हमारा पर्यावरण ः हमारा जीवन

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पर्यावरण यानि कि हमारे चारों तरफ का एक ऐसा आवरण जिसमें हम स्वयं को सुरक्षित महसूस करें, ऐसा अभेद्य सुरक्षा कवच जो हमें हर अनिष्ट से बचाए। प्रकृति प्रदत्त सुरक्षा कवच सभ्य होती जीवन शैली ने बिगाड़ दिया है।हमने ख़ुद ऐसे उत्पाद बना लिए हैं जो भस्मासुर साबित हो रहें हैं। अंधाधुंध विकास की होड़ में औद्योगिक जगत धरती का तापमान बढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके चलते दुनिया जलवायु परिवर्तन के भयावह मंजर में फस चुकी है। जलवायु परिवर्तन से उपजते संकटों से समूची सभ्यता घिर चुकी है।
आर्थिक विकास से विनाश
दुनिया के हर देश अपनी आर्थिक तरक्की के लिए प्राकृतिक संसाधनों को ख़त्म कर रहें हैं। जंगलों का साफ़ किया जाकर उन उद्योगों को बढ़ावा दे रहें हैं जो वातावरण में प्रदूषण फैला रहे हैं। जल, जंगल और जमीन की स्वाभाविक प्रकृति को ख़त्म कर रहें हैं। दुनिया को अपनी मुठ्ठी में करने का सपना संजोए मानव एक अदृश्य प्रतिद्वन्द्विता शुरु हो गई। किसी ने जमीन खोदी, किसी ने आकाश नापा, किसी ने समुद्र हथियाया और फिर किसी ने इन सबसे परे हवा को ज़हर घोलने की साजिश रच डाली। इस सब में मनुष्य यह भूलता गया कि इस अंधाधुंध दौड़ में वह जीतेगा क्या? वह अपनी सन्तति के लिए क्या ऐसा भयावह परिवेश छोड़ेगा? सभ्य मानव अन्जाने में ही सृष्टि के विनाश की लीला रच दी।
प्रकृति की अवहेलना
संपूर्ण सृष्टि जड़-चेतन,जीवधारी एक दूसरे पर निर्भर हैं। पारिस्थितिकी संतुलन ही समूचे जीव जीवन के लिए अनिवार्य है। एक का जीवन दूसरे पर आश्रित है ऐसी भोजन श्रृंखला को मानव ने जहां तहां तोड़ दिया जिसके चलते धरती के अनेक जीव जन्तु सहित पेड़ पौधे हुए तेज़ी से विलुप्त हो रहे हैं। हमने अपने धर्म ग्रंथों की सीख को दकियानूसी करार देते हुए उसके ठीक विपरीत जीवन शैली को अपनाया।गीता में कहे वचन को कभी गंभीरता से नहीं लिया जिसमें कहा गया है,‘‘जीव जीवनस्तर भोजनम्’’। धरती को शाश्वत बनाए रखने का इससे सुन्दर कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए हमें खुद पहल करनी होगी और यह तभी संभव है जब हम जड़ों से जुड़ेंगे, जमीनी हक़ीक़त पर उतरेंगे। खुद एक पौधा लगाकर उसको फलता हुआ देखेंगे तब एक पेड़ के काटे जाने की कसक महसूस कर सकेंगे। जब तक किसी नन्हें जीव को विकसित होते नहीं देखेंगे, उसकी तड़प और दर्द की विवशता नहीं समझ सकेंगे।
ऐसे अहसास के लिए हमें प्रकृति के नजदीक रहना होगा, उसे निहारना होगा, उसके बदलते विविध स्वरूप की तुलना करके उसके अनुकूल और प्रतिकूलन का गणित समझना होगा द्य केवल बंद कमरों में सेमीनार आयोजित करने, मंचों में भाषण देने मात्र से ही पर्यावरण संरक्षित नहीं होगा।

पर्यावरण यानि कि हमारे चारों तरफ का एक ऐसा आवरण जिसमें हम स्वयं को सुरक्षित महसूस करें, ऐसा अभेद्य सुरक्षा कवच जो हमें हर अनिष्ट से बचाए। प्रकृति प्रदत्त सुरक्षा कवच सभ्य होती जीवन शैली ने बिगाड़ दिया है।हमने ख़ुद ऐसे उत्पाद बना लिए हैं जो भस्मासुर साबित हो रहें हैं। अंधाधुंध विकास की होड़ में औद्योगिक जगत धरती का तापमान बढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके चलते दुनिया जलवायु परिवर्तन के भयावह मंजर में फस चुकी है। जलवायु परिवर्तन से उपजते संकटों से समूची सभ्यता घिर चुकी है।
आर्थिक विकास से विनाश
दुनिया के हर देश अपनी आर्थिक तरक्की के लिए प्राकृतिक संसाधनों को ख़त्म कर रहें हैं। जंगलों का साफ़ किया जाकर उन उद्योगों को बढ़ावा दे रहें हैं जो वातावरण में प्रदूषण फैला रहे हैं। जल, जंगल और जमीन की स्वाभाविक प्रकृति को ख़त्म कर रहें हैं। दुनिया को अपनी मुठ्ठी में करने का सपना संजोए मानव एक अदृश्य प्रतिद्वन्द्विता शुरु हो गई। किसी ने जमीन खोदी, किसी ने आकाश नापा, किसी ने समुद्र हथियाया और फिर किसी ने इन सबसे परे हवा को ज़हर घोलने की साजिश रच डाली। इस सब में मनुष्य यह भूलता गया कि इस अंधाधुंध दौड़ में वह जीतेगा क्या? वह अपनी सन्तति के लिए क्या ऐसा भयावह परिवेश छोड़ेगा? सभ्य मानव अन्जाने में ही सृष्टि के विनाश की लीला रच दी।
प्रकृति की अवहेलना
संपूर्ण सृष्टि जड़-चेतन,जीवधारी एक दूसरे पर निर्भर हैं। पारिस्थितिकी संतुलन ही समूचे जीव जीवन के लिए अनिवार्य है। एक का जीवन दूसरे पर आश्रित है ऐसी भोजन श्रृंखला को मानव ने जहां तहां तोड़ दिया जिसके चलते धरती के अनेक जीव जन्तु सहित पेड़ पौधे हुए तेज़ी से विलुप्त हो रहे हैं। हमने अपने धर्म ग्रंथों की सीख को दकियानूसी करार देते हुए उसके ठीक विपरीत जीवन शैली को अपनाया।गीता में कहे वचन को कभी गंभीरता से नहीं लिया जिसमें कहा गया है,‘‘जीव जीवनस्तर भोजनम्’’। धरती को शाश्वत बनाए रखने का इससे सुन्दर कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए हमें खुद पहल करनी होगी और यह तभी संभव है जब हम जड़ों से जुड़ेंगे, जमीनी हक़ीक़त पर उतरेंगे। खुद एक पौधा लगाकर उसको फलता हुआ देखेंगे तब एक पेड़ के काटे जाने की कसक महसूस कर सकेंगे। जब तक किसी नन्हें जीव को विकसित होते नहीं देखेंगे, उसकी तड़प और दर्द की विवशता नहीं समझ सकेंगे।
ऐसे अहसास के लिए हमें प्रकृति के नजदीक रहना होगा, उसे निहारना होगा, उसके बदलते विविध स्वरूप की तुलना करके उसके अनुकूल और प्रतिकूलन का गणित समझना होगा द्य केवल बंद कमरों में सेमीनार आयोजित करने, मंचों में भाषण देने मात्र से ही पर्यावरण संरक्षित नहीं होगा।

अंधी होती विकास की होड़
विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली कि सोचने मात्र से ही कार्य सिद्ध हो रहे हैं। हमारे विकास के संस्थानों से उत्सर्जित गैसें सांसों में ज़हर घोल रही है। ओजोन पर्त जो हमारी सुरक्षा प्रणाली की सबसे मजबूत कड़ी है वह निरन्तर दरक रही है। हमारी तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति का शोर हमारी चींखों को दबा रहा है, समूचे विकास का ढांचा हमारे विनाश की नींव पर खड़ा हुआ है। अब वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्र अपनी सीमा लांघ रहा है। सूरज की अल्ट्रावायलेट किरणें धरती पर विनाशकारी ताप-वमन कर रही हैं। लेकिन हमें यह सब सुनने की आदत हो गई है।
हम रुक नहीं रहे हैं। हम विकास की होड़ में दौड़ लगा रहे हैं जो धरती पर मानव अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर रही है। इंसान की प्रतिद्वन्द्विता प्रवृत्ति ने उसे क्रूर, निष्ठुर और विध्वंसक बना दिया है जो भविष्य की पीढ़ी के लिए ख़तरनाक होता जा रहा है।
मानवीय मूल्यों का ह््रास
अक्सर समझा जाता है कि जल, ज़मीन, जंगल, हवा और पानी ही हमारा परिवेश है जो प्रदूषित हो रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है, एक और पर्यावरण है जो दूषित होने लगा है और वह है हमारा सांस्कृतिक पर्यावरण, हमारे विचार, हमारे नियम, संयम, मानवीय मूल्यों का हृस। बढ़ते प्रदूषण से हिंसात्मक प्रवृतियां शनैः शनैः गहराती जा रही है जिसने विश्व को संकट में डाल रखा है। यह परमाणु शक्ति का संचयन, हिंसात्मक प्रदर्शन, आतंकी एवं घुसपैठिया कार्यवाही अमानवीयता की हदें पार कर रहीं हैं। मानवीय संवेदनाओं का हृस पर्यावरण को दूषित रहा है।
प्रकृति के अनुरूप जीवन
मानव के चितंन-मनन का एक अध्याय ‘‘सृष्टि के बचाव का संकल्प“ पुनः एक नयी इच्छा-शक्ति से प्रारम्भ करना होगा और जिसे पूरी ईमानदारी के साथ दुनिया का हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझकर अपनाएगा तभी हम इस सृष्टि को आने वाले विध्वंसक संकट से बचा पाएंगे, जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि जीवधारी सह-अस्तित्व और सह-अनुकूलन से ही संवर्धित होते हैं। सह-जीवन शाश्वत प्रवृत्ति है, जीवन के लिए पारिस्थितिकी तंत्र को बिना नुकसान पहुंचाए विकास के रास्तों पर चलना होगा वर्ना अगर हम अब भी नहीं समझेंगे तो प्रकृति का प्रकोप हम पर कहर बरपाएगा।
वक्त रहते हालात को समझते हुए अपनी सशक्त भूमिका निभा कर हम विश्व पर्यावरण के संरक्षण में अपना अंशदान कर सकते हैं। वैश्विक पर्यावरण के लिए वैश्विक नीतियाँ बनानी होंगी, वैश्विक सद्भाव और संवेदनाएं जागृत करनी होंगी, हमारी स्वार्थी एवं जड़ हो चुकी प्रवृत्ति को झकझोर कर जगाकर उनका रुख सकारात्मक दिशा की ओर मोड़ना होगा। यदि हम चाहते हैं कि हम अपनी संतति के लिए, नयी आने वाली तारीख़ों के लिए और अपने मानवीय होने का परिचय देने के लिए कुछ कर सकें तो विश्व पर्यावरण को सहेजना होगा उसके सानिध्य में रहकर तालमेल बनाते हुए चलना होगा यह समय की मांग है।
डॉ. मंजू पाण्डे ‘‘उदिता“
हल्द्वानी, नैनीताल

जंगल बसाए जा सकते हैं

औद्योगिक विकास और उपभोक्ता मांग के कारण बढ़ता वैश्विक तापमान दुनिया भर में तबाही मचा रहा है। विश्व में तापमान बढ़ता जा रहा है, दक्षिण चीन और पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ कहर बरपा रही है, बे-मौसम बारिश हो रही है, और विडंबना देखिए कि बारिश के मौसम में देर से और मामूली बारिश हो रही है। इस तरह के जलवायु परिवर्तन को थामने का एक उपाय है तापमान वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों, खासकर कार्बन डाईआक्साइड के स्तर को कम करना। बढ़ते वैश्विक तापमान को सीमित करने के प्रयास में दुनिया के कई देश एकजुट हुए हैं। कोशिश यह है कि साल 2050 तक तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो।
कार्बन डाईआक्साइड कम करने का एक प्रमुख तरीका है पेड़-पौधों की संख्या और वन क्षेत्र बढ़ाना। पेड़-पौधे हवा से कार्बन डाईआक्साइड सोखते हैं, और सूर्य के प्रकाश और पानी का उपयोग कर (हमारे लिए) भोजन और आक्सीजन बनाते हैं। पेड़ों से प्राप्त लकड़ी का उपयोग हम इमारतें और फर्नीचर बनाने में करते हैं। संस्कृत में कल्पतरू की कल्पना की गई है – इच्छा पूरी करने वाला पेड़।
फिर भी हम इन्हें मार (काट) रहे हैंः पूरे विश्व में दशकों से लगातार वनों की कटाई हो रही है जिससे मौसम, पौधों, जानवरों, सूक्ष्मजीवों का जीवन और जंगलों में रहने वाले मनुष्यों की आजीविका प्रभावित हो रही है। पृथ्वी का कुल भू-क्षेत्र 52 अरब हैक्टर है, इसका 31 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र रहा है। व्यावसायिक उद्देश्य से दक्षिणी अमेरिका के अमेज़न वन का बड़ा हिस्सा काटा जा रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई से पश्चिमी अमेज़न क्षेत्र के पेरू और बोलीविया बुरी तरह प्रभावित हैं। यही हाल मेक्सिको और उसके पड़ोसी क्षेत्र मेसोअमेरिका का है। रूस, जिसका लगभग 45 प्रतिशत भू-क्षेत्र वन है, भी पेड़ों की कटाई कर रहा है। बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई ने ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दिया है।
खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार ‘वन’ का मतलब है कम से कम 0.5 हैक्टर में फैला ऐसा भू-क्षेत्र जिसके कम से कम 10 प्रतिशत हिस्से में पेड़ हों, और जिस पर कृषि सम्बंधी गतिविधि या मानव बसाहट ना हो। इस परिभाषा की मदद से स्विस और फ्रांसिसी पर्यावरणविदों के समूह ने 4.4 अरब हैक्टर में छाए वृक्षाच्छादन का विश्लेषण किया जो मौजूदा जलवायु में संभव है। उन्होंने पाया कि यदि मौजूदा पेड़ और कृषि सम्बंधित क्षेत्र और शहरी क्षेत्रों को हटा दें तो भी 0.9 अरब हैक्टर से अधिक भूमि वृक्षारोपण के लिए उपलब्ध है। नवीनतम तरीकों से किया गया यह अध्ययन साइंस पत्रिका के 5 जुलाई के अंक में प्रकाशित हुआ है। यानी विश्व स्तर पर वनीकरण करके जलवायु परिवर्तन धीमा करने की संभावना मौजूद है। शोधकर्ताओं के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक वनीकरण की संभावना 6 देशों – रूस, ब्राज़ील, चीन, यूएसए, कनाडा और आस्ट्रेलिया में है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह भूमि निजी है या सार्वजनिक, लेकिन उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि 1 अरब हैक्टर में वनीकरण (10 प्रतिशत से अधिक वनाच्छादन के साथ) संभव है।
खुशी की बात यह है कि कई देशों के कुछ समूह और सरकारों ने वृक्षारोपण की ओर रुख किया है। इनमें खास तौर से फिलीपाइन्स और भारत की कई राज्य सरकारें (फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया की रिपोर्ट और डाउन टू अर्थ के विश्लेषण के अनुसार) शामिल हैं।
भारत का भू-क्षेत्र 32,87,569 वर्ग किलोमीटर है, जिसका 21.54 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। वर्ष 2015 से 2018 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 6778 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। सबसे अधिक वन क्षेत्र मध्यप्रदेश में है, इसके बाद छत्तीसगढ़, उड़ीसा और अरुणाचल प्रदेश आते हैं। दूसरी ओर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में सबसे कम वन क्षेत्र है। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और उड़ीसा ने अपने वनों में वृक्षाच्छादन को थोड़ा बढ़ाया है (10 प्रतिशत से कम)। कुछ निजी समूह जैसे लुधियाना का गुरू नानक सेक्रेड फारेस्ट, रायपुर के मध्य स्थित दी मिडिल आफ द टाउन फारेस्ट, शुभेन्दु शर्मा का अफारेस्ट समूह उल्लेखनीय गैर-सरकारी पहल हैं। आप भी इस तरह के कुछ और समूह के बारे में जानते ही होंगे। (और, हम शतायु सालुमरदा तिमक्का को कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने लगभग 385 बरगद और 8000 अन्य वृक्ष लगाए, या उत्तराखंड के चिपको आंदोलन से जुड़े सुंदरलाल बहुगुणा को?)।
एक बेहतरीन मिसाल
लेकिन वनीकरण की सबसे उम्दा मिसाल है फिलीपाइन्स। फिलीपाइन्स 7100 द्वीपों का समूह है जिसका कुल भू-क्षेत्र लगभग तीन लाख वर्ग किलोमीटर है और आबादी लगभग 10 करोड़ 40 लाख। 1900 में फिलीपाइन्स में लगभग 65 प्रतिशत वन क्षेत्र था। इसके बाद बड़े पैमाने पर लगातार हुई कटाई से 1987 में यह वन क्षेत्र घटकर सिर्फ 21 प्रतिशत रह गया। तब वहां की सरकार स्वयं वनीकरण करने के लिए प्रतिबद्ध हुई। नतीजतन वर्ष 2010 में वन क्षेत्र बढ़कर 26 प्रतिशत हो गया। और अब वहां की सरकार ने एक और उल्लेखनीय कार्यक्रम चलाया है जिसमें प्राथमिक, हाईस्कूल और कालेज के प्रत्येक छात्र को उत्तीर्ण होने के पहले 10 पेड़ लगाना अनिवार्य है। कहां और कौन-से पौधे लगाने हैं, इसके बारे में छात्रों का मार्गदर्शन किया जाता है। इस प्रस्ताव के प्रवर्तक गैरी एलेजैनो का इस बात पर ज़ोर था कि शिक्षा प्रणाली युवाओं में प्राकृतिक संसाधनों के नैतिक और किफायती उपयोग के प्रति जागरूकता पैदा करने का माध्यम बननी चाहिए ताकि सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार और जागरूक नागरिकों का निर्माण हो सके।
यह हमारे भारतीय छात्रों के लिए एक बेहतरीन मिसाल है। मैंने सिफारिश की है कि इस माडल को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में जोड़ा जाए, ताकि हमारे युवा फिलीपाइन्स के इस प्रयोग से सीखें और अपनाएं।
डॉ. डी. बालसुब्रमण्य