डेढ़ डिग्री सेल्सियस की सीमा टूटने का मतलब क्या ह

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नए गणनाओं से पता चला है कि धरती 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान की तरफ एक और कदम बढ़ा चुकी है। जबकि दुनिया के नेताओं ने एक दशक पहले कसम खाई थी कि वो इसे रोकने की कोशिश करेंगे।

द यूरोपियन कापरनिकस क्लाइमेट सर्विस इस मामले में ग्लोबल डेटा उपलब्ध कराने वाली प्रमुख सेवाओं में से एक है। इसी ने 31 जनवरी 2025 को बताया कि 2024 वो पहला कैलेंडर साल था, जिसने इस सीमा को पार किया। रिकार्ड पर यह दुनिया का सबसे गर्म साल था। यह पहली बार है जब औसत वैश्विक तापमान पूरे कैलेंडर वर्ष में 1850- 1900 (औद्योगिकीकरण के पूर्व का समय) के औसत से 1.6 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है।

इसका मतलब यह नहीं है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का टारगेट टूट गया है। मगर, यह जरूर है कि हम ऐसा करने के क़रीब जा रहे हैं, क्योंकि जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन के कारण वातावरण गर्म होता जा रहा है। जनवरी के अंतिम सप्ताह में ही संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुटेरेस ने हाल ही के तापमान रिकार्ड का वर्णन ‘क्लाइमेट ब्रेकडाउन’ के रूप में किया था। उन्होंने अपने नए साल के संदेश में सभी देशों से प्लेनेट वार्मिंग गैसों के उत्सर्जन को कम करने की अपील की थी। उन्होंने कहा था, ‘हमें बर्बादी के इस रास्ते से निकलना चाहिए। हमारे पास खोने के लिए समय नहीं है।’

क्या कहता है डेटा?
द यूरोपियन कापरनिकस क्लाइमेट सर्विस के डेटा के मुताबिक, साल 2024 में वैश्विक औसत तापमान पूर्व औद्योगिक काल से लगभग 1.6 डिग्री सेल्सियस ज्यादा था। यह वो समय था, जब इंसानों ने ज्यादा मात्रा में पेट्रोल, डीज़ल और कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल शुरू कर दिया था। यह साल 2023 के रिकार्ड से केवल 0.1 डिग्री सेल्सियस ज्यादा है। इसका मतलब है कि पिछले दस साल रिकार्ड पर सबसे ज्यादा गर्म साल रहे हैं।
मौसम कार्यालय, नासा और और अन्य जलवायु समूह शुक्रवार को अपना डेटा जारी करेंगे। ऐसी उम्मीद है कि वो सभी इस पर सहमत होंगे कि साल 2024 रिकार्ड पर सबसे गर्म साल रहा है। हालांकि, सटीक आंकड़ों में कुछ अंतर होगा। पिछले साल की गर्मी मनुष्यों द्वारा कार्बन डाइआक्साइड जैसी प्लेनेट वार्मिंग गैसों के उत्सर्जन के कारण थी, जो अभी भी रिकार्ड ऊंचाई पर है। अल नीनो जैसे प्राकृतिक मौसम के प्रभाव में पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में सतह पर मौजूद पानी असामान्य तौर पर गर्म हो जाता है। इसने भी इस मामले में छोटी सी भूमिका निभाई है।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
विशेषज्ञों के अनुसार हमारी जलवायु को प्रभावित करने वाले कारकों में सबसे ज्यादा योगदान वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की सघनता है। साल 2015 में पेरिस में हुए क्लाइमेट समझौते के बाद 1.5 डिग्री सेल्सियस का ये आंकड़ा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी बातचीत के मंच का अहम हिस्सा बन गया है। कई कमज़ोर देश इसे अपने अस्तित्व से जुड़ा मामला मानते हैं।

साल 2018 में आई यूएन की एक ऐतिहासिक रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन से होने वाले ख़तरों में तेज़ गर्म हवाएं, समुद्र के जल स्तर मेंबढ़ोतरी, वन्य जीवन को नुक़सान जैसी बातें शामिल हैं।

वास्तव में हम लंबी अवधि की 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को कब तोड़ देंगे, इसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल है। मगर, हम स्पष्ट तौर पर अबइसके बहुत क़रीब हैं। वर्तमान संकेत बताते हैं कि 2030 के दशक की शुरुआत तक दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस की लंबी अवधि की सीमा को पार कर जाएगा। यह राजनीतिक तौर पर तो महत्वपूर्ण होगा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जलवायु के लिए होने वाली कार्रवाई का खेल ख़त्म हो जाएगा।

ऐसा नहीं है कि 1.49 डिग्री सेल्सियस ठीक है और 1.51 डिग्री सेल्सियस से दुनिया का अंत हो जाएगा। डिग्री का हर दसवां हिस्सा मायने रखता है। औरजितनी ज्यादा गर्मी होगी, जलवायु प्रभाव बदतर होते जाएंगे। दरअसल, ग्लोबल वार्मिंग की एक डिग्री का एक अंश भी लगातार और तीव्र कठोर मौसम ला सकता है। जैसे- गर्म हवाएं और भारी वर्षा। साल 2024 में, दुनिया ने पश्चिमी अफ्रीका में तेज़ तापमान, दक्षिणी अमेरिका के कुछ हिस्सों में लंबे समय तक सूखा, सेंट्रल यूरोप में भारी वर्षा और उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी एशिया में उष्णकटिबंधीय तूफ़ान को देखा है।

आखिर ऐसा क्यों हुआ?
वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन ग्रुप के अनुसार, यह वो घटनाएं थीं, जो पिछले साल जलवायु परिवर्तन के कारण और तीव्र हो गई थीं। लास एंजेलिस तेज़ हवाओं और बारिश की कमी के कारण विनाशकारी जंगल की आग से घिर गया है। इन घटनाओं में कई कारक शामिल हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि गर्म हो रही दुनिया में कैलिफ़ोर्निया में आग लगने की अनुकूल परिस्थितियाँ बनती जा रही है।

यह केवल हवा का तापमान नहीं था, जिसने साल 2024 में नए निशान छोड़े हैं। दुनिया में समुद्र की सतह भी नई ऊंचाई पर पहुंच गई है। और वातावरण में नमी की मात्रा भी रिकार्ड स्तर पर है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि दुनिया नए रिकार्ड तोड़ रही है। साल 2024 के गर्म होने की उम्मीद हमेशा से थी। इसकी वजह अल नीनो इफ़ेक्ट था, जो पिछले साल अप्रैल के आसपास ख़त्म हुआ था। यह मनुष्यों द्वारा बढ़ रही वार्मिंग से ऊपर था। हाल ही के वर्षों में कई रिकार्ड्स का मार्जिन उम्मीद से कम रहा है। मगर, कुछ वैज्ञानिकों को डर है कि यह वार्मिंग में तेज़ी का कारण बन सकती है।

यह कहना सही है कि साल 2023 और साल 2024 दोनों के तापमान ने अधिकांश जलवायु वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया है। हमने कभी नहीं सोचा था कि हम इतनी जल्दी 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान देख पाएंगे। साल 2023 से हमारे पास क़रीब 0.2 डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त वार्मिंग है, जिसे हम पूरी तरह से समझा नहीं सकते हैं। दरअसल, हमने जलवायु परिवर्तन और अल नीनो इफेक्ट से जो अपेक्षा की थी, यह उसके अलावा है।
इस अतिरिक्त वार्मिंग को समझने के लिए कई सिद्धांत सुझाए गए हैं। जैसे- निचले स्तर के बादलों के आवरण में स्पष्ट कमी, जो ग्रह को ठंडा रखने में कारगर है। और अल नीनो के ख़त्म होने के बाद लंबे समय तक समुद्री गर्मी बने रहना। सवाल बस यह है कि क्या यह तेज़ी मनुष्यों की गतिविधियों से जुड़ी हुई है, क्योंकि इसका मतलब है कि भविष्य में हमारे पास और तेज़ गर्मी होगी या फिर यह प्राकृतिक परिवर्तनशीलता का एक हिस्सा है। फिलहाल यह कहना बहुत मुश्किल है।

क्या विकल्प हैं?
इस अनिश्चितता के बावजूद, वैज्ञानिक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भविष्य की जलवायु पर मनुष्यों का अभी भी नियंत्रण है। और उत्सर्जन में कटौती करके वार्मिंग के परिणामों को कम किया जा सकता है। भले ही तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे आ चुका हो, लेकिन हम अभी भी इस सदी में तापमान को 1.6 डिग्री सेल्सियस से 1.7 डिग्री सेल्सियस या 1.8 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकते हैं।

यदि हम कोयला, तेल और गैस को बिना किसी रोकटोक के यूंही जलाते रहे, तो हो सकता है कि आखिर में हम 3 डिग्री सेल्सियस या 4 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाए। उस हिसाब से तो यह ज्यादा बेहतर रहेगा।

  • उत्तम सिंह गहरवार