राजाराम मोहन राय : आधुनिक भारत के जनक

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राजाराम मोहनराय का स्थान आधुनिक भारत के इतिहास में उस महान सेतु के समान है, जिस पर चढ़कर भारत अपने असीम अतीत से निकलकर अज्ञात भविष्य की ओर अग्रसर होता है। राम मोहन राय वस्तुतः भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और जनक थे।
समसामयिक भारतीय समाज की जड़ता और भ्रष्टाचार से उन्हें बड़ी तकलीफ हुई। जनता और देश के प्रति गहरे प्रेम से ओतप्रोत हो कर उन्होंने सामाजिक, धार्मिक और बौद्धिक एवं राजनैतिक पुनरूत्थान के लिए कठिन परिश्रम किया। उनके हृदय में प्राच्य दार्शनिक विचारधाराओं के लिए असीम और अगाध आस्था थी।
वे आधुनिक विज्ञान तथा विवेकशीलता और मानवतावाद के सिद्धांतों से प्रभावित थे। उनका दृढ़ मत था कि सिर्फ प्राच्य एवं पाश्चात्य संस्कृति के समन्वय से ही भारतीय समाज का पुनरूद्धार हो सकता है। यद्यपि उन्होंने अपने दार्शनिक विचारों के समर्थन में प्राचीन धर्मशास्त्र के विशेषज्ञों को उद्धृत किया, तथापित अन्ततोगत्वा उन्होंने मानवीय तर्कशक्ति का सहारा लिया, जो उनके विचार से किसी भी सिद्धांत की सच्चाई की अंतिम कसौटी है।
उनकी धारणा थी कि वेदान्त दर्शन मानवीय तर्कशक्ति पर आधारित है। किसी भी स्थिति में मनुष्य को तब पवित्र ग्रंथों, शास्त्रों और विरासत में मिली परम्पराओं से हट जाने में हिचकिचाना नहीं चाहिए, जब मानवीय तर्क शक्ति का वैसा तकाजा है और वे परम्पराएं समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही हों।
उन्होंने विचार रखा कि विवेक, बुद्धि का सहारा लेकर नए भारत के सर्वोच्चतम प्राच्य और पाश्चात्य विचारों को प्राप्त कर संजोए रखना चाहिए। उन्होंने चाहा कि भारत पश्चिमी देशों से सीखे, मगर सीखने की यह क्रिया बौद्धिक और सृजनात्मक प्रक्रिया हो, जिसके द्वारा भारतीय संस्कृति और चिंतन में जान डाल दी जाये। वे हिन्दू धर्म में सुधार के हिमायती और हिन्दू धर्म की जगह ईसाई धर्म को आत्मसात करने के विरोधी थे। उनका विश्वास था कि बुनियादी तौर पर सभी धर्म एक ही संदेश देते हैं कि उनके अनुयायी भाई-भाई हैं।
इस तरह राममोहन राय ने भारतीयता और यूरोपीयता के सर्वोत्तम तत्वों का समावेश कर आधुनिक भारत के निर्माण का ठोस आधार तैयार किया और आधुनिक भारत के प्रथम महान नेता कहलाने के अधिकारी हुए।
राममोहन राय का जन्म 1774 ईस्वी में बंगाल के हुगली जिले के राधानगर गांव में हुआ था। उनके पिता रमाकान्त राय थे और माता का नाम कंलिताखी देवी था। परिवार में ही उन्हें पिता से वैष्णव और माता से शाक्त प्रभाव प्राप्त हुआ था। राममोहन राय बचपन से ही प्रतिभा के धनी थे। वे बहुभाषाविद थे। शुरू से ही उनका स्वभाव विद्रोही था और वे चिंतनशील थे।
बनारस जाकर उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया और पटना में उन्होंने फारसी एवं अरबी का ज्ञान प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी, फ्रेंच, लैटिन, ग्रीक एवं हिब्रू भाषा का भी अध्ययन कियां 1805 ईस्वी में उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी कर ली। लेकिन उनका मन इस नौकरी में जमा नहीं। 1801 ईस्वी में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘एकेश्वरवादियों को उपहार’’ की रचना की, जिसमें उन्होंने अनेक देवी-देवताओं में विश्वास का विरोध किया और एकेश्वरवाद के पक्ष में वजनदार तर्क दिया। तत्कालीन भारतीय समाज का उन्होंने विवेचन किया और देखा कि हिन्दू धर्म में तरह-तरह की कुरीतियां व्याप्त हो गई थीं और धर्म के मूल स्वरूप के प्रति ज्ञान धुंधला गया था।
धर्म का स्वरूप विपरीत होने पर सभ्यता और संस्कृति में अवनति हुई थी। अतः मूल आवश्यकता थी, फब्बारे से उस बिन्दु को साफ करना, जिसके कारण राष्ट्र का विकास अवरूद्ध हुआ था। धर्म सभ्यता का मूल मंत्र था और उसकी विकृतियों को दूर करके ही राष्ट्रीय उन्नति की जा सकती थी। उन्होंने 1828 में कहा, ‘‘मुझे यह कहते हुए दुख होता है कि हिन्दुओं की वर्तमान धर्म व्यवस्था ऐसी है कि जिससे उनके राजनीतिक हितों की पूर्ति नहीं हो सकती। उनके बीच असंख्य विभाजन और उपविभाजन को जन्म देने वाली जाति प्रथा ने उनको राजनीतिक भावना से पूरी तरह वंचित कर दिया है और अगणित धार्मिक संस्कारों तथा सिद्धिकरण के नियमों ने उनको कोई भी गठिन और साहसपूर्ण कार्य करने के लिए अयोग्य बना दिया है। मेरे विचार से यह आवश्यक है कि कम से कम उनके राजनीतिक और सामाजिक कल्याण के लिए उनके धर्म में कुछ परिवर्तन होने चाहिए।’’
उन्होंने पुरोहितवाद की भर्त्सना की और कहा कि व्यक्तिगत विश्वासों और मान्यताओं तथा ईश्वर के बीच किसी प्रकार के पुरोहित की जरूरत नहीं थी। उन्होंने देखा कि कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर किसी को भी धर्मशास्त्रों का किसी प्रकार का ज्ञान नहीं था। पुरोहितों ने जन साधारण को भुलावे में रखा था। यदि जन साधारण धर्म शास्त्रों का सही ज्ञान प्राप्त करते तो पुरोहितों का महत्व घटता। इसी उद्देश्य से अपने लोगों को शिक्षित करने के लिए उन्होंने ‘एकेश्वरवाद को उपहार’’ नामक पुस्तक की रचना की।
ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी के दौरान वे जॉन डिग्वी के सानिध्य में आये और 1814 ईस्वी में उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी छोड़ दी। उसके पश्चात वे कलकत्ता में रहने लगे, जहां उनका सम्पर्क यंग बंगाल के कुछ सदस्यों से हुआ, जो पश्चिमी विचारों से प्रभावित थे। उन्होंने अपने विचारों को द्वारा उनको प्रभावित किया और 1815 में उन्हीं की सहायता से आत्मीय सभा की स्थापना की।
इस सभा के साप्ताहिक बैठक में एकेश्वरवाद तथा अन्य मौलिक धार्मिक सिद्धांतों पर चर्चा होती थी। 1816 में उन्होंने पांच वेदान्त ग्रंथों का अनुवाद प्रकाशित करना शुरू किया। उनका लक्ष्य यह सिद्ध करना था कि अद्वैतवाद की शिक्षा पर हिन्दू धार्मिक ग्रंथ सदा से बल देते रहे हैं और मूर्ति पूजा और आडम्बर हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुकूल नहीं हैं। 1817 और 1820 के बीच उन्होंने रूढ़िवादी हिन्दुओं के साथ वाद-विवाद किया। 1819 में उन्होंने मद्रास के विद्वान सुब्रह्मण्यम को मूर्ति पूजा के प्रश्न पर शास्त्रार्थ में पराजित किया। इससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी और ईसाई मिशनरियों ने उनका साथ दिया।
यह सब क्षणिक था। मिशनरियों का आचार तथा प्रचार मौलिक ईसाई धर्म से भिन्न था। 1820 ईस्वी में राममोहन राय ने अपनी दूसरी पुस्तक ‘‘प्रीसेप्ट्स ऑफ जीसस’’ का प्रकाशन करवाया। 1821 ईस्वी में उन्होंने बैपस्टि मिशनरी के विलियम एडम को अद्वैतवाद का समर्थक बनाया। इसी वर्ष उन्होंने ‘कलकत्ता यूनेटेरियम कमिटी’ की स्थापना की। 1823 ईस्वी में उन्होंने अपने पुस्तक ‘‘प्रीसेप्टस आफ जीसस’’ को लंदन में प्रकाशित करवाया।
अपने धर्म संबंधी विचारों को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने के उद्देश्य से राममोहन राय ने 2 अगस्त 1928 ईस्वी को ब्रह्म समाज की स्थापना की। ब्रह्म समाज एक ऐसी संस्था थी, जिसमें सबसे अधिक बल ईश्वर की उपासना पर था, लेकिन यह उपासना विश्वव्यापी ईश्वर की थी। धार्मिक अथवा आध्यात्मिक विचारों का मूल सिद्धांत था- एकेश्वरवाद, निराकार, निर्विकार और सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपासना।
वेदों और उपनिषदों के आधार पर उन्होंने निराकार ईश्वर के सिद्धांत को भी हिन्दू धर्म का मुख्य आधार बनाया। सामूहिक पूजा की व्यवस्था करके उन्होंने अवश्य मुसलमानों अथवा ईसाईयों का अपने आपको ऋणी घोषित किया। प्रत्येक शनिवार संध्या को इस सभा की बैठक होती थी। बैठक की शुरूआत वेद की ऋचाओं के संस्कृत पाठ से होता था। बाद में बंगाली में भी पाठ होता था। उनके द्वारा पुनर्जन्म के सिद्धांत का समर्थन न करना महत्वपूर्ण था, लेकिन उन्होंने ईसाईयों की प्रमुख कल्पना का भी समर्थन नहीं किया। उन्होंने ईश्वर के किसी पैगम्बर की बात को कभी स्वीकार नहीं किया और उन्होंने किसी नए धर्म अथवा किसी विशेष धार्मिक व्यवस्था की स्थापना की कोशिश नहीं कीं
प्रगतिवादी और जन कल्याणकारी धर्म के सिद्धांतों से समाज में एक नई संजीवनी शक्ति का संचार करना उनका मुख्य उद्देश्य था। जिंदगी भर उन्हें अपने निडर धार्मिक दृष्टिकोण के लिए भारी क्षति चुकानी पड़ी। रूढ़िवादियों ने मूर्तिपूजा के विरोध तथा ईसाई धर्म तथा इस्लाम की दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रशंसा करने के कारण उनकी निंदा की। उन्हें विधर्मी कहा गया तथा समाज से बहिष्कृत कर दिया गया।
राजा राम मोहनराय का प्रधान क्षेत्र धर्म नहीं समाज था। वे धर्म के शुद्ध आध्यात्मिक पक्ष की व्याख्या नहीं करते थे। धर्म का अध्ययन वे मोक्ष प्राप्ति के लिए नहीं करते थे। वे धर्म के सामाजिक और राजनीतिक पक्ष के प्रति अधिक उत्सुक थे। उन्होंने हिंदू धर्म के अंदर रहकर उसे सुधारने का काम आरंभ किया। उन्होंने भारतीय समाज में सुधार के लिए भी आधार तैयार किया।
सामाजिक कुरूतियों के विरूद्ध उन्होंने 1818 ईस्वी से ही अपना आंदोलन शुरू किया। इसी वर्ष उन्होंने सदियों से चली आ रही अमानवीय सती प्रथा के विरूद्ध आंदोलन शुरू किया। सती प्रथा मौलिक रूप से अत्यंत प्राचीन थी, लेकिन 19वीं सदी के आरंभ में यह प्रथा बंगाल में अधिक प्रचलित हो गई। राम मोहन राय ने अनेक शास्त्रों का सहारा ले कर यह बताने की कोशिश की कि धर्मशास्त्रों में भी सती प्रथा का विरोध किया गया था।
पुराने शास्त्रों का प्रमाण देकर उन्होंने लोगों की तर्कशक्ति, मानवीयता और दयाभाव की दुहाई दी। उन्होंने व्यक्तिगत प्रयासों के द्वारा इस प्रथा को रोकने की कोशिश की। वे स्वयं कलकत्ता के श्मशानों में जाते और विधवाओं के रिश्तेदारों से उनके आत्मदाह के कार्यक्रम को त्याग देने के लिए समझाते। उन्होंने समान विचार वाले लोगों के समूह संगठित किए जो इन कुरूतियों पर कड़ी निगाह रखें और विधवाओं को सती होने से रोकने के लिए हरसंभव कोशिश कर सकें।
उनके ही सत्प्रयासों से गर्वनर जनरल विलियम बैटिंग ने 1829 ईस्वी में इस अमानवीय प्रथा को अवैध घोषित किया। इसके खिलाफ राधाकान्त देव के नेतृत्व में रूढ़िवादी हिन्दुओं ने संसद को याचिका दी कि वह सती प्रथा पर पाबंदी लगाने संबंधी विलियम बैटिंग की कार्यवाही को मंजूरी न दे। राधाकांत देव ने राम मोहनराय की भर्त्सना की और उन्हें विधर्मी घोषित किया। राम मोहनराय ने प्रबुद्ध हिंदुओं की ओर से एक याचिका दी और सती प्रथा पर पाबंदी को बरकरार रखवाया।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार सती प्रथा को समाप्त करने के सम्बन्ध में राम मोहनराय के कार्य का सही मूल्यांकन नहीं किया गया है। उनके अनुसार सती प्रथा का विरोध राम मोहनराय से पूर्व ही आरंभ हो चुका था और सती निषेधाज्ञा में राम मोहन राय का कोई योगदान नहीं था। वस्तुतः राम मोहन राय ने विलियम बैटिंग की नीतियों का विरोध किया। वे चाहते थे कि इस प्रथा को धीरे-धीरे जनमत के द्वारा समाप्त होने दिया जाए। राम मोहनराय की जीवनी लेखिका मिस कॉलेट भी राम मोहनराय के दृष्टिकोण को उचित ठहराती हैं, क्योंकि राम मोहन राय वैधानिक दृष्टि से दबाव डाल कर कार्य कराने के विरूद्ध थे।
राम मोहन राय औरतों के अधिकारों के पक्के हिमायती थे। उन्होंने औरतों की परवशता की निंदा की तथा इस प्रचलित विचार का विरोध किया कि औरतें पुरूषों के बुद्धि या नैतिक दृष्टि से निकृष्ट हैं। उन्होंने बहु विवाह तथा विधवाओं की अवनत स्थिति की आलोचना की। औरतों की स्थिति में सुधार के लिए उन्होंने मांग की कि उन्हें विरासत और संपत्ति संबंधी अधिकार दिया जाये।
राम मोहन राय आधुनिक शिक्षा के प्रारंभिक प्रचारकों में से एक थे। वे आधुनिक शिक्षा को देश में आधुनिक विचार के प्रचार का मुख्य साधन मानते थे। उनकी मुलाकात एचएच विल्सन, मैसले, सर विलियम जोंस, सर हाइड ईस्ट और एडम जैसे विद्वानों से हुई और आधुनिक शिक्षा के महत्व को उन्होंने समझा। प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान डेविड हेयर के साथ मिलकर 1817 ईस्वी में उन्होंने कलकत्ता में प्रसिद्ध हिंदू कालेज की स्थापना की और डेविड हेयर की शिक्षा संबंधी परियोजनाओं का जोरदार समर्थन किया।
इतिहासकार आर.सी. मजूमदार हिंदू कालेज की स्थापना में राम मोहन राय का कोई हाथ नहीं मानते हैं। राम मोहन राय ने कलकत्ता में 1817 में अपने खर्च से एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की, जिसमें अन्य विषयों के साथ यांत्रिकी और वाल्तेयर के दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने कहा कि भारत ने काफी संस्कृत का अध्ययन कर लिया है, अब उसे अंग्रेजी साहित्य की ओर भी झुकना चाहिए। अंग्रेजी शिक्षा के समर्थन में उन्होंने 1823 ईस्वी में लार्ड एम्डहर को एक ज्ञापन दिया। निश्चित रूप से मैकाले की परियोजना के अग्रदूत राम मोहनराय थे। उन्होंने 1825 ईस्वी में एक वेदान्त कालेज की स्थापना की, जिसमें भारतीय विद्या और पाश्चात्य सामाजिक तथा भौतिक विज्ञानों की पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध थी।
राम मोहन राय ने यह विश्वास व्यक्त किया कि अंग्रेजी भाषा के अध्ययन के साथ-साथ भारत में क्षेत्रीय भाषाओं को भी प्रोत्साहित करना आवश्यक है। इसके माध्यम से भारत के लोग अपनी अभिव्यक्ति को एक ठोस आधार प्रदान कर सकते हैं। बंग्ला साहित्य के विकास में उनका योगदान महत्वपूर्ण है। वे बंगाल में बंग्ला को बौद्धिक सम्पर्क का माध्यम बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने एक बंग्ला व्याकरण की रचना की। अपने अनुवादों, पुस्तिकाओं तथा पत्र-पत्रिकाओं के जरिए बंग्ला भाषा की एक आधुनिक और सुरूचिपूर्ण शैली विकसित करने में उन्होंने सहायता की।
1821 ईस्वी में उन्होंने ‘‘संवाद कौमुदी’’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका को प्रकाशित किया। वे भारतीय पत्रकारिता के अग्रदूत थे। जनता के बीच वैज्ञानिक साहित्य और राजनैतिक ज्ञान के प्रचार, तात्कालिक दिलचस्पी की बातों पर जनमत तैयार करने और सरकार के सामने जनता की मांगों और शिकायतों को रखने के लिए उन्होंने पत्रिकाएं बंग्ला, फारसी, हिन्दी और अंग्रेजी में निकाली। उन्होंने मिरातुल अखबार का संपादन किया। फारसी में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘तोहफतउल-मुहिदीन’ की रचना की। ‘संवाद कौमुदी’ का उन्होंने हिन्दी रूपांतरण किया।
राम मोहन राय भारत में राष्ट्रीय चेतना के उदय की पहली झलक का प्रतिनिधित्व करते थे। एक स्वतंत्र और पुरूत्थानशील भारत का स्वप्न उनके चिंतन और कार्यों का मार्गदर्शन करता था।
एकेश्वरवाद का वेदांतिक संदेश देकर वे भिन्न-भिन्न समूहों में बंटे भारतीय समाज की एकता का आकार तैयार कर रहे थे। उन्होंने जाति प्रथा का बहुत बड़ा कोढ़ माना, क्योंकि जाति प्रथा लोगों को खण्ड-खण्ड में बांटने में सहायक थी। अतः जाति प्रथा का उन्होंने कट्टरता के साथ विरोध किया।
उनका ख्याल था कि जाति प्रथा दोहरी कुरूति है। उसने देश में विभेद पैदा कर जनता को विभाजित किया है और देश को एकता की भावना से वंचित रखा है। राम मोहन राय देश के राजनैतिक प्रश्नों पर जन आंदोलन के प्रवर्तक भी थे। उन्होंने बंगाल के जमींदारों की उत्पीड़न कार्यवाहियों की निंदा की, क्योंकि इन जमींदारों ने किसानों को दयनीय स्थिति में पहुॅंचा दिया था। उन्होंने मांग की कि वास्तविक किसानों द्वारा दिए जाने वाले अधिकतम लगान को सदा के लिए एक निर्धारित कर देना चाहिए, जिससे वे 1793 के स्थायी बंदोबस्त के फायदे को प्राप्त कर सकें।
उन्होंने लाखीराज जमीन पर लगान निर्धारित करने के प्रयासों का विरोध किया। उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकारों को समाप्त करने तथा भारतीय वस्त्रों से भारी निर्यात शुल्कों को हटाने की भी मांग की। उन्होंने सेवाओं के भारतीयकरण, कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक दूसरे से अलग करने जूरी के जरिए मुकदमों की सुनवाई और भारतीयों और यूरोपवासियों के बीच न्यायिक समानता की मांग की। सीमित अर्थों में राम मोहन राय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के समर्थक थे। प्रशासन में वे मांटेस्क्यू के शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत के हिमायती थे।
राम मोहन राय का अंतर्राष्ट्रीयता और राष्ट्रों के बीच मुक्त सहयोग में सम्यक विश्वास था। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में गहरी दिलचस्पी लेकर हर जगत उन्होंने स्वतंत्रता, जनतंत्र और राष्ट्रीयता के आंदोलन का समर्थन किया। उन्होंने हर प्रकार के अन्याय, उत्पीड़न और जुल्म का विरोध किया।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार राम मोहन राय स्वतंत्रता प्रेमी थे और उनका स्वतंत्रता प्रेम दार्शनिक स्तर पर था। भारत के संदर्भ में वे अंग्रेजी राज्य को भारत के लिए ईश्वर का वरदान मानते थे। उन्हें अंग्रेजों पर अटूट विश्वास था। अंग्रेजों के साथ भारतीयों के संबंध को वे हितकर समझते थे। अग्रेजों के भारत आगमन को वे भारतीयों के लिए लाभदायक समझते थे।
राम मोहन राय के कुछ सामाजिक कार्यक्रम भी सैद्धांतिक स्तर पर थे। सैद्धांतिक स्तर पर ही उन्होंने जाति प्रथा का घोर विरोध किया था, जबकि वास्तविक जीवन में वे ब्राह्मणों को शुद्ध एवं श्रेष्ठ मानते थे। जीवन पर्यंत उन्होंने ब्राह्मण रसोइए के हाथ से ही भोजन प्राप्त किया, लेकिन उन्होंने किसी भी आगन्तुक का निरादर नहीं किया और उनके लिए सम्मान का उन्होंने यथासंभव प्रयास किया।
राजा राम मोहन राय भले ही भारत में ब्रिटिश राज्य के महान कायल थे, लेकिन वे भारत के लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महान समर्थक थे। वे इतिहासकार विपिन चन्द्र के शब्दों में, ‘‘सिंह की तरह निडर थे और किसी उचित उद्देश्य का समर्थन करने में कभी हिचकिचाते नहीं थे। सारे जीवन व्यक्तिगत हानि और कठिनाई सहकर भी सामाजिक अन्याय और असमानता के खिलाफ संघर्ष किया। समाज सेवा में बहुधा उनका अपने परिवार, धनी जमीदारों, शक्तिशाली धर्म प्रचारकों एवं उच्च विदेशी अधिकारियों के साथ टक्कर हो जाया करती थी। लेकिन वे हमेशा अडिग रहते थें वे वैयक्तिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। 1820 ईस्वी में जब फ्रांस में नेपल्स क्रांति हुई, तो उन्होंने बड़ा जश्न मनाया। लेकिन जब 1820 ईस्वी में नेपल्स की क्रांति की असफलता हुई तो वे बहुत दुखी हुए। अमेरिका के स्वातंत्र्य संग्राम का आदर्श उनके जीवन का पथ प्रदर्शक बना। 1830 ईस्वी की क्रांति ने भी उन्हें आल्हादित किया।
राम मोहन राय प्रेस एवं भाषण की स्वतंत्रता के सशक्त समर्थक थे और उनके अनुसार प्रेस की आवाज को कोई भी सभ्य समाज दबा नहीं सकता है। जब ब्रिटिश सरकार द्वारा कुछ पत्रिकाओं पर पाबंदी लगा दी गई, तो उन्होंने इसका घोर विरोध किया। 1823 ईस्वी में उन्होंने हाईकोट के समक्ष एक पिटिशन प्रस्तुत करके प्रेस की स्वतंत्रता की मांग की और गवर्नर जनरल द्वारा लागू की गई सेंसरशिप को तत्काल रोकने की मांग की। उन्होंने सरकार प्रेस आर्डिनेंस का विरोध किया और अपने साथियों के साथ मिलकर प्रेस की स्वतंत्रता के लिए अपील की, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया। अंत में उसने किंग इन कौंसिल के पास न्याय की मांग की, लेकिन वहां भी उन्हें सफलता नहीं मिली। क्षुब्ध होकर उन्होंने अपनी पत्रिका मिरातुल अखबार का प्रकाशन बंद कर दिया, क्योंकि उन्हें शासकों की शर्त पर पत्रिका निकालना पसंद नहीं था।
राम मोहन राय भारत में न्यायाकि समानता के समर्थक थे और इस सम्बन्ध में बहुत सारे सुझाव सरकार के पास भेजे। उन्होंने एक पुस्तिका लिखी, जिसका नाम था- ‘‘भारत में राजस्व और न्यायिक व्यवस्था।’’।
राम मोहन राय ने 1827 ईस्वी में ब्रिटिश संहिता को सरल बनाने के लिए कम्पनी सरकार के उस अधिनियम का विरोध किया, जिसके द्वारा भारत में जूरी द्वारा विचार की प्रथा चलाई गई थी। लेकिन यह निश्चित किया गया था कि ईसाई के मुकदमें का फैसला केवल ईसाई ही करेंगें, लेकिन हिन्दू और मुसलमानों के मुकदमें में ईसाईयों की ही प्रधानता होगी।
सारांश में भारत की न्यायिक व्यवस्था के ऊपर इसाईयों का दबदबा बना रहेगा। इसके विरोध में उन्होंने 5 जून 1829 को ब्रिटिश संसद के समक्ष एक आवेदन पत्र दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि इसाई न्यायाधीशों से भारत के लोगों को न्याय मिलना संभव नहीं है। जब वे इंग्लैंड गए तो 1833 ईस्वी में चार्ल्स ग्रांट का जूरी बिल पास हुआ और उन्होंने जो आपत्तियां की थी, उनको इस अधिनियम में ध्यान दिया गया।
राम मोहन राय मुगल सम्राट के मुकदमों के संदर्भ में 1830 ईस्वी में ही इंग्लैंड गये थे। वस्तुतः राजा की पदवी उन्हें मुगल सम्राट अकबर द्वितीय के द्वारा ही प्रदान की गई थी। राम मोहन राय इंग्लैंड से फ्रांस गये जहां वे बीमार पड़ गये। वे पुनः इंग्लैंड लौट आये और 20 सितम्बर 1833 ईस्वी में ब्रिस्टल में उनका देहांत हो गया।

संजय गोस्वामी
यमुना, जी/13, अणुशक्तिनगर, मुॅंबई-94