मनुष्य को जब किसी चीज की ज़रूरत होती है तो उसे प्राप्त करने के लिए तनाव पैदा होता है और उस वस्तु को प्राप्त करने की दिशा में काम करने से वह तनाव घटता है। इसे इस तरह समझ लीजिए कि बच्चा जब भूखा होता है तो वह रोता है। यह बच्चे का तनाव है। मां जब बच्चे को दूध पिला देती है तो उसका तनाव घट जाता है।
हमारा व्यवहार अधिकतर हमारी आंतरिक ज़रूरतों पर आधारित रहता है। शरीर में जब रोग पैदा होते हैं तो उनसे लड़ने की ज़रूरत पड़ती है। इसके लिए जब तक शरीर को हंसी का टानिक नहीं दिया जाएगा तब तक वह तनावरहित स्थिति में होकर संघर्ष करने की मनोस्थिति नहीं बना पाएगा। इसलिए सदा हंसते रहिए, डाक्टरी सलाह पर ही सही।
न्यूयार्क के एक बाल चिकित्सालय में बच्चों को खुश रखने के लिए टमाटर जैसी नाक लगाए एक मसखरा सर्कस के जोकर की तरह अपने करतब दिखाता रहता है। बच्चों को अपने रोग से लड़ने की शक्ति प्रदान करने का यह एक मनोवैज्ञानिक तरीका है। इससे उनके निरोग होने के अलावा उनकी शारीरिक दशाओं पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। लेखक नार्मिन कज़िंस को जब गठिया रोग ने जकड़ा तो उन्होंने विटामिन सी की खुराकों के साथ गुदगुदाने वाले साहित्य का अनुशीलन भी किया और उनका मंचन भी जी भरकर देखा। कज़िंस के अधिकतर हास्य साहित्य की रचना भी उसी कालावधि की बताई जाती है।
इस मान्यता ने कि शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को मस्तिष्क प्रभावित कर सकता है, चिकित्सा जगत के उस भारी-भरकम नाम वाले विज्ञान को जन्म दिया है जिसे ‘साइकोन्यूरोइम्यूनोलाजी’ कहते हैं। हिंदी में इसे ‘मनोतंत्रिकारोध क्षमता विज्ञान’के उतने ही विशालकाय नाम से जानते हैं।
इस क्षेत्र में हुए अधिकतर अनुसंधान ने न्यूरोट्रांसमीटर्स की कार्यप्रणाली को अपना केंद्र बनाया है। मस्तिष्क, इम्यून सिस्टम और कुछ तंत्रिका कोशिकाओं से स्रावित रसायन शरीर के अंदर संदेशों को इधर से उधर पहुंचाते हैं। इन्हें न्यूरोट्रांसमीटर या तंत्रिका संदेशवाहक कहते हैं। इसमें हंसी ने अपना दखल कहां जमाया है, इसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं।
अगर किसी बात से हंसते-हंसते आपके पेट में बल पड़ जाएं तो वह हंसी मस्तिष्क को ऐसे पदार्थ न बनाने देने के लिए प्रोत्साहित करती है जो रोग प्रतिरोधक प्रणाली को शिथिल करते हैं, जैसे कार्टिसोन। तो हंसी ऐसा पदार्थ बनाने के लिए प्रेरित करती होगी, जिससे रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को ताकत मिलती है। शक्ति प्रदान करने वाले इस पदार्थ को बीटा-एन्डार्फिन कहते हैं।
यह एक परिकल्पना है लेकिन इसे समर्थन देने वाले अधिक आंकड़े या आधार सामग्री अभी नहीं मिली है। इसके लिए हंसी का मायावी स्वभाव भी उतना ही ज़िम्मेदार है जितनी कि रोग प्रतिरक्षा तंत्र की जटिलता। इसके साथ ही एक बात यह भी है कि रोग प्रतिरक्षा कोशिकाओं में होने वाले क्षणिक और अस्थायी परिवर्तनों को पहचानना मुश्किल है। अब तक इस बात का पता नहीं लग पाया है कि थोड़े समय के लिए, कभी-कभी होने वाले रोग प्रतिरक्षात्मक परिवर्तनों से कोई स्थायी स्वास्थ्य लाभ होता है।
कुछ अनुसंधानकर्ता और मनोवैज्ञानिक इसका समर्थन करते हैं। बोस्टन विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकक्लीलैंड के अनुसार हंसी और शरीर को निरोग रखने वाले तत्वों के बीच का सम्बंध बड़ा स्थूल है, क्योंकि आपके रोग प्रतिरक्षा तत्व, मनोवैज्ञानिक तत्व, हार्मोन सम्बंधी तत्व और उसके ऊपर आपकी बीमारी इनको प्रभावित करती रहती है। अमरीका स्थित लोमा लिंडा युनिवर्सिटी स्कूल आफ मेडिसिन के प्रोफेसर ली. बर्क ने हंसी के दौरान मनुष्य के हार्मोन तथा श्वेत रक्त कोशिकाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया।
उन्होंने इस सिद्धांत का समर्थन किया कि मधुर मुस्कान, हल्की हंसी या अट्टहास शरीर के लिए लाभदायक है, क्योंकि इससे रोग प्रतिरक्षा क्रिया को शिथिल करने वाले तत्व (जैसे एपिनेफ्रीन और कार्टिसोन) मार खाते हैं। पेनसिल्वेनिया स्थित पाओली स्मारक अस्पताल ने एक उदाहरण पेश किया था। जिसमें बताया गया था कि जिन रोगियों के कमरों की खिड़कियों से वृक्ष और हरी-भरी घाटियां दिखाई देती हैं उन्हें पीड़ा कम महसूस होती है। उनके रोग में पेचीदगियां भी उतनी नहीं आतीं और वे चंगे भी जल्दी होते हैं बनिस्बत उनके जो सिर्फ ईंट और पत्थर के ढांचे देखते रहते हैं।
कुछ कैंसर रोगियों के अनुभवों से भी यही पता चलता है कि जिन लोगों ने अपने रोग से लड़ने की इच्छाशक्ति जाग्रत कर ली, वे अधिक दिन जीवित रहे और बेहतर तरीके से जिए। इस प्रकार के अध्ययनों के परिणाम से कुछ कैंसर अस्पतालों ने अपनी चिकित्सा पद्धति में इस प्रकार की व्यवस्था की है जिससे मरीज़ों में संघर्ष करने का माद्दा पैदा किया जा सके।
स्टैनफर्ड मेडिकल स्कूल के मनोचिकित्सक विलियम फ्राई के अनुसार दिन में 100 से 200 बार हंसना 10 मिनट नाव चलाने के बराबर है। खुलकर हंसने से शरीर में जो हलचल होती है उससे दिल की गति बढ़ती है, रक्तचाप में वृद्धि होती है, श्वसन क्रिया में तेज़ी आती है तथा आक्सीजन के उपभोग में बढ़ोतरी होती है। योग की एक क्रिया में मुंह खोलकर ज़ोर से हंसने को भी शामिल किया गया है जिससे चेहरे, कंधों, पेट और नितम्बों की मांसपेशियां हरकत में आती हैं। इसी प्रकार जिसे हंसते-हंसते दोहरा हो जाना कहते हैं, उससे पैरों और हाथों की मांसपेशियों की भी कसरत हो जाती है।
हंसी का दौर जब शांत हो जाता है तो विश्रांति की एक संक्षिप्त अवधि आ जाती है जिसमें सांस तथा दिल की धड़कन की गति धीमी पड़ जाती है। कभी-कभी तो सामान्य स्तर से भी नीचे पहुंच जाती हैं। रक्तचाप भी गिर जाता है। फ्राई का कहना है कि हंसी की पर्याप्त मात्रा से दिल के रोग, अवसाद और उससे सम्बंधित अन्य खतरे दूर नहीं तो कम ज़रूर हो जाते हैं।
मनुष्य की तंत्रिकाओं को शांत करने में हंसी का योगदान किस सीमा तक होता है, उसका अध्ययन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की सबीना वाइट ने किया है। उन्होंने 87 विद्यार्थियों को प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति में रखकर उनको गणित के जटिल सवाल हल करने को दिए। जब इन विद्यार्थियों के मस्तिष्क पर दबाव काफी बढ़ गया तो उन्हें रोमांचकारी और मनोरंजक दृश्य दिखाए गए और टेप सुनाए गए। फिर उन्होंने उनकी मनोदशा में परिवर्तन और चिंता के स्तर के मापन के साथ ही त्वचा के तापमान, त्वचा की चालकता और दिल की धड़कन की गति में हुए परिवर्तनों का भी जायज़ा लिया।
टेप सुनने और मनोरंजक दृश्य देखने से विद्यार्थियों के अवसाद की स्थिति में कमी तो ज़रूर आई लेकिन इससे हर विद्यार्थी को समान लाभ नहीं हुआ। सबीना वाइट के अनुसार तनाव की स्थिति को कम करने के लिए शिथिलन तकनीक का इस्तेमाल कोई भी कर सकता है, लेकिन इसमें हास्य की भूमिका बिलकुल निराली है। कामेडी टेप से जिन लोगों को लाभ हुआ वे वही लोग थे जो ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए नियमित रूप से हास्य का सहारा लेते हैं।
फुलर्टन स्थित कैलिफोर्निया स्टेट युनिवर्सिटी में नर्सिंग विभाग की पीठासीन अधिकारी वेटा राबिंसन हास्य के क्षेत्र में काम करती हैं। वे अपने अध्ययन के आधार पर कहती हैं कि जब आप हंसते हैं तो आप चिंता, भय, संकोच, विद्वैष, और क्रोध से मुक्त हो जाते हैं। वेटा राबिंसन ने अपना एक अनुभव बताया कि आपरेशन के बाद हास्य से स्वास्थ्य लाभ की गति बेहतर हो जाती हैं।
आंकड़े चाहे जो कहें, लेकिन यह सच है कि ऐसे अस्पतालों की संख्या बढ़ रही है, कम से कम विदेशों में तो निश्चित रूप से ही, जिन्होंने हास्य को अपना व्यवसाय बनाया है। टमाटर जैसी नाक वाले जोकर, हास्य से भरपूर पुस्तकें, बच्चों के लिए चाबी वाले खिलौने तथा विनोद पैदा करने वाले अन्य साज़ो-सामान अब अस्पतालों में भरे पड़े हैं।
अपने मन में यह आशा जगा लेना कि आप स्वस्थ हो जाएंगे का मतलब यह नहीं है कि आपकी बीमारी आई-गई हो गई। लेकिन इसका मतलब यह ज़रूर है कि आपके स्वस्थ होने की संभावनाएं अब भी हैं।
नरेंद्र देवांगन