एक ग्लोबल माडल के हिसाब से अगले 20 सालों में हम दुनिया में प्लास्टिक की गंभीर समस्या से जूझ रहे होंगे। इस रिपोर्ट के अनुसार अगर वक्त पर कदम नहीं उठाए गए तो 2040 तक करीब 1.3 अरब टन प्लास्टिक हमारी धरती पर मौजूद होगा। यह रिपोर्ट जर्नल साइंस में छपी है।
यूनिवर्सिटी आफ लीड्स के डॉ. कोस्टास वेलिस कहते हैं कि यह आंकड़ा चौंकाने वाला है, लेकिन इस चुनौती से निबटने के लिए हमारे पास टेक्नोलाजी भी है और मौका भी है। डा. वेलिस बताते हैं, ‘अगले 20 साल में किस तरह की तस्वीर हो सकती है उसके बारे में यह पहला व्यापक आकलन है। इतना बड़ा आकलन करना मुश्किल काम है, लेकिन अगर आप पूरी प्लास्टिक को एक समतल सतह पर बिछाना शुरू कर दें तो यह ब्रिटेन का पूरा क्षेत्रफल 1।5 गुना तक के हिस्से को ढंक लेगा।’
वे कहते हैं, ‘इसका अनुमान लगाना जटिल है क्योंकि प्लास्टिक हर जगह और दुनिया के हर हिस्से में मौजूद है। इसका इस्तेमाल कैसे किया जाए और इससे कैसे निबटा जाए यह एक आसान काम नहीं है।’
इस्तेमाल और निस्तारण के आंकड़ों का इस्तेमाल
इस मुश्किल समस्या को आंकड़ों में बदलने के लिए शोधार्थियों ने पूरी दुनिया में प्लास्टिक के उत्पादन, इस्तेमाल और इसे ठिकाने लगाने का पता लगाया है। इसके बाद टीम ने एक माडल तैयार किया ताकि भविष्य की प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या का अनुमान लगाया जा सके।
वे इसे एक सामान्य प्रक्रिया बताते हैं। प्लास्टिक उत्पादन में बढ़ोतरी के मौजूदा ट्रेंड और इसके दोबारा इस्तेमाल और रीसाइक्लिंग की मात्रा में कोई खास बदलाव न होने के आधार पर शोधार्थी बताते हैं कि 2040 में दुनियाभर में 1.3 अरब टन प्लास्टिक हो जाएगा।
अलग-अलग परिदृश्य में क्या होंगे हालात
अपने माडल में एडजस्ट करते हुए शोधार्थियों के पास इस बात की आजादी है कि वे ये बता सकें कि अलग-अलग बदलाव के कारण इस आंकड़े पर कितना तक असर पड़ सकता है। उन्होंने रीसाइक्लिंग में इजाफा होने, उत्पादन में कमी आने और प्लास्टिक की जगह पर दूसरे मैटेरियल्स के इस्तेमाल करने के आधार पर अपने माडल्स में बदलाव भी किए हैं।
इस रिसर्च के लिए फंडिंग करने वाली अमरीकी प्यू चौरिटेबल ट्रस्ट्स की विनी लाउ ने बताया कि हर संभावित समाधान को काम में लाना बेहद जरूरी है। वे कहती हैं, ‘अगर हम ऐसा करते हैं तो हम 2040 तक समुद्र में जाने वाले प्लास्टिक की मात्रा को 80 फीसदी तक घटा सकते हैं।’
शोधार्थियों ने सुझाए कुछ उपाय
-प्लास्टिक के उत्पादन और खपत में आ रही बढ़ोतरी को कम किया जाए। -प्लास्टिक की जगह पर कागज, जूट और दूसरे गलकर खघ्त्म हो जाने वाले मैटेरियल्स के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाए। री-साइक्लिंग के लिए उत्पादों और पैकेजिंग मैटिरीयल्स डिजाइन किया जाए। -मध्य और कम आय वाले देशों में कचरा एकत्र करने की दर बढ़ाई जाए और असंगठित सेक्टर को सपोर्ट दिया जाए
-बिल्डिंग फैघ्सिलिटीज अपने यहां रीसाइकल न हो पाने वाली 23 फीसदी प्लास्टिक का निबटान खुद करें। -प्लास्टिक कचरे के निर्यात में कमी लाई जाए।
डॉ. वेलिस बताते हैं कि अगर सभी संभव कदम उठाए भी जाएं तब भी माडल से पता चलता है कि अगले दो दशकों में 71 करोड़ टन अतिरिक्त प्लास्टिक कचरा पर्यावरण में दाखिल हो जाएगा।
प्लास्टिक की समस्या का कोई पुख्ता इलाज नहीं
प्लास्टिक की समस्या को सुलझाने का कोई पुख्ता उपाय नहीं है। इस स्टडी में एक ऐसे तथ्य पर रोशनी डाली गई है जिसे अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। इसमें बताया गया है कि ग्लोबल साउथ (मोटे तौर पर इसमें अफ्रीकी, लैटिन अमरीकी और एशिया के विकासशील देश आते हैं) के करीब 2 अरब लोगों के पास कचरा निस्तारण की सुविधा मौजूद नहीं है। डॉ. वेलिस कहते हैं, ‘उन्हें या तो अपना कचरा जलाना होता है या फिर इसे कहीं फेंकना पड़ता है।’
दुनिया के सामने गंभीर चुनौती
डॉ. वेलिस कहते हैं, ‘कचरा इकट्ठा करने वाले और बीनने वाले रीसाइक्लिंग के मोर्चे के ऐसे सिपाही हैं जिनकी कोई तारीफ नहीं होती है।’ वे कहते हैं कि इन लोगों की मदद और सपोर्ट के लिए नीतियां बननी चाहिए।
यूनिवर्सिटी आफ मैनचेस्टर के डॉ. इआन केन इस स्टडी के आंकड़े से उभरी तस्वीर को भयावह बताते हैं। केन हाल तक एक ऐसी टीम का हिस्सा थे जिसने समुद्र तल में मौजूद माइक्रो प्लास्टिक की मात्रा का आकलन किया था। वे कहते हैं, ‘दुनियाभर में बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए जिस दर से प्लास्टिक का उत्पादन बढ़ रहा है उसके पर्यावरण के लिए दुष्परिणाम काफी भयानक होने वाले हैं।’
विक्टोरिया गिल
भारत में क्या होगा प्लास्टिक सड़कों का भविष्य
नई दिल्ली की एक सड़क पर रोजाना अनगिनत कारें, कई टन प्लास्टिक की थैलियों, बोतलों के ढक्कनों और इधर-उधर यूं ही फेंक दिए गए पालिस्टरिन कपों से होकर गुजरती हैं। इस सड़क पर गाड़ी चलाता हुआ ड्राइवर एक ही किलोमीटर में कई टन प्लास्टिक के कचरे से होकर गुजरता है। लेकिन उसे इस यात्रा के दौरान कोई गंदगी नहीं दिखती। न तो सड़क पर प्लास्टिक फैला मिलता है न कहीं से कोई बदबू आती है।
दरअसल वह एक ऐसी सड़क से गुजर रहा होता है, जो प्लास्टिक से बनी हुई है। यह सड़क नई दिल्ली से मेरठ तक जाती है। सड़क जिस तकनीक पर बनी है,उसे त्यागराजार कालेज आफ इंजीनियरिंग के केमिस्ट्री के प्रोफेसर राजगोपालन वासुदेवन ने विकसित किया है। इस तकनीक से सड़क बनाते वक्त नब्बे फीसदी कोलतार में दस फीसदी दोबारा इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक कचरा मिलाया जाता है।
प्लास्टिक कचरे से सड़क बनाने में भारत आगे
साल 2000 की शुरुआत से ही भारत सड़क बनाने की तकनीक में प्लास्टिक-तार (प्लास्टिक और कोलतार) का प्रयोग कर रहा है। इस मामले में वह दुनिया के अग्रणी देशों में शामिल है।
लेकिन अब और भी कई देश इस दौड़ में शामिल हो गए हैं। अब तो घाना से लेकर नीदरलैंड तक, सड़कें और दूसरे तमाम रास्ते बनाने के लिए प्लास्टिक का इस्तेमाल कर रहे हैं।
इससे वो कार्बन उत्सर्जन तो घटा ही रहे हैं, साथ ही समुद्र और लैंडफिल में फेंके गए प्लास्टिक को लाकर सड़क बनाने में इस्तेमाल कर के अपनी सड़कों की उम्र भी बढ़ा रहे हैं।
साल 2040 तक पूरी दुनिया के पर्यावरण में 1.3 अरब टन प्लास्टिक जमा हो जाएगा। खुद भारत ही हर साल 33 लाख टन से अधिक प्लास्टिक पैदा करता है। इतना ज्यादा प्लास्टिक का पैदा होना ही वासुदेवन के इस प्रयोग की प्रेरणा बन गया। इसी ने उन्हें सड़क बनाने में प्लास्टिक के इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया।
बगैर तकनीकी ताम-झाम वाली सरल प्रक्रिया
दरअसल सड़क बनाने में प्लास्टिक का इस्तेमाल की प्रक्रिया बेहद सरल है। इसके लिए ज्यादा तकनीकी तामझाम की जरूरत नहीं पड़ती। इसमें प्लास्टिक कचरे के टुकड़े सड़क बनाने के लिए डाली गई गिट्टियों (पत्थर के टुकड़े) और रेत पर बिछा दी जाती हैं।
इसके बाद इसे 170 डिग्री सेंटिग्रेड का ताप दिया जाता है, इससे यह प्लास्टिक कचरा पूरी तरह पिघल जाता है। इस पिघले प्लास्टिक की कोटिंग सड़क पर हो जाती है। इसके ऊपर गर्म कोलतार बिछा दिया जाता है।
फिर रेत, गिट्टियों और यह पिघला हुआ प्लास्टिक कचरा ठोस शक्ल अख्तियार कर लेता है। इस तरह यह मिक्सचर मुकम्मल हो जाता है। सड़क बनाने के मिक्सचर में प्लास्टिक का इस्तेमाल इसके टूटने की गति धीमी कर देता है। साथ ही इसमें गड्ढे भी कम पड़ते हैं।
प्लास्टिक कंटेंट सतह के लचीलेपन को बढ़ा देता है। दस साल पहले वासुदेवन ने इस तकनीक का इस्तेमाल कर जो सड़कें बनवाई थीं, उनमें गड्ढे का कोई निशान नहीं दिखता। हालांकि प्लास्टिक की ज्यादातर सड़कें नई हैं, और अभी यह देखना है आगे ये कितने सालों तक टिकाऊ रहती हैं।
वासुदेवन के हिसाब से प्लास्टिक कचरे को जलाने के बजाय इसका इस्तेमाल किया जाए तो प्रति किलोमीटर पैदा होने वाले कार्बनडाइक्साइड में तीन टन की कमी हो सकती है। इसके आर्थिक फायदे भी हैं। सड़क बनाने में प्लास्टिक का प्रति किलोमीटर 670 डालर बचाता है।
प्लास्टिक से बनी सड़कें ज्यादा टिकाऊ और वजन सहने वाली
साल 2015 में भारत सरकार ने पांच लाख से ज्यादा की आबादी वाले बड़े शहरों के नजदीक बनाई जाने वाली सड़कों में प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल अनिवार्य बना दिया।
वासुदेवन ने सड़क बनाने के इस तकनीक का अपना पेटेंट सरकार को मुफ्त में दे दिया था। एक सिंगल लेन की एक किलोमीटर साधारण सड़क बनाने में दस टन कोलतार की जरूरत होती है।
भारत हर साल हजारों किलोमीटर सड़क बनाता है इसलिए प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है। अब तक प्लास्टिक-तार की 2,500 किलोमीटर सड़क बनाई जा चुकी है।
वासुदेवन कहते हैं, ‘प्लास्टिक-तार से बनी सड़कों में भारी वजन और हैवी ट्रैफिक सहने की क्षमता होती है। इस पर बारिश के पानी या जल-जमाव का कोई असर नहीं होता।’
दुनिया भर में अब प्लास्टिक कचरे से सड़कें बनाने की कई परियोजनाएं चल रही हैं। केमिकल फर्म डाउ पालिएथिलिन वाली री-साइकिल्ड प्लास्टिक का इस्तेमाल अमेरिका और एशिया प्रशांत क्षेत्र की अपनी परियोजनाओं में कर रही है।
ब्रिटेन में ऐसी पहली सड़क स्काटलैंड में 2019 में बनाई गई। इसे प्लास्टिक रोड बनाने वाली कंपनी मेकरेबर ने बनाया था। इसी ने स्लोवाकिया से दक्षिण अफ्रीका तक प्लास्टिक का इस्तेमाल करते हुए सड़क बनाई थी।
मेकरेबर ने यह भी देखा कि सड़क बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली सामग्री में प्लास्टिक मिलाने से इसका लचीलापन बढ़ता है। इस वजह से ये तापमान बढ़ने और घटने को सही तरीके से सह लेती हैं। लिहाजा सड़कों में गड्ढे कम बनते हैं।
जहां गड्ढे बनते हैं वहां इसका इस्तेमाल कर इसे आसानी से भर भी दिया जा सकता है। ब्रिटेन सरकार ने हाल में प्लास्टिक की सड़कों पर रिसर्च करने के लिए 10.6 लाख पाउंड जारी करने का ऐलान किया है। यह रकम सड़कों में गड्ढे पड़ने की समस्या सुलझाने में मदद करेगी।
नीदरलैंड में 2018 में दुनिया में पहली बार रीसाइकिल की हुई प्लास्टिक की सड़क बनी। इसे बनाने वाली कंपनी प्लास्टिकरोड ने स्थानीय स्तर पर जमा किए गए प्लास्टिक की पहले छंटाई की। फिर इसके टुकड़े काट कर और इसे साफ कर प्रोपिलिन निकाला गया। यह प्लास्टिक अमूमन फेस्टिवल मग, कास्मेटिक पैकेजिंग, बोतलों के ढक्कनों और प्लास्टिक स्ट्रा में मिलता है।
भारत और ब्रिटेन में सड़क बनाने के लिए प्लास्टिक-तार (प्लास्टिक और कोलतार) का इस्तेमाल होता है लेकिन प्लास्टिकरोड की को-फाउंडर अन्ना काडस्टाल कहती हैं कि उनकी कंपनी कोलतार का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करती। कंपनी की बनाई हुई सड़क पूरी तरह रीसाइकिल की हुई प्लास्टिक की होती है। सड़क के ऊपर मिनरल की एक पतली परत भर होती है।
काडस्टाल कहती हैं कि प्लास्टिक का एक वर्ग मीटर साइकिल पथ बनाने में 25 किलो री-साइकिल किया हुआ प्लास्टिक कचरा लगता है। परंपरागत टाइल वाले साइकिल पथ की तुलना में इसे बनाने में 52 फीसदी कम कार्बन का उत्सर्जन होता है।
प्लास्टिक सड़कों से कम पैदा होता है माइक्रोप्लास्टिक
लेकिन एक बार सड़क या रास्ता बनाते वक्त प्लास्टिक के इस्तेमाल के बाद यह कैसे पक्का किया जाए कि इसके घिसने से माइक्रोप्लास्टिक न पैदा हो? इसकी क्या गारंटी है इससे मिट्टी, पानी और हवा प्रदूषित नहीं होगी ?
इस सवाल के जवाब में काडस्टाल कहती हैं, ‘साधारण टायर और कार के ब्रेक पहले से ही माइक्रोप्लास्टिक के बड़े स्रोत के तौर पर मौजूद हैं। लेकिन प्लास्टिक से बने रास्ते पारंपरिक सड़कों की तुलना में कम माइक्रोप्लास्टिक पैदा करते हैं क्योंकि इसका इस्तेमाल करने वाले सीधे प्लास्टिक के संपर्क में नहीं आते।’
बर्मिंघम यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट आफ सिविल इंजीनियरिंग के सीनियर प्रोफेसर गुरमेल घटौरा भी मानते हैं कि सड़क की निचली सतह पर प्लास्टिक के इस्तेमाल से अतिरिक्त माइक्रोप्लास्टिक पैदा होने का जोखिम कम हो जाता है। हालांकि इसकी आशंका पूरी तरह खत्म नहीं होती। सड़कों पर ट्रैफिक आने-जाने से ऐसे कण (माइक्रोप्लास्टिक) तो पैदा होते ही हैं।
भारत में दुनिया के सबसे बड़े सड़क नेटवर्कों में से एक मौजूद है। इसमें हर साल 10 हजार किलोमीटर सड़क और जुड़ रही है। लिहाजा यहां सड़क बनाने में प्लास्टिक के इस्तेमाल की संभावनाएं भी काफी अच्छी है।
हालांकि यह तकनीक भारत और पूरी दुनिया के लिए अभी थोड़ी नई ही है। लेकिन वासुदेवन को पूरा भरोसा है कि प्लास्टिक की सड़कों को लोकप्रियता मिलती रहेगी। इन सड़कों को लोग न सिर्फ पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से पसंद करेंगे बल्कि ये लंबे समय तक टिकने और ज्यादा दबाव झेलने वाली सड़कों के तौर पर जानी जाएंगीं।
अंशिता सिंह