विश्व में शांति और सद्भाव सृजित कर सकता है ‘‘मिच्छामि दुक्कडम’’ का संस्कार

वर्तमान सभ्यता के समक्ष व्याप्त मौसम परिवर्तन तथा वातावरण के गर्म होने के वैश्विक संकट के प्रति विश्व की ज्यादातर सरकारें व्यावहारिक रूप से उदासीन तथा हतोत्साहित प्रतीत होती हैं। परिणामस्वरूप अनेकानेक राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर समय-समय पर चर्चाओं और समझौतों के बावजूद कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण के प्रति कोई उत्साहजनक प्रगति दिखाई नहीं देती है। इतना ही नहीं, वैश्विक संकट के साथ-साथ स्थानीय स्तरों पर भी व्याप्त अनेकानेक पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के प्रति समाज में तथा नागरिकों में भी समझ एवं गंभीरता का गंभीर अभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
इन सबके पीछे गहराई से मूल्यांकन करने से यह स्पष्ट होता है कि संपूर्ण विश्व की लगभग सभी सभ्यताओं ने तथा सभी राजनैतिक सिद्धांतों में मात्र आर्थिक प्रगति को ही विश्व में व्याप्त प्रगति एवं समृद्धि का साध्य तथा लक्ष्य मान लिया है। भले ही उस आर्थिक प्रगति का पर्यावरणीय क्षतिमान मूल्य उससे कितना ही गुना अधिक क्यों न हो? इस सोच के पीछे कारण यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि किसी भी पर्यावरणीय क्षति का आर्थिक मूल्यांकन करना उतना सहज नहीं है और इसके लिए अभी तक कोई सार्वभौमिक स्वीकृति की पद्धति भी विकसित नहीं हो पाई है। यह एक विडम्बना ही है कि इस तरह से व्यापक हो रही क्षति का मूल्यांकन कैसे किया जावे। एक और कड़वा सच यह भी कहा जा सकता है कि आर्थिक समृद्धि से उत्पन्न दुष्प्रभावों का भोग बहुधा उस समृद्धि को हासिल करने वाले पर नहीं आता, अपितु ज्यादातर दुष्प्रभाव ऐसे लोगों पर आता है, जिसको उस आर्थिक समृद्धि से शायद ही बहुत कुछ मिला हो! परिणामतः आर्थिक समृद्धि के सृजन हेतु पर्यावरण और प्रकृति का शोषण यथावत जारी रहता है एवं त्वरित उदाहरण के तौर पर हिमालयीन राज्यों में व्याप्त गांवों तथा नगरों में जल की आपूर्ति के स्रोत हेतु बर्फीले ग्लेशियर हैं और थे, हिमनद हैं और थे, पर मौसम परिवर्तन के कारण इनमें जल का प्रवाह समाप्त हो रहा है। परिणामस्वरूप हिमनद के जल पर आश्रित जनजीवन तथा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ सकता है। तो इसके समाधान का मार्ग क्या होगा? क्या इस समाधान के लिए क्षति की पूर्ति के लिए इन हिमनदों में पुनः बर्फ डालने के मूल्य को जोड़ा जावे या फिर मैदानी क्षेत्रों से पाईप लाइन बिछाकर उन गांवों, नगरों तक पानी पहुॅंचाने की लागत या मूल्य को जोडा जावे। या किसी अन्य ऐसे ही विकल्प को खोजा जावे, जिससे कि इस तरह की क्षति को ठीक किया जा सके। पर जो भी विकल्प होगा, उसका मूल्य यदि अनुमान किया जावे तो यह पता लगेगा कि वह मूल्य इतना अधिक होगा कि उस क्षेत्र के नागरिकों एवं ग्रामवासियों के लिए तो उसका भार उठाना असंभव ही होगा और यहां तक कि उस राज्य के सरकार के लिए भी शायद उस लागत को पूरा करना कठिन होगा। ऐसी ही कुछ प्रतिकूल परिस्थितियां निर्मित होते, हम अन्यत्र स्थानों पर भी देख सकते हैं। जहॉं अतिवृष्टि के कारण बाढ़ की गंभीर स्थिति से जान-माल को खतरा पैदा हो रहा है तो कहीं सूखे के कारण, तो कहीं समुद्र के जल स्तर के बढ़ने के कारण पूरा क्षेत्र ही जलमग्न होने की स्थिति में पहुॅंच चुका है। ऐसी प्रतिकूल प्राकृतिक विपदाओं को होने से रोकने के लिए वर्तमान में विज्ञान तथा तकनीकी के पास तो कोई ठोस मार्ग नहीं है। सारे प्रयास केवल विपरीत परिस्थितियों से उत्पन्न दुष्प्रभावों को झेलने हेतु संसाधन उपलब्ध ही कराना एकमात्र विकल्प लगता है एवं ऐसे सभी वैकल्पिक साधनों को उपलब्ध कराना भी काफी मंहगा होता है। तो, ऐसी परिस्थितियों में प्रश्न यह उठता है कि बढ़ते हुए पर्यावरणीय संकट के परिणामस्वरूप प्रभावित लोगों को क्या आर्थिक रूप से क्षतिपूर्ति करने से क्या हो रही क्षति की पूर्ति की जा सकती है या फिर इसका कोई और व्यावहारिक मार्ग हो?

प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता तथा तीव्रता में हो रही वृद्धि चिंताजनक है। पृथ्वी पर औसत तापमान में औद्योगीकरण के पूर्वकाल से आज तक में 1.5 डिग्री की वृद्धि हो चुकी है। इसके दुष्परिणाम साक्षात एवं स्पष्ट हैं। चीन में आया ‘‘यागी’’ तूफान 246 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से भयंकर तबाही मचा गया है। चीन तथा वियतनाम के लोग पूरी तरह असहाय दिखाई दिए। भारत में गुजरात तथा उत्तरी राज्यों में बाढ़ की स्थिति भी साक्षात है। वहीं छत्तीसगढ़ राज्य में आसमानी बिजली के गिरने से हुई एक ही दिन 10 मौतें चिंता का कारण हैं। उ.प्र. में बहराइ्रच तथा आसपास के क्षेत्रों में जंगलों से बाहर आकर इंसानों पर आक्रमण कर रहे जंगली जानवर भेड़िया, सियार तथा बाघ आदि बता रहे हैं कि मनुष्यों ने उनके पर्यावास को कितना प्रभावित किया है कि उनके पास भी मानव बस्तियों में आक्रमण के सिवाय कोई विकल्प नहीं है?

दुखद बात यह है कि तमाम तरह के वैज्ञानिक प्रतिवेदनों के बाबत, आम आदमी को और समाज को तथा आने वाली नई पीढ़ी को बहुत कुछ पता ही नहीं है। धर्मान्ध और अर्थान्ध सभ्यता के लोग आपस में द्वंदरत हैं। कोई भी सत्य को स्वीकार करने को तत्पर नहीं है कि प्रकृति पुरूष से ज्यादा पुरूषार्थ किसी अन्य में नहीं है। प्रकृति ने प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुकूल ढल कर जीने की क्षमता सभी जीव-जंतुओं में आवश्यकतानुसार प्रदान की है और साथ ही सभी जीव-जंतुओं को अपनी आवश्यकता अनुसार संवाद तथा संप्रेषण की क्षमता भी दी हैं भले ही उनके वार्तालाप की भाषा लिपिबद्ध नहीं है, परन्तु मानव संवादों की लिपिबद्ध भाषाओं से कम भी नहीं है। तदैव मनुष्य को अपने विज्ञान, तकनीकी, संवाद, भाषा की क्षमताओं का दंभ त्याग कर प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान बनाए रखना जरूरी है, अन्यथा प्रकृति अपने ऊपर जारी प्रहार का जब प्रतिकार करती है तो सामने कुछ भी उसे झेल नहीं पाता है। तदैव समय है कि हम अपनी गलतियों को स्वीकार कर, प्रकृति से भी क्षमा याचना करें तथा अपने प्रकृति के प्रति जारी दुर्व्यहार में परिवर्तन लाकर प्रकृति अनुकूल व्यवहार करें।

यदि हम गंभीरता पूर्वक चिंतन करते हैं तो हमें यह आभास होगा कि विज्ञान, तकनीकी कितनी भी प्रगति कर ले, पर पृथ्वी पर बढ़ रहे पर्यावरणीय संकट का समाधान केवल भोगवादी संस्कृति को समाप्त करके तथा अर्थवादी व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करके ही संभव है। चूॅंकि भले ही वैज्ञानिक इस बात का दंभ भर लें कि हम मानव की ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए सौर ऊर्जा से बिजली पैदा करके कोयले से पैदा होने वाले कार्बन उत्सर्जन को रोक सकते हैं। किन्तु, यक्ष प्रश्न यह है कि वर्तमान विद्युत की मांग को ही पूरा करने के लिए, सौर ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए जितना खाली भूभाग चाहिए, उतना भूभाग है कहां? यदि हम सारे भूभाग को सौर ऊर्जा उत्पन्न करने हेतु प्राथमिकता से प्रयोग करते हैं, तो हमें अन्न, फल, सब्जी, दाल, खाद्य तेल, कपास आदि को पैदा करने के लिए भूभाग कहां बचेगा? ऐसे ही हम जब हमारे पर्यावरणीय सीमाओं के अंतर्गत तथा प्राकृतिक संसाधनों की परिधि में वर्तमान जीवनशैली, पश्चिमी सभ्यता तथा अर्थवादी व्यवस्था का मूल्यांकन करते हैं तो हमें ऐसा लगता हे कि मानव सभ्यता अपपने वैज्ञानिक दंभ से रचित इस अप्राकृतिक जीवनशैली तथा भोगवादी संस्कृति के कुचक्र में इतनी बुरी तरह से फंस चुकी है कि इसके मुक्ति का कोई केवल वैज्ञानिक या तकनीकी का मार्ग शेष नहीं है। अभी भी आशा कि सर्वोच्च प्रबल किरण भारतीय संस्कृति एवं सदाशयता के मार्ग में ही लक्षित होती है। भारत में आज भी अनेकों ऐसे जैन मुनि हैं, जो महीनों तक केवल सीमित मात्रा में जल पीकर ही, केवल एक समय भोजन कर ही, एक ही वस्त्र धारण कर अथवा निर्वस्त्र अवस्था में भी स्वस्थ जीवन जीकर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं कि अति भोगवादी जीवन ही स्वस्थ रहने या सुखी रहने का मार्ग नहीं है।

वहीं हमारे अनेकों पर्व एवं त्यौहार हमें प्रकृति एवं समाज के साथ परस्पर प्रेम तथा सद्भाव से जीने का अभ्यास कराते हैं। इस भूमंडल पर, जिसे मृत्युलोक भी कहा जाता है, वहॉं सभी जीव-जंतु, मनुष्य, वनस्पति के नश्वरता के सत्य को भी स्वीकारने का साहस दिलाते हैं। प्रति वर्ष भाद्रपद माह में मनाए जाने वाले गणेशोत्सव में हमें आध्यात्मिक संदेश मिलता है, तो वहीं सामाजिक समरसता का भाव भी मिलता है, तो वहीं नश्वरता के सत्य को स्वीकारने का तथा आसक्तियों से मुक्ति का साहस भी मिलता है। सभी विघ्नों पर विजय पाने के लिए गणपति बापा का आशीष भी मिलता है। भारत एक ऐसा प्रकृति से पुरूष्कृत भूभाग है, जहॉं वर्तमान सभ्य मानव सभ्यता का प्रादुर्भाव होते समय के साथ ही प्रकृति से प्रत्यक्ष वार्तालाप करने वाले मनीषियों का भी जन्म हुआ। आज विश्व में व्याप्त पर्यावरणीय संकटों के साथ ही व्यापक राजनैतिक संकट भी विकराल परिस्थितियां पैदा कर रहा है। पर इनका समाधान कैसे हो? यदि हम चिंतन करते हैं तो पाते हैं कि देशों के बीच जारी साक्षात युद्ध का समाधान भी शायद भारतीय दर्शन से ही संभव लगता है। प्रतिवर्ष जैन समाज के लोग भाद्रपद माह के दौरान मनाए जाने वाले पर्यूषण पर्व में अपने दुश्मन से भी और मित्र से भी पूरे वर्ष में की गई किसी भी भूल-चूक, गलतियों के कारण किसी को अपने कर्मों से, वाणी से पहुॅंचे या पहुॅंचाए गए दुख के लिए क्षमा याचना करते हैं। ‘‘मिच्छामि दुक्कडम’’ का यह मंत्र एक ब्रह्म शांति अस्त्र है, जो न केवल समाज में अपितु विश्व में एक शांति और सद्भाव का वातावरण सृजन कर सकता है। पर विडम्बना यह है कि इस संस्कृति के सूत्रों का ज्ञान विश्व के अनेकों देशों को नहीं है। क्या श्रीमान पुतिन या श्रीमान जेलेंस्की एक दूसरे को ‘‘मिच्छामि दुक्कडम’’ कहने का साहस रखते हैं? यदि कह दें तो क्या वे छोटे हो जावेंगे? क्या यदि गाजा के लोग इजराइल के लोगों से ‘‘मिच्छामि दुक्कडम’’ कहें तो क्या वे बौने हो जावेंगे? शायद नहीं! पर यह इसलिए संभव प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जिस संस्कृति में ये देश जी रहे हैं, वहॉं पर क्रूरता पर विजय का क्रूर मार्ग ही एकमात्र मार्ग माना गया है। इन सभ्यताओं में सुख का मार्ग भौतिक साधनों के भोग से और संचय से ही माना जाता है। त्याग और क्षमा जैसे अस्त्रों के अंगीकरण से उत्पन्न होने वाले आत्मिक सुख तथा आनंद के संस्कार इन लोगों के बीच शायद नहीं हैं। जबकि भारतीय समाज में जन-मन के हृदय में महाभारत के विजय की विभीषिका से विजेता पांडवों के हृदय में उत्पन्न आत्मग्लानि के भाव जीवंत हैं, तो रामायण में राम के रावण पर विजय के उपरांत भी सर्व प्रकार से सुखी राम राज्य की प्रजा के द्वारा माता सीता जैसी पवित्र माता के लिए अग्निपरीक्षा की मांग के दुख की भी स्मृति मस्तिष्क पटल में हैं। इसलिए हमारी इस संस्कृति में जीने वाले लोग ही शांति एवं असली सुख की, भोग मुक्त एवं भय मुक्त तथा लोभ मुक्त समाज का संवरण करने का साहस रखते हैं। समय की मांग है कि हम इन पर्यावरण तथा प्रकृति को संरक्षित करने वाले सभी संस्कारों को और अधिक सबल और संपुष्ट करें। सभी पाठकों को गणेश चतुर्थी पखवाड़े पर हार्दिक बधाई तथा हमारे पत्रिका प्रकाशन के द्वारा प्रस्तुत तथ्यों से, लेखों से, उद्गार से या कृत्य से किसी को भी कोई कष्ट पहुॅंचा हो तो हम सम्पूर्ण पत्रिका परिवार की ओर से आप सभी से हाथ जोड़कर क्षमा याचना करते हैं। ‘‘मिच्छामि दुक्कडम’’।
-संपादक