कोविड संकट के समय में दुनिया की थमी हुई रफ़्तार को देखना आज की युवा पीढ़ी के लिए कोई सपना देखने जैसा ही था। कोविड संकट के तीन साल के अंदर दुनिया एक बार फिर से अपनी रफ़्तार पकड़ चुकी है। कामकाजी आपाधापी और गलाकाट प्रतिस्पर्धा, इन सबका असर इंसानों पर किस कदर हो रहा है, यह बीबीसी फ्यूचर पर प्रकाशित एक आलेख से ज़ाहिर होता है।
इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दुनिया भर के एक तिहाई वयस्क काम के बोझ से थकान महसूस करते हैं। कुछ लोगों का मन अपने काम से इतना उचट रहा है कि वो सबकुछ छोड़ दे रहे हैं। इसे ही बर्नआउट सिंड्रोम के नाम से जाना जाता है।
भारत में बर्नआउट सिंड्रोम
पिछले दिनों भारतीय क्रिकेट टीम टीम के युवा सितारे ईशान किशन ने जिस तरह का ब्रेक लिया, उसे भी लोगों ने बर्न आउट से जोड़कर देखा। इस पहलू पर लखनऊ की मनोवैज्ञानिक नेहा आनंद बताती हैं, ‘‘दुनिया भर में एक तरह की भागमभाग है, अव्यवस्थित माहौल है। चाहे वो प्रोफेशनल वल्र्ड हो, या फिर सोशल वल्र्ड या फिर वर्चुअल वल्र्ड। चारों तरफ़ यह साफ़ दिखता है कि आदमी अपनी कैपिसिटी से ज़्यादा काम कर रहा है। इसका असर दिमाग़ और शरीर पर पड़ना स्वभाविक ही है।“
लोगों में अपनी क्षमता से ज़्यादा काम करने की तमाम वजहें भी देखने को मिल रही हैं, इस बारे में नेहा आनंद बताती हैं, ‘‘लोगों में लग्ज़री लाइफ़ जीने की चाहत बढ़ रही है, वे ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाना चाहते हैं। कुछ लोग थोड़े समय में ही कई प्रमोशन पाना चाहते हैं। इन सबके चलते लोग अपनी क्षमता से ज़्यादा काम करने लगते हैं और थकान महसूस होते-होते एक वक्त ऐसा आता है जब लगता है कि वे पूरी तरह से चुक गए हैं। उनमें काम करने की बिलकुल इच्छा नहीं होती है, इस स्थिति को हमलोग बर्नआउट सिंड्रोम कहते हैं।“
थकान और बर्न आउट में अंतर
इस मुद्दे पर ब्रिटेन की सांस्कृतिक इतिहासकार और बर्नआउट के मामलों की एक्जक्यूटिव कोच अन्ना कैथरिना स्केफ़नर ने अपनी नई किताब ‘एक्झास्टेडः एन ए टू जेड फार दे वेयरी’ में कामकाजी तनाव और उससे उबरने के तौर तरीक़ों के बारे में लिखा है। अन्ना कैथरिना के अनुसार कामकाजी थकान और बर्नआउट में क्या और कितना अंतर है?
‘‘बर्नआउट, थकान की एक गंभीर परिस्थिति है। इसमें ना केवल थकान जैसा लगता है बल्कि आप जो काम कर रहे हैं और जिन लोगों के साथ काम कर रहे हैं, उन सबसे विरक्ति का भाव पैदा हो जाता है। शरीर एकदम इनकार करने लगता है और काम करना बंद कर देता है। ऐसे लोग अपने प्रोफेशन तक को बदल लेते हैं। लेकिन इस ख़ास परिस्थिति से उबरने में सालों लगता है।“ प्रतिस्पर्धी कामकाजी कल्चर के बढ़ने से ही दुनिया भर में बर्नआउट के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं। एक समय था जब कामकाजी समय और आराम का समय के बीच अंतर था लेकिन तकनीक ने अब उस अंतर को पाट दिया है। हर वक्त आप कामकाजी दुनिया से कनेक्टेड रहते हैं।
दुनिया भर में हुए शोध के नतीजे बताते हैं कि बर्नआउट होने की छह अहम वजहें हैं- बहुत ज़्यादा कामकाजी दबाव, कामकाजी दुनिया में आज़ादी की कमी, काम का पर्याप्त सम्मान नहीं, कामकाजी मूल्यों में अंतर का होना, कामकाजी दुनिया में उपेक्षा का शिकार होना और सामाजिक मूल्यों का कम होना।
क्यों होता है बर्नआउट
इन वजहों का जिक्र करते हुए मनोवैज्ञानिक नेहा आनंद बताती हैं, ‘‘अधिकांश मामलों में बर्नआउट की सबसे अहम वजह सामाजिक सपोर्ट सिस्टम का ख़त्म होना है। इसे सामाजिक मूल्य से जोड़कर देख सकते हैं।“ आज से दस पंद्रह साल पहले किसी युवा के सामने कोई समस्या आती तो वह 20 लोगों के परिवार में रह रहा होता था। चाचा, चाची, ताई, ताऊ, कजिन, बुआ तमाम लोग मिलकर उसकी बात सुनते और समस्या का समाधान वहीं निकल आता। आज क्या हो रहा है, बच्चे या युवा की कोई समस्या है, माता-पिता दोनों कामकाजी हैं, बच्चे को समय पर समस्या का समाधान नहीं मिला तो वो नासूर होता जाएगा।“ कामकाजी दुनिया में कर्मचारियों के काम और उसके सम्मान और प्रोत्साहन को अब कहीं ज़्यादा अहमियत दी जा रही है ताकि कामकाजी वर्ग में काम के प्रति निराशा का भाव उत्पन्न ना हो।
कामकाज और जीवन में संतुलन
काम की प्रशंसा ना हो तो एक तरह से तकलीफ महसूस होती है। इससे उनकी उत्पादकता प्रभावित होती है। कुछ अध्ययन तो यहां तक बताते हैं कि प्रशंसा की कमी से बर्नआउट होने का ख़तरा दोगुना तक बढ़ जाता है। दुनिया के कई देशों ने कामकाज और जीवन में संतुलन बिठाने के लिए सप्ताह में चार दिन काम करने का प्रावधान लागू किया है। आस्ट्रेलिया, नार्वे और न्यूज़ीलैंड जैसे देशों में हो रहे प्रयोगों से ज़ाहिर हुआ है कि कामकाजी दिन कम करने से लोगों की उत्पादकता बढ़ गई है।
हर वक्त परफैक्शन की चाहत से भी बर्नआउट की स्थिति बन सकती है। अगर हम अपने काम की कटु आलोचना करने लगें तो बर्नआउट सिंड्रोम की चपेट में आने की आशंका बढ़ जाती है। बर्नआउट की समस्या से बचाव का एकमात्र रास्ता कामकाज और जीवन के दूसरे पहलुओं में संतुलन बनाना। हमें यह देखना होगा कि हमारा तनाव किन किन कारणों से बढ़ता है। कौन से कारक हमारे नियंत्रण में हैं और कौन हमारे नियंत्रण में नहीं हैं, हमें यह देखना होगा कि हम कितना स्ट्रेच कर सकते हैं और शरीर को रिकवरी में कितना समय लगता है।
काम के तनाव से कैसे उबरें
आजकल प्रबंधन संस्थानों में कामकाजी तनाव और वर्कलाइफ बैलेंस पर बहुत ध्यान दिया जाता है। मनोवैज्ञानिक तरीक़ों से कई थेरेपी के सहारे लोगों की मुश्किलों को कम करने का काम करते हैं। कोशिश उनके अंदर की नेगिटेविटी को कम करने की होती है। आप ये भी मान सकते हैं कि निगेटिविटी से ही बर्नआउट की स्थिति उत्पन्न होती है। जब लोग अपने जीवन से अवस्ताविक उम्मीदें पाल लेते हैं तो भी उन्हें झटका लगता है। जब उम्मीदें पूरी नहीं होती हैं तो निराशा की स्थिति उत्पन्न होती है। उस वक्त समस्या का समाधान नहीं मिलता है तो स्थिति विकट होते देर नहीं लगती है।
एक अच्छा विकल्प तो यह भी है कि आप कामकाजी दुनिया से इतर एक हाबी विकसित करें और उस पर थोड़ा बहुत ध्यान दें। कई लोगों को इससे तनाव को कम करने में मदद मिलती है। लोग जब ये समझ लेंगे कि काम ही सबकुछ नहीं है, तो इस मुश्किल से उबरने में उन्हें काफी मदद मिलेगी।
स विकास ठाकुर