सदियों से बावड़ी हमारी सनातन जल प्रदाय व्यवस्था का अभिन्न अंग रही है। अलग-अलग इलाकों में बावड़ियों को अलग-अलग नामों यथा सीढ़ीदार कुआं या वाउली या बाव इत्यादि के नाम से पुकारा जाता है। अंग्रेजी भाषा में उसे स्टेप-वैल कहा जाता है।
इस संरचना में पानी का स्रोत भूजल होता है। भारत में इस संरचना का विकास, सबसे पहले, देश के पानी की कमी वाले पश्चिमी हिस्से में हुआ। वहाँ यह अस्तित्व में आई और समय के साथ फली-फूली। दक्षिण भारत में भी उसका विस्तार हुआ। देश के उन हिस्सों में वह भारतीय संस्कृति और संस्कारों का हिस्सा बनी। सम्पन्न लोगों के लिए समाजिक दायित्व बनी। इन्ही दायित्वों को पूरा करने के लिए सम्पन्न लोगों ने बावड़ियों के आसपास यात्रियों के विश्राम करने के लिए धर्मशाला, उपासना के लिए मन्दिर और पानी तक पहुँच बनाने के लिए सीढ़ियों का निर्माण किया।
धीरे-धीरे उनके साथ कला पक्ष जुड़ा। कला पक्ष के जुड़ने के कारण बावड़ी के परिसर का सारे का सारा परिवेश, निर्माणकर्ता की कल्पना का आईना बन गया। कहीं कहीं उनमें स्थापित प्रतीक, आसानी से पानी की स्थिति बताने वाले संकेतक बन गए। पानी की अनवरत उपलब्धता ने उन्हें विश्वसनीय पहचान और सामाजिक मान्यता प्रदान की। उन्हें बनवाना धर्म से जुड़ गया। यह उनके निर्माण से जुडे इतिहास का एक सामान्य पक्ष है। यही पक्ष, विवरण की मुख्यधारा में है।
भारत की दर्शनीय बावड़ियों की सूची बहुत लम्बी है। कुछ उल्लेखनीय बाबडियों की सूची में राजस्थान की चांद बावड़ी, रानीजी की बावड़ी, पन्ना मीणा की बावड़ी (कुण्ड), जच्छा की बावड़ी और तूरजी की झालरा बावड़ी, नई दिल्ली की अग्रसेन की बावड़ी और राजों की बावड़ी, कर्नाटक की पुष्करनी बावड़ी, हरियाणा की गौस अली शाह की बावड़ी, गुजरात की रानी की बाव, अदलाज नी बाव, दादा हरीर की बावड़ी, सूर्य कुण्ड बाव और माता भवानी नी की बाव, उत्तरप्रदेश के लखनउ की शाही बावड़ी, मध्यप्रदेश के जबलपुर नगर की सगड़ा और शाह नाला बावली अच्छी-खासी प्रसिद्ध हैं। हर साल अनेक लोग उन्हें देखने जाते हैं। उनकी बेजोड कारीगरी, टिकाऊ निर्माण सामग्री का चयन, विन्यास वास्तु, आकृति इत्यादि अदभुत तथा निर्दोष है। इसी कारण उनके निर्माण के सैकड़ों साल बाद भी उनका अस्तित्व कायम है।
आर्कियालाजिकल सर्वें आफ इंडिया (ए.एस.आई.) ने देश की अनेक बावड़ियों को हेरिटेज साईट घोषित किया है। वह उनकी देखभाल करता है। इस कारण अनेक बावड़ियों का उद्धार हुआ है। उनका इतिहास और महत्व उजागर हुआ है। उनके शिल्प और वास्तु की जानकारी उपलब्ध हुई है। उपलब्ध विवरण उनके भौतिक स्वरुप का लेखा-जोखा प्रदर्शित करता है। इसमें, उनकी नयनाभिराम रंगीन फोटो भी अकसर सम्मिलित होती हैं।
ए.एस.आई. और इंटेक के अलावा अनेक संगठनों, लेखकों, इतिहासकारों और कला पारखियों ने उनका विस्तृत विवरण पेश किया है। गाहेबगाहे मीडिया और गोष्ठियों में भी उनकी चर्चा होती है। उनके उद्धार पर समाज और सरकार का ध्यान आकर्षित किया जाता है। जलसंकट की पृष्ठभूमि में चर्चा अकसर उनके गौरवशाली अतीत और उनकी सेवा की होती है पर इस चर्चा में उनका अन्तर्निहित विज्ञान, कभी नहीं सूखने का कारण, कभी भी, मुख्य धारा में नहीं रहता।
जल वैज्ञानिकों ने कभी भी गंभीरता से उनके विज्ञान को सरकार और समाज के सामने लाने का प्रयास नहीं किया। प्रशिक्षित अमला तैयार नहीं किया। सब कुछ लगभग उपेक्षित ही रहा है। आधुनिक जल प्रदाय व्यवस्था ने बावड़ियों की उपयोगिता को काफी हद तक नुकसान ही पहुँचाया है।
बावड़ी मौटे तौर पर कुआं ही है। उसमें और कुओं में अन्तर केवल इतना है कि पानी निकालने के लिए बावड़ी में सीढ़ियों की मदद से पानी तक पहुँचा जाता है, वहीं कुओं से पानी की निकासी रस्सी-बाल्टी, पर्शियन व्हील या मोटर पम्प द्वारा की जाती है। दूसरा अन्तर यह है कि कुओं का उपयोग पेयजल तथा सिंचाई के लिए किया जाता है वहीं बावड़ियों का निर्माण यात्रियों की प्यास बुझाने और निस्तार आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया गया था। बावड़ियों की गहराई और व्यास इष्टतम होता है वहीं कुओं के व्यास और गहराई को नाबार्ड जैसे संस्थान तय कराते हैं।
जल प्रदाय के मामले में बावड़ी अधिक विश्वसनीय है। इस हकीकत को जानने के बाद भी उनका वैज्ञानिक पक्ष उपेक्षित और अनदेखी का शिकार है। यही वह अनछुआ पक्ष है जिसका कहीं जिक्र नहीं होता। यहाँ तक कि पानी पर काम करने वाली वैज्ञानिक तथा शिक्षण संस्थायें और नोडल विभाग भी उस पर चर्चा नहीं करते। उन पर विशेषांक निकालने वाली संस्थायें भी उनके वैज्ञानिक पक्ष पर रोशनी नहीं डालती। किसी भी शिक्षण संस्था में बावड़ियों का विज्ञान नहीं पढ़ाया जाता। उनके प्रशिक्षण की भी व्यवस्था अनुपलब्ध है। यह बेखबरी त्रासद लगती है।
लेखक ने जबलपुर की कुछ बावंड़ियों का फौरी अध्ययन किया है। इन बावड़ियों में मिट्टी की मौटी परत के नीचे एक्वीफर की परत मिलती है। सगडा और शाह नाला बावड़ी में मिट्टी की मोटाई क्रमशः 42 फीट और 92 फीट और एक्वीफर की परत 10 फुट है। दोनों ही बावड़ियों में एक्वीफर अपक्षीण ग्रेनाइट है। शाह नाला बावड़ी बरसात के मौसम में अकसर ओव्हर-फ्लो होती है। दोनों ही बावड़ियां जबलपुर नगर के व्यस्त इलाकों में स्थित हैं। सुझाव है कि इन बावड़ियों के आसपास के क्षेत्र में भूजल कन्टूर बनाकर पानी के प्रवाह की दिशा, भूजल पेरामीटर इत्यादि को जानने का प्रयास किया जाना चाहिए। उस जानकारी का नए कुओं को बनवाने में उपयोग करना चाहिए।
मौजूदा जलसंकट और कुओं की योजनाओं को संचालित करने वाले निकायों के लिए बावड़ियों के पीछे के विज्ञान को जानना और उसे उपयोग में लाना सामयिक है। यदि बावड़ियों के पीछे के भूजल विज्ञान को समझ कर कुओं तथा अन्य भूजल आधारित संरचनाओं का निर्माण किया जाए तो पानी की प्रभावी तथा टिकाऊ व्यवस्था हो सकती है।
गौरतलब है कि देश में समय-समय पर कुओं के लिए अनेक योजनाऐं संचालित की गईं है। वर्तमान में मनरेगा का धन भी उन पर व्यय हो रहा है। कुआं निर्माण की किसी भी योजना में इन सीढ़ीदार कुओं के पीछे के जल विज्ञान का उपयोग नही हुआ है। तकनीकी लोगों तथा योजनाओं के प्रबंधकों द्वारा यह अनदेखी किसी भी कसौटी पर ग्राह्य नहीं है। इससे भी अधिक त्रासद यह है कि देश के अधिकांश राज्यों में यह जिम्मेदारी उन हाथों में है जो कुओं के जल विज्ञान से अनभिज्ञ हैं। उनके लिए कुआं खोदना, एडहाक मानकों के अनुसार खुदाई करना मात्र है। जिन्हें समझता है, वे व्यवस्था की अन्तिम पायदान पर हैं।
लेखक का मानना है कि बावड़ियों के जल विज्ञान को समझने के साथ-साथ उन कुदरती परिस्थितियों को भी समझना आवश्यक है, जिनके कारण बावड़ियाँ बारहमासी थीं। उन आरोपित परिस्थितियों को भी समझना आवश्यक है जिसके कारण परिस्थितियाँ बदलीं। यह जानकारी बेहद अहम है। इन्ही तथ्यों को जानकर वे अपरिहार्य कदम उठाए जा सकते हैं जो कुओं जैसी जल संरचनाओं को स्थायित्व प्रदान करती हैं। गौरतलब है कि, सेहत की कसौटी पर सीढ़ीदार कुओं को असुरक्षित बताकर भूजल दोहन की अविवेकी दोहन प्रवत्ति ने ही मौजूदा हालतों को पेदा किया है परिणाम है कि देश के अनेक महानगर केपटाउन बनने की प्रक्रिया में हैं। यह कूदरत के नियमों और देशज विज्ञान की अनदेखी का परिणाम है। यह भी तय है कि पश्चिम के विज्ञान के आधार पर भारत की जल समस्याओं का समाधान खोजना किसी हद तक अव्यावहारिक ही है।
कृष्ण गोपाल व्यास