे पहले लीमा से करीब 1,000 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में टिटिकाका लेक के पास शुरू हुई थी।

आलू जल्द ही पहाड़ों पर रहने वाले इंका सहित स्वदेशी समुदायों का अहम खाना बन गया। आलू को फ्रीज करके और सुखाकर बनाया जाने वाला चूनो कई साल तक या कभी-कभी दशकों तक चल जाता था।
अमरीका से बाहर
1532 में स्पेन के आक्रमण ने इंका को खत्म कर दिया लेकिन आलू की खेती खत्म नहीं हुई। स्पेन के लोग इसे अटलांटिक के पार ले गए, जैसे वे टमाटर, एवेकाडो और मक्का ले गए थे। इतिहासकार इसे दि ग्रेट कोलंबियन एक्सचेंज कहते हैं। इतिहास में पहली बार आलू अमरीका से बाहर गया।
एंडीज से लाई गई शुरुआती किस्मों को स्पेन और यूरोप के मुख्य हिस्से में उगाना आसान नहीं रहा। आनुवंशिकी के वैज्ञानिक हर्नन ए. बर्बानो का कहना है कि एंडीज में आलू के पौधों को दिन में 12 घंटे सूरज की रोशनी मिलती थी यूरोप में गर्मी के लंबे दिनों ने आलू के पौधों को भ्रमित कर दिया और गर्म महीनों में वे बढ़ नहीं पाए। पतझड़ और बर्फीले मौसम में आलू के पौधों का जिंदा रहना भी मुश्किल था। यूरोप में आलू की खेती का पहला दशक नाकामयाब रहा।
आयरलैंड में आलू को बेहतर मौसम मिला। यहां के ठंडे लेकिन बर्फ-रहित मौसम में फसल तैयार होने का पर्याप्त समय मिला। किसानों ने यहां आलू की ऐसी किस्म तैयार की जो गर्मियों की शुरुआत में तैयार हो जाती थी। यहीं से आलू किसानों की प्रमुख फसल बन गया।
पौष्टिक खाना
किसानों ने आलू को अहमियत दी क्योंकि प्रति हेक्टेयर उनको बेजोड़ पौष्टिकता मिलती थी। आयरलैंड में किराये की जमीन पर खेती होती थी और जमीन मालिकों ने किराया बढ़ा दिया था। किसान ऐसी फसल लेने को मजबूर थे जो कम जमीन में ज्यादा पैदावार दे। समाजशास्त्री जेम्स लैंग के मुताबिक प्रति एकड़ जमीन में आलू से ज्यादा पैदावार किसी और फसल की नहीं थी। इसमें मेहनत कम थी और फसल को रखना आसान था।
विटामिन ए और डी को छोडकर आलू में सभी प्रमुख विटामिन और पोषक तत्व मिलते हैं। जीवन बचाने की जो खूबी आलू में है वह किसी और फसल में नहीं। छिलके वाले आलू के साथ दूध के कुछ उत्पादों को मिला दें तो स्वस्थ मानव आहार तैयार होता है। आलू के हर 100 ग्राम में दो ग्राम प्रोटीन मिलता है।
16वीं सदी के आयरलैंड में उपभोग के कुछ अनुमानों पर यकीन करें तो प्रति वयस्क प्रति दिन 5.5 किलो आलू की आपूर्ति थी। 17वीं और 18वीं सदी में एक एकड़ जमीन पर आलू की खेती और एक गाय के दूध से 6 से 8 लोगों के परिवार को पूरे साल का भोजन मिल जाता था। किसी भी दूसरी फसल से यह संभव नहीं था। आयरलैंड और ब्रिटेन के किसानों का आलू से अटूट नाता बन गया।
ब्रिटिश द्वीपों से आलू पूरब की ओर बढ़ा और उत्तरी यूरोप तक फैल गया। 1650 तक आलू बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्जमबर्ग तक पहुंच गया। 1740 तक वह जर्मनी, प्रूशिया और पोलैंड तक और 1840 तक रूस पहुंच गया। किसानों ने अपने-अपने देश की जलवायु के हिसाब से किस्में छांटीं और आलू फलता-फूलता गया।
आलू के फायदे
आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध और (इंग्लैंड-फ्रांस) सात साल के युद्ध के दौरान किसानों को आलू में एक और फायदा दिखा। इस पर टैक्स लगाना और इसे युद्ध में नष्ट करना मुश्किल था। अर्ल कहती हैं, गेहूं की खड़ी फसल को छिपाया नहीं जा सकता।
टैक्स अधिकारी खेत का आकार और फसल देखकर टैक्स अनुमान लगाते थे और फसल तैयार होने पर वसूली के लिए आ जाते थे। लेकिन भूमिगत आलू में यह संभव नहीं था। जरूरत होने पर उसे धीरे-धीरे निकाला जा सकता है। लैंग ने लिखा है, इस तरह की कटाई फसल को टैक्स अधिकारियों से छिपाकर रखती है और युद्ध के समय किसानों की खाद्य आपूर्ति बचाकर रखती है। लूटमार करने वाले सैनिक अनाज के गोदामों पर धावा बोलते हैं, लेकिन वे खेत खोदकर फसल नहीं निकालते।
कुलीनों और सैन्य रणनीतिकारों ने यह खूबी पहचान ली थी। प्रूशिया के राजा फ्रेडरिक ने आलू की खेती करने के निर्देश बँटवाए थे। वह चाहते थे कि आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध में अगर दुश्मन सेनाएं हमला करती हैं तो किसानों के पास खाना रहे। दूसरे देशों ने भी ऐसा किया। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर एसोसिएशन (थ्व्।) के मुताबिक 1800 के दशक की शुरुआत में नेपोलियन कालीन युद्ध शुरू होने तक आलू यूरोप का सुरक्षित आहार बन गया था।
इतिहासकार विलियम मैकनील के मुताबिक 1560 के बाद यूरोप में जितने भी युद्ध हुए उनके बाद आलू का रकबा बढ़ता गया। इनमें दो विश्व युद्ध भी शामिल हैं।
पोषण और ताकत
खाद्य इतिहासकारों का मत है कि आलू के पोषक गुणों ने पारंपरिक लोगों को इसे अपनाने के लिए प्रेरित किया। अर्ल का तर्क है कि यूरोप में किसानों ने आलू को अपनाया। उनको किसी तरह से मनाने की जरूरत नहीं पड़ी। कुलीनों ने कोई नई फसल ईजाद नहीं की थी। उनको बस ये पता था कि सेहतमंद खाना क्या था।
यूरोपीय खाने में कोई सुपरफूड पेश करने की बजाय उन्होंने पोषण पर ध्यान दिया। आलू इसमें पूरी तरह फिट था। 18वीं सदी में देश की आबादी की सेहत को राज्य की ताकत के राजनीतिक नजरिये से देखा गया जिसने आलू की किस्मत बदल दी। तंदुरुस्त और ताकतवर लोग औद्योगिक उत्पादन और सैन्य शक्ति के लिए अहम थे और राज्य को यह समझना था कि उनके खाने में पोषक तत्वों को कैसे संतुलित किया जाए।
अर्ल का कहना है कि भोजन और राज्य के बीच संबंध के बारे में यूरोपीय विचारों से आलू का आकर्षण बढ़ा। इस मामले में आलू बेजोड़ था। दि वेल्थ आफ नेशन्स में एडम स्मिथ ने लिखा था, आलू के खेतों में पैदा होने वाला खाना गेहूं के खेतों में पैदा होने वाले खाने से कहीं ज्यादा अच्छा है। कोई भी खाना पौष्टिकता और इंसान की सेहत के लिए उपयुक्त होने के बारे में इससे निर्णायक प्रमाण नहीं दे सकता। स्मिथ ने आलू की खूबियों को सही पहचाना था, लेकिन यूरोप के खेतों और बगानों को आलू से भरने का काम किसानों ने किया था, कुलीन वर्ग ने नहीं।
सवाल है कि 18वीं सदी में स्मिथ और उनके समकालीनों ने पौष्टिकता को कैसे मापा होगा? वारविक यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग की विभागाध्यक्ष रेबेका अर्ल का कहना है कि उन दिनों तक वैज्ञानिक विटामिन, प्रोटीन और खनिजों की भाषा पर सहमत नहीं हुए थे। इसकी जगह वे कहते थे, उनको देखो जो आलू खाते हैं। वे अधिक मजबूत हैं। दूसरी चीजें खाने वालों की बनिस्पत वे अधिक ऊर्जावान हैं।
आलू के प्रशंसक गलत नहीं थे। 1700 के बाद पैदा हुए फ्रांसीसी सैनिकों के मिलिट्री रिकार्ड्स से पता चला कि आलू खाने से लोग थोड़े लंबे हो गए थे। जो गांव आलू की पैदावार के लिए उपयुक्त थे, वहां इसकी खेती ने वयस्कों की लंबाई औसतन करीब आधे ईंच बढ़ा दी। यह भी दावा किया जाता है कि आलू के विस्तार के बाद यूरोप और एशिया में जनसंख्या विस्फोट हुआ। 1700 से 1900 के बीच दुनिया की आबादी में हुई करीब एक-चौथाई बढ़ोतरी और शहरीकरण आलू के कारण हुआ। मैकनील ने लिखा है, तेजी से बढ़ती आबादी का पेट भरकर आलू ने 1750 से 1950 के बीच कुछ यूरोपीय देशों को बाकी दुनिया पर प्रभुत्व जमाने में मदद की।
एंडीज में वापस
1845 से 1849 के बीच आयरलैंड में पड़े भीषण अकाल ने आलू की रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया। फसल खराब होने और लंदन की सरकार की अनदेखी के कारण 10 लाख लोग मारे गए। करीब 10 लाख लोग अमरीका पलायन कर गए और 20 लाख लोग दूसरी जगह चले गए। कुछ ही दशकों में आयरलैंड की आबादी आधी हो गई।
अकाल के बाद देखा गया कि आलू से देश में 80 फीसदी कैलोरी की आपूर्ति थी जबकि इसकी कुछ किस्में ही उपलब्ध थीं। आनुवंशिक विविधता खत्म होने से आलू में बीमारियां लगने का खतरा बहुत बढ़ गया था। 1750 के दशक में यूरोप में कुछ किस्मों का मिश्रण हो चुका था।
बर्बानो उस टीम का हिस्सा थे जिसने यूरोपीय आलुओं के जीन्स का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला था कि एंडीज की प्राचीन किस्मों को दक्षिण-मध्य चिली से लाई गई किस्मों से मिलाया गया था।

ये आलू दक्षिणी गोलार्ध पर होने वाले लंबे दिनों के अनुकूल थे। कृषि वैज्ञानिक पिछले कई साल से आलू किसानों के लिए खाद्य सुरक्षा बेहतर करने के तरीके ढूंढ़ रहे हैं। प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने के लिए वैज्ञानिकों ने जंगली किस्मों को भी देखा। बर्बानो उन प्रजातियों की ओर इशारा करते हैं जो एंडीज की पहाड़ी श्रृंखलाओं में अब भी मिलती हैं।
वहां आलू की कुल 151 किस्में ज्ञात हैं। वे सदियों से इंसान की भूख मिटाते-मिटाते आनुवंशिक विविधता खो देने वाले आलुओं के पूर्वज हैं। 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में वैज्ञानिकों ने मुख्यधारा के आलुओं के जीन्स को जंगली आलुओं के साथ मिलाना शुरू किया। वे पैदावार भी बढ़िया रखना चाहते थे, साथ ही प्रतिरोधी क्षमता भी सुधारना चाहते थे। आज उगने वाले ज्यादातर आलू ऐसे ही परीक्षणों के परिणाम हैं।
जलवायु परिवर्तन
हाल के अध्ययन से पता चला है कि कार्बन का उत्सर्जन बढ़ने से 2085 ईस्वी तक आलू की वैश्विक पैदावार में 26 फीसदी की कमी आ सकती है। जंगली प्रजातियों के आनुवांशिक गुण ठंड, सूखा या तापमान में बढ़ोतरी जैसे हालात का सामना करने में सहायक हो सकते हैं।
यूरोप, अमरीका और एशिया के वैज्ञानिक वर्षों से ऐसे प्रतिरोधी क्षमता वाले आलू विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। इन्हीं प्रयासों का फल है कि 20वीं सदी में आलू सच्चे मायनों में वैश्विक फसल बना।
दुनिया के 20 सबसे बड़े आलू उत्पादकों में से केवल तीन (संयुक्त राज्य अमरीका, पेरू और ब्राजील) ही उस ऐतिहासिक श्रृंखला से जुड़े हैं। लेकिन हर देश इससे अपना संबंध बना रहे हैं। चीन सरकार आलू को आक्रामक रूप से बढ़ावा दे रही है। वह इसे प्रमुख फसल और प्रमुख भोजन बनाना चाहती है।
चीन के नेता 18वीं सदी के यूरोपीय कुलीन वर्ग की रणनीति अपना रहे हैं। वे सरकार के स्वामित्व वाली मीडिया, लोकप्रिय शख्सियतों और विज्ञान की लोकप्रिय पुस्तकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत में आलू सैकड़ों तरह से तैयार किए जाते हैं और किसान यह मानने को तैयार नहीं होते कि यह स्थानीय फसल नहीं है।
राष्ट्रीय गौरव
आलू को लेकर पेरू और चिली में एक होड़ भी मची है। दोनों देश आलू पर अपना दावा पेश करते हैं। पेरू का दावा है कि आलू की खेती सबसे पहले वहीं शुरू हुई। चिली के एक मंत्री ने 2008 में दावा किया था कि दुनिया में आलू की जितनी भी किस्में हैं उनमें से ज्यादातर चिली की हैं।
इंटरनेशनल पोटैटो सेंटर के रिसर्चर चार्ल्स क्रिसमैन ने 2008 में न्यूयार्क टाइम्स में छपे के एक लेख में लिखा था, हजार साल पहले राष्ट्रीय-राज्यों की अवधारणा से पहले आलू की कहानी शुरू हो गई थी। लेकिन आलू की खेती सबसे पहले उस जगह शुरू हुई थी जहां आज का पेरू है।
पेरू ने 1971 में इंटरनेशनल पोटैटो सेंटर बनाया और पहाड़ों पर रहने वाले स्वदेशी समुदायों के साथ मिलकर आलू की आनुवंशिक विरासत को संरक्षित किया। पेरू के एंडीज पहाड़ों पर कुस्को के पोटैटो पार्क में आलू का एक जिंदा संग्रहालय है। यहां का प्राकृतिक वातावरण याद दिलाता है कि आलू कहां से आया और यह कहां जा सकता है। जिन किस्मों की खेती नहीं होती, उनके आनुवंशिक गुण इसके आगे का रास्ता तैयार कर सकते हैं, क्योंकि वे जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने में सक्षम हैं। कुस्को से दो घंटे की दूरी पर आलू के वर्तमान और भविष्य की नई तस्वीर दिखती है।
12 हजार फीट की ऊंचाई पर बने मिल रेस्तरां में आप पेरू के आलू की लगभग 5,000 प्रजातियों को चख सकते हैं। फिर भी कुछ चीजें एंडीज के इन पहाड़ों पर नहीं मिलतीं। क्या वह भारतीय करी है? ईस्ट लंदन के पब में मिलने वाली मछली और चिप्स है? इदाहो के ओवन में ताजा ताजा निकलने वाला बेक्ड पोटैटो है?
भाव्या सिंह

असली सोना तो देश की मिट्टी है

प्रायः सभी देषों की खनिज संपदा को उसकी प्रमुख संपत्ति के रूप में प्रचारित किया जाता है। जिस देष में अधिक सोना, चांदी, हीरे मिले उसे सबसे समृद्ध मानते हैं। आधुनिक समय में जहां तेल व गैस और ‘रेयर अर्थ’ वाले दुर्लभ खनिज मिलें तो उन्हें ‘सोना’ माना जाता है। पर यदि किसी देष की सबसे बड़ी वास्तविक संपदा की पहचान करनी है, तो यह उसकी उपजाऊ मिट्टी है। उपजाऊ मिट्टी बनी रहेगी, तो टिकाऊ खाद्य सुरक्षा भी बनी रहेगी।
हाल में वैज्ञानिकों ने बताया है कि मिट्टी की उत्पादकता टिकाऊ बनाए रखने के कृषि के जो तौर-तरीके हैं, वे ही ग्रीनहाऊस गैसों को कम रखने व इस तरह जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में भी बेहद सहायक हैं। इस तरह मिट्टी की उत्पादकता बनाए रखने वाली कृषि का महत्व और बढ़ गया है।
चूंकि मिट्टी हमारे चारों ओर प्रचुर मात्रा में बिखरी हुई है अतः हमें इसकी कोई चिन्ता नहीं होती। हम यह भूल जाते हैं कि इसकी गुणवत्ता में जो कमी आ रही है, वह नजर नहीं आती पर उससे हमारी अर्थव्यवस्था, करोड़ों लोगों की आजीविका व खाद्य उपलब्धि सब गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं। मिट्टी का अपना जीवन है, उसमें असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओं का निवास है, जल-ग्रहण करने और वायु के संचार की व्यवस्था है और अनेक तरह के पोषक तत्वों के जरिए पेड़-पौधों को संतुलित रूप में देने की क्षमता है। जब यह पूरी व्यवस्था टूटती है तो भूमि की उर्वरता नष्ट होती है। बाहर से तो वही मिट्टी नजर आती है पर उसकी जीवनदायिनी क्षमता बहुत कम हो जाती है।
जो चीज बहुमूल्य होती है, उसके संरक्षण और रखरखाव पर ध्यान देने की जरूरत भी उतनी ही ज्यादा होती है। हमारी वर्षा व जलवायु की स्थिति ऐसी है कि मिट्टी के कटाव की संभावना अधिक है। पिछली लगभग दो शताब्दियों में वनों का विनाष व कटान बहुत बड़े पैमाने पर हुआ है। साथ ही औपनिवेषिक शासन द्वारा लाई गई विकृतियों से जलसंग्रह व संरक्षण की परंपरागत व्यवस्थाओं को बहुत धक्का पहुंचा है। इन दोनों वजहों से मिट्टी के उपजाऊपन को बहुत क्षति पहुंची है। पिछले पांच-छः दषकों में एक अन्य बड़ी गलती हमने यह की है कि मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने के अनुकूल खेती के जो तौर-तरीके बहुत समय से चल रहे थे, उन्हें छोड़कर औद्योगिक रसायनों के भारी उपयोग की ऐसी तकनीकें अपनाई हैं, जो मिट्टी के उपजाऊपन के लिए और हानिकारक सिद्ध हुई।
फसलों को जिन विभिन्न पोषक तत्वों की, कुछ की अधिक और कुछ की सूक्ष्म मात्रा में जरूरत होती है, उन्हें उपलब्ध करवाने के लिए प्रकृति की अपनी व्यवस्था है। हमारे पूर्वज किसान आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली के ये नाम तो नहीं जानते थे कि इतना नाइट्रोजन चाहिए, इतना फास्फोरस या इतने सूक्ष्म तत्व, पर अपने कई पीढ़ियों के संचित अनुभव से उन्होंने यह सीख लिया था कि इन पोषक तत्वों को संतुलित मात्रा में उपलब्ध करवाने के लिए कौन से उपाय जरूरी हैं।
मसलन-दलहनी फसलों में वायुमंडल से नाइट्रोजन निषुल्क प्राप्त करने की अद्भुत क्षमता है तो किसान फसल-चक्र या मिश्रित खेती में इन फसलों पर समुचित ध्यान देते रहे हैं। अलग-अलग गहराई की जड़ें मिट्टी की विभिन्न तहों से पोषण प्राप्त करती हैं, ताकि एक ही तरह का अधिक दोहन न हो।
मिश्रित खेती की फसल चुनने या फसल चक्र को चुनने में इस बात का ध्यान रखा जाता था। इससे फायदा यह हुआ कि एक फसल ने नाइट्रोजन प्राप्त की तो दूसरी ने नाइट्रोजन उपलब्ध करवा दी। इस तरह लगभग चार हजार वर्षों से देष में खेती होती रही व इन फसलों का पोषण करने की मिट्टी की क्षमता भी बनी रही।
दूसरी बात हमारे किसानों ने यह सीख ली थी कि पषुओं के गोबर, फसलों के अवषेष, पत्तियों आदि का भरपूर उपयोग मिट्टी की उत्पादकता को बनाए रखने के लिए किया जाए। यहाँ तक कि अपने पषुओं का गोबर कम पड़ता था तो अनेक स्थानों पर घुमंतु पषुपालकों को बड़े मान-सम्मान के साथ निमंत्रण दिया जाता था कि वे फसल कटने के बाद खाली पड़े खेतों पर पषुओं को रहने दें ताकि उनके मल-मूत्र से भूमि को अनेक पोषक तत्व मिल सकें।
इन गुत्थियों को वैज्ञानिक आज तक सुलझा रहे हैं कि विभिन्न तरह के इन अपषिष्ट पदार्थों के मिट्टी में मिल जाने से किन प्रक्रियाओं से ऐसे विभिन्न पोषक तत्व बनते हैं जो पौधों के लिए जरूरी है? हमारे किसानों ने इनके महत्व को अपने अनुभव के आधार पर बखूबी समझ लिया था और इनका उचित उपयोग किया था। इससे एक ओर तो प्रदूषण व गंदगी की समस्या से हमारे गांवों को राहत मिली व दूसरी ओर मिट्टी की उत्पादकता बनी रही।
पिछले पांच-छः दषकों में जिस रसायन आधारित खेती की तकनीक का बहुत जोर-षोर से प्रचार किया गया, वह प्रकृति की पोषक तत्वों को उपलब्ध करवाने वाली व्यवस्था को बहुत अस्त-व्यस्त करती है।
उदाहरण के लिए मिट्टी की जल- धारण क्षमता बढ़ाने, वायु संचार के लिए इसे भुरभुरा बनाने व उसे अनेक पोषक तत्व उपलब्ध करवाने का बहुमूल्य कार्य केंचुए करते हैं, वे इन रसायनों के असर से बड़े पैमाने पर मर जाते हैं। इसी तरह अनेक अन्य उपयोगी सूक्ष्म जीवाणु व वनस्पतियां जो अनेक जटिल प्रक्रियाओं से मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने में बहुत सहायता करते हैं, नष्ट हो जाते हैं। इनमें नाइट्रोजन की व्यवस्था करने वाले जीवाणु भी हैं।
किसान के मित्र अनेक कीटों व जीवों, जैसे-मधुमक्खी, तितली व मेंढक आदि पर इन रसायनों का प्रतिकूल असर पड़ा है। रसायनों के अधिक उपयोग से आसपास के जलस्रोतों व भूजल प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है व मिट्टी के कटाव की समस्या, जो पहले ही गंभीर है, और बढ़ी है। रासायनिक खाद के उपयोग से मिट्टी की अम्लीयता भी बढ़ती है।
ऐसी बदहाल परिस्थिति को सुधारने के लिए कृषि अनुसंधान के प्रति हमारा एक अलग नजरिया होना चाहिए। यानि हम प्रकृति की प्रक्रियाओं को ही बहुत अच्छी तरह से जानने-समझने का प्रयास करें ताकि पता चले कि किस तरह प्रकृति मिट्टी की उत्पादकता बनाती-बढाती है और पौधों को विभिन्न पोषण तत्व उपलब्ध करवाती है। इस प्रक्रिया की अपनी समझ बनाने के बाद हम अपनी खेती को प्रकृति की इस प्रक्रिया से जोड़कर ही चलें और उसमें व्यवधान डालने वाला कोई कार्य न करें। वास्तविक वैज्ञानिक प्रक्रिया तो यही है जो किसानों की दृष्टि से सबसे सस्ती व टिकाऊ सिद्ध होगी। इस विधि में विभिन्न जीवाणु, केंचुए, वनस्पतियाँ, मधुमक्खियां, मेंढ़क आदि जीव-जन्तु अपने आप मिट्टी के उपजाऊपन को बढ़ाने और कीड़ों से रक्षा करने का कार्य करेंगे।
रसायनों से की जाने वाली खेती में एक समस्या ठीक की जाती है तो कोई दूसरी समस्या उत्पन्न हो जाती है। कभी एक पोषक तत्व की कमी होती है तो कभी उसी की अधिकता हो जाती है और कभी विभिन्न पोषक तत्वों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। कभी किसी सूक्ष्म पोषक तत्व की कमी हो जाती है तो कभी दूसरे की।
अलग-अलग सूक्ष्म तत्वों के लिए अलग-अलग कृत्रिम खाद डालने के लिए किसान को कहा जाता है। सब जानते हैं कि मिट्टी में अनेक सूक्ष्म पोषक तत्व हैं और बारी-बारी से उन्हें कृत्रिम रसायनों की मार्फत देना आखिर किसान पर कितना आर्थिक बोझ डालते हैं? इसे सहने की किसान की सीमित क्षमता है।
सबसे उचित यही रहेगा कि प्रकृति द्वारा संतुलित पोषक तत्व उपलब्ध करवाने की जो व्यवस्था है, उसी को अच्छी तरह समझा जाए व उसके अनुकूल कृषि कार्य किए जाएं। यदि कृषि अनुसंधान को इस रूप में विकसित किया जाए, तो हमारे देष का हर किसान इसमें भागीदार बन सकेगा और उत्पादक मिट्टी भी बची रहेगी।
भारत डोगरा