प्रवासी प्रजाति पर सम्मेलन (सीएमएस), संयुक्त राष्ट्र की एक पर्यावरण संधि है, जिसमें विभिन्न देशों द्वारा पारिस्थितिक कनेक्टिविटी और कार्यक्षमता, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और प्रवासी प्रजातियों संरक्षण के उपायों को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है। सीएमएस वन्यजीव की प्रवासी प्रजातियों और उनके आवासों के संरक्षण पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए प्रमुख अंतर सरकारी समझौता है तथा पार्टियों का सम्मेलन (सीओपी) इस कन्वेंशन की निर्णय लेने वाली इकाई है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तत्वावधान में प्रवासी प्रजाति पर सम्मेलन- वन्य प्राणियों के संरक्षण पर पार्टियों का 13वां सम्मेलन (सीओपी) का आयोजन 15 से 22 फरवरी, 2020 के दौरान गांधीनगर, गुजरात में हुआ। 82 पार्टियों और वन्य जीव संरक्षण के क्षत्र में काम करने वाले प्रतिष्ठित संरक्षणवादियों और अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया।
प्रवासी पक्षियों पर सम्मेलन
प्रवासी पक्षियों पर सम्मेलन (सीएमएस) प्रवासी प्रजातियों और उनके आवासों के संरक्षण हेतु विचार-विमर्श करने के लिए एक वैश्विक मंच प्रदान करती है। विशेष रूप से, यह एकमात्र वैश्विक मंच है जो प्रवासी प्रजातियों, उनके प्रवास मार्गों और आवासों के कल्याण से संबंधित नीतिगत मामलों में सक्रिय रूप से भाग लेता है। सन 1979 में जर्मनी में गठित यह संस्था, लुप्तप्राय व संकटग्रस्त प्रजातियों की रक्षा और संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करने और इस कार्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने करने के लिए 130 से अधिक देशों को एक साथ लाता है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तत्वावधान में प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण हेतु इस कन्वेंशन को ‘बान कन्वेंशन’ के रूप में भी जाना जाता है। यह प्रवासी जानवरों और उनके आवासों के संरक्षण और स्थायी उपयोग के लिए भी एक प्रयास करता है तथा उन देशों को साथ लाता है जिनके माध्यम से प्रवासी प्रजातियाँ गुजरते हैं। सीएमएस विभिन्न देशों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समन्वय संरक्षण उपायों के लिए कानूनी आधार प्रदान करता है।
सीएमएस में कई अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों और भागीदारों देशों के साथ-साथ कार्पोरेट क्षेत्र की भी भागीदारी है। इस सम्मेलन के तहत, विलुप्त होने के खतरे वाली प्रवासी प्रजातियों को परिशिष्ट-1 पर सूचीबद्ध किया गया है। विभिन्न भागीदार देशों के सहयोग से सीएमएस इन प्रजातियों की कड़ाई से सुरक्षा, इसके आवासों की रक्षा तथा उन्हें पुनर्स्थापित करने की दिशा में प्रयास करती हैं। परिशिष्ट-1 पर सूचीबद्ध जानवर से संबन्धित प्रवासन की बाधाओं को कम करने और अन्य कारकों को नियंत्रित करने का दायित्व भी भागीदारों देशों द्वारा किया जाता है । इसके अतिरिक्त ऐसे प्रवासी प्रजातियों जिसे प्रतिकूल संरक्षण स्थिति का सामना करना पड़ रहा है इसे परिशिष्ट-2 में सूचीबद्ध किया गया है जिससे इस प्रजातियों के संरक्षण कार्यों में भी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त हो सके। भारत में प्रवासी प्रजातियां
भारत कई प्रवासी जानवरों और पक्षियों के लिए अस्थायी घर है। प्रवासी वन्यजीव वे प्राणी हैं जो वर्ष के विभिन्न समयों में भोजन, तापमान, जलवायु आदि जैसे विभिन्न कारकों के कारण एक निवास स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। प्रवासी पक्षी और स्तनधारी जीवों के मूल निवास स्थान के और प्रवास स्थान के बीच का विस्थापन कभी-कभी हजारों किलोमीटर से भी अधिक हो सकता है।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हर साल पक्षियों की कई प्रजातियां प्रवास करती हैं। इनमें से प्रमुख हैं अमूर फाल्कन्स, बार हेडेड घीस, ब्लैक नेकलेस क्रेन, मरीन टर्टल, डगोंग, हंपबैक व्हेल आदि। भारतीय उपमहाद्वीप प्रमुख बर्ड फ्लाईवे नेटवर्क यानी सेंट्रल एशियन फ्लाईवे का भी हिस्सा है। सेंट्रल एशियन फ्लाईवे आर्कटिक और भारतीय महासागरों के बीच के क्षेत्रों तक फैला है, जिसमें 182 प्रवासी जल पक्षी प्रजातियों की कम से कम 279 आबादी शामिल है, जिसमें विश्व स्तर पर 29 सकंटग्रस्त प्रजातियां भी शामिल हैं। भारत ने मध्य एशियाई फ्लाईवे के तहत प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना भी शुरू की है।
सीएमएस में भारत की भूमिका
भारत 1983 से सीएमएस के लिए एक पार्टी है और विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण पर कई समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर कर चुका है। भारत ने साइबेरियन क्रेन (1998), मरीन टर्टल (2007), डुगोंग्स (2008) और रैप्टर (2016) के संरक्षण और प्रबंधन पर सीएमएस के साथ समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किया है ।
विशेष रूप से, भारत एक प्रमुख पक्षी फ्लाईवे नेटवर्क है, क्योंकि यह मध्य एशियाई फ्लाईओवर बेल्ट में आता है, जो आर्कटिक और भारतीय महासागरों के बीच एक विशाल क्षेत्र को कवर करता है और प्रवासी पक्षियों की लगभग 300 प्रजातियों का घर है, जिनमें से विश्व स्तर पर संकटग्रस्त 29 को सूचीबद्ध किया गया है।
सीएमएस सीओपी के 13वें सम्मेलन में बाघ, शेर, हाथी, हिम तेंदुआ, गैंडा और भारतीय बस्टर्ड जैसे वन्यजीव संरक्षण में भारतीय प्रयासों एवं सफलताओं पर भी प्रकाश डाला गया।
सीएमएस द्वारा जारी एक आधिकारिक बयान में घोषणा की गई, सूची में शामिल नए जानवर एशियाई हाथी, जगुआर, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और स्मूथ हैमरहेड शार्क हैं। हाल ही में हस्ताक्षरित गांधीनगर घोषणा में जिराफ, गंगा नदी डाल्फिन, कामन गिटारफिश और अल्बाट्रास के लिए ठोस कार्रवाई भी शामिल होगी।
कॉप-13 का महत्व
पार्टियों का सम्मेलन (ब्व्च्)-13 कन्वेंशन के दौरान एशियाई हाथी, जगुआर, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, बंगाल फ्लोरिकन, लिटिल बस्टर्ड, एंटीपोडियन अल्बाट्रास और ओशन व्हाइट-टिप शार्क को सीएमएस परिशिष्ट-1 में जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त इस सम्मेलन के दौरान द यूराल, स्मूथ हैमरहेड शार्क और टोपे शार्क को सीएमएस के परिशिष्ट-2 के तहत संरक्षण के लिए सूचीबद्ध किया गया है। कॉप-13 कन्वेंशन के दौरान एशियाई हाथी, जगुआर, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, बंगाल फ्लोरिकन, लिटिल बस्टर्ड, एंटीपोडियन अल्बाट्रास और ओशन व्हाइट-टिप शार्क को सीएमएस परिशिष्ट-1 में जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त इस सम्मेलन के दौरान द यूराल, स्मूथ हैमरहेड शार्क और टोपे शार्क को सीएमएस के परिशिष्ट-2 के तहत संरक्षण के लिए सूचीबद्ध किया गया है। में इस बात पर सहमति व्यक्त की कि विभिन्न प्रवासी जानवरों और पक्षियों की प्रजातियों की स्थिति को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक अधिक व्यापक समीक्षा एवं सार्थक प्रयास की जानी चाहिए और प्रमुख खतरों का सामना करने के लिए व्यापक रणनीति पर अमल किया जाना चाहिए।
सीएमएस सीओपी के 13वें सम्मेलन का दिनांक 22.02.2020 को गांधीनगर में समापन हुआ जिसमें ‘पारिस्थितिक कनेक्टिविटी’ और वन्य प्राणियों के प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण हेतु वैश्विक सहयोग और भागीदारी के महत्व पर विशेष बल दिया गया। इसे लागू करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, द्विपक्षीय और सीमा सहयोग के लिए एक स्पष्ट प्रतिबद्धता को शामिल करने के लिए ‘‘2020 के बाद की वैश्विक जैव विविधता रूपरेखा’’ का भी आह्वान किया गया।
सीएमएस सीओपी के 13वें सम्मेलन के लिए श्ळपइप – ज्ीम ळतमंज प्दकपंद ठनेजंतकश् को शुभंकर बनाया गया । यह एक गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति है (प्न्ब्छ के अनुसार) और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत सर्वोच्च सुरक्षा स्थिति (अनुसूची-1 में सूचीबद्ध) के अनुरूप है।
सीएमएस सीओपी के 13वें सम्मेलन के दौरान गैर-सरकारी संगठनों और अंतर-सरकारी संगठनों के डेलिगेट्स ने 2020 के बाद ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क में प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण के लिए प्राथमिकताओं पर एक उच्च-स्तरीय सेगमेंट में चर्चा की गयी जिसमें प्रवासी प्रजातियों के समक्ष खतरों से निपटने में कनेक्टिविटी के महत्व पर प्रकाश डाला गया ।
जैव विविधता और पारिस्थितिकी के अध्ययन एवं वैश्विक मूल्यांकन में पाया गया है कि अनुमानतः लगभग दस लाख पशु और पौधों की प्रजातियों को अब विलुप्त होने के खतरे का सामना करना पड़ रहा है। इसी को ध्यान में रखकर प्रतिकूल संरक्षण स्थिति के साथ लुप्तप्राय हो रही प्रजातियों के संरक्षण की आवश्यकताओं को ‘प्रभावी रूप से संबोधित’ करने के लिए ‘‘2020 के बाद की वैश्विक जैव विविधता रूपरेखा’’, तैयार किया गया है। इस रूपरेखा को अक्टूबर में चीन के कुनमिंग में होने वाले जैविक विविधता पर पार्टियों की सम्मेलन (सीओपी 15) की 15 वीं बैठक द्वारा अपनाए जाने की संभावना है।
भारत 1983 से ही सीएमएस के लिए एक पार्टी के रूप में प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण हेतु वैश्विक सहयोग और भागीदारी देता रहा है। 13वें सम्मेलन (सीओपी) की मेजबानी के साथ भारत ही को अगले तीन वर्षों के लिए सीएमएस का नेतृत्व करने का अवसर प्राप्त हुआ है। उम्मीद है भारत द्वारा अपने वन्यजीव प्रजातियों के लिए किए गए विभिन्न संरक्षण उपायों के अनुभव से विश्व के अन्य देश भी लाभान्वित होगा ।
कुमार मनोरंजन सिंह
फ्लैट नं -706, चेल्सी टावर, ओमेक्स न्यू हाईट्स, सेक्टर-78, फरीदाबाद (हरियाणा) -121101
जंगली जानवर और इंसानों के बीच होती मुठभेड
विकास की भूख बहुमूल्य वन्यजीवों को नष्ट कर रही है। जानवरों के लगातार हो रहे शिकार और मानव एवं वन्यजीवों के बीच चल रहे संघर्ष ने कई अहम प्रजातियों के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया की एक नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच टकराव तथा संघर्ष लगातार बढ़ रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है इंसानी आबादी का बढ़ता दबाव जो वन्यजीवों के लिये मुसीबत बनता जा रहा है, क्योंकि जंगल कम हो रहे हैं और वन्यजीवों के रहने के प्राकृतिक अधिवास लगातार कम होते जा रहे हैं। ऐसे में मानव-वन्यजीव संघर्ष में कमी लाने के लिये उन कारणों की पड़ताल कर निदान करना जरूरी है, जिनकी वजह से यह चिंताजनक स्तर पर पहुँच गया है।
छिनते वन्य जीवों का पर्यावास
वन्यजीवों और मनुष्यों में इस तरह की घटनाओं की बढ़ती संख्या को जैव विविधता से जोड़ते हुए विशेषज्ञ निरंतर चेतावनी देते हैं कि मानव के इस अतिक्रामक व्यवहार से पृथ्वी पर जैव असंतुलन बढ़ रहा है। विज्ञान तथा तकनीकी के विकास से वन्य जीवों की हिंसा से उत्पन्न होने वाले भय तथा नुकसान से मनुष्य निश्चित रूप से लगभग मुक्त हो चुका है। वन्यजीव अपने प्राकृतिक पर्यावास की तरफ स्वयं रुख करते हैं, लेकिन एक जंगल से दूसरे जंगल तक पलायन के दौरान वन्यजीवों का आबादी क्षेत्रों में पहुँचना स्वाभाविक है। मानव एवं वन्यजीवों के बीच संघर्ष का यही मूल कारण है। मानव तथा वन्यजीवों के बीच होने वाले किसी भी तरह के संपर्क की वजह से मनुष्यों, वन्यजीवों, समाज, आर्थिक क्षेत्र, सांस्कृतिक जीवन, वन्यजीव संरक्षण या पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव मानव-वन्यजीव संघर्ष की श्रेणी में आता है।
वन विशेषज्ञों के अनुसार, मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियाँ वन्यजीवों को मानव पर आक्रमण करने को विवश करती हैं। जब कभी जंगल बहुतायत में थे तब मानव और वन्यजीव दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहे, लेकिन समय बदला और आबादी भी बढ़ी, फिर शुरू हुआ वनों का अंधाधुंध विनाश। इसके परिणाम में सामने आया, कभी न खत्म होने वाला मानव और वन्यजीवों के बीच संघर्ष का सिलसिला। मनुष्य अपनी अनेकानेक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये जंगलों का दोहन करता रहा है, जिसकी वजह से मानव और वन्यजीवों के बीच संघर्ष की घटनाएँ अधिक सामने आ रही हैं। कृषि का विस्तार, बढ़ती आबादी के लिये आवास, शहरीकरण और औद्योगीकरण में वृद्धि, पशुधन पालन, विभिन्न मानव आवश्यकताओं के लिये वन कटान, चराई के कारण वनों के स्वरूप में बदलाव, बहुउद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाएँ, झूम कृषि ऐसी ही कुछ वजह हैं।
जलवायु परिवर्तन का असर
इसके अलावा जलवायु परिवर्तन ने भी वन्य जीवों को प्रभावित किया है या यूँ कहा जाए कि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर वन्य जीवों पर पड़ता है तो गलत नहीं होगा। वन्य जीवों के प्रभावित होने से उनके प्राकृतिक पर्यावास नष्ट हो जाते हैं, जिससे वन्यजीव मानव बस्तियों की ओर पलायन करते हैं और इससे मनुष्यों व वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ता है।
वैसे तो यह विषय संविधान की समवर्ती सूची में आता है, लेकिन केंद्र सरकार ने वन्यजीवों और मानवों के बीच आए दिन होने वाले टकराव की घटनाओं को रोकने के लिये वन्यजीव पर्यावासों के एकीकृत विकास की योजना बनाई है। यह अलग से कोई योजना नहीं है, बल्कि इस समस्या से निपटने के लिये केन्द्र द्वारा प्रायोजित वन्यजीव पर्यावास एकीकृत योजना के तहत ही उपशमन और प्रबंधन की व्यवस्था की गई है।
इस योजना के तहत, केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों को बाघ परियोजनाओं और हाथी परियोजनाओं सहित कई अन्य वन्यजीव संरक्षण परियोजनाओं के लिये वित्तीय सहायता दी जा रही है। इसके अतिरिक्त वन और पर्यावरण मंत्रालय की ओर से वन निधि प्रबंधन और संरक्षित वन क्षेत्रों में चारे और पानी की उपलब्धता में वृद्धि करने के लिये राज्य सरकारों को सहायता देने की विशेष योजना भी चलाई जा रही है।
जंगलों का खत्म होना
औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण ने वनों को नष्ट कर दिया है। वन विभिन्न प्रकार के पक्षियों और जीवों की आश्रय स्थली हैं और जब इनके घरों पर मनुष्यों ने कब्जा करके अपना घर बना लिया है तो वे अपना हिस्सा मांगने हमारे घरों में ही आएंगे। मानव-वन्यजीव संघर्ष भारत में वन्यजीवों के संरक्षण के लिये एक बड़ा खतरा है। वन कटान, पर्यावास की क्षति, शिकार (भोजन) की कमी और जंगल के बीचो-बीच से गुजरने वाली अवैध सड़कें मानव-वन्यजीव संघर्ष के कुछ अहम कारण हैं। संरक्षित क्षेत्रों से होकर गुजरने वाली सड़कों के कारण दुर्गम जंगलों तक भी पहुँचना मनुष्य के लिये आसान हो गया है। इससे शिकारी दल आसानी से वन्यजीवों को अपना शिकार बना लेते हैं।
आजकल शायद ही कोई दिन ऐसा जाता है, जब मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष की खबर सुनने को नहीं मिलती। किसी स्थान पर किसी हिंसक जानवर ने बस्ती में आकर लोगों पर आक्रमण कर दिया होता है, तो कहीं लोग ऐसे जानवर को घेरकर मार देते हैं। मानव और वन्यजीवों के बीच होने वाला संघर्ष इधर कुछ वर्षों से बहुत अधिक बढ़ गया है। ऐसे में इनकी रोकथाम के साथ वन्य जीवों के हमलों की वजह और इन पर प्रभावी रोक के उपायों पर गौर करने की आवश्यकता बहुत अधिक है।
लोगों में जागरूकता
वन्य जीवों के प्रति लोगों को जागरूक कर और वन विभाग के साथ लोगों को माक ड्रिल के जरिये तकनीकी जानकारियाँ उपलब्ध कराकर इस समस्या पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में दावानल की घटनाओं की वजह से भी वन्यजीव मानव बस्तियों का रुख करते हैं और मारे जाते हैं। वन्यजीवों के हमले और फारेस्ट फायर को विशेष रणनीति के तहत रोका जाना अहम है।
मानव और वन्यजीव संघर्ष को कम करने लिये जहां कदम उठाने जरूरी है, वहीं वन्यजीवों की उपयोगिता को लेकर जागरूकता भी जरूरी है। जंगलों में वन्यजीवों का भोजन कम होने की वजह से भी वे हमलावर हो रहे हैं। वन्यजीव प्रभावित क्षेत्रों में बच्चों और पालतू जानवरों को सुरक्षित रखना अहम है। ऐसे में वन्य जीवों से प्रभावित गाँवों में माडल प्रोजेक्ट के तहत लोगों को विशेष रूप से जागरूक करने के साथ ही ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
सरकार का अभियान
ग्रामीणों को माक ड्रिल के जरिये गुलदार, भालू आदि वन्य जीवों के हमलों से बचने, रेसक्यू करने और इन्हें पकड़ने की तकनीकी जानकारी भी दी जानी चाहिये। जिन राज्यों में हाथियों की संख्या अधिक है वहाँ ऐसे कारीडोर बनाए गए हैं, जो न केवल उनकी व्यवधानरहित आवाजाही को सुनिश्चित करते हैं, बल्कि आनुवंशिक विविधता विनिमय के आदान-प्रदान को भी बढ़ावा देते हैं। यह कारीडोर भूमि का ऐसा सँकरा गलियारा या रास्ता होता है जो हाथियों को उनके वृहद् पर्यावास से जोड़ता है। यह जानवरों के आवागमन के लिये एक पाइपलाइन के तरह का काम करता है। मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने के लिये ‘क्या करें, क्या न करें’ के संबंध में लोगों को जागरूक बनाने हेतु सरकार द्वारा जागरूकता अभियान चलाया जाता है। संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधन में स्थानीय समुदाय का सहयोग सुनिश्चित करने के उद्देश्य से चलाई जाने वाली पर्यावरण विकास गतिविधियों के लिये राज्य सरकारों को सहायता प्रदान की जाती है।
मानव-वन्यजीव संघर्षों से संबंधित समस्याओं को हल करने के लिये वन कर्मचारियों और पुलिस को प्रशिक्षित किया जा रहा है। वन्यजीवों के हमलों को रोकने के लिये संवेदनशील क्षेत्रों के आस-पास दीवारों तथा सोलर फेंस का निर्माण किया जा रहा है। मनुष्य और वन्यजीवों के बीच संघर्ष के इस दौर में वन्यजीव अभयारण्यों और पार्कों के आस-पास रहने वाले लोगों को इस संबंध में जागरूक करना इस लिहाज से एक प्रभावी कदम है। देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान, राज्य वन विभागों और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण आदि अनुसंधान संस्थान अत्यधिक उच्च आवृत्ति वाले रेडियो कालर, ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम और सैटेलाइट अपलिंकिंग जैसी तकनीकों की मदद से शेर, बाघ, हाथी आदि वन्यजीवों की ट्रैकिंग करते हैं। देश में 661 संरक्षित क्षेत्र हैं जो देश के संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 4.8ः में फैले हुए हैं। साथ ही देश में 100 नेशनल पार्क, 514 वन्यजीव अभयारण्य, 43 संरक्षित रिजर्व और 4 सामुदायिक रिजर्व हैं।
वन्य प्राणियों का संरक्षण
भारत में वन और वन्यजीवों को संविधान की समवर्ती सूची में रखा गया है। एक केंद्रीय मंत्रालय वन्यजीव संरक्षण संबंधी नीतियों और नियोजन के संबंध में दिशा-निर्देश देने का काम करता है तथा राज्य वन विभागों की जिम्मेदारी है कि वे राष्ट्रीय नीतियों को कार्यान्वित करें। वन्य जीवों के संरक्षण हेतु, भारत के संविधान में 42वें संशोधन (1976) अधिनियम के द्वारा दो नए अनुच्छेद 48-। व 51 को जोड़कर वन्य जीवों से संबंधित विषय के समवर्ती सूची में शामिल किया गया।
भारत में संरक्षित क्षेत्र (प्रोटेक्टेड एरिया) नेटवर्क में वन राष्ट्रीय पार्क तथा 515 वन्यजीव अभयारण्य, 41 संरक्षित रिजर्व्स तथा चार सामुदायिक रिजर्व्स शामिल हैं। संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधन संबंधी जटिल कार्य को अनुभव करते हुए 2002 में राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (2002-2016)को अपनाया गया, जिसमें वन्यजीवों के संरक्षण के लिये लोगों की भागीदारी तथा उनकी सहायता पर बल दिया गया है।
वन्यजीवों को विलुप्त होने से रोकने के लिये सर्वप्रथम 1872 में वाइल्ड एलीफेंट प्रिजर्वेशन एक्ट पारित हुआ था। 1927 में भारतीय वन अधिनियम अस्तित्व में आया, जिसके प्रावधानों के अनुसार वन्य जीवों के शिकार एवं वनों की अवैध कटाई को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया। स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार द्वारा इंडियन बोर्ड फार वाइल्ड लाइफ की स्थापना की गई।
1956 में पुनः भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया । 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित किया गया। यह एक व्यापक केन्द्रीय कानून है, जिसमें विलुप्त होते वन्य जीवों तथा अन्य लुप्त प्रायरू प्राणियों के संरक्षण का प्रावधान है। वन्य जीवों की चिंतनीय स्थिति में सुधार एवं वन्य जीवों के संरक्षण के लिये राष्ट्रीय वन्यजीव योजना, 1983 में प्रारंभ की गई।
वन्य जीवन संस्थान
वन्यजीव संरक्षण संबंधी पाँच प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशनोंकृकन्वेंशन आन इंटरनेशनल ट्रेड इन एनडेजर्ड स्पीसीज आफ वाइल्ड फौना एंड फ्लोरा, इंटरनेशनल यूनियन फार कंजर्वेशन आफ नेचर, इंटरनेशनल व्हेलिंग कमीशन तथा कन्वेंशन आन माइग्रेटरी स्पीशीज में भारत की भी भागीदारी है। 1982 में भारतीय वन्यजीव संस्थान की स्थापना की गई। यह संस्थान मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के अंतर्गत एक स्वशासी संस्थान है जिसे वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र के प्रशिक्षण और अनुसंधानिक संस्थान के रूप में मान्यता दी गई है।
निश्चित रूप से वन्यजीव संरक्षण बेहद महत्त्वपूर्ण ही नहीं बल्कि एक पर्यावरणीय अनिवार्यता भी है, लेकिन यह भी सच है कि कम होते जा रहे जंगल वन्यजीवों को पूर्ण आवास प्रदान करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। एक नर बाघ को स्वतंत्र विचरण हेतु 60-100 वर्ग किमी. क्षेत्र की जरूरत होती है। हाथियों को कम-से-कम 10-20 किमी. प्रति दिन यात्रा करनी पड़ती है, लेकिन जंगलों के लगातार कम होते जाने के कारण वे भोजन और पानी की तलाश में बाहर निकल जाते हैं।
जब तक जंगल कटते रहेंगे, मानव-वन्यजीव संघर्ष को टालने की बजाय बचाव के उपाय करना ही संभव हो सकेगा। ऐसे में संघर्ष को टालने का सबसे बेहतर विकल्प है पर्यावरण के अनुकूल विकास अर्थात् ऐसी नीतियाँ बनाने की जरूरत है, जिससे मनुष्य व वन्यजीव दोनों ही सुरक्षित रहें।
डॉ. दीपक कोहली
वन एवं वन्य जीव विभाग, उत्तर प्रदेश