बांधों पर मंडराता खतरा : टिकाऊ माडल की तलाश

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संसद द्वारा हाल ही में उपलब्ध कराई जानकारी के अनुसार देश में 100 साल से अधिक पुराने बांधों की संख्या 227 है। उल्लेखनीय है कि इन 227 बांधों को मुख्यतः दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी में वे बांध आवेंगे जिनका निर्माण भारत के परम्परागत विज्ञान के आधार पर किया गया था। दूसरी श्रेणी में वे बांध आवेंगे जिनका निर्माण विदेशी इंजीनियरिंग के आधार पर हुआ है। विदित हो कि पिछली सदी में कुछ परम्परागत बांधों की भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए उनकी मूल डिजायन में बदलाव किया था और उनके मूल वेस्टवियर की ऊँचाई बढ़ाई गई थी।
उल्लेखनीय है कि भारत के परम्परागत विज्ञान के आधार पर निर्मित बांध कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश इत्यादि में मिलते हैं। विदित हो कि परम्परागत विज्ञान के आधार पर निर्मित उन बांधों की उम्र लगभग चार सौ से लगभग एक हजार साल के बीच है। सीमेंट-कान्क्रीट के उपयोग के बिना, मिट्टी और पत्थरों या लाइम-मार्टर बने उन बांधों की मजबूती अभी भी यथावत हैं वहीं दूसरी श्रेणी के बांधों पर अनेक संकट बढ़ रहे हैं। यह जल संकट, भविष्य में गंभीर चुनौति बन सकता है। गौरतलब है कि इस आलेख में मध्यम श्रेणी तथा छोटे बांधों पर मंडराते खतरों और ग्राउन्ड वाटर के कारण बढ़ते संकट की चर्चा को सम्मिलित नहीं किया है। विदित है कि मध्यम तथा छोटे बांधों की समस्या बडे बांधों की समस्या जैसी ही है वहीं भूजल भंडारों के अतिदोहन का अर्थ है, गर्मी के दिनों में पानी की त्राहि-त्राहि मचना। वाटर सीक्यूरिटी के लिए यह अनदेखी, भविष्य में बहुत भारी पड सकती है।
इस आलेख में वाटर सीक्यूरिटी को केन्द्र में रख बांधों, जिनकी देश में संख्या संख्या 5264 से अधिक है, के विभिन्न पक्षों की चर्चा की गई है। इस चर्चा में नए बांधों की मदद से जल के अतिरिक्त भंडारण की संभावना, बढ़ती मांग के संदर्भ में पानी की टिकाऊ उपलब्धता और टिकाऊ उपलब्धता हेतु कतिपय विकल्पों की चर्चा की गई है।
बढ़ती मांग के संदर्भ में पानी की टिकाऊ उपलब्धता की संभावना
भारत में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष वाटर सीक्यूरिटी के लिए बांधों को विश्वसनीय विकल्प माना जाता रहा है। इस कारण, बांध निर्माण में भारत को सारी दुनिया में विशेष स्थान प्राप्त है। उल्लेखनीय है कि भारत में नए बडे बांधों के निर्माण हेतु उपयुक्त स्थलों की संख्या लगातार घट रही है। इस कारण उनसे अतिरिक्त भंडारण की अपेक्षा करना, शायद उपयुक्त नहीं होगा।
भारत में पानी की मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है वहीं गाद जमाव के कारण बुढ़ाते बडे बाधों की भंडारण क्षमता लगातार कम हो रही है। भंडारण क्षमता कम होने के कारण उनमें, साल-दर-साल कम पानी जमा हो रहा है। पानी के घटते भंडारण के कारण भी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष जल संकट अर्थात पेयजल, निस्तार, खेती, उद्योग तथा पनबिजली उत्पादन प्रभावित हो रहा है। भविष्य में उसके और बढ़ने की संभावना है। अर्थात बढ़ती मांग के संदर्भ में पानी की टिकाऊ उपलब्धता पर साल-दर-साल खतरा बढ़ रहा है। उम्र बढ़ने के कारण, बडे बांधों में, संरचनात्मक क्षति होती है। भारत के बांध इसका अपवाद नहीं हैं। यह क्षति मुख्यतः पाल और वेस्टवियर पर होती है। पाल और वेस्टवियर की क्षति पानी की तरंगों के सतत प्रहार तथा पाल की सतह पर बरसाती पानी की मार के कारण होती है।
जलाशय के पानी के रिसाव के कारण बांध की नींव और डाउन-स्ट्रीम में हानि होती है। संरचना के जोड़ों का अपक्षय, निर्माण सामग्री (कान्क्रीट और लोहे) पर बरसाती पानी के असर के कारण होता है। जैविक गतिविधियों के कारण भी क्षति होती है। उपर्युक्त क्षतियों की अनदेखी या आधे-अधूरे अनियमित रखरखाव के कारण, अनेक बार बांध सुरक्षा पर खतरा मंडराता है। अर्थात बांधों से जुडी संरचनात्मक क्षतियों के कारण पानी की टिकाऊ उपलब्धता पर साल-दर-साल खतरा बढ़ रहा है। भारत में विदेशी तकनीक के आधार पर बाधों के निर्माण का सिलसिला उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने प्रारंभ किया था। यह सही है कि समय के साथ उनके इंजीनियरिंग पक्ष तथा निर्माण सामग्री की गुणवत्ता में अन्तर आया है। उल्लेखनीय है कि आजादी के बाद ब्यूरो आफ इंडियन स्टेंडर्ड ने बांध निर्माण की तकनीकों तथा निर्माण सामग्री की गुणवत्ता में उल्लेखनीय परिमार्जन किया है। चूँकि बांधों का निर्माण लम्बे कालखंड में हुआ है इसलिए उन्नीसवीं सदी के बांधों में प्रयुक्त तकनीक तथा निर्माण सामग्री की खामियों के कारण उनकी वाटर सीक्यूरिटी संकटग्रस्त हो सकती है। कुछ बांध बाद के भी हो सकते हैं। अर्थात उपर्युक्त कारणों से पानी की टिकाऊ उपलब्धता पर साल-दर-साल खतरा बढ़ सकता है।
कुछ यक्ष प्रश्न
पब्लिक डोमेन में बुढ़ाते बांधों की मौजूदा भंडारण क्षमता की जानकारी लगभग अनुपलब्ध है। उसका डाकुमेंटेशन भी आधा-अधूरा है। इसके कारण उनकी वास्तविक स्थिति से समाज अनभिज्ञ है। अर्थात बाहरी तकनीकीविदों तथा समाज के सुझावों के लिए प्लेटफार्म अनुपलब्ध है। गाद निकासी से सम्बद्ध जानकारी का पब्लिक डोमेन में अभाव है। अनुसन्धान के बारे में भी जानकारी का अभाव है। अर्थात बाहरी तकनीकीविदों तथा समाज के सुझावों के लिए प्लेटफार्म अनुपलब्ध है। बुढ़ाते बांध विभिन्न एग्रोक्लाईमेट तथा भौगोलिक परिस्थितियों में स्थित हैं। उनके केचमेंट का भूमि उपयोग बदल गया है। ड्रेनेज संकटग्रस्त हो गया है। पानी उपलब्ध कराने वाली नदियों से पानी का उठाव बढ़ गया है। केचमेंट में भूजल उपयोग के बढ़ने के कारण जलचक्र बदल गया है। आवक कम हो गई है। इत्यादि इत्यादि। इन सबका भंडारण क्षमता पर कितना प्रभाव पडा है, के किसी भी पक्ष पर पुख्ता जानकारी का अभाव है।
कुछ विकल्प, कुछ संभावनाएं
मौजूदा माडल बीता हुआ कल है इसलिए पानी की सार्वभौमिक तथा सर्वकालिक उपलब्धता के लिए नए माडल की खोज करना होगा। उस माडल को जल्दी से जल्दी विकास की मुख्य धारा में लाना होगा। उसके आधार पर नीतियाँ तथा प्रोग्राम बनाना होगा। आमूल-चूल बदलाव करना होगा। वह माडल पानी के संरक्षण का विकेन्द्रीकृत माडल हो सकता है। भारत के प्राचीन समाज ने इस माडल को अपनाया था और उसके आधार पर कुदरत से तालमेल बिठाकर जल संरचनाओं का निर्माण किया था।
माडल परिवर्तन के लिए देशज ज्ञान को समझना होगा। भंडारण क्षमता को टिकाऊ बनाने के लिए देशज ज्ञान पर आधारित जल संरचनाओं का अध्ययन करना होगा। उल्लेखनीय है कि भारत के परम्परागत ज्ञान के आधार पर बने बांधों में गाद जमाव के बहुत कम होने के कारण उनकी उम्र, विदेशी तकनीक से बने बांधों की तुलना में बहुत अधिक है। अर्थात केचमेंट ईल्ड, जलाशय में जल भंडारण और वेस्टवियर से अतिरिक्त पानी की निकासी के गणित को समझना होगा। उसके आधार पर काम करना होगा।
भूजल के दोहन की लक्ष्मण रेखा खींचना होगा अन्यथा भविष्य में जल संकट से मुक्ति, संभव नहीं होगी। इसके लिए सतही जल और भूजल के मिलेजुले माडल का विकास करना होगा। यह माडल अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों में अलग- अलग होगा।
– कृष्ण गोपाल ‘व्यास’