भारत सरकार ने वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए 38.83 लाख करोड़ रूपए व्यय करने का प्रावधान किया है जो कि पूर्व के वर्ष के प्रावधान से लगभग 12%अधिक है। पर कोविड-19 के कारण इस व्यय हेतु अनुमानित आय को पूर्व के वर्ष से 23% कम आंकते हुए, लगभग 19.76 लाख करोड़ रूपयों तक होने का अनुमान किया गया है। इन सबके बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (ग्रास डामेस्टिक प्रोडक्ट (GDP) में 14% की वृद्धि का अनुमान है। इस वर्ष में वित्तीय घाटे को 5.1% तक सीमित रखने का लक्ष्य भी है।
उपरोक्त धनराशि के निवेश में सर्वोच्च प्राथमिकता जल शक्ति मंत्रालय को सर्वाधिक धन राशि के आबंटन से की गई है। तदुपरांत खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति एवं संचार मंत्रालय को दिया गया है। संपूर्ण बजट में आधारभूत पर्यावरण को सुधारने हेतु, पर्यावरण संरक्षण हेतु, नूतन आधुनिक तकनीकी एवं ज्ञान विकसित करने हेतु कोई सार्थक प्रयास नहीं किए गए हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि अर्थव्यवस्था के नियोजकों को इस बात का किंचित भी भान नहीं है कि पर्यावरण विनाश से तथा प्रदूषण वृद्धि से अर्थव्यवस्था पर कितना बोझ पड़ रहा है। ऐसी कितनी ही अधोसंरचनाओं के निर्माण तथा रखरखाव में होने वाले व्यय को एक बेहतर पर्यावरण को संरक्षित करके भी बचाया जा सकता है।
यह एक चिंताजनक स्थिति है कि सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण संरक्षण को एक अंतिम श्रृंखला का कृत्य रखा गया है। जबकि कोरोना के आंरभ में जब लाकडाउन लगाया गया था, प्रारंभिक 2-3 माह के अंतर्गत् प्रकृति के प्रस्फुटित निर्मलता ने यह सिद्ध कर दिया था कि विश्व का हित पर्यावरण संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता देने पर ही है।
मेरा विश्वास है कि यदि भारत सरकार विज्ञान तथा प्रगति के निजी क्षेत्र में अनुसंधान तथा विकास में लगे वैज्ञानिकों को भी अनुसंधान तथा विकास हेतु प्रोत्साहित करे तो हम औद्योगिक निर्माण प्रक्रियाओं से पर्यावरण पर पड़ रहे भार को 50% तक कम कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त रासायनिक कृषि से उत्पन्न समस्याओं का समाधान भी किया जा सकता है। किन्तु विडंबना यह है कि वर्तमान बजट में तथा केन्द्र सरकार की समस्त योजनाओं में निजी क्षेत्र के अनुसंधानकर्ता उद्यमियों के लिए कोई सार्थक प्रावधान नहीं है। जबकि आवश्यकता यह है कि औद्योगिक उत्पादों के निर्माण प्रक्रियाओं से उत्पन्न हो रहे प्रदूषण को न्यूनतम करने के लिए तकनीकी विकास को प्रोत्साहित किया जावे, अनुसंधान को समर्थन दिया जावे। वायु प्रदूषण नियंत्रण, जल प्रदूषण नियंत्रण, जल खपत को कम करने, वर्षा जल संधारण की अभिवृद्धि करने, वाटर शेड मैनेजमेंट हेतु नदियों-नालों को पुनर्जीवित करने हेतु कोई सार्थक संसाधन या नीति को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जावे, पर ऐसी दूरदृष्टि कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती है।
समय-समय पर राजनेताओं एवं मंत्रियों ने गंदे नाले के पानी से मीथेन बनाने, पयाली से बायो एथेनाल बनाने, इत्यादि अपशिष्ठ पदार्थों के पुनःचक्रण को फलीभूत करने, पेट्रोलिअम उपभोग को कम करने हेतु 20 से 30 प्रतिशत तक बायो एथेनाल का उपभोग करने आदि स्वच्छ तकनीकियों के विकास का राजनेताओं ने खूब ढिंढोरा भी पीटा है। इसका खूब प्रचार-प्रसार कर वाहवाही भी बटोरी है। पर अभी तक ये पद्धति भी लोकप्रिय नहीं हो पाई है, सर्वजन तक सुलभ नहीं हो पाई है। जबकि ये तकनीकियां एवं विज्ञान 25 वर्षों से सुविकसित हो कर वैज्ञानिकों एवं प्रशासनिकों के बीच भटकाव खा रहा है। कारण यह है कि यद्यपि दूषित जल-मल से मीथेन उत्पादन हेतु पर्याप्त तकनीकी भारत में अनेकों वैज्ञानिकों ने विकसित कर ली है। पर प्राकृतिक गैस के मुफ्त दोहन के सामने दूषित जल-मल से उत्पन्न मीथेन परियोजनाओं के ब्याज के बोझ एवं संचालन के भार का भुगतान करके आर्थिक लाभ कमाना कठिन है। इसी तरह यद्यपि धान के पैरा, गेंहू की पयाली और अन्य बायोमास तथा कनक से बायो एथेनाल बनाने की श्रेष्ठतम विधियां विकसित हो गई हैं। पर हर वर्ष दिल्ली की जनता त्राहि-त्राहि करती है, फिर भी इसके उपयोग करने हेतु परियोजना स्थापित नहीं हो पाती, क्योंकि जमीन से कच्चा तेल मुफ्त में खोदकर बेचने वालों के सामने इन जटिल प्रक्रियाओं से एथेनाल बनाकर विक्रय करने हेतु परियोजना स्थापना निवेश के ब्याज एवं संचालन के भार का भुगतान कर धन अर्जन करना उद्योगों के लिए संभव नहीं है।
सम्पूर्ण विश्व में अनेकों बार मौसम परिवर्तन को रोकने हेतु हरितकारी गैस उत्सर्जन ईंधनों पर टैक्स रोपने की बात की जाती रही है, पर इसे रोपित नहीं किया गया। यदि भारत सरकार साहस करके क्रूड ऑयल पर 30 रूपए लीटर का पर्यावरण दुष्प्रभाव ‘कर’ लगा कर सेलुलोजिक बायो एथेनाल उत्पादकों को 85 रूपए लीटर का बाजार मूल्य गारंटी कर दे तो पूरे भारत से बायोमास अपशिष्ठ की समस्या समाप्त हो सकती है। इसी प्रकार कनक से बने बायो एथेनाल को 75 रूपए/लीटर पर खरीदने का अनुबंध कर ले तो पूरे भारत में किसानों की दरिद्रता समाप्त हो सकती है। इसी तरह नेचुरल गैस पर 20 रूपए प्रति घनमीटर का पर्यावरण टैक्स लगा कर, बायो मीथेन को 65 रूपए घनमीटर खरीदने लगे तो पूरे भारत के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों से बायो मीथेन बनाया जा सकता है।
इन प्रावधानों से भारत सरकारका क्रूड सब्सीडी में होने वाला 42 लाख करोड़ रूपए का वार्षिक व्यय, फर्टिलाइजर सब्सीडी पर 0.70 लाख करोड़ रूपए का वार्षिक व्यय एवं पेट्रोलियम सब्सीडी पर 0.15 लाख करोड़ रूपए वार्षिक व्यय बच सकता है। इससे पर्यावरण को होने वाली हानि में कम से कम 50 लाख करोड़ रूपयों की बचत होगी। इन उपायों से हम अपने क्रूड आयल के आयात के बोझ को 30% तक कम कर सकते हैं, साथ ही देश में लगभग 120 लाख लोगों के लिए आगामी 3 सालों में रोजगार सृजन कर सकते हैं।
इनके साथ ही भारत सरकार यदि अंग्रेजों के बनाए कानूनों में सुधार कर वर्तमान संचार तथा आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकियों का आश्रय लेकर नियमों में अनावश्यक प्रक्रियाओं एवं अनावश्यक नियमों का त्याग कर देती है, तो शासकीय स्थापना व्यय में 50% की कमी आ सकती है। वर्तमान सरकार के कर्मचारियों एवं अधिकारियों की संख्या में भी 30% कटौती हो सकती है। इस देश के नागरिक 70 वर्षों से ऐसे कानून तंत्र की अपेक्षा करते हैं, जिसमें कि उनकी निरंतर भागीदारी हो, जिसमें कि उन्हें पारदर्शिता प्रतीत हो। आज भी इस देश में आजादी के पूर्व की अनेकों प्रक्रियाओं से सरकार का संचालन हो रहा है, जिससे आजादी के लिए हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने कुर्बानी दी थी। इन जटिल कानूनी प्रक्रियाओं से देश के पर्यावरण को भी गंभीर क्षति पहुॅंच रही है। तदैव आवश्यकता है कि इन कानूनी प्रक्रियाओं में आमूल-चूल परिवर्तन किया जावे, ताकि देश का आर्थिक एवं सामाजिक विकास तीव्र गति से धारणीय स्वरूप में संभव हो सके।
पर्यावरण संरक्षण के लिए और प्रकृति को बचाने के लिए सरकार की वर्तमान कार्य दक्षता में वृद्धि तथा खर्चा में कमी जरूरी है, तो पर्यावरण संरक्षण तकनीकी एवं वैज्ञानिक अनुसंधान को भी बढ़ावा देना जरूरी है।
–संपादक