भारत विश्व में सबसे तेजी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। देश के कुल निर्यात व्यापार में कृषि उत्पादित वस्तुओं का प्रतिशत काफ़ी अधिक रहता है। राष्ट्रीय आय में 14.8 प्रतिशत के योगदान के साथ-साथ कृषि देश की 65 प्रतिशत आबादी को रोजगार व आजीविका भी प्रदान करती है। भारत में कृषि सिंधु घाटी सभ्यता के दौर से की जाती रही है। 1960 के बाद कृषि के क्षेत्र में हरित क्रांति के साथ नया दौर आया। मानव ने व्यवस्थित जीवन जीना शूरू किया और कृषि के लिए औजार तथा तकनीकें विकसित कर लीं।
दोहरा मानसून होने के कारण एक ही वर्ष में दो फसलें उगाई जाने लगीं। इसके फलस्वरूप भारतीय कृषि उत्पाद तत्कालीन वाणिज्य व्यवस्था के द्वारा विश्व बाजार में पहुँचना शुरू हो गया। आज भारत की जनसंख्या लगभग 138 करोड़ हो गई है। ग्रामीण आजीविका मिशन अंतर्गत 69.8 स्वयं सहायता समूह का गठन कर महिलाओं को महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना के तहत वैज्ञानिक तकनीक से उन्नत बीज का उपयोग कर खेती करने के लिए जागरूक किया जा रहा है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों की आय में बढ़ोतरी हुई है।
सन् 2007 में भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि एवं वानिकी जैसे कार्यों का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा 16.6% था। भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग 51 फीसदी भाग पर कृषि, 4 फ़ीसदी पर पर चरागाह, लगभग 21 फीसदी पर वन और 24 फीसदी बंजर और बिना उपयोग की है।
भारत की कृषि प्रधानता में चावल तथा गेहूँ की मुख्य भूमिका है। भारत में चावल उत्पादन का सबसे बड़ा राज्य पश्चिम बंगाल है। इसके बाद क्रमशः उत्तर प्रदेश व आंध्र प्रदेश का नाम आता है। अकेला पश्चिम बंगाल राज्य प्रतिवर्ष डेढ़ करोड़ मीट्रिक टन चावल का उत्पादन करता है। भारत के राज्यों पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश/तेलंगाना सहित पंजाब, बिहार, हरियाणा, उड़ीसा, तमिलनाडु आदि द्वारा उगाया जाने वाला कुल चावल विश्वभर के चावल उत्पादन का 20ः होता है।
विश्व में चावल का कुल वार्षिक उत्पादन 70 करोड़ मीट्रिक टन है। जिसमें 5 या 10 करोड़ टन कम ज्यादा प्रत्येक वर्ष होता रहता है। भारत में 36.95 मिलियन हेक्टेयर में धान की खेती होती है। छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है, इस कटोरो में सबसे ज्यादा धान धमतरी से आता है, क्योंकि यहां साल में दो बार धान की खेती होती है।
भारत में ‘‘श्री विधि’’ विकास, फ्रांसीसी पादरी फादर हेनरी डे लाउलानी द्वारा 1980 के दशक की शुरुआत में मेडागास्कर में विकसित किया गया। वस्तुतः एसआरआई का विकास दो दशकों में हुआ है, जिसमें 15 वर्षों तक मेडागास्कर में जांच, प्रयोग एवं नियंत्रण एवं अगले छः वर्षों में तेजी से 21 देशों में प्रसार हुआ। अपहाफ एवं उनके संगठन ने इसे 21वीं सदी में किसानों की जरूरतों का जवाब बताते हुए 1997 से अन्य देशों में प्रसार शुरू किया।
भारत में व्यवहारिक तौर पर प्रयोग 2002-03 में प्रारम्भ हुआ एवं इसके बाद तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ एवं गुजरात में ‘‘श्री पद्धति“ को व्यवहार में लाया गया। अतंर्राष्ट्रीय धान वर्ष 2004 ने धान को केन्द्र बिंदु मानकर कृषि, खाद्य सुरक्षा, पोषण, कृषि जैव विविधता, पर्यावरण, संस्कृति, आर्थिकी, विज्ञान, लिंगभेद और रोजगार के परस्पर संबंधों को नये नजरिये से देखा है।
मेडागास्कर विधि धान उत्पादन की एक तकनीक है, जिसके द्वारा पानी के बहुत कम प्रयोग से भी धान का बहुत अच्छा उत्पादन सम्भव होता है। इसे सघन धान प्रणाली (ैलेजमउ वि त्पबम प्दजमदेपपिबंजपवद-ैत्प् या श्री विधि) के नाम से भी जाना जाता है।
जहां पारंपरिक तकनीक में धान के पौधों को पानी से लबालब भरे खेतों में उगाया जाता है, वहीं मेडागास्कर तकनीक में पौधों की जड़ों में नमी बरकरार रखना ही पर्याप्त होता है। लेकिन सिंचाई के पुख्ता इंतजाम जरूरी हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर फसल की सिंचाई की जा सके। सामान्यतः जमीन पर दरारें उभरने पर ही दोबारा सिंचाई करनी होती है। इस तकनीक से धान की खेती में जहां भूमि, श्रम, पूंजी और पानी कम लगता है, वहीं उत्पादन 300 प्रतिशत तक ज्यादा मिलता है।
धान खरीफ सीजन की एक प्रमुख फसल है। देश के अधिकतर किसान इस फसल की खेती करते हैं। धान की रोपाई करने में अधिक संख्या में मजदूरों की आवश्यकता पड़ती है। इससे किसानों का समय और लागत, दोनों अधिक लगता है। ऐसे में कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किसानों के लिए धान की रोपाई करने के लिए एक नई तकनीक विकसित की गई। इस तकनीक से प्रति एकड़ खेत में धान की रोपाई करने के लिए सिर्फ 2 किलो बीज का उपयोग करना होता है।
बीज शोधन की विधि
परंपरागत विधि में बीज उपचार (शोधन) कराया नहीं किया जाता है। बीज को सीधे सुखी नर्सरी में छीटा जाता है या बीज को गीले खेत में छीटने से पहले नम बोरी में 2 दिन के लिए अंकुरित किया जाता है। जबकि श्री विधि में एक एकड़ जमीन के लिए 2 किलो बीज लिया जाता है। आधा बाल्टी पानी में इतना नमक मिलाया जाता है कि मुर्गी का अंडा या आलू उसमें रखने पर ऊपर आकर तैरने लगे। फिर अंडा निकालकर उस नमक पानी की घोल में बीज को मिलाया जाता है। इससे बीज बर्तन में तीन परत में दिखाई देगा।
सबसे ऊपर और मध्य भाग में तैरते हुए बीज को बाहर निकाल दिया जाता है, क्योंकि वह खराब बीज होता है। सबसे नीचे की परत स्वस्थ बीज होता है। स्वस्थ बीज से नमक हटाने के लिए इसे साफ पानी से धो दिया जाना चाहिए। धुले हुए बीज को जूट की बोरी में बांधकर 18 से 20 घंटे के लिए पानी में डाल कर छोड़ दिया जाता है। उसके बाद बीज को जूट की बोरी पर रखकर इसमें एक चाय के चम्मच भर 5 ग्राम बेमिस्टीन पाउडर मिलाकर बोरी में बांधकर 24 घंटे के लिए छायादार जगह या घर में अंकुरण के लिए रख देना चाहिए। नमी बनाए रखने के लिए ऊपर से पानी इतना ही छिड़कें ताकि पानी की बून्द टपकने लगे। उसके बाद इसका नर्सरी में वैज्ञानिक तकनीक से उपयोग किया जाता है।
धान की नर्सरी तैयार करना
धान की खेती में सबसे पहले भूमि से 4 इंच ऊंची नर्सरी तैयार करनी पड़ती है। इसके चारों ओर नाली बनानी होगी। इसके बाद नर्सरी में गोबर की खाद या फिर केंचुआ खाद डाल दें और भूमि को भुरभुरा बना लें। अब नर्सरी की सिंचाई कर दें। इसके उनमें बीज का छिड़काव कर दें।
खेत को तैयार करना
धान के खेत की तैयारी परंपरागत तरीके से की जाती है, इसलिए सबसे पहले भूमि को समतल बना लें। पौध रोपण के 12 से 24 घंटे पहले खेत में 1 से 3 सेमी से ज्यादा पानी न रखें। इसके साथ ही पौधा रोपण से पहले खेत में 10 गुणा 10 इंच की दूरी पर निशान लगा लें।
नर्सरी से पौधा उठाने का तरीका
परंपरागत विधि में 25 से 35 दिन का बिचड़ा रोपा जाता है। बिचड़ों को खींच कर निकाला जाता है और जड़ की मिट्टी और पुरानी जड़ों को भी लाठी-डंडे के सहारे झाड़ देते हैं। इस कारण बिचड़े की जड़ का काफी हिस्सा टूट जाता है। खेत में रोपाई के बाद पौधे पीले पड़े रहते हैं। पिछड़ों को गट्ठर में बांधकर खेत तक ले जाया जाता है। कभी-कभी उखड़े हुए पिछड़ों को एक-दो दिन तक बिना रोपे हुए छोड़ देते हैं। वहीं श्री विधि में 8 से 14 दिन के बीच बिचड़े में 2 पत्तियां आ जाने पर इन्हें रोपे जा सकते हैं। विचारों को जड़ की मिट्टी सहित सावधानी से उठाया जाता है। नर्सरी से खेत तक ले जाने के लिए विचडो को चौड़े बर्तन में रखकर ले जाया जाता है। पौधों को एक-एक करके आसानी से अलग करना चाहिए। इनको लगभग 1 घंटे के अंदर लगा देना चाहिए।
पौध रोपाई करने का सही तरीका
पौधे की रोपाई के समय हाथ के अंगूठे और वर्तनी अंगुली का उपयोग करना चाहिए। ध्यान दें कि खेत में बनाए निशान की हर चौकड़ी पर एक पौधे की रोपाई करें। इसके साथ ही नर्सरी से निकाले पौधों को मिट्टी समेत ही लगाएं।
धान के बीज समेत पौधे को ज्यादा गहराई पर नहीं रोपा जाता है। परंपरागत विधि में रोपाई के समय में 3 से 4 इंच पानी जमा रहता है। कम से कम चार से सात विचड़ों को एक जगह पर 1.5 से 2 इंच गड्ढों में गाड़ देते हैं। रोपाई अव्यवस्थित तरीके से बहुत कम दूरी पर होती है। ज्यादातर किसान पोटाश खाद का इस्तेमाल नहीं करते हैं।
रोपे गए विचड़ों को नया जीवन पाने में 7 से ज्यादा दिन लग जाते हैं। जबकि श्री विधि से रोपाई करने में खेत को परंपरागत तरीके से ही तैयार करते हैं। एक एकड़ में 7 से 8 क्विंटल कंपोस्ट/गोबर डालते हैं। अपने इलाके के हिसाब से फास्फेट और पोटाश खाद का इस्तेमाल करनी चाहिए।
खेत के चारों ओर 8 इंच गहरी और डेढ़ फुट चौड़ी नाली बनाते हैं। रोपाई करते समय खेत गीला होना चाहिए। कादो के ऊपर एक इंच से कम पानी होना चाहिए। बिचड़े को मिट्टी के साथ हल्के से कादों में बैठा देते हैं। लाइन से लाइन और बिचड़े से बिचड़े की दूरी 20 से 50 सेंटीमीटर होनी चाहिए। इसमें बिचड़ों को जीवन आधे घंटे के अंदर मिल जाता है। कुछ ही दिन में खेत हराभरा हो जाता है।
खरपतवार निकालना
इस विधि में खरपतवार नियंत्रण के लिए हाथ से चलाए जाने वाले कोनोवीडर का उपयोग किया जाता है। इससे खेत की मिट्टी हल्की हो जाती है, साथ ही इसमें हवा का आवागमन ज्यादा हो पाता है। परंपरागत विधि में ज्यादातर किसान एक ही बार खरपतवार निकालते हैं। खरपतवार को हाथ से उखाड़ कर खेत के बाहर फेंक दिया जाता है। इस कारण खेतों में कंपोस्ट तैयार नहीं होता। इस विधि से बहुत अधिक श्रम लगता है।
ज्यादातर काम महिलाएं करती हैं। मिट्टी को पलटा नहीं जाता। इस कारण जड़ों को हवा नहीं मिलती और पुरानी जड़े मरने लगती हैं। जबकि श्री विधि में रोपाई के बाद 15 दिन के अंतर पर कम से कम 2 बार कोनोविडर मशीन चलाया जाता है। मशीन मिट्टी को नीचे से पलट देती है, जिससे मिट्टी में हवा लगती है और खरपतवार मिट्टी में मिलकर कम्पोस्ट खाद बन जाते हैं। साथ ही श्रम कम लगता है।
इसमें खरपतवार को धान के पौधे की पंक्ति के दोनों तरफ से निकालना चाहिए। बाढ़ संभावित इलाके में बारिश वाले समय में जब खेतों में पानी भरा हो तब खरपतवार हटाने से पहले खेत में 4 किलो जिंक सल्फेट में बालू मिलाकर छिड़काव करनी चाहिए।
जल प्रबंधन
खेत में पौधों की रोपाई के बाद सिंचाई की जाती है, लेकिन उतनी ही जितनी पौधों में नमी बनी रहे। इसमें पौधों को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है। खेत को धान में बाली आने तक बारी-बारी से नम एवं सूखा रखा जाता है एवं पानी से नहीं भरा जाता है। पौधों की कटाई करने से 25 दिन पहले खेत से पानी निकाल दिया जाता है एवं जैविक खाद जितना हो सके उतना प्रयोग किया जाता है।
धान की खड़ी फसल का ध्यान रखना
परंपरागत विधि में खेत में लगातार 10 से 12 इंच पानी जमा रहता है जिस कारण जड़ों को हवा नहीं मिलने से जड़े कमजोर हो जाती है और समय से पहले मरने लगती हैं। आमतौर पर खरपतवार सिर्फ एक बार ही निकाला जाता है। इलाके के हिसाब से रासायनिक खादों का इस्तेमाल करते हैं। पूरी खाद का छिड़काव दो-तीन बार में पूरा किया जाता है।
जबकि श्री विधि में पानी की 1 इंच पतली परत रखते हैं। स्वस्थ जड़ के लिए बीच-बीच में मिट्टी को हवा लगाना भी जरूरी होता है। कोनोविडर मशीन का इस्तेमालपौध रोपाई करने का सही तरीका
पौधे की रोपाई के समय हाथ के अंगूठे और वर्तनी अंगुली का उपयोग करना चाहिए। ध्यान दें कि खेत में बनाए निशान की हर चौकड़ी पर एक पौधे की रोपाई करें। इसके साथ ही नर्सरी से निकाले पौधों को मिट्टी समेत ही लगाएं।
धान के बीज समेत पौधे को ज्यादा गहराई पर नहीं रोपा जाता है। परंपरागत विधि में रोपाई के समय में 3 से 4 इंच पानी जमा रहता है। कम से कम चार से सात विचड़ों को एक जगह पर 1.5 से 2 इंच गड्ढों में गाड़ देते हैं। रोपाई अव्यवस्थित तरीके से बहुत कम दूरी पर होती है। ज्यादातर किसान पोटाश खाद का इस्तेमाल नहीं करते हैं।
रोपे गए विचड़ों को नया जीवन पाने में 7 से ज्यादा दिन लग जाते हैं। जबकि श्री विधि से रोपाई करने में खेत को परंपरागत तरीके से ही तैयार करते हैं। एक एकड़ में 7 से 8 क्विंटल कंपोस्ट/गोबर डालते हैं। अपने इलाके के हिसाब से फास्फेट और पोटाश खाद का इस्तेमाल करनी चाहिए।
खेत के चारों ओर 8 इंच गहरी और डेढ़ फुट चौड़ी नाली बनाते हैं। रोपाई करते समय खेत गीला होना चाहिए। कादो के ऊपर एक इंच से कम पानी होना चाहिए। बिचड़े को मिट्टी के साथ हल्के से कादों में बैठा देते हैं। लाइन से लाइन और बिचड़े से बिचड़े की दूरी 20 से 50 सेंटीमीटर होनी चाहिए। इसमें बिचड़ों को जीवन आधे घंटे के अंदर मिल जाता है। कुछ ही दिन में खेत हराभरा हो जाता है।
खरपतवार निकालना
इस विधि में खरपतवार नियंत्रण के लिए हाथ से चलाए जाने वाले कोनोवीडर का उपयोग किया जाता है। इससे खेत की मिट्टी हल्की हो जाती है, साथ ही इसमें हवा का आवागमन ज्यादा हो पाता है। परंपरागत विधि में ज्यादातर किसान एक ही बार खरपतवार निकालते हैं। खरपतवार को हाथ से उखाड़ कर खेत के बाहर फेंक दिया जाता है। इस कारण खेतों में कंपोस्ट तैयार नहीं होता। इस विधि से बहुत अधिक श्रम लगता है।
ज्यादातर काम महिलाएं करती हैं। मिट्टी को पलटा नहीं जाता। इस कारण जड़ों को हवा नहीं मिलती और पुरानी जड़े मरने लगती हैं। जबकि श्री विधि में रोपाई के बाद 15 दिन के अंतर पर कम से कम 2 बार कोनोविडर मशीन चलाया जाता है। मशीन मिट्टी को नीचे से पलट देती है, जिससे मिट्टी में हवा लगती है और खरपतवार मिट्टी में मिलकर कम्पोस्ट खाद बन जाते हैं। साथ ही श्रम कम लगता है।
इसमें खरपतवार को धान के पौधे की पंक्ति के दोनों तरफ से निकालना चाहिए। बाढ़ संभावित इलाके में बारिश वाले समय में जब खेतों में पानी भरा हो तब खरपतवार हटाने से पहले खेत में 4 किलो जिंक सल्फेट में बालू मिलाकर छिड़काव करनी चाहिए।
जल प्रबंधन
खेत में पौधों की रोपाई के बाद सिंचाई की जाती है, लेकिन उतनी ही जितनी पौधों में नमी बनी रहे। इसमें पौधों को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है। खेत को धान में बाली आने तक बारी-बारी से नम एवं सूखा रखा जाता है एवं पानी से नहीं भरा जाता है। पौधों की कटाई करने से 25 दिन पहले खेत से पानी निकाल दिया जाता है एवं जैविक खाद जितना हो सके उतना प्रयोग किया जाता है।
धान की खड़ी फसल का ध्यान रखना
परंपरागत विधि में खेत में लगातार 10 से 12 इंच पानी जमा रहता है जिस कारण जड़ों को हवा नहीं मिलने से जड़े कमजोर हो जाती है और समय से पहले मरने लगती हैं। आमतौर पर खरपतवार सिर्फ एक बार ही निकाला जाता है। इलाके के हिसाब से रासायनिक खादों का इस्तेमाल करते हैं। पूरी खाद का छिड़काव दो-तीन बार में पूरा किया जाता है।
जबकि श्री विधि में पानी की 1 इंच पतली परत रखते हैं। स्वस्थ जड़ के लिए बीच-बीच में मिट्टी को हवा लगाना भी जरूरी होता है। कोनोविडर मशीन का इस्तेमाल कर मिट्टी को पलटने से खरपतवार के नए जड़ को नष्ट किया जाता है। उचित दूरी पर रोपाई से पौधे को पोषण के लिए पर्याप्त मात्रा में सूर्य का प्रकाश मिल जाता है। श्री विधि में भी परंपरागत विधि के बराबर ही जैविक खाद का इस्तेमाल होता है।
धान की पैदावार
परंपरागत विधि में एक जगह पर चार से सात बिचड़ो में 15 से 20 कंसे फूटते हैं। एक जगह पर अच्छी बालियों वाले 8 से 15 कंसे मिलते हैं। प्रत्येक कर मिट्टी को पलटने से खरपतवार के नए जड़ को नष्ट किया जाता है। उचित दूरी पर रोपाई से पौधे को पोषण के लिए पर्याप्त मात्रा में सूर्य का प्रकाश मिल जाता है। श्री विधि में भी परंपरागत विधि के बराबर ही जैविक खाद का इस्तेमाल होता है।
धान की पैदावार
परंपरागत विधि में एक जगह पर चार से सात बिचड़ो में 15 से 20 कंसे फूटते हैं। एक जगह पर अच्छी बालियों वाले 8 से 15 कंसे मिलते हैं। प्रत्येक बाली से 100 से 150 दाने निकलते हैं। परंपरागत विधि से एक एकड़ खेत में 800 से 1000 किलो धन पैदा होता है। वही श्री विधि से एक जगह पर प्रत्येक बिछड़े में 40 से 70 कंसे निकलते हैं। एक जगह पर अच्छी बालियों वाले 25 से 30 कंसे मिलते हैं। प्रत्येक बाली में 300 से 400 दाने आते हैं। श्री विधि से एक एकड़ खेत में 2400 से 3200 किलो धान पैदा होता है।
धान की बीमारियां और प्रबंधन
किसी भी फसल के उत्पादन को कम करने का एक बहुत बड़ा कारण उसमें लगने वाले रोग होते है। रोग उत्पादन को कम ही नहीं करते, अपितु उत्पादित फसल की गुणवत्ता को भी खासा हानि पहुचाते हैं। जिससे फसल का बाजार मूल्य भी कम हो जाता है। रोगों की प्रवृति इस प्रकार होती है कि यह फसल के बीजों व उसके अवशेषों के जरिये पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी न किसी अवस्था में जीवित रहते है। इसलिए फसलों में लगने वाले रोगों को बारे में विशेष जानकारी का होना बहुत आवश्यक होता है।
चूँकि हमारे देश का मुख्य भोजन चावल है इसलिए धान की फसल में लगने वाले रोगों तथा उनके नियंत्रण के बारे में हमारा जानना बहुत आवश्यक हो जाता है। श्री विधि में रोग और कीट लगने का खतरा कम रहता है, क्योंकि पौधों की दूरी ज्यादा होती है। इसमें जैविक खाद का उपयोग भी सहायक माना जाता है।
गांधी कीड़ा
धान में दूध भरने के समय कीटों के कारण दाना खखड़ी हो जाती है। धान का दाना दागदार हो जाता है। धान काला पड़ जाता है। जब कीटों की संख्या अधिक हो जाए तो इसके उपचार के लिए रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग किया जाना चाहिए। प्रति लीटर पानी में 2 मिलीलीटर लम्बाड़ा सायहेलोथिन मिलाएं और 1 एकड़ खेत के लिए 100 लीटर दवा मिश्रण वाले पानी की जरूरत पड़ेगी।
पौधों में जीवाणु (बैक्टीरिया) रोग
बिचड़ों का मुरझाना, पत्तियों का पीला पड़ना और सूखना, गर्म तापमान, अधिक नमी, वर्षा और पानी का जमाव बीमारियों को बढ़ाने में सहायक होती है। इसके बचाव के लिए बीमारी धान के पौधे में कभी भी हो सकती है और इसकी रोकथाम बहुत कठिन है। बीज में ब्लीचिंग पाउडर और जिंक सल्फेट के उपचार से बैक्टीरिया को कम किया जा सकता है।
श्री विधि से धान की खेती करने कम लागत में बेहतर उत्पादन प्राप्त होता है। इससे किसानों को कई लाभ मिलते हैं, जैसे बीज की संख्या कम लगती है, साथ ही मजदूर भी कम ही लगते हैं। इसके अलावा खाद और दवा का कम उपयोग करना पड़ता है। धान महत्वपूर्ण खाद्य स्त्रोत है। खेती किसानी खाद्य सुरक्षा, गरीबी उन्मूलन और बेहतर आजीविका के लिए जरूरी है। विश्व में धान के कुल उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा कम आय वाले देशों में छोटे स्तर के किसानों द्वारा उगाया जाता है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक विकास और जीवन में सुधार के लिए दक्ष और उत्पादक धानआधारित पद्धति आवश्यक है। इसमें श्री विधि को सफल कहा जा सकता है। किसान परंपरागत तरीके से एक एकड़ में 800 से 1000 किलो तक भी धान उगा सकता है। यदि हम धान श्री विधि से उगाए तो उतनी ही जमीन पर 2400 से 3200 किलो धान की पैदावार होती है। इसमें पानी की जरूरत कम होती है।
श्री विधि रबी खरीफ और गरमी तीनों मौसम में अपनाई जा सकती है। निचले खेतों के अलावा किसी भी तरह के खेत में इस विधि का प्रयोग हो सकता है। एक एकड़ जमीन में रोपने के लिए 2 किलो बीज की जरूरत होती है। इस विधि से 0 से 1 इंच पानी गीला या सूखा प्रर्याप्त होता है। कम से कम 2 बार कोनोवीडर मशीन से घास निकालना जरूरी होता है। एक बिछड़ा से 40 से 70 कंसे निकलते हैं। परंपरागत विधि की तुलना में दो से तीन गुना ज्यादा उपज होती है। इसके परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में श्री विधि से आमदनी और हरियाली बढ़ रही है। ग्रामीण अंचलों में बाढ, सूखा, पहाड़, पठार जैसी प्राकृतिक बाधाओं के बावजूद महिला किसानों ने उत्पादन में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल कर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही हैं। ग्रामीण आजीविका मिशन में महिला किसान शक्तिकरण परियोजना एक जनांदोलन है।
डॉ. नन्दकिशोर साह
ग्राम व पोस्ट बनकटवा, व्हाया धोडत्रासहन, जिला-पूर्वी चम्पारण (बिहार)