पर्यावरण स्वास्थ्य संरक्षण हेतु पराली प्रबंधन की आवश्यकता

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वर्षा से धरती को जलमग्न कर जब प्रकृति हमें हमारे खेतों में तमाम फसलें सींचकर उसमें अन्न उत्पादित कर अंतिम दौर पर हमारे भरण-पोषण की तैयारी करती है ठीक उसी समय हम लोगों द्वारा अनगिनत जगहों पर अपनी ही धरती पर पराली जलाना शुरू करना कहाँ तक उचित है? यदि अपने देश में फसलों की सूची देखें तो प्रमुख रूप से धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, गन्ना, बाजरा आदि का नाम आता है लगभग सभी फसलों में पराली की प्रचुर मात्रा पायी जाती हैं। कुछ हिस्सों पर यह छिटपुट मात्रा में जलती हैं तो कुछ हिस्सों में विकराल रूप से यह धरती को प्रभावित करती है। यह छोटे स्तर पर भी जलती है और बड़े स्तर पर भी। मुख्य रूप से धान और गेहूं की फसल के बाद औसतन डेढ़-दो महीने तक अपनी धरती यूँ ही जलती-सुलगती रहती है। देश के तमाम हिस्सों; पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में पराली बहुतायत मात्रा में अंधाधुंध जलाई जाती है।

जब फसलें तैयार होकर के अपने अंतिम अवस्था में पहुंचती हैं तो फसलों के उत्पादन से बची हुई पराली को किसान अधिकाँशतः जला दिया करते हैं। अभी हल्की फुल्की बारिश का मौसम भी है, पराली जलाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है लगभग अक्टूबर के दूसरे तीसरे सप्ताह में यह काफी चरम पर होगी, पराली जलाने से प्रदूषण बढ़ेगा; चंडीगढ़ दिल्ली जैसे शहरों में सांस लेना काफी मुश्किल हो जाता है किसानों की माने तो पराली जलाना उनकी मजबूरी है। धान/गेहूं की कटाई और धान/गेहूं की बुवाई करने के बीच का समय बहुत कम होता है जिससे पराली को जलाना उनकी मजबूरी हो जाती क्योंकि उनका कहना होता है कि इतने कम समय में पराली का उचित प्रबंध करना बहुत ही मुश्किल होता है तो सबसे आसान प्रक्रिया पराली जला देना होता है। अब बात आती है; क्या पराली को इस तरह जलाना मृदा और वायु की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ करना नहीं है? जी हाँ, इससे हमारा पर्यावरण स्वास्थ्य बिगड़ रहा है, जैविक विविधता नष्ट हो रही है, मृदा में धीरे-धीरे सूक्ष्म जीवों का अभाव और वायु में विषैली गैसों की मात्रा की अधिकता हो रही हैं। यदि हम एक सिरे से देखे तो किसान लोग अगली फसल लेने के लिए खेत में ही पराली को जलाकर नष्ट कर देने की प्रक्रिया को आसान समझते हैं जिसका लागत लगभग शून्य होता है, जिससे देश की आबोहवा में अत्यंत विनाशकारी स्वरूप सामने आ रहा है। पराली जलाने से मिट्टी में कार्बन की मात्रा तो बढ़ती ही हैं साथ ही साथ वायु गुणवत्ता सूचकांक बहुत ही खतरनाक स्थिति तक पहुंच जाती हैं।

कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग (डीएआरई) के अनुसार वर्ष 2018 में धान की पराली को जलाने की घटनाओं में 2016 की तुलना में 41 प्रतिशत की कमी आने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) के एक नए अध्ययन के अनुसार, 2019 में सिर्फ पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के तीन उत्तर भारतीयों राज्यों में अवशेष के जलने के कारण देश को लगभग 2.35 लाख करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया। पराली को जलाना अथवा न जलने देना किसी व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि आज राज्य और देश की बात हो चुकी है। सिर्फ पंजाब में ही 50 मिलियन मीट्रिक टन से ज्यादा का धान का अवशेष अक्टूबर महीने में जलाया जाता है। किसानों का कहना होता है की पराली जलाने की उनकी कतई इच्छा नहीं होती लेकिन सरकार समाधान नहीं दे रही है, वे पराली जलाने के लिए मजबूर होते हैं। पराली का धुआं राजधानी दिल्ली को सबसे बुरी तरह प्रभावित करती है, पिछले कई वर्षों से सर्दी के शुरूआती मौसम में दिल्ली-एनसीआर गैस चैंबर में तब्दील हो जाता है। वर्तमान में दिल्ली के मुख्यमंत्री का कहना है पराली जलाने की वजह से हर वर्ष प्रदूषण होता है, इससे किसान भी परेशान हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, दिल्ली के वैज्ञानिकों द्वारा एक तकनीक तैयार की गई है- बायो डिकंपोज़र। वैज्ञानिकों का मानना है कि इससे किसानों को पराली नहीं जलानी पड़ेगी, पराली से खाद बनेगी और उनकी उपज भी बढ़ेगी। कई वर्ष पहले ही सरकार ने फसलों के अवशेष जलाने को गैरकानूनी घोषित कर रखा है। हरियाणा-पंजाब में जुर्माने से लेकर जेल तक का प्रावधान होने के बावजूद हर साल ये प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इन धुएं से हृदय, फेफड़े, श्वास, और अस्थमा रोगियों को दिक्कत होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में बच्चों (5 वर्ष से कम), गर्भवती महिलाओं और बुजुर्ग (59 वर्ष से अधिक) फसलों के अवशेष के जलने की वजह से होने वाले तीव्र श्वसन संक्रमण (एआरआई) का खतरा अधिक होता है। जहां प्रदूषित हवा से मानव स्वास्थ्य को खतरा बना होता है वहीं अनेक पशु-पक्षियों को भी काफी नुकसान होता है। आदमी अपना सुख-दुःख सबसे सांझा कर लेता है लेकिन इन बेजुबान निरीह प्राणियों के ऊपर जाने अनजाने में हो रहे अत्याचार के प्रति हम कब संवेदित होंगे? साथ ही साथ मृदा में सूक्ष्म जीवों का भी जलकर नष्ट होना मृदा संतुलन को अनियंत्रित करेगा जैसा की वर्ष 2020 में विश्व पर्यावरण दिवस का थीम रहा की जैव विविधिता को बरकरार रखना। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, जैव विविधता जमीन और पानी के नीचे सभी जीवन का समर्थन करती है या हम कह सकते हैं कि यह वह नींव है जो इस सब का समर्थन करती है। मानव स्वास्थ्य का हर पहलू इससे प्रभावित होता है। यह स्वच्छ हवा, पानी, भोजन प्रदान करती है, और दवाओं इत्यादि का भी स्रोत है।

कुछ समाज सेवी संगठनों ने इसको रोकने के लिए आगे आकर किसान लोगों को जागरूक करने के लिए प्रशिक्षण शिविर भी अनेक राज्यों में समय-समय पर लगाए। जैसा कि लगभग तीन चार महीने की दिन रात मेहनत के बाद पैदा हो रहे अनाज की कीमत बाजार में किसी तरह 90 प्रतिशत किसानों के जीवन यापन का साधन बन पाते हैं वहीं पर पराली के प्रबंधन में जो लागत आती है, वह उनके न्यूनतम मूल्य को भी समर्थित नहीं कर पाती जिससे किसान उसको खेत में जला देते हैं। यह राज्य सरकार का विषय है कि उनकी पराली के उचित प्रबंधन के लिए गेहूं धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में उसको जोड़ करके रखा जाए। जैसा कि पर्यावरण प्रदूषण से कहीं ना कहीं शहर के लोग भी परेशान ही होते हैं जिस प्रकार बाढ़ के समय प्रबंधन करने से पूर्व प्रबंधन करने पर बरसात के समय में कम नुकसान होता है उसी तरह इसको जलाने से मानव स्वास्थ्य पर जो नुकसान होता है अगर हम उसके आधे खर्च को पराली का प्रबंधन में लगा दें तो हम एक स्वस्थ वातावरण की प्राप्त कर सकेंगे।

पराली को मिट्टी में मिला दिया जाए और उसको खाद के रूप में प्रयोग किया जाए, इसके मूल्यांकन और निगरानी की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होनी चाहिए। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी किसानों के हित में और पर्यावरण स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए पराली नहीं जलाने पर जोर देती है। नमी वाले या पर्याप्त पानी की उपलब्धता वाले क्षेत्रों में गाय के गोबर से खोजे गए, वेस्ट डीकम्पोजर (जिसमें सूक्ष्म जीवाणु हैं, जो फसल अवशेष, जैव कचरे, गोबर को खाते हैं और तेजी से बढ़ोतरी कर मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीटाणुओं की संख्या को भी नियंत्रित करते है) से खेती का स्वरूप बदला जा सकता है। जहाँ पर पानी की कमी हो वहां पर मुख्यतः मल्चर और रोटावेटर यंत्रों का इस्तेमाल कर पराली को मिट्टी में मिला देना चाहिए राज्यसरकारों ने इसके लिए सब्सिडीयुक्त कृषियंत्रों का प्रावधान की है।

अभी हाल में केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रम और देश की सबसे बड़ी विद्युत उत्पादक राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम-एनटीपीसी लिमिटेड ने अपने संयत्रों में 50 लाख टन पराली की खपत होने का अनुमान लगाकर को-फायरिंग के लिए जैव ईंधन पैलेट्स (पराली) की खरीद के लिए घरेलू प्रतिस्पर्धी निविदा (डीसीबी) पर बोलियां आमंत्रित की हैं। फसल के अवशेषों को जलाने से होने वाले वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए देश के अन्य सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं को इस तरह का कदम उठाकर देश के नागरिकों को स्वस्थ जीवन और शुद्ध पर्यावरण देने का कदम उठाना होगा। पराली का उपयोग खेत में खादों के लिए, ऊर्जा के वैकल्पिक प्रयोग के साथ-साथ वैकल्पिक सामानों को भी बनाने और प्रयोग करने पर जोर दिया जा रहा है। जैव विविधता को बनाए रखने और पर्यावरण स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए किसी भी रूप में फसल अवशेषों को नहीं जलाना चाहिए। जब इस प्रक्रिया को रोकने में हम सफल होंगे तभी जाकर आने वाले कल को हम स्वस्थ और सुरक्षित रख पाएंगे।

स धर्मराज (वैज्ञानिक-बी), सुब्रोतो नंदी (वैज्ञानिक-ई) एवं सतीश भागवतराव आहेर (वैज्ञानिक-सी)
आईसीएमआर – राष्ट्रीय पर्यावरणीय स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान, भौरी, भोपाल -462030 (मध्यप्रदेश)