मौलिक तौर पर भारतीय राष्ट्रवार का उदय विदेशी शासन के विरूद्ध हुआ। अंग्रेजों ने भारत पर अपना आधिपत्य अपने हितों की बढ़ोत्तरी के लिए स्थापित किया था, न कि भारतीयों की उन्नति के लिए। अतएव दोनों पक्षों के बीच संघर्ष अवश्यंभावी ही था। अंग्रेजी शासन भारत के आर्थिक पिछड़ेपन का मुख्य कारण बन गया था। भारत का हर सामाजिक वर्ग किसी न किसी ढंग से इस हुकूमत के अधीन पीड़ित हो रहा था। किसान भूराजस्व का भागीदार सह नहीं सकते थे और न ही जमींदारों और सूदखोरों के अत्याचार को, जिन्हें अंग्रेजी प्रशासन सुरक्षा प्रदान कर रहा था।
भारतीय कारीगर भी प्रसन्न नहीं थे, क्योंकि इस नवीन शासन ने जबरदस्ती उनकी औद्योगिक कलाओं का विनाश कर डाला था। औद्योगिक श्रमिक भी असंतुष्ट थे, क्योंकि ब्रिटिश सरकार पूंजीपतियों का ही पक्ष लेती थी। मध्यम वर्ग एवं बुद्धिजीवियों ने भी ब्रिटिश शासन के बुरे परिणामों को तीव्र रूप से महसूस किया।
दादा भाई नौरोजी एवं राणाडे जैसे मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवियों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि ब्रिटिश शासन भारतीय आर्थिक विकास के प्रतिकूल है। भारतीय पूंजीपतियों में भी यह विश्वास जगा था कि भविष्य में उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध करना पड़ेगा, वरन उनका स्वतंत्र विकास नहीं हो सकता है। इन तथ्यों के अतिरिक्त अंग्रेजों का घमंडी व्यवहार प्रत्येक स्वाभिमानी भारतीय को जागरूक बना दिया था।
अतएव 19वीं शताब्दी के अंत तक भारत में एक शक्तिशाली साम्राज्य विरोधी आंदोलन प्रारंभ हुआ। यह एक राष्ट्रीय आंदोलन था, क्योंकि इसमें भारत के भिन्न-भिन्न वर्ग अपने आपसी द्वेष को भूलकर एक हो गए और ब्रिटिश राज्य का विरोध करने लगे।
एक प्रकार से देखा जाए तो अंग्रेजों ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन अनजाने में ही प्रारंभ करा दिया। यद्यपि अंग्रेज रेल, डाक एवं समस्त प्रशासन का विकास अपने हित में किए थे। संचार एवं यातायात की इन सुविधाओं से भारतीय एक दूसरे के निकट आ सके और आंदोलन को इससे गति मिली।
पश्चिमी विचारधारा एवं शिक्षा के फलस्वरूप अनेक भारतीयों ने राजनीति का आधुनिक दृष्टिकोण अपनाया और इस योग्य भी हो सके कि ब्रिटिश शासन की शोषण करने वाली प्रकृति को पहचाने। इस शिक्षा के कारण ही भारत में अनेक नेता पैदा हुए, जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया।
भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में समाचार पत्रों का भी योगदान कम नहीं है, विशेषकर देशभक्त के संदेश को प्रचार करने में। उस समय कुछ प्रमुख राष्ट्रवादी समाचार पत्र ‘दि हिन्दु’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘दि इंडियन मिरर’ इत्यादि थे। इसी प्रकार राष्ट्रीय चेतना राष्ट्रवादी साहित्य से भी उत्तेजित हुई। बंकिम चन्द्र चटर्जी, रविन्द्रनाथ टैगोर, भारतेन्तु हरिशचन्द्र, विष्णु शास्त्री ‘चिपलंकार’ इत्यादि के साहित्य रचनाओं का राष्ट्रवादी चेतना के विकास में अत्यधिक योगदान है।
यद्यपि अंग्रेजों ने यह जताना चाहा था कि भारतीयों में राष्ट्रीय स्वशासन चलाने की योग्यता नहीं है। कुछ भारतीयों (नेताओं) और लेखकों ने यह विश्वास लगाया कि भारतीय परम्परा एवं संस्कृति प्राचीन समय से ही बड़ी विकसित रही है और अंग्रेजों को यहॉं कुछ सिखाने की आवश्यकता नहीं है। उसी समय राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने अशोक, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, अकबर इत्यादि की उपलब्धियों एवं अशोक, चन्द्रगुप्त को बेमिसाल बताया। भारतीय प्राचीन विज्ञान, राजनीति दर्शन, स्थापत्य कला इत्यादि को भी अद्वितीय बताया गया, जिससे भारतीयों में अपनी संस्कृति एवं परम्परा के प्रति गौरव पैदा हुआ।
उपर्युक्त कारणों के चलते 1870-80 दशक तक ऐसा प्रतीत होने लगा कि भारतीय राष्ट्रवाद सबल ढंग से प्रारंभ हो चुका है। परन्तु वह लार्ड लिटन का प्रतिक्रियावाद शासन था, जिसके कारण भारतीय राष्ट्रवाद एक संगठित रूप धारण किया। इसके शासन के समय ब्रितानी कपड़ों पर से सभी चुंगियां उठा ली गईं। इससे भारतीय उत्पादकों को बेहद हानि पहुॅंची और अंग्रेजों के विरूद्ध क्रोध की एक लहर दौड़ गई। लिटन के शासन के समय दूसरा अफगान युद्ध भी अत्यधिक खर्चीला रहा।
भारतीयों को बंदूक की लाइसेंस मिलना कठिन बना दिया गया। इससे भारतीय राष्ट्रवादियों ने यह समझा कि अंग्रेज समस्त राष्ट्र को नपुंसक बनाना चाहते हैं। इसी प्रकार जब ‘वरनाकुलर प्रेस ऐक्ट’ द्वारा देश भक्तों की आवाज मौन करने का प्रयत्न किया गया तो इससे साम्राज्य विरोधी भावना और भी तीव्र हुई। 1877 की दिल्ली दरबार की फिजूलखर्ची से भारतीय अत्यधिक प्रभावित हुए। क्योंकि यह फिजूलखर्ची उस समय की गई, जब भारत में एक भीषण अकाल पड़ा था और लाखों लोगों की जानें जा रही थीं। लगभग इसी समय आई.सी.एस. की परीक्षा भी भारतीयों के लिए कठिन बना दी गई, जब परीक्षा के लिए उम्र सीमा 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी गई।
कहा जाता है कि यदि लिटन ने साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को तीव्र बनाया तो इलविर्ट बिल मतभेद ने भारतीय राष्ट्रवाद को संगठित कर ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ को जन्म दिया। कानून संबंधित यह विवाद लिटन के बाद वायसराय लार्ड रिपन के समय आरंभ हुआ। लार्ड रिपन ने भारतीय जिला पदाधिकारी एवं सक्षम न्यायाधीशों की शक्ति को बढ़ाना चाहा। उन्हें यूरोपीयों के फौजदारी मुकदमों की सुनवाई का भी अधिकार दिया। परन्तु इस प्रस्ताव का यूरोपीय समुदाय ने शक्तिशाली विरोध किया। अंततः प्रशासन को इनकी बात माननी पड़ी और कानून प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। इस प्रशासन को ला मेम्बर इलवर्ट ने प्रस्तुत किया था। इसलिए इसे इलवर्ट बिल विवाद कहा जाता है। इस विवाद से भारतीयों को यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज उनसे घृणा करते हैं और हेय दृष्टि से देखते हैं।
परन्तु यूरोपीयों के इलवर्ट विरोधी आंदोलन को देखकर भारतीयों ने भी यह प्रेरणा पाई कि अगर उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन में सफल होना है, तो उन्हें संगठित होकर बिना हिम्मत हारे एक लम्बा संघर्ष चलाना पड़ेगा।
उपर्युक्त कारणों से 19वीं शताब्दी के अंत तक भारतीय राष्ट्रवाद की उत्पत्ति तो हो ही चुकी थी। परन्तु इसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में पाई जाती है, जो 1885 में हुई। इसके पूर्व भी क्षेत्रीय एवं वर्ग स्तर पर साम्राज्यवाद विरोधी संगठन बनाए जा रहे थे। परन्तु राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। भविष्य में भारतीय राष्ट्रीय संघर्ष भिन्न-भिन्न कारणों से अपने भिन्न-भिन्न चरणों में और भी तीव्र होता गया।
संजय गोस्वामी
यमुना, जी/13, अणुशक्तिनगर, मुॅंबई-94