भारत को जरूरत है पर्यावरण बही-खाता की

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संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण योजना (यूनाईटेड नेषन्स एनवायरमेंट प्रोग्राम) के द्वारा पैन यूरोप हेतु ग्लोबल एनवायरमेंट आउटलुक जीईओ-6 का प्रकाषन किया गया है। जिसमें पैन यूरोप के देषों की पर्यावरणीय स्थिति का वर्तमान लेखाजोखा तथा भविष्य यानी 2030 में पर्यावरणीय परिस्थितियों का आंकलन किया गया है। इस आंकलन में जीवजगत तथा मानव सभ्यता पर पड़ रहे और पड़ने वाले प्रभावों का विस्तृत आंकलन किया गया है तथा निपटने के उपायों का समावेष किया गया है।
प्राकृतिक आपदाओं ने समस्त मानवजाति का झकझोरा है इन्हीं आपदाओं में वर्तमान आपदा कारोना वायरस भी एक है। भारत भी इस आपदा से अछूता नहीं है तथा आधुनिक तथा भाग दौड़ तथा भीड़-भाड़ वाली भारतीय जीवनषैली में इस वायरस को खतरे का भी कम आंकना गलत होगा।
वस्तुतः सभी आपदाएं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण की ह्रास का ही परिणाम है। क्षतिग्रस्त पर्यावरण से मानव प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर पड़ती जा रही है, लगातार नये नये वायरस महामारी बनकर उभरना प्रारंभ हो चुके है। वायु, जल, मृदा सभी अपनी प्राकृतिक शक्ति से विहीन होते जा रहे है एवं प्रदूषण की मार ने उनकी जीवनषक्ति को भी कम किया है। जिससे जीव जगत को खतरा उत्पन्न हो रहा है।
समय आ गया है कि भारत में भी पर्यावरणीय लेखाजोखा तैयार किया जावे। वर्तमान परिदृष्य में वायु, जल, मृदा आदि पर्यावरणीय घटकों की स्थिति तथा जिस गति से उनका दोहन हो रहा है भविष्य की स्थिति में उनका परिदृष्य तथा जीवजगत के सामने चुनौतियों का सामना करने की तैयारी की जावे। इस अध्ययन में प्रमुख विचारणीय तथ्यों जैसे जनसंख्या बढ़ोत्तरी की दर, सिकुड़तें वनो की दर, फैलते रहवासी इलाकों की दर, बढ़ते औद्योगिक उत्पादन की दर के साथ नवीन विलासितापूर्ण जीवनषैली के कारण उत्पन्न होने वाले प्रभावों, वर्तमान वायु, जल, ध्वनि, मृदा आदि पर्यावरणीय घटकों की गुणवत्ता में गिरावट की दर तथा उसके कारण मानव सभ्यता पर पड़ने वाले प्रभावों का आंकलन करना होगा।
वायु प्रदूषण वर्तमान में गंभीर चर्चा का विषय रहा है, जिसके चलते देष के अनेक इलाकों में हवा की गुणवत्ता जीवनदायिनी से जहरीली हो गई। इसके प्रभाव और भविष्य की तैयारियों की महती आवष्कयता है। जल की उपलब्धता सीमित है तथा जल जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। वर्तमान में आधुनिक जीवनषैली ने हमे जल के प्रति विलाषिता की भावना दी है। परन्तु दूसरी ओर जहॉं सतही जल के स्रोत जहरीले होते जा रहे है वहीं भूमिगत जल के स्रोत्र दम तोड़ते नजर आ रहे है। इस पर भी भविष्य की तैयारियॉं महती आवष्यक है।
भू संपदा एवं मृदा सीमित है उनका उपयोग और उपभोग बढ़ती हुई आवष्यकताओं के मद्देनजर जहॉं एक ओर उसकी गुणवत्ता का संभाल कर रखा एक चुनौती है वहीं दूसरी ओर बढ़ती हुई जनसंख्या की भू आवष्यकताओं की पूर्ति हेतु अभी से सजग होना भी आवष्यक हो गया है।
वर्तमान वैष्वीकरण के चलते जहॉं व्यापारिक प्रतियोगिता में बने रहना आवष्यक है वहीं अपने पर्यावरण को स्वच्छ, स्वस्थ्य बनाये रखना भी चुनौती है।
विचारणीय है कि पष्चिमी अंधानुकरण में पर्यावरणीय उपायों शमनकारी उपायों का भी पष्चिमीकरण न कर बैठें, हमे पर्यावरण की चिंता भारतीय भौगोलिक संरचनाओं, सांस्कृतिक विविधताओं साथ ही साथ हमारी विषाल जनसंख्या का भी विचार रखना होगा। हो सकता है जो विचार या उपाय पष्चिमी देषों के लिए कारगर हो वे विचार या उपाय भारतीय परिप्रेक्ष्य में अनुपयोगी या दुष्प्रभावी हों। अतः इस चिंतन में भारतीय संस्कृति, भारतीय रहन-सहन, भारतीय विचारधारा तथा भारतीय अर्थतंत्र के अनुरूप उपायों की आवष्यकता होगी।
जागने का समय आ गया है प्रकृति हमें बार-बार चेतावनी दे रही है, मानव शरीर की प्रतिरोधकता पर्यावरणीय दुष्प्रभावों से क्षीण होती जा रही है। परन्तु धरातल में पर्यावरणीय चिंता के नाम पर पौधारोपण कर सेल्फी प्रसारित करने का कार्य अधिक हो रहा है। जबकि पर्यावरण के सभी घटकों की गुणवत्ता तथा उपलब्धता का संकट खड़ा हो चुका है। तदैव भारत के लिए भी पर्यावणीय लेखाजोखा तथा भविष्य के प्रभावों तथा उनके शमन के लिए वर्तमान में आवष्यक उपायों की तैयारी की महती आवष्यकता है।
प्राकृतिक परिवेश नष्ट हो रहा है और बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं और महामारी से निपटने के लिए हम तैयार हैं तो कैसे। कोरोना वायरस ने दुनिया के हर देश को भयभीत किया है। इसी के साथ अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव डाल रही है वायरस संक्रमण बीमारी। अगर हम सजग रहते, संकटों से लड़ने का लेखा-जोखा पहले से रखते तो कोराना वायरस का खौफ नहीं रहता। हम मानकर चलें कि दिनोंदिन संकट बढ़ेगा। प्राकृतिक संसाधन क्षीण होंगे, प्रदूषित होंगे, तब हमें बार-बार प्राकृतिक आपदाओं के बीच रहना सीखना होगा, उनसे बचाव का रास्ता खोजना होगा। बेवजह डर हमारे बीच न फैले। इसके लिए जरूरी है पर्यावरण का बही खाता।
विकास ठाकुर

जलवायु परिवर्तन के संकटों से कैसे बचा जाए

भोजन की बरबादी से जलवायु परिवर्तन बढ़ रहा है। यहॉं तक कि खेती करने की तकनीकों और फसल चक्र का भी इस पर असर पड़ रहा है। ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, फसल चक्र में परिवर्तन, मांसाहार, भोजन की बरबादी और बढ़ती जनसंख्या के चलते वायु परिवर्तन का संकट गहराने लगा है।
भोजन और बढ़ता तापन
दुनिया में हर किसी के लिए भोजन मुहैया करवाने से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ सकती है। जलवायु परिवर्तन पर काम कर रहे संगठन इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट के मुताबिक खाने की चीजें उगाने से होने वाली ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन दुनिया के कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का एक चौथाई होगा।
ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो, इसके लिए भोजन की बरबादी कम कर, सतत खेती की तकनीकें अपनाकर और मांसाहार की जगह शाकाहारी भोजन अपनाकर कमी लाई जा सकती है। इन तरीकों से सभी के लिए भोजन उपलब्ध करवाने के साथ जलवायु परिवर्तन पर काबू किया जा सकता है। इस रिपोर्ट का अनुमान है कि इस साल 49 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होगा।
भोजन श्रृंखला प्रभावित
जलवायु परिवर्तन के चलते भोजन श्रृंखला (फूड चैन) भी प्रभावित हुई है। इसका कारण बढ़ रहा तापमान, तेजी से बदल रहे मौसम के स्वरूप और बार-बार प्राकृतिक विपदाओं का आना है।
अगस्त 2019 को जलवायु परिवर्तन और जमीन के नाम से जारी की गई इस रिपोर्ट में बताया गया है कि जमीन पर हो रहे बदलावों से किस तरह जलवायु परिवर्तन पर असर पड़ता है। साथ ही जलवायु परिवर्तन से जमीन पर पड़ रहे प्रभावों के बारे में जानकारी दी गई है। जमीन में होने वाली गतिविधियों में खेती, जंगलों का उगना और कटना, पशुपालन, शहरीकरण के पहलू शामिल हैं। इन सबका प्रभाव जलवायु परिवर्तन पर पड़ रहा है।
खाद्य उत्पादन में गैस उत्सर्जन
दुनिया भर में खाना मुहैया करवाने के लिए खाद्य उत्पादन के कारण 16 से 24 फीसदी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। अगर इसके साथ खाना उगाने के बाद दूसरे कामों जैसे परिवहन और खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग) उद्योग को भी जोड़ दिया जाए तो कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का 37 फीसदी हिस्सा हो जाता है। और इसमें खाना उगाने से पकाने तक की गतिविधियों को शामिल कर लिया जाए तो यह कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन का 21 से 37 प्रतिशत हिस्सा होगा।
सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि दुनिया भर में खाने के उत्पादन का एक चौथाई यानी 25 प्रतिशत हिस्सा बेकार फेंक दिया जाता है। फेंके हुए खाने के विघटित होने में ग्रीन हाउस गैसें निकलती हैं। 2010 से 2016 के बीच में बेकार फेंके गए खाने से करीब 8 से 10 फीसदी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पृथ्वी पर, जमीन पर दूसरे हिस्सों की तुलना में ज्यादा तापमान बढ़ा है। 2006 से 2015 के बीच में धरती पर तापमान 1850 से 1900 के औद्योगिक काल से पहले की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा बढ़ा। उस समय जमीन और समुद्र का तापमान मिलाकर 0.87 डिग्री सेल्सियस ही बढ़ा था। तापमान में इस अतिरिक्त बढ़ोत्तरी के चलते दुनिया भर में लू जैसी आपदाएं आम हो गई हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण
जलवायु परिवर्तन का एक बड़ा कारण जमीन का उपयोग बदल जाना है। जमीन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन और सोखने, दोनों का काम करती है। खेती से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, वहीं मिट्टी, पेड़ और वनस्पति कार्बन डाईऑक्साइड को सोखते हैं। यही वजह है कि जंगलों को काटने, शहरीकरण और यहॉं तक कि फसल चक्र में बदलाव का सीधा असर जलवायु परिवर्तन पर पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन से उपजे संकटों से खतरा बढ़ता ही जा रहा है। वहीं धरती की बढ़ती आबादी और ज्यादा खतरेजान साबित हो रही है। जनसंख्या तेजी से बढत्रने के कारण खाद्य और जल आपूर्ति में जोखिम पैदा हो रहे हैं।
दुनिया भर में बढ़ती आबादी के कारण पृथ्वी के सीमित संसाधन दबाव में हैं। जितना ज्यादा लोग होंगे, उतना ज्यादा खाना, पानी, परिवहन, ऊर्जा और अन्य संसाधनों की जरूरत होगी। और इन सबकी पूर्ति की वजह से जलवायु परिवर्तन में बढ़ोत्तरी होगी।
अमीर देशों में स्थिति ज्यादा खराब है, जहॉं गरीब देशों के मुकाबले ज्यादा संसाधनों की जरूरत होती है। नाइजीरिया जैसे देश में बढ़ती आबादी से कई खतरे सामने आ रहे हैं। जहॉं 99 फीसदी आबादी मुसलमान है। देश के इस्लामिक एसोसियेशन प्रतुख सिता अमादोऊ कहते हैं, ‘‘अगर बच्चों की ठीक से देखभाल हो सकती है, तो इस्लाम परिवार बच्चों की संख्या सीमित करने की वकालत नहीं करता, इसी कारण नाइजीरिया में परिवार नियोजन के लिए काम करने वालों के लिए मुश्किलें आ रही हैं।
वीरेन्द्र शर्मा
भाटापारा, छत्तीसगढ

भारत में जंगलों का दायरा बढ़ा

भारत में जंगल के इलाके में बढ़ोत्तरी हुई है। इंडिया स्टेट ऑफ फारेस्ट रिपोर्ट (आईएसएफआर) 2019 में कहा गया है, देश के वन क्षेत्र में 3976 वर्ग मिलोमीटर की वृद्धि हुई है। लेकिन पूर्वोत्तर के आठ राज्यों में असम और त्रिपुर को छोड़कर छह राज्यों में 765 वर्ग किलोमीटर जंगल खत्म हो गए। देश के वन संसाधनों की रिपोर्ट में इन राज्यों में वन क्षेत्र सिमटने का जिक्र किया गया है।
जंगलों में बढ़ोत्तरी
आईएसएफआर की 16वीं रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में जंगलों का दायरा बीते दो साल में 5188 वर्ग किलोमीटर बढ़ा है। इसमें 3976 वर्ग किलोमीटर फारेस्ट कवर यानी वन आवरण और 1212 वर्ग किलोमीटर वृक्ष आवरण है। जंगलों में कार्बन स्टॉक 426 करोड़ टन बढ़ा, जो वातावरण से कार्बन घटाने में काम आता है। इस दौरान मैंग्रोव वन क्षेत्रफल 54 वर्ग किलोमीटर बढ़कर दो वर्षों के 1.10 फीसदी वृद्धि हुई है।
पिछले चार वर्षों में देश के वन क्षेत्र में 13 हजार वर्ग किलोमीटर बढ़ा है। केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने दावा किया कि सरकार के फैसले के कारण बांस का क्षेत्रफल में भी अच्छी बहेतर बढ़ोत्तरी हुई है। भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी करते हुए केन्द्रीय वन मंत्री ने कहा कि भारत आज पेरिस समझौते के लक्ष्यों की ओर बढ़ा रहा है। जावड़ेकर ने बताया कि भारत दुनिया का एक अकेला देश है, जहॉं घने, मध्यम और कम घने जंगलों में एक साथ बढ़ोत्तरी देखने को मिली है।
पेरिस समझौते के तहत भारत ने 250 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है, जिसे 25 फीसदी पूरा कर लिया गया है।
फाइलों में जंगल है ही नहीं
जहॉं जंगल रिकार्ड चिन्हित हैं, ऐसे चिन्हित 30 फीसदी जमीन पर जंगल नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर जंगल है नहीं तो उसे वन क्षेत्र के दायरे में क्यों रखा गया है। सरकारी रिकार्ड में वन क्षेत्र के 7,67,419 वर्ग किलोमीटर में से 2,26,542 वर्ग मिलोमीटर में फारेस्ट कवर नहीं है। रिपोर्ट में बताया गया है कि करीब 30 प्रतिशत जंगल विहीन इलाके पर सड़क निर्माण, खनन और खेती की जा रही है। अजीबोगरीब स्थिति है कि फाइलों में जंगल दर्ज हैं, लेकिन वहॉं जंगल नहीं हैं।
फारेस्ट कवर वह माना जाता है, जिसका दायरा एक हेक्टेयर का हो और उसमें वृक्ष वितान (कैनपी) की सघनता दस प्रतिशत से ज्यादा है। वन विभाग की फाइलों में जो जमीन जंगल की है, वह जंगल क्षेत्र में मान ली जाती है। मापने में ऐसे इलाकों को भी वन क्षेत्र में शामिल किया जाता है, वस्तुतः जहॉं सघन वृक्ष हैं ही नहीं।
जंगलों के अंदर, निर्माण कार्य की अनुमति वन विभाग देता है। अनुमति में शर्त यह रहती है, परिवर्तित जमीन का वैज्ञानिक दर्जा यथावत जंगल ही रहेगा। जंगल में वृक्ष हो या नहीं, जमीन वन विभाग के अधिकार में ही रहती है।

जानकार सूत्र बताते हैं कि जंगल के अंदर जहॉं खनन हो रहा है, खनन के बाद जमीन वन विभाग को सौंप दी जाती है। अगर बांध बनता है तो उस जलाशय पर वन विभाग का नियंत्रण रहता है।
पूर्वोत्तर के जंगल कटे
पूर्वोत्तर भारत में जंगल सिमट रहे हैं। इसका कारण वहॉं झूम खेती (शिफ्टिंग कल्टीवेशन) होना है। इसके चलते पूर्वोत्तर के छह राज्यों में जंगलों का इलाका घटा है।
वन संरक्षण और आदिवासी हितों से जुड़े संगठनों और विशेषज्ञों का कहना है कि परिवर्तित भूमि को फारेस्ट कवर के रूप में डालकर निर्वनीकरण या वन कटाई की गतिवधियों का हिसाब रखा जा सकता है। उनका आरोप है कि निर्माण कार्यों और जंगल क्षरण से होने वाले नुकसान की अनदेखी कर परिवर्तित भूमि को भी वन में आंकना गलत है।
निर्वनीकरण की समस्या से निपटने, वहॉं वृक्षारोपण कर उसकी भरपाई की कोशिश की जाती है। लेकिन वनों का ह्रास या उनका अवमूल्यन ज्यादा चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि ऐसे में जंगल की पहचान बदल दी जाती है। जंगल को उसके मूल स्वरूप में लौटना कठिन है।
वनीकरण अभियान अक्सर एकांगी और पारिस्थितिकीय तंत्र के प्रति असंवेदनशील होते हैं। दोबारा पेड़ लगाने के नाम पर जो होता है, वह मोनोकल्चर पौधारोपण ही होता है। जंगल में एक ही तरह के वृक्ष लगाए जाने से वहॉं की जैव विविधता छिन्न-भिन्न हो जाती है। जंगल को पुराने स्वरूप में लौटाने की कार्ययोजना नहीं बनाई जाती। इस कारण पारिस्थितिकीय संतुलन ध्वस्त हो रहा है।
पारिस्थितिकीय संतुलन को नजरंदाज करते हुए देश भर के जंगलों में हुए वृक्षारोपण घातक सिद्ध हो रहे हैं। देश के अधिकांश राज्यों में यूकेलिप्टस को लगाया गया, जिससे वहॉं का वातावरण बदल गया। जंगल में निर्माण और वनवासियों के विस्थापन से काफी परिवर्तन हुए हैं, जिसे नजरंदाज कर दिया गया है। उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में बड़े पैमाने पर चीड़ के पेड़ लगाए गए हैं। वहीं छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी चीड़ रोपे गए हैं। इस तरह जंगल तो सिकुड़ रहे हैं, वहीं वनवासियों के जीवन में अनावश्यक हस्ताक्षेप भी हुआ है।
 सैय्यद अहमद अली
धमतरी, छत्तीसगढ़