सम्पूर्ण विश्व हरेक स्तर पर (स्थानीय स्तर पर तथा भौगोलिक स्तर पर) अभूतपूर्व पर्यावरणीय संकटों की चुनौतियों से जूझ रहा है। जिसके आयाम स्थानीय स्तर पर वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, विषाक्त अन्न से लेकर नदी, तालाब, समुद्र, खुले आसमान के प्रदूषण तक विस्तृत हैं। इनके वैश्विक आयाम में पृथ्वी के तापमान में वृद्धि से हो रहे मौसम परिवर्तन के कारण प्रतिदिन सभ्यता के समक्ष उत्पन्न हो रही चुनौतियों में भीषण हिमपात, बाढ़, सूखा, बड़वानल साक्षात हैं। इन सबसे मिलकर लड़ने के लिए यद्यपि स्थानीय स्तर पर तो सतत प्रयास किए जा रहे हैं। किन्तु ये प्रयास मूलतः उत्पन्न दुष्प्रभावों से उत्पन्न क्षति की पूर्ति हेतु एवं कष्टों के निवारण हेतु ही सीमित हैं। ऐसा लगता है कि मानव सभ्यता के समक्ष उत्पन्न पर्यावरणीय संकट की चुनौती से निपटने हेतु वैश्विक स्तर स्तर पर समस्त राष्ट्रों के सामूहिक साझेदारी आधारित प्रयासों को विश्व के ज्यादातर अग्रणी देश अथवा विकसित देश या उनके राष्ट्राध्यक्ष गंभीरता से नहीं लेते हैं। इस कथन का हमारा मुख्य आधार यह है कि सम्पूर्ण विश्व पटल पर न तो जनसंख्या नियंत्रण हेतु कोई गंभीर है और न ही कार्बन एमीशन नियंत्रण हेतु ही, इसके अलावे निरंतर कहीं न कहीं, कोई न कोई छोटा-बड़ा युद्ध, सत्ता के संघर्ष में निरंतर जारी है।
अभी अफगानिस्तान में लोकप्रिय अफगानी सरकार को सत्ताच्युत करने की गई भीषण बमबारी द्वारा तालिबानी सरकार की स्थापना में हुए भीषण नरसंहार, पर्यावरण संहार कारक युद्ध पूरी तरह से समाप्त होकर उसकी अग्नि ठंडी भी नहीं हुई थी। अब यूक्रेन और रूस के बीच ऐसा युद्ध छिड़ चुका है, जिसकी भयावहता में सम्पूर्ण विश्व झुलसने के खतरे से भयभीत है।
इन युद्धों के राजनीतिक पृष्ठभूमि में या प्राकृतिक फासिॅल ऊर्जा संसाधनों पर कब्जे के संघर्ष की गाथा के विश्लेषणों में जाना हमारा लक्ष्य नहीं है, किन्तु इसके पर्यावरणीय पहलुओं में यदि हम चिंतन करते हैं तो हम यह पाते हैं कि इन युद्धों में जिस प्रकार से मिसाइलों के हमले हो रहे हैं, बमवर्षा हो रही है, इस कारण जो भयावह मात्रा में तापीय ऊर्जा और बारूदी रसायन तथा विकिरण उत्पन्न हो रहा है, वह निश्चित रूप से पृथ्वी के अंदर उपलब्ध कार्बन स्पेस के अंतर्गत भयंकर आघात पहुॅंचा रहा है। यद्यपि स्थानीय स्तर पर इसे मानव जन एवं अधोसंरचना की क्षति के रूप में मूल्यांकन किया जा रहा है, किन्तु पर्यावरणीय पटल पर यदि इसका आंकलन किया जावे तो यह क्षति अत्यंत गंभीर एवं भयावह है। रूस के द्वारा यूक्रेनी शहरों में किए जा रहे आक्रमण में या यूक्रेन के द्वारा रूसी युद्धक विमानों एवं टैंकों में किए जा रहे आक्रमण के कारण जो भी जन जीवन को क्षति हो रही है, वह अत्यंत दुःखदायी एवं चिंताजनक है। साक्षात रूप में या जिनकी मृत्यु हो रही है, उनके परिजन ही शोक संतप्त हैं, किन्तु दीर्घ परिस्थिति में विश्व के लगभग सभी जन ऐसे युद्ध की विभीषिकाओं से गंभीर रूप से आहत होते हैं। युद्धों से जो पर्यावरणीय क्षति होती है, उनके आभास धीरे- धीरे एवं लम्बे समय में दिखाई पड़ भी सकते हैं या नहीं भी दिखाई दे सकते हैं, किन्तु एक वैज्ञानिक चिंतक के रूप में हम निश्चित रूप से यह मानते हैं कि इसके दुष्प्रभाव गंभीर हैं एवं दूरगामी हैं।
पर्यावरणीय घटकों के क्षतिग्रस्त होने के साथ यह समक्ष दिखाई पड़ रहा है कि आर्थिक रूप से गंभीर असंतुलन राष्ट्रों के बीच, सभ्यताओं के बीच और किसी भी देश के अंतर्गत विभिन्न समाज एवं समुदायों के समक्ष उत्पन्न हो रहा है। जिनमें से साक्षात उदाहरण के रूप में ऊर्जा संकट स्पष्ट दिखाई दे रहा है, जिसमें क्रूड पेट्रोलियम की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि या लिक्विड सीएनजी के मूल्यों में हो रही वृद्धि के सीधे-सीधे दुष्परिणाम समाज के मध्यम एवं न्यून आय वर्ग के लोगों पर पड़ता दिखाई पड़ रहा है।
धारणीय विकास के संकल्पनाओं में किसी भी राष्ट्र के ऊर्जा साधनों की पूर्ति के मार्ग जब तक अपने स्वयं के साधनों के माध्यम से नहीं हो जाते, तब तक धारणीय विकास के, युद्ध मुक्त या शांतिमय स्वरूप की कल्पना करना भी अब जटिल लगता है। चूॅंकि सम्पूर्ण विश्व के अंतर्गत विभिन्न देशों के बीच व्याप्त आर्थिक ताने-बाने का यदि विश्लेषण किया जावे, तो यह समक्ष प्रतीत होता है कि सभी विकसित राष्ट्र, विकासशील राष्ट्र तथा पिछड़े राष्ट्र भी ऊर्जा उत्पादन या आपूर्ति या मांग के लिए परस्पर रूप से एक दूसरे से काफी जटिलतापूर्वक ताने-बाने में गुंथे हुए हैं। चूॅंकि रूस यूरोपीय देशों को कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस आपूर्ति करता है तो अमेरिका तथा विश्व के अनेकों देशों को क्रूड आयल भी निर्यात करता है। अमेरिका तथा यूरोपीय देश अपने दैनिक उपभोक्ता वस्तुओं एवं औद्योगिक कच्चामाल के लिए काफी बड़ी मात्रा में चीन पर निर्भर हैं। उसी की अनुक्रिया में रूस तथा चीन भी यूरोपीय देश तथा अमेरिका से ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी तथा यांत्रिक तथा साज-सज्जाओं के आयात पर निर्भर हैं।
फलस्वरूप वर्तमान परिदृश्य में किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के लिए अपने व्यक्तिगत अहंकार की सिद्धि के लिए किसी भी राष्ट्र को बमवर्षक, अग्निवर्षक हथियारों के माध्यम से आक्रमण कर परास्त करना और उन पर विजय पाना कठिन है। इन सबके बावजूद भी मानव हठधर्मिता एवं वीभत्स मानसिकताधारी लोगों के सत्ता में होने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता है। पृथ्वी पर वर्तमान में जितने भी भयावह परमाणु बमों का जखीरा व्याप्त है, उससे यह भय लगता है कि यदि कहीं किसी भी कारण से राष्ट्रों के बीच परमाणु युद्ध छिड़ जाता है, तो निश्चित रूप से विश्व में वर्तमान सभ्यता का अंत परमाणु ऊर्जा के भयावह संहार से तो हो ही जाएगा और यदि कहीं भूले-भटके कुछ लोग या अन्य प्राणी बच भी गये तो पर्यावरण पर इतना भयंकर दुष्प्रभाव पहुॅंच चुका होगा कि पृथ्वी पर न केवल मानव सभ्यता, अपितु जीव सभ्यता का भी शायद नामोनिशान शेष नहीं बचेगा, इसलिए भलाई तो इसी में है कि युद्ध को जैसे भी संभव हो, अवश्य टाला जावे। पर यदि नहीं टल सकता हो तो मनुष्य को इस सभ्यता के समाप्त होने के अफसोस के सिवा कुछ देखना शेष नहीं रहेगा।
भारतीय संस्कृति में युद्ध के दुष्परिणामों की गाथाओं में जिस विभीषिका का वर्णन महाभारत युद्ध में किया गया है एवं जिस प्रकार से उस युद्धकाल में अग्निबाण, आग्नेयास्त्र, वरूणास्त्र, वायव्यास्त्र, पाशुपरास्त्र, नारायणास्त्र, ब्रह्मशिरोरास्त्र एवं ब्रह्मास्त्र आदि के उपयोग का उल्लेख किया गया है, तदुपरात जिस प्रकार के विनाश का चित्रण किया गया है, उसका संज्ञान विश्व की वर्तमान जनसंख्या के विशाल प्रतिशत लोगों को कदाचित भी नहीं है।
महाभारत युद्ध के 18 दिनों में ही हुए भयावह नरसंहार एवं पर्यावरण संहार का चित्रण यद्यपि महाभारत सीरियल में अवश्य किया गया है, पर विनाश की वेदना की अनुभूति करना कठिन है। उस वेदना का संकेत तो सारांश में इसी से समझा जा सकता है कि विजय के उपरांत विजेता पांडवों ने जब युद्ध समाप्ति के पश्चात अपने विजित राज्य की दुर्गति का मूल्यांकन किया तो उन्हें गंभीर विषाद उत्पन्न हुआ। इसकी ही परिणिति थी कि उन्होंने हिमालय में जाकर गलकर शरीर त्याग करना ही उचित महसूस किया। ऐसा लगता है कि वर्तमान में जारी युद्ध में भी यदि कभी परमाणु युद्ध छिड़ा और युद्ध के उपरांत यदि कोई राष्ट्राध्यक्ष अपने आपको विजेता गिनने के लिए जीवित बचा तो विनाश की विकृत के विषाद से उसमें भी उतना वैराग्य निश्चित रूप से उत्पन्न होगा कि वह शायद ही पृथ्वी पर जीने के लिए अपने आपको उपयुक्त पावेगा। पर विडम्बना यही है कि पौराणिक कथाओं में दिए गए ज्ञान को हम गंभीरता से नहीं लेते हैं और इनसे किसी प्रकार की व्यावहारिक सीख लेना स्वीकार नहीं करते, चूॅंकि इसे एक धार्मिक संकीर्णता का स्वरूप मानकर अंगीकार नहीं करते हैं। पर अब समय निश्चित रूप से ऐसा है कि जब प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर मूल्यांकन करना चाहिए कि वह कैसे अपने चिंतन के माध्यम से विश्व में धारणीय जीवन को पुष्ट करने हेतु शांति की स्थापना के लिए कार्य कर सकता है?
वर्तमान पृष्ठभूमि में जारी भौतिक युद्ध में साक्षात रूप से संहारक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग हो रहा है। किन्तु इन आयुधों के समानांतर युद्ध आर्थिक पृष्ठभूमि पर भी चरम स्तर पर है। अमेरिका तथा यूरोपीय राष्ट्र आर्थिक प्रतिबंधों के द्वारा रूस को काबू में लाना चाहते हैं। तो वहीं जारी युद्ध में हो रहे भारी व्यय का भार भी रूस तथा यूक्रेन पर पड़ रहा है। इन सब विषम परिस्थितियों के परिणामतः जो वैश्विक स्तर पर मंहगाई बढ़ रही है, उस मंहगाई के मार में सबसे ज्यादा एक आम मासूम नागरिक पीड़ित हो रहा है, जो कि इस युद्ध में किसी भी प्रकार का प्रतिभागी नहीं है। और किसी के जीत से या पराजय से भले ही उसे कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष न तो लाभ होगा और न ही हानि होगी। पर जब तक इस युद्ध का अंत होगा, तब तक उस पर जो गंभीर आर्थिक दुष्प्रभाव पड़ चुका होगा, उससे उसकी भरपाई करना मुश्किल होगा। इन परिस्थितियों में नीति नियोजकों के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक आम नागरिक को अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा आश्रय से मुक्त करके आत्मनिर्भरता प्रदाय करना, ताकि किसी भी प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक उन्माद के आतंक का दुष्परिणाम जन सामान्य पर कभी न आवे इसलिए फिलहाल भारत के नागरिकों को अपनी आजादी को संरक्षित करने हेतु ऊर्जा आत्मनिर्भरता के धारणीय मार्गों पर अवश्य चलना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय युद्ध उन्मादों से आम आदमी को मुक्त करने हेतु ऊर्जा आत्मनिर्भरता जरूरी है।
रंगों के त्यौहार ‘‘होली पर्व’’ पर सभी पाठकों को शुभकामनाएं। रंगों का यह त्यौहार सबके जीवन में स्वास्थ्य एवं सुख के रंग भर दे।
-संपादक