भारत की वर्षा पोषित कृषि के लिए मानसून की हवाओं का समय पर आगमन और पर्याप्तता हमारे कृषि प्रथाओं में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हवाओं की आवृत्ति प्रत्येक मौसम, वर्षा और दशक में भिन्न होती है. और इस बदलाव को मानसून परिवर्तनशीलता कहा जाता है। जलवायु परिवर्तन, औद्योगिकीकरण तथा बढ़ते वाहनों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। परिणामस्वरूप बढ़ती ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन से समस्त विश्व चिंतित है चिंता का विषय इसलिए भी है, क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, और भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशीला खेती ही है।
किसान कई पीढ़ियों से खेती के लिए मौसमी बरसात पर ही निर्भर रहे हैं लेकिन अब बदलते मौसम के कारण उन्हें नुकसान हो रहा है। देश में फसल उत्पादन में उतार-चढ़ाव का कारण कम वर्षा, अत्यधिक वर्षा अत्यधिक नमी, फसलों पर कीड़े लगना, बेमौसम बारिश, बाढ़ व सूखा और ओलों की बौछार आदि मुख्य है। पिछले कुछ सालों से मौसम चक्र ने हमें चैकाने और परेशान करने का जो सिलसिला शुरू किया है जो हमारे लिए और खेती के लिए मुसीबत बन गया है।
आज देश में नियमित बाढ़, चक्रवात और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती आवर्ति्त से स्पष्ट हो जाता कि भारत जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित देशों में से एक है। पिछले वर्ष की अपर्याप्त मानसूनी बारिश से जो दुष्प्रभाव पैदा हुये है, वे बीते दिनों में और बढ़ गये हैं। दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पूर्व दिशाओं से बहने वाली नमीपुरित मौसमी मानसून हवाएँ सालाना मानसून की बारिश में आती हैं। मानसून की हवाओं का समय पर आगमन और पर्याप्तता हमारे कृषि प्रथाओं में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हवाओं की आवृत्ति प्रत्येक मौसम, वर्षा और दशक में भिन्न होती है. और इस बदलाव को मानसून परिवर्तनशीलता कहा जाता है।
जलवायु परिवर्तन, औद्योगिकीकरण तथा बढ़ते वाहनों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। परिणामस्वरूप बढ़ती ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन से समस्त विश्व चिंतित है चिंता का विषय इसलिए भी है, क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, और भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशीला खेती ही है।
आज खेती में भी मशीनीकरण हो रहा है, जिससे कार्बन डाई आक्साइड जैसी गैसों के अधिक उत्सर्जन की वजह से वायुमंडल गरम हो रहा है। वायुमंडल का औसत तापमान 0.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ रहा है। गर्माती भूमि का सबसे ज्यादा प्रभाव खेती पर पढ़ रहा है। एक अध्ययन के अनुसार सन 2050 तक शीतकाल का तापमान लगभग 3 से 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। इससे मानसूनी वर्षा में 10 से 20 प्रतिशत तक की कमी होने का अनुमान है। वर्षा की मात्रा में परिवर्तन होने से फसलों की उत्पादकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तथा जलवायु में होने वाला परिवर्तन हमारी राष्ट्रीय आय को प्रभावित करेगा है।
पिछले एक दशक के दौरान समूचे उत्तर भारत में हर साल औसतन भूजल स्तर एक फुट नीचे गिरा है. इस शोध का चिंताजनक पहलू यह तो है, कि भूजल स्तर गिरा है, लेकिन उससे अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि इसके लिए सामान्य मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। भारत के जल स्त्रोत तथा भंडार तेजी से सिकुड़ रहे हैं और जल्दी ही किसानों को परम्परागत सिंचाई के तरीके छोड़कर पानी की खपत कम रखने वाले आधुनिक तरीके एवं फसलें अपनानी होंगी। ग्लोबल वार्मिंग के चलते बड़े स्तर पर जल तथा खाद्यान्न की कमी हो सकती है। कई क्षेत्रों में तो 50 प्रतिशत तक खाद्यान्न की पैदावार कम हो सकती है। एक शोध के अनुसार यदि वातावरण का तापमान औसत 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है, तो इससे गेहूं की पैदावार 17ः तक कम हो जाती है। वन्य जीवन पर भी जलवायु परिवर्तन का घातक प्रभाव पड़ेगा, ग्लेशियरों के पिघलने से एक ओर उन क्षेत्रों में पानी की कमी हो जाएगी जिनके लिए ये ग्लेशियर पेयजल के खोत हैं, दूसरी ओर समुद्र का जलस्तर भी बढ़ेगा।
तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण भोजन की मांग में भी वृद्धि हुई हैं। इससे प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का दबाव बनता है और पर्यावरण में परिवर्तन होने लगता है। पर्यावरण में परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती पर पड़ेगा क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिटटी की क्षमता, कीटाणु और फैलने से वाली बीमारियाँ अपने सामान्य तरीके से अलग प्रसारित होंगी। बढ़ते प्रदूषण व प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से पर्यावरण में जो बदलाव आ रहा है, उसका कृषि व फसलों पर अधिक असर पड़ रहा है। बरसात का मौसम जो पहले लंबा चलता था, अब उतनी ही बारिश कम समय में हो रही है ऐसे बदलावों से किसानों को सचेत होना होगा जिसके लिए उसे मौसम की समय-समय पर जानकारी होना आवश्यक है।
जलवायु परिवर्तन के कारण
महाद्वीपों का खिसकना, पृथ्वी का झुकाव, ज्वालामुखी एवं समुद्री तरंगे
पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है, वह तापमान हरित ग्रह प्रभाव के न होने पर जो तापमान होता उससे तकरीबन 33 डिग्री सेल्सियस अधिक है। हरित ग्रह गैसों के अभाव में पृथ्वी की सतह का अधिकांश भाग – 18 डिग्री सेल्सियस से औसत वायु तापमान पर जमा हुआ होता है। अतः हरिता ग्रह गैसों का एक सीमा में पृथ्वी के वातावरण में उपस्थिति जीवन के उदगम विकास एवं निवास हेतु अनिवार्य है।
गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अनाज में पोषक तत्वों एवं प्रोटीन की कमी पाई जाएगी जिसके कारण संतुलित भोजन लेने पर भी मनुष्यों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा। यदि कार्बन डाइआक्साइड की वर्तमान सांद्रता में 1ः गुना बढ़त होती है, तो ऐसी स्थिति में सी-3 समूह की फसलों जैसे धान, गेहूं, सरसों, चना, आलू आदि की पैदावार 20 से 25 प्रतिशत तक कम होगी। परन्तु सी-4 समूह की फसलों जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा, गन्ना आदि की पैदावार में किसी खास वृद्धि से इन्कार किया गया है। लेकिन यदि कार्बन डाइआक्साइड की वर्तमान सांद्रता में दो गुनी वृद्धि कर दी जाए तो सी -3 एवं सी-4 समूह की फसलों की पैदावार में क्रमशः 30 एवं 9 प्रतिशत की कमी हो सकती है।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए मिट्टी की संरचना और उसकी उत्पादकता अहम स्थान रखती है। तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी तथा कार्यक्षमता प्रभावित होगी। मिट्टी में लवणता बढ़ेगी एवं जैव विविधता घटती जाएगी। तापमान बढ़ने से मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म जीवों द्वारा कार्बन की अपघटन क्रिया में वृद्धि होगी। परिणामस्वरूप मिट्टी में उपस्थित कार्बन और पोषक तत्वों का ह्रास बहुत जल्दी हो जायेगा, जिससे मिट्टी बंजर हो जाएगी।
स डाॅ. योगेश कुमार