07 फरवरी 2021 की सुबह उत्तराखंड में फिर तबाही मची ठीक 2013 में हुए दर्दनाक हादसा की तरह। हिमस्खलन के साथ ग्लेशियर फट पड़ा, पहाड़ दरक उठा। और फिर ऋषि गंगा में आयी हरहराती बाढ़ ने जो तबाही मचाई, उसमें सैकड़ों मारे गए और लापता हो गए। विकास की हमारी परियोजना तिनके की तरह ध्वस्त हो गई।
पहाड़ का सब्र टूटा
7 साल बाद फिर ग्लेशियर टूटा। 16 जून 2013 में हुई केदारनाथ जैसी त्रासदी फिर से लौटी। बर्फीले पहाड़ों का सब्र टूट रहा है और फटने लगे हैं हमारे ग्लेशियर। केदारनाथ में हुए हादसे के बाद भी हम नहीं चेते। सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए उत्तराखंड में एक कमेटी बनाई थी। कमेटी को उत्तराखंड में बन रहे 80 बिजली प्रोजेक्टों की समीक्षा करना था।
उत्तराखंड की कमेटी ने कहा था कि ऋषि गंगा प्रोजेक्ट के आसपास जो ग्लेशियर झीले हैं, उनका अध्ययन किया जाकर ही प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया जाए। मगर कमेटी की रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए ग्लेशियर के मुहाने पर बांध बनाने का काम अबाध गति से चलता रहा। पहाड़ों से छेड़छाड़ कर हम विकास कर सकते हैं। ऐसी सोच विनाशकारी साबित हुई।
उपग्रह ने देखी तबाही
10 बजे सुबह क्या हुआ। इसे उपग्रह डाटा के अनुसार देखें, ‘‘ऋषि गंगा नदी के जलग्रहण में समुद्र तल से 5600 मीटर ऊपर स्थित ग्लेशियर के मुहाने में हिमस्खलन हुआ। यह हिमस्खलन 14 किलोमीटर क्षेत्र जितना बड़ा था। ग्लेशियर में हिमस्खलन होते ही ऋषि गंगा नदी के निचले क्षेत्र में फ्लैश फ्लड की स्थिति बन गई।’’
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि इस घटना को 5600 मीटर की ऊॅंचाई पर ग्लेशियर के टर्मिनस पर ऋषि गंगा नदी के कैचमेंट में रविवार 7 फरवरी के उपग्रह डाटा (प्लेनेट लैब) से देखा गया।
तबाह हुए हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट
ग्लेशियर में हुए विशाल हिमस्खलन से ऋषि गंगा नदी में रौद्र बाढ़ का रूप ले लिया। नदी की सतह पर बर्फीला तूफान गरज के साथ उठ खड़ा हुआ। लोगों को लगा कि बादल फट पड़ा है। पहाड़ों से हिमखंड फिसलते हुए तेजी से गिरने लगे। नदी के सैलाब ने अपने में सबको समेटते हुए, तोड़ते हुए उग्र रूप धारण कर लिया।
सबसे पहले रैणी गांव की ऋषि गंगा नदी पर बन रहे 24 मेगावाट के हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट का बैराज टूटा। नदी की बाढ़ मलबे के साथ तेजी से धौली गंगा की ओर बढ़ी और देवड़ी बांध को क्षतिग्रस्त करते हुए बहाव आगे बढ़ा। धौली गंगा और ऋषिकेश के संगम तपोवन पहुॅंचा।
तपोवन घाटी एकाएक तेज धमाके से दहल उठी। ऋषि गंगा नदी में उठता हुआ भूचाल रौद्र रूप ले चुका था। तपोवन में धौली गंगा नदी पर निर्माणाधीन 520 मेगावाट की विष्णु गंगा जल विद्युत परियोजना धराशायी हो गई। हालात बिगड़ते चले गए और परियोजना में काम कर रहे 150 से ज्यादा मजदूर बाढ़ में बह गए।
जोशी मठ को पार करती हुई बाढ़ विष्णु गंगा-पिपल कोटी परियोजना तक जा पहुॅंची। चमोली को पार करती हुई नंद प्रयाग तक बाढ़ थमी नहीं, जिसके बाद कण प्रयाग पार होने के बाद पानी में कुछ कमी आई।
चमोली के ग्लेशियर फटने से मंजर भयावह हो उठा। इस त्रासदी में ऋषि गंगा नदी के किनारे 15 हेक्टेयर का मरिंडा जंगल साफ हो गया। चीन की सीमा तक पहुॅंचाने वाला पुल, चार झूला ब्रिज, कई मंदिर और घर महज आधे घंटे में खत्म हो गए। बाढ़ के बाद दलदल में धंसे शवों को निकाला गया। हादसे में 150 लोग मारे गए और कई लापता हो गए।
मिले थे तबाही के संकेत
नंदा देवी बायोस्फियर रिजर्व के अंतर्गत् चमोली भी आता है। क्षेत्र को सुरक्षित बनाए रखने के लिए बायोस्फियर रिजर्व बनाया गया, जिसमें गांव वाले पेड़ के पत्ते भी नहीं तोड़ सकते हैं और वहीं हाइड्रोपावर विद्युत परियोजना की शुरूआत की गई। प्रकृति के पहाड़ों को चुनौती देते हुए विकास के सपनों को चूर-चूर कर दिया कुछ ही पल में।
तबाही का मंजर चमोली में एकाएक नहीं आया। 37 साल पहले से मिलने लगे थे तबाही के संकेत, जिस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया। भूविज्ञानी डॉ. एमपीएस बिष्ट और वाडिया हिमालय भू-संस्थान ने अपने एक शोध में स्पष्ट किया है कि ऋषि गंगा नदी कैचमेंट क्षेत्र में स्थित आठ से ज्यादा ग्लेशियर सामान्य से अधिक रफ्तार से पिघल रहे हैं। ग्लैशियर के तेजी से पिघलने के कारण अधिक जल प्रवाह होगा और हिमखंड टूटने की घटनाएं होंगी। इतना ही नहीं इन ग्लेशियरों के पानी का दबाव भी अकेले ऋषिगंगा नदी पर पड़ता है, जो आगे जाकर धौलीगंगा, विष्णुगंगा, अलकनंदा, भागीरथी गंगा को भी प्रभावित करता है।
तेजी से पिघलते ग्लेशियर
यूनेस्को द्वारा सुरक्षित नंदा देवी बायोस्फियर रिजर्व में 6500 मीटर से ऊॅंची खड़ी चोटियां हैं। इन पर जो ग्लेशियर हैं, उनमें हिमस्खलन होने से ज्यादा मारक साबित होते हैं। उनमें हिमस्खलन होने से ज्यादा मारक साबित होते हैं। 1970 से 2017 तक इन ग्लेशियरों का अध्ययन किया गया है। अध्ययन में यह पता चला कि यहां के आठ ग्लेशियर 37 साल में 26 वर्ग किलोमीटर पीछे खिसक गए हैं। सेटेलाइट चित्रों और मौके पर मुआइना भी अध्ययन के लिए किया गया। जहॉं पाया गया कि इन ग्लैशियरों का आकार जितना था, उसमें से 10 फीसदी भाग पिघल चुका है।
उत्तराखंड की आपदाओं के बाद हमेशा बांध और पावर प्रोजेक्ट पर सवाल उठते हैं। सुप्रीम कोर्ट चिंता कर चुका है कि विकास योजनाओं में पर्यावरण से समझौता नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी खतरनाक परियोजनाओं से तबाही को आमंत्रित किया जा रहा है।
चमोली में बांध के लिए सुरंगें बन रही हैं और पहाड़ को चुनौती दी जा रही है, जो दरक रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिनमें चमोली के ग्लैशियर की गति अधिक है। खड़ी पर्वत चोटियों में बने ग्लेशियर ज्यादा खतरनाक साबित होंगे, जब उनमें हिमस्खलन होगा। 11 साल पहले यहां खुदाई से चट्टानों को क्षति पहुॅंची थी, जो अब भयावह विपदा बनकर सामने आई।
उत्तराखंड में तबाही के साथ हमें यह सीख लेना चाहिए कि प्रकृति से छेड़छाड़ करना तबाही को आमंत्रित करना है। खासकर पहाड़ों से निकली नदियों की राह रोककर उस पर बांध बनाना भविष्य को भयावह बना देने जैसा है। अब जबकि उत्तराखंड में बन रहे हाइड्रो प्रोजेक्ट को फिर बनाया जाएगा या नहीं। मतलब हम प्रकृति पर विजय के लिए अपने विकास के सपने को साकार करेंगे या नहीं? यह समय ही तय करेगा और प्रकृति अपना काम। रविन्द्र गिन्नौरे
उत्तराखंड जल संकट : छोटे प्रयास से निकलेगा बड़ा समाधान
उत्तराखंड में 2013 में आई आपदा और फिर 7 फरवरी को चमोली के तपोवन में आई जलप्रलय की घटनाएँ पूरी दुनिया को बड़े बांधों के निर्माण और पर्यावरण असंतुलन से होने वाले दुष्परिणामों से आगाह कर रही है। यह बड़े बांध स्थानीय जनता को न तो सिंचाई और न ही पेयजल की पूर्ति करते हैं बल्कि इसके विपरीत प्राकृतिक रूप से संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्रों के लिएगंभीर खतरा उत्पन्न करते हैं।
बड़े बांधों में बहुत अधिक जलराशि एकत्रित होने से पहाड़ों परअत्यधिक दबाव पड़ता है। इसके निर्माण के दौरान भारी मशीनरी और विस्फोटकों आदि काप्रयोग होता है, जो पहाड़ों की नींव को भी हिला देते हैं, जिससे पहाड़ों में भूस्खलन, भूकंप आदिकी संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। चूँकि बड़े बांधों को भरने के लिए नदियों का प्रवाह रोकना पड़ताहै, इसलिए नदी के पानी से जो नैसर्गिक भूमिगत जलसंचय होता है, उसमें भी व्यवधान पड़ता है।
विगत दिनों गढ़वाल क्षेत्र के तपोवन के पास ऋषि गंगा में ग्लेशियर टूटने से भयानक बाढ़ आने से काफी संख्या में जान और माल का नुकसान हुआ है, जिसमें बिजली उत्पादन संयत्र और कुछ जगह जलाशय भी क्षतिग्रस्त हुए हैं। इससे पहले 2013 में भी उत्तराखंड ने केदारनाथ आपदा झेली है, जिसमें भूस्खलन या ग्लेशियर के टूटने से मन्दाकिनी नदी में अचानक भयंकर बाढ़ आ गयी थी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए या लापता हो गये थे और अत्यधिक संपत्ति का भी नुकसान हुआ था। अगर कभी इस तरह का भूस्खलन बड़े बांधों के प्रभाव क्षेत्र में होगा तो निश्चय ही देश को भयानक आपदा झेलनी पड़ सकती है।
कुल मिलाकर देखें तो जलसंचय के लिए पहाड़ी क्षेत्र में बड़े जलाशयों (बांधों) का निर्माण अत्यधिक जोखिम भरा है। बड़े बांधो की बजाए जगह-जगह छोटे छोटे बांध बनाये जाएं तो वह न सिर्फ भूमिगत जलस्तर बढ़ाएंगे, बल्कि इससे पानी के प्राकृतिक जलस्रोत भी रिचार्ज होते रहेंगे। इसके अलावा बरसाती नालों में चेक-डैमबनाये जाने चाहिए, जिससे धरती की जलधारण क्षमता बढ़ती है और इस तरह वर्षा के पानी का भूमिगत जल संचय किया जा सकता है। इससे निःसंदेह ही प्राकृतिक जल स्रोत में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होगी और पानी की कमी से जूझ रहे ग्रामीणों को बड़ी राहत प्रदान होगी।
अब प्रश्न यह उठता है कि इसके अतिरिक्त क्या कोई अन्य प्रयास भी कये जा सकते हैं, जिससे कम संसाधनों के बल पर पहाड़ में पानी की सुलभता सुनिश्चित की जा सके? इस दिशा में कई लोगों और संगठनों ने कई बार अलग अलग जगहों में रचनात्मक प्रयास किये हैं। इसी समस्या को ध्यान में रखते हुये विगत दिनों नैनीताल जिले के रामगढ़ और धारी क्षेत्र में एक स्वयंसेवी संगठन मैत्री संगठन-39 ने पानी को बचाने की दिशा में सराहनीय कार्य कियाहै। चूंकि पहाड़ों में यदा कदा बारिश होती रहती है और बारिश का पानी बहकर नदियों में समा जाता है, इसलिये जरूरत थी कुदरत के इस निःशुल्क उपहार को समेटने की। इसके लिएसंस्था ने बारिश के पानी को समेटने, सहेजने की तरफ अपना ध्यान केंद्रित किया। संगठन नेपानी को संग्रहित करने के लिये जमीन में गड्ढे खोद कर कच्चे टैंक बनाये, जिस पर प्लास्टिक शीट डालकर बरसात के पानी को जमा करने का इंतजाम किया।
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, रहीम ने आज से सैकड़ों साल पहले ये बात समझ ली थी, कि पानी का होना कितना जरूरी है। हालांकि रहीम के समय भी सदा नीरा गंगा, यमुना जैसी नदियां बहती थीं, फिर भी उन्होंने पानी की महत्ता समझ ली थी। खैर पानी की जरूरत और किल्लत की संभावना को देखते हुए कई विश्लेषक यहां तक कह रहे हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिये होगा। हालांकि दुनिया के सभ्य इंसान किसी भी चीज के लिये युद्ध नहीं चाहते, फिर पानी पिलाना तो धर्म का कार्य माना गया है। तो फिर ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर कैसे इस युद्ध को रोका जाय?
जाहिर है अभी पानी बनाने वाली तकनीकी चलन में नहीं है। समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने की तकनीक कुछ देशों में जरूर हैं, परंतु बहुत ही खर्चीला होने के कारण गरीब देशों की हैसियत से बाहर की चीज है। घूम फिरकर वही प्रश्न उठता है कि आखिर पानी की किल्लत कैसे दूर किया जाये, ताकि सभी को समान रूप से आवश्यकतानुसार न केवल पानी उपलब्ध कराया जा सके, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए भी पानी को बचाया जा सके?
पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखंड के संदर्भ में देखा जाय तो यहाँ पर असंख्य नदियों में पानी की प्रचुर उपलब्धता के बावजूद यहाँ का आमजन युगों से उस पानी का दोहन नहीं कर पाया है। कारण है कि पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण खेत खलिहान ऊंचाई पर स्थित होते हैं और नदी का बहाव नीचे की ओर होता है। हालांकि पूर्व में कई जगह नदियों से नहर प्रणाली द्वारा खेतों की सिंचाई के लिये पानी की व्यवस्था की गयी, परंतु वह नाकाफी साबित हुई और कालांतर में अधिकांश परियोजनाएं ठप पड़ती गयीं।
पहाड़ों में वर्षा ऋतु और उसके तीन चार महीने बाद तक तो पानी की उपलब्धता ठीक रहती है, क्योंकि बरसात के कारण भूमि में नमी रहती है और प्राकृतिक जलस्रोतों से भी पानी का उत्पादन अधिक मात्रा में होता रहता है। लेकिन ग्रीष्म ऋतु की आहट के साथ ही जहाँ एक ओर भूमि की नमी खत्म होने लगती है, वहीं प्राकृतिक जलधाराओं में उत्तराखंड जल संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार फिलहाल राज्य के 500 जलस्रोत सूखने की कगार पर हैं। सम्पूर्ण उत्तराखंड पानी के संकट से गुजर रहा है। हालाँकि उत्तराखंड सरकार ने भी जल नीति घोषित की है। इसमें वर्षा जल संग्रहण के साथ-साथ पारंपरिक स्रोतों को बचाने का लक्ष्य रखा गया है।
राज्य की जल नीति में भूमिगत जल के अलावा बारिश के पानी को संरक्षित करने की बात कही गयी है, परंतु अभी तक के हालातों और अनुभवों को देखते हुए नहीं लगता है कि सरकारी योजनाएं कभी जमीन पर भी साकार हो पाएंगी। हालांकि अगर सरकारें चाहें तो किसी भी बड़ी नदी या झरने से पंपिंग व्यवस्था द्वारा हर पहाड़ी गाँव को पानी उपलब्ध करा सकती है। इसके अलावा पहाड़ी नदियों पर छोटे-छोटे डैम (जलाशय) या बैराज बनाकर पानी का संचय किया जा सकता और उसे पानी की किल्लत झेल रहे पहाड़ी ग्रामीणों को उपलब्ध कराया जा सकता है।
इस तरह से संग्रहित किया गया पानी न सिर्फ पहाड़ी लोगों की, अपितु पहाड़ के नीचे तराई के लोगों के लिए पानी की कमी को काफी हद तक पूरा किया जा सकता है। परंतु अभी तक के अनुभव बताते हैं कि कोई भी सरकार इस मामले में संजीदा नहीं हैं। इस बारे में सरकारों का रवैया बहुत ही दुखद रहा है। सरकारों का ध्यान पहाड़ी क्षेत्र के लोगों की पानी की जरूरतों के समाधान के बजाय पूरी तरह राजस्व प्राप्ति के लिए व्यावसायिक कदम उठाने तक सीमित रहता है।
उत्तराखंड के पहाड़ों में जगह जगह बड़े डैम बनाये गये हैं या बनाये जा रहे हैं, जिनसे बिजली उत्पादन कर प्रदेश से बाहर भी भेजा जाता है। जनमैत्री संगठन के संयोजक बचीसिंह बिष्ट ने बताया कि पानी बचाने के इस कार्य में उन्हें कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का भी सहयोग मिला, जिन्होंने जल संचय के लिए गड्डो में बिछाने के लिए प्लास्टिक शीट उपलब्धकरवाने हेतु आर्थिक सहायता प्रदान की। उन्होंने बताया की ‘‘इस तरह वह अब तक हजारों गड्डे बनवाकर लाखों लीटर पानी का संचय कर चुके हैं। इस पानी से ग्रामीण स्वयं की जरुरत भी पूरीकरते हैं, पशुओं को भी पानी पिलाते हैं तथा साथ में फल और सब्जी उत्पादन हेतु खेतों में भी इस्तेमाल करते हैं। इससे उस क्षेत्र के ग्रामीणों की आर्थिक स्थिती पर भी सकारात्मक असर पड़ा है।
”जनमैत्री संगठन ने वर्ष 2017-18 से 2019-20 में कुल 314 टैंक बनाये, जिनमें 73 नैनीताल के धारी ब्लाक के बुढ़िबना गाँव में, 16 रामगढ़ ब्लाक के सूपी में, 4 लोद और गल्ला में तथा 2 नथुवाखान गाँव में। शेष सतबुंगा ग्राम पंचायत के पाटा, धुरा, दुत्कानधार, लोधिया में बनाये गए हैं। 2015 व 2016 में भी गल्ला व आसपास के क्षेत्रों में जनमैत्री द्वारा 100 प्लास्टिक के टैंक बनाये गए थे, जिनमें अभी भी बहुत से टैंक जिंदा और कार्यरत हैं।
इस तरह जनमैत्री के सहयोग से बनाये गए पानी के टैंको से लगभग 50 लाख लीटर पानी संचय किया गया, जिसका उपयोग स्थानीय ग्रामीणों द्वारा पेयजल के रूप में, घरेलू कार्यों के उपयोग में, पशुओं को पिलाने के लिए और फल एवं सब्जियों की सिंचाई आदि में किया गया। जल संचय की उनकी इस मुहिम में रामगढ़ और धारी ब्लाक के सूपी, पाटा, बूढीबना, देवटांडा, जयपुर, लोद,अल्मोड़ी, गल्ला, कोकिलबना आदि अनेकों गांवों के ग्रामीण शामिल होकर लाभ उठा चुके हैं।
स्थानीय कृषक महेश गलिया ने बताया कि इस क्षेत्र में पानी की बहुत किल्लत है। पीने के पानी के लिये भी ग्रामीणों को जूझना पड़ता है। यदि किसी को गृह निर्माण आदि के लिये पानी चाहिये होता है तो उसे डेढ़ रुपया/लीटर पानी का मूल्य चुका कर टेंकर से पानी खरीदना पड़ता है।
वह आगे कहते हैं कि मुझे अपने घर के निर्माण के दौरान उन्हें इन टैंकों की उपयोगिता का पता लगा। महेश गालिया के पास तीन पानी के टैंक हैं, जिनमें हरेक की क्षमता लगभग 10 हजार लीटर है। इस तरह उन्होंने घर के निर्माण के लिए 30 हजार लीटर पानी इन टैंकों से इस्तेमाल किया और लगभग 45 हजार रुपये सिर्फ पानी के खर्च का बचा लिया।
उन्होंने बताया कि जो टैंक घर के पास बनाये गये हैं उनके पानी का इस्तेमाल घर की जरूरतों, मवेशियों आदि के पीने के लिये होता है, जबकि खेतों के बीच में बनाये टैंकों के पानी से फलों के पौधों और मटर आदि सब्जी को उगाने में सिंचाई के लिए प्रयोग किया जाता है। स्थानीय किसान हरि नयाल ने बताया कि उन्हें स्वयंसेवी संगठन जनमैत्री के मार्फत 2007 के आसपास प्लास्टिक शीट मिली, जिसे उन्होंने गड्ढा खोदकर उससे पानी बचाया और पहले ही साल लगभग 30 हजार रुपये का खीरा पैदा किया। हरि नयाल के अनुसार इस समय उनके पास 4 टैंक हैं, जिनमें वे लगभग 40 हजार लीटर तक पानी बचा लेते हैं। वे इस पानी का इस्तेमाल सेव, खुमानी, आड़ू, नाशपाती और मटर,आलू, खीरा आदि सब्जियों की सिंचाई में करते हैं। इस तरह बचाये हुये पानी से हरि नयाल सालाना लगभग 3-4 लाख रुपये का फल और सब्जी का व्यवसाय करते हैं। हरि नयाल का कहना है कि इस तरह अपनी खेती करने से वे आत्मनिर्भर हैं ही, साथ ही नौकरी जैसी टेंसन से मुक्ति भी मिली है।
चूंकि इस तरह गड्डे खोदकर और उनमें प्लास्टिक शीट बिछाकर पानी बचाना शुरुआत में थोड़ खर्चीला कार्य जरूर है और पहाड़ के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए उसकी व्यवस्था करना थोड़ा कठिन रहता है, इसलिए यदि सामुदायिक और सहकारी रूप में इस कार्य को किया जाय तो पहाड़ी क्षेत्र के ग्रामीणों के लिए जल का संचय करना कठिन कार्य नहीं रहेगा। संभव है कि वर्षा जल संग्रहण जैसा कदम पर्वतीय क्षेत्रों की उन्नति में मील का पत्थर साबित होगा। यदि पर्वतीय उत्तराखंड को बनाना है तो उसके लिए सबसे पहला प्रयास जल का संचय कर हर ग्रामीण परिवार तक जल की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। तभी इस ग्रामीण प्रदेश का समेकित विकास संभव है।
गिरीश चंद्र
सामाजिक स्वीकार्यता की कसौटी पर बांध
भारतीय समाज लगभग 6000 साल पहले से पानी से दो मोर्चों पर जूझ रहा है। पहला मोर्चा है बाढ़ और दूसरा मोर्चा है पानी की बारहमासी निरापद आपूर्ति। सभी जानते हैं कि, बाढ, अस्थायी आपदा है इसलिए भारतीय समाज ने बसाहटों को, नदियों सुरक्षित दूरी पर बसाया। दूसरे मोर्चे पर सफलता हासिल करने के लिए उन कुदरती लक्षणों को समझने का प्रयास किया जो पानी की सर्वकालिक एवं सर्वभौमिक उपलब्धता सुनिश्चित करते है। लगता है, यही जद्दोजहद जल संरचनाओं के विकास का आधार बनी होगी। जल संरचनाओं के विकास के उल्लेखनीय उदाहरण हैं – दक्षिण बिहार की आहर-पईन, जम्मू की कुहल, उत्तराखंड की नौला, अरुणाचल की अपतानी, नागालेंड की जाबों, राजस्थान की खड़ीन और टांका, महाराष्ट्र की फड, केरल की सुरंगम, अलीराजपुर, मध्यप्रदेश की पाट संरचना इत्यादि। उक्त उदाहरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के प्रबुद्ध समाज ने अपनी लम्बी जीवन यात्रा में, पानी के हर संभव स्त्रोत यथा बरसाती पानी से लेकर भूमिगत जल, जीवन्त झरनों और नदियों से लेकर बाढ़ तक के पानी को संचित करने के लिए उपयुक्त संरचनाओं का विकास किया। उन संरचनाओं के निर्माण का लक्ष्य था, मानसून की सौगात का 365 दिन लाभ उठाना। संरचना निर्माण से जुडा यह विकास कर्म, कौशल और समझदारी का जीता-जागता उदाहरण है।
देश के विभिन्न भागों में बनी परम्परागत जल संरचनाओं की पानी सहेजने की फिलासफी को समझकर, उन्हे आसानी से वर्गीकृत किया जा सकता है। इस वर्गीकरण के अनुसार, असरकारी संरचनाओं में मूख्य हैं परम्परागत बांध और परम्परागत तालाब। उल्लेखनीय है कि परम्परागत बांधों का निर्माण ईसा से लगभग तीन सहस्त्राब्दी पहले कच्छ के इलाके में प्रारंभ हो चुका था। बांध निर्माण में भारत का दक्षिणी भूभाग भी पीछे नहीं था। चोल और पांड्य राजाओं के सत्ता में आने के सदियों पहले तिरुनेलवेली जिले में पत्थरों से स्थायी बांधों का निर्माण होने लगा था। परम्परागत बांध निर्माण का अन्य उल्लेखनीय उदाहरण है राजा भोज (सन 1010 से सन 1055) द्वारा भोपाल के पास भोजपुर में बनवाया बांध।
लगभग 65000 हैक्टर में फैले इस बांध को चौदहवीं सदी में होशंगशाह ने तुडवा दिया था। उस दौर में भी बांधों का निर्माण, उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों में, नदी की मुख्य धारा पर पाल डाल कर किया जाता था। अतिरिक्त बरसाती पानी की निकासी के लिए पक्का वेस्टवियर बनाया जाता था।
जहाँ तक परम्परागत तालाबों का प्रश्न है तो भारत में तालाबों का निर्माण ही मुख्य धारा में था। उनका निर्माण गंगा और सिन्धु नदी के कछार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिसा, छत्तीसगढ़, सम्पूर्ण मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा मरुस्थली इलाके को छोडकर समूचा राजस्थान, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, तामिलनाडु, गुजरात, केरल तथा दमन एवं दीव में होता था। वे मुख्यतः दो प्रकार के होते थे- जल संचय तालाब और भूजल को समृद्ध करने वाले जल संचय तालाब। जल संचय तालाबों का निर्माण निस्तार के लिए तथा भूजल समृद्ध करने वाले तालाबों का निर्माण क्षेत्रीय जल सन्तुलन तथा नमी संरक्षण के लिए किया जाता था। जहाँ तक कुओं तथा बावडियों के निर्माण का प्रश्न है तो वे बने तो बडी संख्या में हैं पर सीमित जल क्षमता के कारण, बांधों तथा तालाबों की तुलना में उनका महत्व काफी कम है।
जाहिर है, बांधों और तालाबों के निर्माणों के लिए, स्थानीय मौसम, धरती का भूगोल की गहरी समझ के अलावा उच्च स्तरीय तकनीकी ज्ञान, उपयुक्त निर्माण सामग्री और निर्माणकर्ताओं की सहज उपलब्धता अनिवार्य है।
अनुभव बताता है कि प्राचीनकाल में भारत में तालाबों की तुलना में बांधों की स्वीकार्यता कम थी। छोटी-छोटी नदियों पर भले ही बांध बने पर बडे बांधों का निर्माण प्रचलन में नहीं था। यदि बडे बांध कहीं बने थे तो वे अपवाद स्वरुप थे। जहाँ तक परम्परागत तालाबों का प्रश्न है तो साईज की कमी-वेशी के बावजूद, वे ही मुख्य धारा में थे। उनकी गहराई के अधिक होने के उनमें संचित जल का आधार बरसाती पानी (रन-आफ) के अलावा भूजल भी था। रन-आफ, भंडारण तथा वेस्टवियर से अतिरिक्त पानी की निकासी के सटीक गणितीय सम्बन्ध के कारण वे लगभग गादविहीन तथा बारहमासी होते थे।
उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों के भारत पर काबिज होने के बाद बांधों और तालाबों के पारम्परिक जलविज्ञान की अनदेखी हुई और विदेशी जलविज्ञान, नए निर्माणों का आधार बना। आजादी के बाद आधुनिक बांधों के निर्माण का सिलसिला चालू रहा। उन्हीं को भारत के नए तीर्थ की संज्ञा मिली। उनके बनने से सिंचाई क्षमता का काफी विस्तार हुआ और परम्परागत तालाबों का महत्व कम हुआ।
किसी भी जल संरचना की स्वीकार्यता के अनेक मापदण्ड हो सकते हैं। उदाहरण के लिए समाज का पुराना अनुभव, लागत, निर्माण अवधि, क्षेत्रीय जल सन्तुलन, वायोडायवर्सिटी एवं नदी के प्रवाह पर अच्छा बुरा प्रभाव, गाद निकासी, लम्बा सेवाकाल, न्यूनतम पर्यावरणी दुष्परिणाम, निर्माण की सहजता, न्यूनतम विस्थापन इत्यादि इत्यादि।और भी मापदण्ड हो सकते हैं पर स्वीकार्यता की उपर्युक्त कसौटियों पर यदि आधुनिक बांघों और परम्परागत तालाबों को परखा जावे तो पता चलता है कि –
अनुभव
पुराना अनुभव बताता है कि जहाँ बांधों का निर्माण उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियों में ही किया जा सकता है वहीं तालाबों का निर्माण लगभग हर जगह संभव है। इसके अलावा, बांधों से केवल कमाण्ड को पानी उपलब्ध कराया जा सकता है, वहीं तालाबों की जल उपलब्धता को सर्वकालिक एवं सर्वभौमिक बनाया जा सकता है। अर्थात तालाबों की स्वीकार्यता अपेक्षाकृत बेहतर हैं।
लागत
बांधों के निर्माण पर बडी राशि खर्च होती है वहीं तालाबों का निर्माण व्यय और प्रति इकाई पानी की दर अपेक्षाकृत काफी कम है। इसकी सत्यता, जल संचय की प्रति क्यूबिक मीटर लागत की तुलना द्वारा जानी जा सकती है।
निर्माण अवधि
तालाबों की तुलना में बांधों के निर्माण की अवधि बहुत अधिक होती है। बांधों के निर्माण की अवधि के अधिक होने के कारण उनके लाभों को समाज तक पहुँचने में काफी समय लगता है।
क्षेत्रीय जल सन्तुलन
बांधों की तुलना में तालाबों खासकर परकोलेशन तालाबों के प्रभाव से क्षेत्रीय जल संन्तुलन बेहतर होता है तथा लाभों को समाज तक पहुँचने में काफी कम समय लगता है। तालाब, जल संग्रह के विकेन्द्रीकृत और बांध केन्द्रीकृत उदाहरण है। केवल तालाबों की मदद से ही जल स्वराज की अवधारणा को जमीन पर उतारा जा सकता है। जल संकट को नियंत्रित किया जा सकता है।
वायोडायवर्सिटी एवं नदी के प्रवाह पर प्रभाव
बांधों के निर्माण से वायोडायवर्सिटी पर बुरा असर पडता है एवं नदी का अविरल प्रवाह बाधित होता है। तालाबों के मामले में यह प्रभाव बेहद कम है।
सेवाकाल
बांधों की तुलना में परम्परागत तालाबों का सेवाकाल काफी लम्बा होता है। इस अन्तर के कारण, समाज को तालाबों से अधिक समय तक लाभ प्राप्त होता है।
पर्यावरणीय प्रभाव
परम्परागत तालाबों की तुलना में बांधों के पर्यावरणीय दुष्परिणाम अधिक हैं। इसका खामयाजा समाज को भोगना पडता है।
निर्माण
बांधों की तुलना में तालाबों का निर्माण सहज है। उनके निर्माण में समाज की भागीदारी संभव है। तकनीकी जटिलता के कारण, बांधों के निर्माण में, समाज की भागीदारी लगभग शून्य होती है।
विस्थापन
बांधों की तुलना में तालाबों द्वारा होने वाला विस्थापन सामान्यतः शून्य होता है। इस कारण उनकी सामाजिक स्वीकार्यता बेहतर है।
अन्त में, गहराते जल संकट और सामाजिक स्वीकार्यता की कसौटी पर कम अंक लाने के बावजूद बांधों का निर्माण मुख्य धारा में है। लगता है हमारी प्रज्ञा हाशिए पर है और वह उपेक्षा तथा अनदेखी की शिकार हैं।
कृष्ण गोपाल ‘व्यास’
थार के संसाधनों पर मंडराता अस्तित्व का खतरा
राजस्थान का थार क्षेत्र केवल बालू की भूमि ही नहीं है, बल्कि कुदरत ने इसे भरपूर प्राकृतिक संसाधनों से भी नवाजा है। लेकिन धीरे धीरे अब इसके अस्तित्व पर संकट के बादल गहराने लगे हैं। यह संकट मानव निर्मित हैं। जो अपने फायदे के लिए कुदरत के इस अनमोल खजाने को छिन्न भिन्न करने पर आतुर है। यहां की शामलात भूमि (सामुदायिक भूमि) को अधिग्रहित कर उसे आर्थिक क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है। जिससे न पशु पक्षियों बल्कि स्थानीय निवासियों को भी भूमि और जल के संकट का सामना करना पड़ रहा है।
इसका एक उदाहरण बाड़मेर जिले की पचपदरा तहसील का कोरणा गांव है। जहां वर्ष 2016 में विद्युत विभाग का सब ग्रीड स्टेशन बनाने के लिए तालाब के आसपास की भूमि प्राप्त करने के लिए ग्राम पंचायत से अनापत्ति प्रमाण-पत्र मांगा गया। 2800 बीघा इस शामलात भूमि पर छोटे-मोटे करीब 18 तालाब हैं, जिनसे इन्सान एवं मवेशी पानी पीते हैं। विद्युत विभाग की ओर से 765 के.वी. का ग्रीड सब स्टेशन बनाने के लिए गांव की कुल शामलात भूमि में से 400 बीघा जमीन अधिग्रहण के लिए चिन्हित की गई। भूमि चिन्हित करने से पूर्व ग्राम समुदाय और पंचायत से राय तक नहीं ली गई।
कोरणा के पूर्व सरपंच गुमान सिंह ने बताया कि एनओसी के लिए पत्र आया तब हमें पता चला कि हमारे गांव की शामलात भूमि में से तालाब के आगौर की भूमि का अधिगृहण किया जाना है। ग्राम पंचायत ने एनओसी देने से इन्कार किया। सरपंच ने जिला कलक्टर से मुलाकात की तथा उनको बताया कि गांव के लोग एनओसी देने के लिए तैयार नहीं है। कलक्टर बाड़मेर ने ग्राम पंचायत स्तर पर रात्रि चौपाल कार्यक्रम रखा तथा गांव के लोगों को भूमि अधिग्रहण का निर्णय सुनाया।
ग्राम पंचायत व गांव के लोगों ने भी जिला कलक्टर को शामलात संसाधनों के महत्व से अवगत कराते हुए अधिग्रहण निरस्त करने की मांग की। गांव के लोगों ने बताया कि यहां जल स्रोतों से आस-पास के 20 गांवों के 30 से 35 हजार लोग पेयजल के लिए निर्भर हैं। गांव के चारागाह पर 10 हजार पशु चारागाह के लिए इसी पर निर्भर हैं। इन शामलात संसाधनों के कारण यहां की जैव विविधता संरक्षित व सुरक्षित है। प्रति वर्ष हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी आते हैं। इनके कारण इस क्षेत्र का पारिस्थिक तंत्र बना हुआ। विद्युत सब ग्रीड स्टेशन बनने से यह सब नष्ट हो जाएगा।
जिला प्रशासन ने ग्राम पंचायत व गांव के लोगों की बात नहीं सुनी। राज्य स्तरीय उच्च अधिकारियों, नेताओं व मंत्रियों से मिले, लेकिन सहयोग नहीं मिला। अंत में गांव के लोगों ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल में केस दायर किया जहां से उन्हें राहत मिली। एनजीटी ने पूरे मामले की जांच की तथा ग्राम पंचायत व गांव के लोगों द्वारा पेयजल, चारागाह, जैव विविधता, पर्यावरण एवं इक्को तंत्र के सभी तर्कों को सही माना। एनजीटी ने सरकार के शामलात भूमि अधिग्रहण पर रोक लगा दी एवं भविष्य में भी इसके अन्य प्रयोजन में उपयोग पर रोक लगाई।
इतना ही नहीं इसी बाड़मेर जिले की पचपदरा तहसील में केंद्र सरकार द्वारा रिफाइनरी लगाने का काम युद्ध स्तर पर चल रहा है। विकास के इस दौड़ में प्रकृति और जन-जीवन हाशिये पर है। रिफाइनरी के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया है। अधिग्रहित भूमि की सीमा पर कई गांव आते हैं, उनमें से एक गांव सांभरा भी है।
यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती और पशुपालन रहा है। पीने के पानी की किल्लत को ध्यान में रखते हुए स्थानीय समुदाय ने उचित स्थानों पर जल स्रोतों का निर्माण कर मीठे पानी के संग्रहण की व्यवस्था बनाई। लेकिन रिफाइनरी के लिए अधिग्रहित की गई भूमि में सांभरा का कुम्हारिया तालाब भी शामिल है।
सैटलमेंट के दौरान राजस्व रिकॉर्ड में तालाब की भूमि दर्ज नहीं होने के कारण यह रिफाइनरी की चारदीवारी में कैद हो गया। स्थानीय समुदाय ने प्रशासन से तालाब को बचाने की मांग की, लेकिन उनकी आवाज अनसुनी कर दी गयी। इसके बाद लोगों को सरला तालाब से उम्मीद थी। लेकिन रिफाइनरी एवं सड़कों के निर्माण के लिए उसे भी नष्ट कर दिया गया। गांव वालों ने स्थानीय प्रशासन से इसकी गुहार लगाई, तो प्रशासन ने नया तालाब बनवाने का आश्वासन देकर पल्ला झाड़ लिया। लेकिन कंपनी के खिलाफ कार्यवाही नहीं हुई। अब बरसात के दिनों में अवैध खान के गड्ढों में पानी भर जाने से जाने से बीमारियां और जानमाल का खतरा बढ़ गया है। गरीब लोगों की गुहार ना अफसर सुनते हैं, ना ही नेता।
बाड़मेर जिले के ही खारड़ी गांव के चारागाह में बने जल स्रोत से गांव के लोग सदियों से पानी पीते आ रहे थे। लेकिन सड़क निर्माण के नाम पर इसे भी खत्म कर दिया गया। यहां की पत्थरिली चट्टानें और चारागाह का मैदान लोगों की आजीविका के साथ-साथ पारिस्थिकी तंत्र को बनाए रखने में महत्वपूर्ण है। खनन विभाग ने चट्टानों को तोड़कर पत्थर निकालने का लीज निजी कंपनी को दे दिया, तो नाडे से मिट्टी का अवैध खनन स्थानीय दबंगों ने चालू कर दिया।
यह सारी मिट्टी ग्राम पंचायतों के विकास कार्यों के लिए खरीदी गयी। महात्मा गांधी नरेगा में ग्रेवल सड़क निर्माण के लिए उपयोग हुआ। आम लोगों के विरोध के बावजूद खनन और राजस्व विभाग के लोकसेवक खनन माफिया के बचाव में खड़े दिखे। गांव की निगरानी पर अवैध खनन तो रूका, लेकिन प्रशासन ने खनन माफियाओं के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। इसी कारण से क्षेत्र के बहुत से तालाब और चारागाह अवैध खनन के शिकार हुए हैं।
यह घटनाएं केवल राजस्थान तक ही सीमित नहीं है बल्कि समूचे देश में जहां भी जल स्रोत, पशु चारागाह, वन, खलिहान जैसे प्राकृतिक संसाधन सदियों से समुदाय द्वारा सुरक्षित व संरक्षित हैं, उन्हें विकास की असंतुलित हवस का शिकार बनाया जा रहा है।
मनुष्य यह भूल रहा है कि यह मात्र जमीन के टुकड़े नहीं हैं जिनको विकास के लिए बलि दे दी जाए बल्कि यह पृथ्वी के फेफड़े हैं। जो धरती को बर्बाद होने से बचाता है। सवाल उठता है कि इन संसाधनों को कैसे बचाया जाये? माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा शामलात संसाधनों के संरक्षण और सुरक्षा को लेकर दिए गये फैसले और राज्य सरकारों को दिए गये निर्देश के बावजूद इन संसाधनों की किस्म परिवर्तन कर अन्य प्रयोजन में उपयोग, अतिक्रमण और अवैध खनन का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
ऐसा लगता है कि सतत विकास लक्ष्य सूचकांक केवल दिखावे भर के लिए प्रचारित किए जा रहे हैं, विकास योजनाओं से उनका कोई सरोकार नहीं है। ऐसे में गांव और शहर के लोगों को मिलकर इन प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और सुरक्षा के लिए एकजुटता दिखाने की जरूरत है। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब रेगिस्तान के प्राकृतिक परिवेश को विकास के नाम पर बर्बाद कर दिया जाएगा, जिसकी भरपाई आने वाली सात पीढ़ियां भी नहीं कर पाएंगी।
महेश मीणा
बजट : पर्यावरण संरक्षण के नजरिए से वैश्विक रूझानों के अनुरूप
देश के आम बजट में जलवायु परिवर्तन से उपजे खतरों व पर्यावरण सुरक्षा आदि को लेकर सकारात्मक पहल की गई है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश करते हुए जलवायु परिवर्तन के खतरों का जिक्र किया। जिन्होंने कहा कि परियोजनाओं के निर्माण में प्राकृतिक आपदाओं के खतरे का ध्यान रखा जाएगा। जलवायु परिवर्तन के चलते प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं। लेकिन योजनाओं को बनाते समय खतरे का पूर्व आंकलन किया जाए तो इसे कम किया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने और स्वच्छ हवा के लिए सरकार की घोषणाएं सकारात्मक हैं। बजट में सरकार ने इस मुद्दे को प्रमुखता देकर इसकी गंभीरता को समझा है
पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए बजट में 4400 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। पिछले साल यह राशि 311.20 करोड़ रूपए थी।
घटते वन बने चुनौती
भारत में 771821 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र के संरक्षण एवं संवर्द्धन के साथ शहरी क्षेत्रों में प्रदूषित हवा को स्वच्छ करना अब चुनौती बनता जा रहा है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देख में 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले 53 शहर प्रदूषण से जूझ रहे हैं। इनमें दिल्ली, मुॅंबई और कोलकाता ऐसे शहर हैं, जिनकी जनसंख्या 01 करोड़ से भी ऊपर है। शहरी केन्द्रों के लिए 2.271 करोड़ रूपए मुहैया कराने का प्रावधान किया है। गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण से निपटने के लिए पुराने और अनुपयुक्त वाहनों को हटाने के लिए स्वैच्छिक वाहन स्क्रैपिंग नीति की बात भी की है।
देश के पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिए 1988 की वन नीति के अनुसार पहाड़ी क्षेत्रों में कुल क्षेत्रफल का दो तिहाई और मैदानी क्षेत्र में एक तिहाई वनावरण होना चाहिए। लेकिन अब तक देश का वनावरण 21.67 फीसदी तक पहुॅंच सका है। भारत के वनों की कुल वार्षिक कार्बन स्टॉक में वृद्धि 21.3 मिलियन टन है, जो कि लगभग 78.1 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर है।
कार्बन सिंक एक प्राक्रतिक या कृत्रिम भंडार है जो कि वातावरण में अनिश्चित अवधि के लिए कुछ मात्रा में कार्बन युक्त रासायनिक अवयवों का भंडारण करता है। यह भंडारण वनारोपण, कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज से किया जाता है।
ऊर्जा के विकल्प
इस बार के बजट में उपभोक्ता को अपनी बिजली कम्पनी चुनने का अधिकार देने की बात कही गई है। रिन्यूएबल से लेकर हाइड्रोजन के विकल्प उपभोक्ता के पास होंगे। इससे विद्युत कम्पनियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और उसका सीधा लाभ उपभोक्ताओं को मिलेगा। बजट में सौर ऊर्जा निगम को 1000 करोड़ रूपए मिले, वहीं नवीकरणीय ऊर्जा विकास एजेंसी को 1500 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया।
शहरी प्रदूषण
वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले 42 शहरी केन्द्रों के लिए 2217 करोड़ रूपए मुहैया करवाने का फैसला किया गया, जो अगले पांच वर्षों के लिए प्रतिवर्ष 450 करोड़ रूपए है।
सार्वजनिक परिवहन
परिवहन के क्षेत्र में सार्वजनिक बस सेवा को मजबूती प्रदान करने के लिए आबंटन तो किया है, लेकिन चलने वाले इलेक्ट्रिक होंगे या नहीं, स्पष्ट नहीं किया है। सार्वजनिक परिवहन के बारे में डब्ल्यूआरआई इंडिया के सीईओ डॉक्टर ओपी अग्रवाल कहते हैं, ‘‘विनिर्माण और समावेशी विकास बजट 2021-22 के छह स्तंभों में से एक है। इसमें सार्वजनिक परिवहन को तरजीह दी गई है। नगरीय इलाकों में सार्वजनिक परिवहन की तरजीह दी गई है। नगदीय इलाकों में सार्वजनिक परिवहन की बसों के लिए 18000 करोड़ रूपए का आबंटन, ब्राड गेज रेल पटरियों के लिए 100 फीसदी विद्युतिकरण होगा। वर्ष 2030 तक रेलवे के साजो-सामान संबंधी लागतों को कम करने के लिए छोटे शहरों के लिए मेट्रो नियो सेवाएं शुरू करने का ऐलान किया है।
अक्षय ऊर्जा
भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शामिल है, जिन्होंने सन 2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। राष्ट्रीय विद्युतीकरण रणनीति से भी ऊर्जा सम्बन्धी लक्ष्यों को हासिल करने में जरूरी तेजी आएगी। लेकिन किफायती अक्षण ऊर्जा की हिस्सेदारी और योगदान बढ़ने के साथ भविष्य की तस्वीर साफ होती जा रही है। सौर और वायु विद्युत को स्टोर करने वाली बैटरी स्टोरेज जैसी प्रौद्योगिकी में निवेश का काम स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध कराने के लिहाज से बेहत महत्वपूर्ण होगा।
बढ़ती मौतें प्रदूषित हवा से
राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत् ‘ग्रीन इंडिया मिशन’ 2030 तक 10 मिलियन हेक्टेयर में वृक्षारोपण करने की योजना में काम किया जा रहा है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग की वैश्विक समस्या से निपटने के लिए सरकार ने ‘आईआईटी’ कानपुर के साथ मिलकर राष्ट्रीय पशु गुणवत्ता सूचकांक शुरू किया था। 2019 में भारत ने 2024 तक 20 से 30 फीसदी तक की कमी लाने के लिए ‘द नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम’ की शुरूआत की है। यह कार्यक्रम देश के उन 102 शहरों के लिए है, जहॉं वायु गुणवत्ता सबसे खराब है।
2020 में कोविड-19 की वजह से देश में डेढ़ लाख लोगों की मौत हुई, वहीं वायु प्रदूषण से 18 लाख लोगों की मौत हुई।
बहरहाल बजट से हरित आर्थिक तंत्र के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होता नजर आया। पर्यावरणीय संरक्षण के मामले में सरकार द्वारा पेश किया बजट वैश्विक रूझानों के अनुरूप है। दुनिया जिस तरह प्रदूषण के भंवर में फंसती जा रही है, उससे बचने के लिए हर देश कोशिश कर रहा है। हमारी धरती ही हमारा पालन करती है। यही इंसान का घर है और अपने घर को बचाए रखना सबसे जरूरी है।
रविन्द्र गिन्नौरे