1970 के दशक में, तेल संकट की शुरुआत से ही दुनिया भर में नाभिकीय उर्जा संयंत्रों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई। साथ ही पवन और सौर उर्जा को भी जीवाश्म ईंधन के विकल्प के रूप में देखा गया। इन सभी स्रोतों ने बिजली पैदा करने के लिए कम कार्बन उत्सर्जन का आश्वासन भी दिया।
वाशिंगटन के जेफ जानसन ने अमेरिकन केमिकल सोसाइटी की पत्रिका केमिकल एंड इंजीनियरिंग न्यूज़ में प्रकाशित अपने लेख में इन गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित संसाधनों की धीमी वृद्धि और कोयले एवं तेल पर हमारी निर्भरता को तेज़ी से कम करने के लिए विशेष उपाय करने की ज़रूरत की ओर ध्यान आकर्षित किया है। जेफ जानसन, पेरिस स्थित एक स्वायत्त अंतर-सरकारी संगठन, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहते हैं कि यदि सरकारें हस्तक्षेप नहीं करती हैं तो 1990 के दशक में नाभिकीय उर्जा का जो योगदान 18 प्रतिशत था वह 2040 तक घटकर मात्र 5 प्रतिशत तक रह जाएगा।
डैटा से पता चलता है कि नवीकरणीय संसाधनों पर ध्यान देने और उनकी बढ़ती उपस्थिति की रिपोर्ट्स के बावजूद विभिन्न प्रकार के ऊर्जा उत्पादन में जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी लगभग आधी सदी से अपरिवर्तित रही है। नवीकरणीय संसाधनों में काफी धीमी वृद्धि हुई है, इसी तरह नाभिकीय उर्जा की हिस्सेदारी भी कम हुई है, कोयले का उपयोग अपरिवर्तित रहा है और तेल की जगह प्राकृतिक गैस का उपयोग होने लगा है।
स्थिति तब और अधिक भयावह नज़र जाती है जब हम देखते हैं कि गैर-जीवाश्म बिजली में कोई बदलाव न होने के पीछे बिजली की मांग में स्थिरता का कारण नहीं है। आंकड़ों से पता चलता है कि बिजली खपत की दर में तेज़ी से वृद्धि हुई है जो आने वाले दशकों में और अधिक होने वाली है।
यह तो स्पष्ट है कि यदि कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के उपयोग में कमी करनी है तो उसकी भरपाई नवीकरणीय संसाधनों और नाभिकीय उर्जा में तेज़ वृद्धि से होनी चाहिए।
नवीकरणीय ऊर्जा में पनबिजली, पवन ऊर्जा और सौर उर्जा शामिल हैं। पनबिजली संयंत्र नदियों पर उपयुक्त स्थल पर निर्भर करते हैं और नए संयंत्र लगाने का मतलब आबादियों और पारिस्थितिक तंत्र को अस्त-व्यस्त करना है।
पवन ऊर्जा की काफी गुंजाइश है लेकिन इसका प्रसार इसकी सीमा तय करता है। साथ ही इसे स्थापित करने के लिए निवेश की काफी आवश्यकता होती है और समय भी लगता है। सौर पैनल अब पहले की तुलना में और अधिक कुशल हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर इन्हें स्थापित करने के लिए काफी ज़मीन की ज़रूरत होगी और ज़मीन पर वैसे ही काफी दबाव है।
इसलिए विकल्प के रूप में हमें नाभिकीय उर्जा को बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इसके कोई दुष्परिणाम नहीं हैं। इसके साथ रेडियोधर्मी अपशिष्ट का उत्पन्न होना, दुर्घटना का जोखिम और भारी लागत जैसी समस्याएं भी हैं। हालांकि, नवीकरणीय संसाधनों की भौतिक सीमाओं को देखते हुए और जीवाश्म ईंधन को आवश्यक रूप से कम करने के लिए, अपशिष्ट के निपटान और सुरक्षा के मानकों के सबसे बेहतरीन उपायों के साथ, नाभिकीय उर्जा ही एकमात्र रास्ता है।
इसी संदर्भ में हमें देखना होगा कि वर्ष 2018 में कुल विश्व उर्जा में नाभिकीय घटक की भागीदारी केवल 10 प्रतिशत रह जाएगी। इसके लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं। एक महत्वपूर्ण कारक की ओर अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा संगठन (आईईए) ने ध्यान दिलाया है। आईईए के अनुसार उत्पादन क्षमता का निर्माण तो हुआ है लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा काफी पुराना हो गया है जिसे प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है।
विकसित देशों में कुल बिजली उत्पादन में नाभिकीय उर्जा की भागीदारी 18 प्रतिशत है। 500 गीगावाट के कुल उत्पादन में से अमेरिका अपने 98 नाभिकीय संयंत्रों से 105 गीगावाट का उत्पादन करता है। फ्रांस अपने 58 नाभिकीय संयंत्रों से 66 गीगावाट का उत्पादन करता है जो कुल बिजली उत्पादन का 70 प्रतिशत है। इसकी तुलना में, भारत में 7 स्थानों पर स्थित 22 नाभिकीय संयंत्रों से 6.8 गीगावाट का उत्पादन होता है जबकि यहां बिजली का कुल उत्पादन 385 गीगावाट है।
आईईए की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका, युरोपीय संघ और रूस के अधिकांश संयंत्र 35 वर्षों से अधिक पुराने हैं। ये संयंत्र या तो अपना 40 वर्षीय जीवन पूरा कर चुके हैं या फिर उसके करीब हैं।
विकसित देशों में पुराने संयंत्रों के स्थान पर नए संयंत्र स्थापित करना कोई विकल्प नहीं है। समय लगने के अलावा, नए संयंत्रों से बिजली उत्पादन की लागत मौजूदा संयंत्रों की तुलना में काफी अधिक होगी। इसके साथ ही नए संयंत्र प्रतिस्पर्धा में असमर्थ होंगे जिसके परिणामस्वरूप जीवाश्म आधारित बिजली का उपयोग बढ़ जाएगा। एक ओर जहां परमाणु संयंत्रों को अपशिष्ट निपटान और सुरक्षा के विशेष उपायों की लागत वहन करना होती है, वहीं जीवाश्म ईंधन आधारित उद्योग को पर्यावरण क्षति के लिए कोई लागत नहीं चुकानी पड़ती है।
इसलिए विकसित देशों में केवल 11 नए संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं, जिनमें से 4 दक्षिण कोरिया में और एक-एक 7 अन्य देशों में हैं। हालांकि, आईईए के अनुसार विकासशील देशों में से, चीन में 11 (46 गीगावाट की क्षमता वाले 46 मौजूदा संयंत्रों के अलावा), भारत में 7, रूस में 6, यूएई में 4 और कुछ अन्य देशों में स्थापित किए जा रहे हैं। सारे के सारे संयंत्र शासकीय स्वामित्व में हैं।
चूंकि कम लागत वाले नए संयंत्रों के किफायती निर्माण के लिए अभी तक कोई माडल मौजूद नहीं है, विकसित देश मौजूदा संयंत्रों को पुनर्निर्मित और विस्तारित करने के लिए कार्य कर रहे हैं। आईईए के आकलन के अनुसार, एक मौजूदा संयंत्र के जीवनकाल को 20 वर्ष तक बढ़ाने की लागत आधे से एक अरब डालर बैठेगी। यह लागत, नए संयंत्र को स्थापित करने की लागत या पवन या सौर उर्जा संयंत्र स्थापित करने की लागत से कम ही होगी और इसको तैयार करने के लिए ज़्यादा समय भी नहीं लगेगा। अमेरिका में 98 सक्रिय संयंत्रों के लाइसेंस को 40 साल से बढ़ाकर 60 साल कर दिया गया है।
जानसन के उक्त लेख में एमआईटी के समूह युनियन आफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट के पेपर दी न्यूक्लियर पावर डिलेमा का भी ज़िक्र किया गया है। यह पेपर, नाभिकीय उर्जा के प्रतिकूल अर्थशास्त्र और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को थामने में इसके निहितार्थ को लेकर आइईए की चिंता को ही प्रतिध्वनित करता है। एमआईटी का थिंक टैंक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप से कार्बन क्रेडिट की प्रणाली को लागू करने और कार्बन स्तर को कम करने वाले मानकों के लिए प्रलोभन देने की सिफारिश करता है। इसके साथ ही कम कार्बन उत्सर्जन वाली टेक्नालाजी के लिए सब्सिडी की सिफारिश भी करता है ताकि वे प्रतिस्पर्धा कर सकें।
कितनी बिजली चाहिए?
एक ओर तो इंजीनियर और अर्थशास्त्री बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए हरित ऊर्जा के उत्पादन के तरीकों पर चर्चा कर रहे हैं, वहीं हमें अपने द्वारा उपयोग की जाने वाली उर्जा कम करने के तरीके भी खोजना होगा। यह निश्चित रूप से एक कठिन काम है क्योंकि ऊर्जा हमारी व्यापार प्रणालियों का आधार है, और ऐसे परिवर्तन जिनका थोड़ा भी भौतिक प्रभाव है वे राजनैतिक रूप से असंभव होंगे। नाभिकीय उर्जा का कोई विकल्प नहीं है और उसमें भी कई बाधाएं हैं, यह विश्वास शायद आईईए और एमआईटी जैसी शक्तिशाली लाबियों को मजबूर करे कि वे उत्पादन समस्या का समाधान खोजने की रट लगाना छोड़कर उपभोग कम करने का संदेश फैलाने का काम करें।
उत्तम सिंह गहरवार