धर्म के नाम पर पर्यावरण संरक्षण कितना उचित?

You are currently viewing धर्म के नाम पर पर्यावरण संरक्षण कितना उचित?

धार्मिक परंपराओं और आस्था का हवाला देकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। अब इसे नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया है। यही वजह है कि न्यायालयों को धार्मिक मसलों में दखल देना पड़ रहा है। धर्म का मर्म समझने वाले बताते हैं कि धार्मिक परंपराओं का मूल प्रकृति का संरक्षण है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि विसंगतियां क्यों और कैसे आईं?

उच्चतम न्यायालय ने 23 अक्टूबर 2018 को पटाखों की बिक्री और उसे चलाने के मामले में एक महत्वपूर्ण आदेश दिया। इस आदेश में न्यायालय ने कहा कि अगर धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, जीवन के अधिकार के आड़े आ रहा तो जीवन के अधिकार को प्राथमिकता देनी होगी। न्यायालय के अनुसार, ‘‘धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25), प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद 21) का विषय है। अगर कोई धार्मिक परंपरा लोगों के स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरा है तो उसे अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षण नहीं दिया जा सकता।’’

इस आदेश में उच्चतम न्यायालय ने देशभर में पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध तो नहीं लगाया लेकिन दिवाली पर वायु और ध्वनि प्रदूषण को देखते हुए कई तरह की पाबंदियां लगा दीं। मसलन दिवाली पर दो घंटे (रात 8 से 10 बजे के बीच) ही पटाखे चलाए जा सकेंगे, मानक डेसिबल ध्वनि (रिहायशी इलाकों के लिए 55 डेसिबल) वाले पटाखे ही बेचे जाएंगे, पटाखों की आनलाइन बिक्री नहीं होगी, केवल लाइसेंस प्राप्त व्यापारी ही पटाखे बेचेंगे, लड़ियों पर प्रतिबंध रहेगा आदि। उच्चतम न्यायालय ने दिवाली के अलावा क्रिसमस और नए साल की पूर्व संध्या पर होने वाली आतिशबाजी के लिए भी समयसीमा निर्धारित की है। न्यायालय के अनुसार, रात 11ः55 से 12ः30 बजे तक पटाखे जलाने की अनुमति है।

यह अलग बात है कि उच्चतम न्यायालय के आदेश और प्रशासन की सख्ती का दिल्ली-एनसीआर में लोगों पर खास फर्क नहीं पड़ा। रात 8-10 बजे तक पटाखे चलाने का आदेश था लेकिन लोगों ने शाम से देर रात तक आतिशबाजी की। इसका नतीजा यह निकला कि हवा गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) खराब और बहुत खराब से खतरनाक और गंभीर श्रेणी में पहुंच गया। कई जगह एक्यूआई 1,000 के आसपास पहुंच गया।

उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल भी पटाखों पर प्रतिबंध लगाया था लेकिन लोगों ने उसकी परवाह किए बगैर जमकर पटाखे छोड़े थे। साल 2016 में दिवाली के बाद वायु प्रदूषण देखते हुए न्यायालय को यह प्रतिबंध लगाना पड़ा था। इस आदेश के बाद धार्मिक मामलों में न्यायालय के दखल पर बहस छिड़ गई थी और कई लोगों को यह नागवार गुजरा था।
गंगा नदी में प्रदूषण के स्तर को देखते हुए एनजीटी को यहां तक कहना पड़ गया कि अगर सिगरेट के पैकेट में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक चेतावनी लिखी जा सकती है तो प्रदूषित गंगा के बारे में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? एनजीटी ने गंगा के प्रदूषण पर दुख व्यक्त करते हुए कहा कि अनजान लोग नदी के जल को पवित्र समझकर पीते और नहाते हैं। उन्हें यह पता नहीं है कि यह उनके स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है।

वहीं दूसरी तरफ उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने 20 मार्च 2017 को गंगा, यमुना और उसकी सहायक नदियों को जीवित व्यक्ति का दर्जा दे दिया था और उन्हें मनुष्यों के सामान कानूनी अधिकार दिए थे। न्यायालय ने नमामि गंगे के निदेशक, उत्तराखंड के मुख्य सचिव और महाधिवक्ता को इन नदियों को अभिभावक बना दिया था। हालांकि राज्य सरकार की अपील पर उच्चतम न्यायालय ने 7 जुलाई को उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दी।

इससे पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 7 अक्टूबर 2013 को इलाहाबाद में गंगा और यमुना नदी में मूर्ति विसर्जन पर प्रतिबंध लगाया था। हालांकि बाद में न्यायालय ने मामूली छूट दे दी। दरअसल अदालती फैसले के खिलाफ दुर्गा पूजा समितियों ने अपील दायर की थी। राज्य सरकार ने भी विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था न होने की दलील दी और विशेष याचिका दायर कर कानून व्यवस्था का हवाला देकर छूट की मांग की थी। इस अपील पर अदालत ने फौरी राहत देते हुए पुरानी जगहों पर विसर्जन की अनुमति तो दे दी लेकिन साथ ही कहा कि इसके बाद उत्तर प्रदेश में कहीं भी गंगा और यमुना में मूर्तियों का विसर्जन नहीं होगा।

भारतीय धर्म ग्रंथों में नारी को पूजनीय और देवी माना गया है, फिर धर्म के नाम पर इस भेदभाव का क्या औचित्य है? यह सवाल बराबरी का बात करने वाले उठा रहे हैं। जिस तरह सांस लेना और नित्य क्रिया सामान्य जीवन का हिस्सा उसी तरह मासिक धर्म भी है। महज मासिक धर्म के आधार के कोई अपवित्र कैसे माना जा सकता है?

भारत में धर्म और पर्यावरण में नजदीकी रिश्ता रहा है। प्रकृति के तमाम अंग पूजनीय रहे हैं, चाहे वे पशु हों या पेड़-पौधे। तमाम पेड़-पौधे और पशु-पक्षी देवताओं के प्रतीक के रूप में पूजे जाते हैं। धतूरे जैसे विषैले पौधे को भी भगवान शिव के प्रसाद के रूप में माना गया है। यहां तक कि दूसरे ग्रहों और नक्षत्रों को हमने ईश्वर से जोड़ा है और उन्हें पूजनीय बनाया है। प्रकृति का संरक्षण हमारी जीवन शैली का अभिन्न रहा है।

हिंदू दर्शन ‘‘जियो और जीने दो’’ के सिद्धांत पर आधारित है। भारत के अधिकांश पर्व प्रकृति पर ही केंद्रित हैं। यहां सांप को भी दूध पिलाने की परंपरा रही है। हिंदू धर्म की भांति, जैन, सिख, बौद्ध धर्म भी पर्यावरण संरक्षण पर जोर देते हैं।

सिख धर्म में वृक्ष को भगवान तक का दर्जा दिया गया है और विश्व का मूल बताया गया है। जैन धर्म का मूल आधार ही पर्यावरण का संरक्षण है। धर्म जल की एक बूंद में अनंत जीवों की सत्ता स्वीकार करता है। अहिंसा जैन धर्म का मूल और सभी जीवों के सहअस्तित्व की बात करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी का विनाश न करने को कहता है। जैन धर्म खुद को कष्ट देकर भी दूसरे की रक्षा पर जोर देता है। बौद्ध धर्म के अनुसार, प्रकृति और उसके संसाधन जैसे पशु-पक्षी सबका संरक्षण करना चाहिए।

धार्मिक परंपराओं और आस्था का हवाला देकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। अब इसे नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया है। यही वजह है कि न्यायालयों को धार्मिक मसलों में दखल देना पड़ रहा है। धर्म का मर्म समझने वाले बताते हैं कि धार्मिक परंपराओं का मूल प्रकृति का संरक्षण है।

मुंबई की हाजी अली दरगाह और केरल के सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देना भी धार्मिक मामलों में न्यायालय का दखल माना गया। तीन तलाक के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के आदेश को इसी कड़ी में जोड़कर देखा गया।

पर्यावरण के हित में धार्मिक परंपराओं पर अदालतों की चोट की श्रृंखला में सबरीमाला को भी शामिल किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने 28 सितंबर को 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की अनुमति देते हुए कहा कि मंदिर का नियम समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार से महिलाओं को वंचित करता है। दरअसल सबरीमाला मंदिर का नियम मासिक धर्म की आयु वाली महिलाओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित करता है। इसी पर टिप्पणी करते हुए न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने फैसले में कहा, ‘‘मासिक धर्म का पूजा से कोई लेना देना नहीं है। जब आप कहते हैं कि महिलाएं ईश्वर या प्रकृति द्वारा निर्मित हैं और इसे मानते हैं तो मासिक धर्म के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं हो सकता।’’
सबरीमाला पर उच्चतम न्यायालय का व्यापक विरोध हो रहा था। लोगों के विरोध के चलते न्यायालय के आदेश के बावजूद मंदिर में महिलाओं को प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा था सबरीमाला पर उच्चतम न्यायालय का आदेश प्रत्यक्ष रूप में भले ही नागरिक अधिकारों की बात कहता हो लेकिन परोक्ष रूप से पर्यावरण और महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ा है। मासिक धर्म महिलाओं की स्वाभाविक प्रकृति है। यह उनके स्वस्थ होने का प्रतीक भी है। भारतीय धर्म ग्रंथों में नारी को पूजनीय और देवी माना गया है, फिर धर्म के नाम पर इस भेदभाव का क्या औचित्य है? यह सवाल बराबरी का बात करने वाले उठा रहे हैं। जिस तरह सांस लेना और नित्य क्रिया सामान्य जीवन का हिस्सा उसी तरह मासिक धर्म भी है। महज मासिक धर्म के आधार के कोई अपवित्र कैसे माना जा सकता है।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि तमाम धर्मों में पर्यावरण संरक्षण पर जोर और दुनिया में दस में आठ लोगों के धार्मिक होने के बाद भी धरती के घाव गहरे होते जा रहे हैं। पर्यावरण की जो दुर्गति इस वक्त हो रही है, वैसी कभी नहीं देखी गई। हवा, पानी, नदियां, समुद्र, भोजन सब प्रदूषित हो रहा है। इस प्रदूषण का खामियाजा विश्व की बड़ी आबादी भुगत रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट बताती है कि वायु प्रदूषण से हर साल 70 लाख मौतें हो रही हैं। विश्व में 93 प्रतिशत बच्चे जहरीला हवा में सांस लेते हैं। लांसेट मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट बताती है कि विश्व में साल में दूषित हवा और पानी से होने वाली मौतें तमाम युद्धों में होने वाली मौतों से अधिक हैं। प्रदूषण से होने वाली मौतों का आंकड़ा धूम्रपान, भूख और प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली मौतों से भी बड़ा है। एड्स, टीबी और मलेरिया से उतनी मौतें नहीं होती जितनी दूषित हवा और पानी से होती हैं।

औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के साथ धार्मिक गतिविधियां भी पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही हैं। भारत में नदियों को मां का दर्जा प्राप्त है लेकिन उनकी हालत देखकर लगता है कि बेटों ने उन्हें भुला दिया है। रोजाना बड़ी मात्रा में अपशिष्ट, मलमूत्र और औद्योगिक कचरा नदियों के रास्ते समुद्र में पहुंच रहा है।

नदियों को मां मानने वाले देश में ऐसी नौबत क्यों आई? सभी धर्मों में पर्यावरण को महत्व मिलने के बाद भी पर्यावरण की दुर्गति क्यों हो रही है? जब से मनुष्य ने खुद को प्रकृति से श्रेष्ठ मान लिया है और धर्म को भुला दिया है। आर्थिक संपन्नता, बाजारवाद और औद्योगिक क्रांति ने धर्म से व्यक्ति को और दूर कर दिया है।

आज भले ही आज पर्यावरण बर्बाद हो रहा हो लेकिन यह भी सच है कि धर्म ने हमें पर्यावरण के प्रति सचेत करने में अहम भूमिका निभाई है। पर्यावरण के प्रति लोगों का आचरण धर्म से निर्देशित होता है और इसका लोगों पर गहरा प्रभाव है। तो क्या यह माना जा सकता है कि धार्मिक होना पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होना भी है? क्या ईश्वर में विश्वास करना पशुओं और पर्यावरण के हित में सोचना भी है?

धर्म पर्यावरण को बचाने में मददगार हो सकता है बशर्ते हम धर्म के मूल में जाकर उसका मर्म समझें। अभी मनुष्य उसी डाल को काट रहा है, जिस पर वह बैठा है।

स पूजा गुप्ता
भगवानदास की गली, आदर्श स्कूल के सामने, गणेश गंज, मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)