सतत विकास हेतु महासागर विज्ञान दशक

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पहली जनवरी 2021 से आरंभ हो चुके, ‘सतत विकास हेतु महासागर विज्ञान दशक (वर्ष 2021-2030), में महासागरीय संर्वधन की व्यापक उम्मीदें हैं, जिसमें विज्ञान सम्मत तकनीकी-ज्ञात व समझ आधारित क्रियाकलापों द्वारा महासागरों के प्रबंधन, उनकी अपेक्षित देखरेख एवं अनुसंधान और विकास को अभूतपूर्व बढ़ावा मिल सकेगा।
ज्ञातव्य है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के 72वें अधिवेशन में, इस दशक की घोषणा करते हुए संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के, वर्ष 1960 में गठित, अंतरसरकारी महासागरीय आयोग (इंटरगवर्नमेंटल ओश्यनोग्रफिक कमीशन-आईओसी) को इसकी जिम्मेदारी दी गई है, जो उक्त दशक के उम्मीदों को मूर्तरुप प्रदान करने हेतु संयुक्त राष्ट्र की अन्य इकाइयों विशेषज्ञ एजेंसियों, सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों, समुदायों तथा अनेकानेक हिग्राहियों से विमर्श और तालमेल बिठाते हुए कार्य कर रहा है।
चूंकि भूगोल के अनुसार सागर भी महासागरों का ही भाग होते हैं, जो आंशिक रूप से भूमि से संलग्न होते है और इसी कारण, दशक के मद्देजनर, ‘वन प्लेनेट, वन ओशन’ की प्रकल्पना की गई है। यद्यपि महासागरों एवं सागर दोनों ही अति वृहत जल पिंड होते है, तथापि सागर महासागरों की तुलना में काफी छोटे होने के साथ अपेक्षाकृत कम गहरे होते है।
नई बुनियाद रखने हेतु महत्वाकांक्षी फैसला
दशक की महत्ता समझते हुए इसे और अधिक प्रभावी समाधानों के साथ लागू करने के लिए, संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित महासागर विज्ञान दशक मनाए जाने के निर्णय में, स्थानीय से लेकर वैश्विक पैमाने तक, नीति-निर्माताओं, विज्ञान समुदाय, नागरिक समाज, निजी क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों तथा अनेकानेक हितग्राहियों को शामिल कर योगदान देने की अपेक्षा की गई है। यूनेस्को के अंतरसरकारी महासागरीय आयोग (आईओसी) की ओर से सतत विकास के लिए महासागर विज्ञान दशक के संदर्भों में तैयार किए गए मसविदा की कार्यान्वयन योजना (संस्करण 2.0), का मसौदा संयुक्त राष्ट्र महासभा के 75वें सत्र (कोविड-19 के कारण पहली बार वर्चुअल रुप से आयोजित) के समक्ष विचार-विमर्श हेतु प्रस्तुत किया जा चुका है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के संकल्प 72/73 के अनुसार, इस मसौदे को सौंपने से पूर्व यूएन ओशन द्वारा दशक की तैयारियों पर व्यापक सहभागिता करते हुए गहन मंथन किया गया था। ज्ञातव्य है कि यूएन ओशन संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के अंतर्गत महासागर और तटीय मुद्दों पर अंतर-समन्वय हेतु स्थापित एक समन्वय-तंत्र है।
इसके अलावा, 14 देशों के सेवारत विश्व नेताओं की एक अनूठी पहल में, सितंबर 2018 में स्थापित, सतत महासागर अर्थव्यवस्था के लिए एक उच्च-स्तरीय पैनल (हाइ-लेवल पैनेल फॉर सस्टेनेबल ओशन इकोनामी) भी स्थाई महासागर-अर्थव्यवस्था को गति प्रदान कर रहा है। दशक हेतु अंतर्निहित सिद्धांत आगे भी भागीदारी और समावेशी प्रक्रिया पर ही आधारित रहेंगे।
हमारी सभ्यता हेतु महासागरों के स्वास्थ्य में गिरावट के हानिकारक कुचक्र से बचने के लिए आशय के दशक में किए जाने वाले चेतन प्रयासों से ही अच्छे भविष्य की नींव रखी जा सकेगी, जिसमें वैज्ञानिक समुदाय की भूमिका अहम् होगी।
आज महासागर के विभिन्न आयामों यथा, पारिस्थितिक तंत्र, आर्थिक-संसाधन व सामाजिक -सांस्कृतिक संदर्भ के अन्य अभिप्रायों को समझने की आवश्यकता है। इस हेतु उचित पारदर्शिता और जागरूकता के साथ आंकड़ों और परिणामों के आदान-प्रदान, अंतर्निहित विषयों के भीतर के ज्ञान साझा करने की प्रवृत्ति अपनाकर संपूर्ण मानवजाति का भला किया जा सकेगा।
संयुक्त राष्ट्र इस बात के बात के लिए पूर्ण आशान्वित है कि महासागर दशक में वैज्ञानिक ज्ञान और समझ की प्रभावी परिणति उन कार्यों में होगी, जिनसे बेहतर महासागर प्रबंधन और सतत विकास को समर्थन मिल सकेगा। नतीजतन, महासागर स्वच्छ व अधिक उपजाऊ बन सकेंगे।
सतत विकास लक्ष्य-14 के ‘जल तले जीवन‘ (लाइफ बिलो वॉटर) में नियत लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु महासागर विज्ञान दशक मील का पत्थर स्थापित करने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकेगा। इस दशक के संदर्भों में आईओसी की भावी योजनाएं सर्वसमावेशी बन महासागरों के सुस्वास्थ्य एवं उनके व्यापक प्रबंधन के साथ-साथ विभिन्न अनुसंधान ओर विकास कार्यक्रमों की रूपरेखा तय करने, सुनामी व अन्य चेतावनी तंत्र मजबूत करने, विस्तीर्ण प्रेक्षणों, समुद्र की स्थानिक योजनाएं बनाने आदि अनेकानेक महत्वपूर्ण विषयों व पहलुओं पर प्रमुखता से ध्यान दे सकेगा।
इधर हाल के वर्षां में, वैश्विक तापमान वृद्धि के फलस्वरूप, समुद्र तल का स्तर ऊंचा होने से, निचले तटीय इलाकों में बाढ़ इत्यादि जैसी चरम घटनाओं में इजाफा हुआ है। हालांकि अब वैज्ञानिकों द्वारा नवीनतम तकनीकों का सहारा लेकर घातक मौसमय घटनाओं, भारत समेत विश्व के अन्य महाद्वीपों के सागरों व महासागरों पर अक्सर घटित होने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवातों अथवा तूफानों, बारिश इत्यादि का पूर्वानुमान कर सटिक जानकरियां तथा एडवाइजरी जारी कर जान-माल का व्यापक नुकसान होने से बचा लिया जा रहा है। महासागर दशक में ऐसे पूर्वानुमानों द्वारा महासागरों के बदलते स्वरुप तथा गहरे समुद्र के प्रेक्षणों पर भी कार्य करने की व्यापक योजनाएं हैं।
तटीय इलाकों में नवीन व परिष्कृत तकनीकों द्वारा सागरीय जल का अलवणीकरण (डिसैलिनेशन) कर अलवण जल का विकल्प प्रस्तुत करना भी समय की मांग है। साथ ही, स्वच्छ, पर्यावरण अनुकूल व अक्षय ऊर्जा स्रोतों की प्राप्ति हेतु भी अपतटीय हवाओं, महासागरीय धाराएं तथा महासागरीय तापीय ऊर्जा आदि पर हम अपनी निर्भरता बढ़ाकर सतत विकास हेतु अग्रसर हो सकते हैं। इन बातों के लिए भी महासागर दशक में उचित प्रावधान किए जा रहे है।
बहुआयामी उपयोगिता
महासागर जहां मानवजनित कार्बन डाइऑक्साइड की एक बड़ी मात्रा स्वयं में अवशोषित कर लेते हैं, वहीं धरती के वायुमंडल में 50 से 85 प्रतिशत तक ऑक्सीजन भी प्रदान करते हैं, जो मनुष्य समेत अन्य जीवधारी अपनी श्वसन क्रिया में लेते हुए जीवित रहते है।
अधिकांशतया सतह पर मौजूद तथा लहरों के साथ तैरते रहने वाले पादप प्लवक (फाइटोप्लैंक्टन) अपने भोजन बनाने की प्रक्रिया के दौरान प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में, सूर्य के प्रकाश की अपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड लेकर, सह-उत्पाद के तौर पर भारी मात्रा में ऑक्सीजन उत्पादित करते हैं।
महासागर कार्बन डाईऑक्साइड के साथ-साथ धरती के तापमान का भी नियंत्रण करते हुए हमारे ग्रह को आवश्यक सुरक्षा प्रदान करते हैं, जो मौसम-जलवायु के विभिन्न पैटर्न हेतु भी उत्तरदायी होते है। महासागर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों पर भी अंकुश लगाते हैं तथा इस आशय हेतु नियत किए गए सतत विकास लक्ष्य-13 के उद्देश्य प्राप्ति में भी सहायक होते है। खाद्य, खनिज और ऊर्जा उत्पादन, पर्यटन और परिवहन सभी के लिए महासागरों की व्यापक उपयोगिता है। विश्व भर की विस्फोटक रुप से बढ़ रही आबादी, जिसमें वर्ष 2050 तक 9 अरब हो जाने की बात प्रत्यालेखित की जा रही है, हेतु भी महासागर उदरपूर्ति का बड़ा सहारा बन सकता है।
गड़बड़ के दुष्परिणाम
वैज्ञानिकों की एक बड़ी चिंता जीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में वैश्विक बढ़ोत्तरी से भी है जो न केवल जलवायु परिवर्तन हेतु खतरे की घंटी बन हमारे समक्ष उपस्थित है, वरन् महासागर द्वारा अवशोषित कार्बन डाईऑक्साइड की यह बढ़ी हुई मात्रा, समुद्र जल के रासायनिक परिवर्तनों हेतु भी जिम्मेदार है।
यह कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बोनिक एसिड बना, पानी में घुल जाता है और बड़े पैमाने पर महासागर के अम्लीकरण का कारण बनता हैं। ये प्रेक्षत्र अनेक समुद्री जातियों के निवास के लिए प्रतिकूल बन जाते हैं। वर्तमान में, महासागर में कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषण की दर अब और अधिक हो गई है। ऊपर से, डिटर्जेंट, कृषि में प्रयुक्त होने वाले रसायनों और अन्य प्रदूषकों के लगातार तटीय अपवाह भी कार्बन चक्र को अस्त-व्यस्त कर रहे हैं और यदि इसे नियंत्रित नहीं किया जाता है, तो इससे समंद्र के पारिस्थितिक तंत्र में भारी गड़बड़ हो सकती हैं।
यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण होगा कि महासागरों की विघटित कार्बन डाइऑक्साइड को धारण करने की अधिक क्षमता ठंडे पानी में होती है, किन्तु हाल के दिनों में, महासागरों के तापमान में खतरनाक रुप से वृद्धि हुई है। हालांकि, किसी भी स्थान के कार्बन उद्ग्रहण की समग्र प्रवृत्ति काफी हद तक महासागर और इसकी धाराओं, अक्षांश और चक्रीय मौसम के पैटर्न यथा एल-नीनो आदि से प्रभावित होती है। इस प्रकार समुद्र के परिवर्तनशील कार्बन-रसायनी का बड़ा प्रभाव उन जीवों पर भी पड़ता है, जो कैल्सियम कार्बोनेट के गोले बनाते हैं, मसलन, सीप और मोलस्क।
गहराइयों में छुपे हैं हितकारी राज
महासागरों के विषय में हमारी समझ अत्यंत सीमित है तथा वर्तमान में उपलब्ध ज्ञान भी केवल छिछले जल के लघु परिसरों तक ही संपदित अध्ययनों अथवा अनुभवों पर आधारित हैं। अभी भी, महासागरों के गहरे जल का अध्ययन व अनुसंधान किया जाना शेष है। इस कार्य हेतु विशेषीकृत आधुनिक एवं परिष्कृत उपकरणों की आवश्यकता होती है, जिनका वाणिज्यिक उत्पादन भी अभीष्ट है।
आज महासागरों का भौतिक, जैविक, रासायनिक, भू-गर्भीय आदि समस्त पहलुओं के विस्तृत जानकारी जुटाने का प्रयत्न करना एक प्र्रकार से मानव अस्तित्व को कायम रखने हेतु अपरिहार्य हो चला है। महासागरों की अनंत गहराइयों में छुपे राज का पता लगाने के लिए हमारा आकर्षण स्वाभाविक है। क्योंकि पूर्व में भी महासागर वरदान बन हमारी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहे है, जिनमें चिकित्सा में सहायक औषधियों, भोजन, खनिज तथा ऊर्जा के अक्षय स्रोत आदि के रुप में मानवजाति को महासागरों से लाभ मिलता रहा है।
ऐसा समझा जाता है कि हमारे ग्रह की अधिकांश जैव-विविधता गहरे समुद्रों में ही वास करती है तथा वहां मौजूद सूक्ष्मजीवों का औषधीय अन्वेषणों में भी विशेष महत्व है, जिसके लिए निरंतर समझ पूर्ण क्षमता संवर्धन किया जाना अभीष्ट है।
अभी हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका के वुड्स होल ओश्यनोग्राफिक इंस्टिट्यूट के सूक्ष्मजीवी वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि कुछ गहरे समुद्र के बैक्टीरिया, कोरोनावायरस की नैदानिकी में भी उपयोगी है।
महासागरों की दशा में सुधार जरूरी
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) के हालिया शोध निष्कर्ष महासागरों के स्वास्थ्य की दयनीय दशा बयां करते हैं, जिसमें पारिस्थितिक तंत्र के पतन के मुख्य कारकों पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। यथा, महासागर हाइपोक्सिया अर्थात् जल में ऑक्सीजन का निम्न स्तर, प्रदूषण के विनाशकारी अपवाह तथा जलवायु परिवर्तन आदि के कारण महासागरीय मृत क्षेत्रों में बढ़ोतरी, समुद्री जातियों की तबाही आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा, प्रति वर्ष 23-5 अरब डालर मूल्य की मछलियां अवैध रुप से पकड़ ली जाती हैं। उधर, अनुमानित 80 लाख टन सालाना प्लास्टिक अपशिष्ट भी भूमि आधारित स्रोतों से महासागर में प्रवेश कर जाता है।
हाल के दिनों में समुद्र के संसाधनों के गैर-स्थाई उपयोग के कारण, लगभग एक-तिहाई वाणिज्यिक मछली स्टॉक समाप्त हो चले हैं और कुछ समुद्री कछुओं एवं सबसे बडे़ उड़ने वाले समुद्री पक्षियों की कुछ जातियां जैसे आल्बाट्रोस आदि हेतु गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दो का निराकरण करने के लिए, कन्वेंशन ऑफ बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी (सीबीडी), जो बहुपक्षीय पर्यावरण समझौते के तहत्, वर्ष 2020 के बाद दुनिया भर में जैव-विविधता संरचना तैयार करने में संलग्न है, के अलावा, कन्वेंशन ऑफ एनडेंजर्ड स्पीशीज ऑफ फ्लोरा एंड फौनी (सीआईटीईएस) आदि समुद्री जातियों के नियमन में सहायता प्रदान कर रहे हैं।
कई मौकों पर, परिवहन के दौरान, मानवीय त्रुटियों, क्षतिग्रस्त उपकरणों अथवा मौसम की खराबी की वजह से, आइल-स्पिल्स के कारण लाखों गैलन तेल (पेट्रोलियम/रिफाइंड उत्पाद) समुद्रों में गिर जाने से समुद्र तथा उसके तटीय इलाके बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, जिनके प्रदूषण से मत्स्य जातियां तथा वहां के वन्य-जीवों का व्यापक विनाश हुआ है।
समुद्र के अम्लीकरण के प्रभावों को कम करने, अवैध व विनाशकारी तरीके से हो रहे मत्स्य संसाधनों के विनाश को भी रोकना जरूरी है तथा विज्ञान आधारित प्रबंधन योजनाओं को उचित ढंग से लागू किया जाना और जीवों की बहाली के लिए समुचित प्रयास किया जाना अपरिहार्य है, जिसमें महासागर विज्ञान दशक मील का पत्थर सिद्ध हो सकेगा। इसके अतिरिक्त, सतत विकास लक्ष्य-14 के उद्देश्यों में वर्णित तटीय व समुद्री क्षेत्रों का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप, कम से कम 10 प्रतिशत क्षेत्रों को, वर्ष 2030 तक, संरक्षित किए जाने की दिशा में भी महासागर विज्ञान दशक महत्वपूर्ण हो सकेगा। मत्स्य संसाधन, जलीय कृषि और पर्यटन के सतत प्रबंधन के माध्यम से, संसाधनों के उपयोग से छोटे द्वीप, विकासशील देशों और कम विकसित देशों को आर्थिक लाभ बढाने की प्रतिबद्धताओं के निर्वहन में भी यह दशक अर्थपूर्ण होगा।
मजबूती की दरकार
महासागरीय अर्थव्यवस्था मजबूत करने में मत्स्य पालन, ऊर्जा का उत्पादन, सीबेड मनोरंजन और अन्वेषण, जैवप्रौद्योगिकी तथा पर्यटन आदि का खास योगदान है। जलवायु परिवर्तन, अम्लीकरण, समुद्री प्रदूषण आदि के कारण समुद्री जीवों का लगातार नुकसान हो रहा है, खाद्य सुरक्षा तथा मानव कल्याण हेतु भी गंभीर खतरा उत्पन्न हो रहा है।
विश्व बैंक नीली अर्थव्यवस्था की परिभाषा गढ़ते हुए इस बात को स्वीकारता है कि आर्थिक विकास हेतु महासागरीय संसाधनों का सतत उपयोग तथा उसके परितंत्रीय स्वास्थ्य संरक्षण द्वारा लोगों को बेहतर आजीविका एवं रोजगार मुहैया कराया जा सकता है। न केवल किसी राष्ट्र के लिए वरन् विश्व की आर्थिक समृद्धि के लिए महासागर और समुद्र अत्यंत महत्वपूर्ण हैं तथा एक अनुमान के अनुसार वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 5 प्रतिशत समुद्री और तटीय संसाधनों से ही संबंधित होता है।
हालांकि, मौसम की स्थिति तथा प्राकृतिक आपदाओं से बार-बार होने वाले उतार-चढ़ाव, आर्थिक नुकसान का कारण बनते हैं, जिनसे निपटने के लिए प्रभावशाली समुद्र वित्त योजनाओं की आवश्यकता के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाए जाने की भी अपरिहार्यता है।
सतत विकास लक्ष्य-14 को उद्देश्यपूर्ण करने की दिशा में किया गया सार्थक प्रयत्न अन्य लक्ष्यों की प्राप्ति में भी सहायक बन सकते हैं। यथा निर्धनता समाप्ति (लक्ष्य-1), शून्य भूख (लक्ष्य-2), अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण (लक्ष्य-3), असमानताओं में कमी (लक्ष्य-10) आदि।
गरीबी व्याप्त देशों के लगभग 50 करोड़ लोगों के लिए महासगर पोषण और आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं तथा अब कोविड-19 महामारी एक प्रकार से बाध्यता में तब्दील हो सकती है।
संभावनाओं से परिपूर्ण दशक
दशक में किए जाने वाले प्रयासों से स्वस्थ और समुन्नत महासागर मिल सकेगा, जिससे न केवल समुद्री पारिस्थितिक तंत्र का मानचित्रण और संरक्षण किया जा सकेगा वरन् जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ अन्य प्रभावित करने वाले कारकों को दूर करने के लिए समुद्र के पारिस्थितिक तंत्र में हुए सुधार को भी मापा जा सकेगा।
दशक के दौरान, महासागर के डिजिटल एटलस के साथ-साथ समुद्र के आंकड़ों के पूल के साथ-साथ सुनामी चेतावनी प्रणाली सहित एकीकृत बहु-खतरा प्रणाली आदि विकसित किए जाने की भी योजनाएं हैं। इसके अलावा, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, प्रशिक्षण और शिक्षा और महासागर साक्षरता पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। आईओसी, पार्टनरशिप फॉर द ऑब्जरवेशन ऑफ द ग्लोबल ओशन और साइंटिफिक कमेटी ऑन ओश्यनिक रिसर्च आदि द्वारा संयुक्त रुप से इस कार्य में संलिप्त तथा अन्य दिलचस्पी लेने वाले लोगों के क्षमता-संवर्धन हेतु भी पहल कर रहा है। इसके अतिरिक्त, आईओसी कार्यक्रमों से संबंधित विषयों की एक श्रृंखला ओशन टीचर ग्लोबल एकेडमी (ओटीजीए) के वेब-आधारित प्रशिक्षण मंच का भी हिस्सा है।
इसके अलावा, ग्लोबल ओशन साइंस रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक रुप से महासागर विज्ञान के क्षेत्र में कुल अनुसंधान और विकास का व्यय अभी 4 प्रतिशत से कम है, किन्तु अब यह निवेश, दशक की सफलता हेतु, वैश्विक रुप से बढ़ने की बलवती संभावनाएं हैं, जिससे महासागरों के प्रबंधन व उन्नयन में अनेकानेक नूतन आयाम जुड़ सकेंगे। हालांकि इधर हाल के वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस और कोरिया गणराज्य आदि ने महासागर विज्ञान हेतु बजट निर्धारित किया है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि उपलब्ध संसाधनों की लामबंदी के माध्यम से, महासागर विज्ञान दशक में, तकनीकी नवाचारों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपूर्ण विश्व लाभान्वित हो सकेगा तथा स्वच्छ, सुरक्षित, स्वस्थ और समुन्नत व उत्पादक महासागर खाद्य-आपूर्ति, खनिज, ऊर्जा-उत्पादन, परिवहन एवं पर्यटन, मनोरंजन तथा समृद्ध अर्थव्यवस्था के अनेकानेक पहलुओं समेत विभिन्न क्षेत्रों में संभावनाओं का द्वार खोल सकेगा। (साभार : वैज्ञानिक)
डॉ. अनिल प्रताप सिंह