बोतल में कैद हो मर रही हैं नदियां

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पानी बोतल में बंद, उसे बाजार में उतारा गया। पेयजल के लिए सर्वोत्तम बोतलबंद पानी का राग गाया गया विज्ञापनों में। पूरी दुनिया में बोतलबंद पानी खूब बिकने लगा। बोतलबंद पानी वैश्विक बाजार में बड़े लाभ की वस्तु बन गया। अनमोल पानी का व्यापार तेल से ज्यादा मुनाफे वाला हो गया। भारत की राष्ट्रीय जल नीति में पानी के मूल्य को तवज्जो दी गई। मगर क्या बोतल का पानी हमारे लिए उतना ही बेहतर है, जितना हमारी नदियों का पानी कभी था?
पानी का व्यापार करने वाले जानते हैं। सरकारें पानी के कारोबारियों को प्रोत्साहन दे रही है। क्योंकि नदियां सत्ता में बैठे रहनुमाओं को सीधा लाभ नहीं दे सकती हैं। नदियों का कोई प्रतिनिधि नहीं हुआ, जो सरकार से उनको सीधे लाभ देने की बात करता।
नदियां तो बहती हैं। कल-कल, निश्छल। कहीं सीधी, सपाट सरपट की तरह दौड़ लगाती, तो कहीं हरहराती हुई पहाड़ों से गहरी खाईयों में समाती, फिर दौड़ लगाती। हर किसी की प्यास बुझाती। छोटा हो या बड़ा, अछूत हो या ब्रह्मज्ञानी, सबको बराबर अवसर देती। नदी की धारा में डुबकी लगा चैतन्य हो जाते शरीर से, प्रफुल्लित हो उठता मन प्राण। क्या इंसान, क्या जानवर और पक्षी, सभी बहती नदियों के जल से तृप्त होते हैं।
जीवन का जल मिलता रहे, इसलिए नदियों के सानिध्य में सभ्यता पनपी। नदियों के मनोरम तट में शहर आबाद हुए। दुनिया की अनेक सभ्यताओं को नदियों ने पोषित किया। और नदियों के विलुप्त होते ही सभ्यताएं इतिहास के पन्नों में जा सिमटी। सभ्यताओं के उत्थान और पतन, नदियों के प्रवाह पर अवलंबित रहे और आज भी है।
हमारा विकास, हमारे उद्योग, हमारी भूख ही नहीं नयनाभिराम प्रकृति और संस्कृति को संजाए रखने में नदियों की अहम भूमिका है। नदी अपने उद्गम से प्रवाहित होकर कहीं दूसरी नदी को गति देती हुई जहॉं एकाकार होती है, ऐसे नदी संगम तीर्थ बने। बहती नदियां अपने साथ छोटे नालों, नदियों को अपने में समाहित करती प्रवाहित होती विशाल रूप धारण करती हैं। बहती नदियां धरती पर जीवन को गतिमान करती, आखिरकार सागर में समा जाती है। नदियां तो ऐसी ही हैं। बहना उसका काम है। बिना भेदभाव के सबको अपने जल से आप्लावित करना उसका धर्म है।
सदियों से नदियां बहती आई हैं। धरती के कोने-कोने से निकली नदियां अठखेलियां करती, कहीं विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती, सागर में मिलने को उत्सुक रहती है। पहाड़ों से निकली नदियां गहरे समुद्र में समाती है तो अपनी राह में जन जीवन को जीवन का जल भी देती है।
नदियों ने कभी बहना नहीं छोड़ा। जिसका पानी सदैव निर्मल रहा, तो फिर नदियों प्रदूषित क्यों हो गई? नदियां कूड़ा ढोने वाली क्यों बन गई? अपने जल से प्यास बुझाने वाली, धरती को हरा-भरा करने वाली, जीव-जगत का जीवंत बनाए रखने वाली नदियां प्रदूषित हो गई। नदियों का पानी पीना जहर पीने जैसा हो गया। इससे भी ज्यादा भयावह कि कहीं नदी में स्नान करना भी खतरे से खाली नहीं रह गया। कहीं नदियों का पानी तेजाब जैसा हो गया, तो क्यों और कैसे?
21वीं सदी के सभ्य इंसान की देन है प्रदूषित नदियां। अगर नदियां प्रदूषित नहीं होती, तो पानी का व्यापार कैसे होता। प्रदूषित पानी को साफ करने वाले उत्पादों का बाजार कैसे बनता? नदियों में जितना प्रदूषण बढ़ा, बाजार उतना बढ़ा। पानी का कारोबार बढ़ा। दवा व्यवसाय और लाभकारी बना। बीमारियां बढ़ीं और अस्पतालों में भीड़ बढ़ती चली गई। मध्यम वर्ग और गरीब पर बोझ बढ़ा। प्रदूषित पानी का सेवन करने वालों के मौत का आंकड़ा भी बढ़ा। यह सब निर्मम बाजार की देन है।
इंसान जितना आधुनिक हुआ, उतना ही नदियों की प्रकृति से छेड़छाड़ करने लगा। नदियां अब इंसान की मर्जी से बहती हैं। नदियों में बड़े-बड़े बांध बनाए गए। दुनिया के तमाम बहुउद्देश्यीय बांध बेकार हो गए। बांधों के कारण वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड का ज्यादा उत्सर्जन हो रहा है। अब समझ में आया कि नदियों के बांध बेकार हैं और उन्हें तोड़ा जा रहा है।
नदियों की राह में विशाल भवन, सड़कें बना दी गईं। बरसात में नदियां जब उन्मुक्त हो प्रवाहित होती हैं, तो प्रलयंकारी बाढ़ से जनजीवन ठप हो जाता है। देश, दुनिया में मानसूनी बारिश के दौरान नदियों में आई बाढ़ विनाशक होती जा रही है। नदियों की प्रकृति, उसकी गति की खिलाफत करने वाली परियोजनाओं से आते विपरीत परिणाम आज हमारे सामने आ रहे हैं।
भारत में नदियों को देवी कहा गया है। मंदिरों में नदी देवियों की मूर्तियां पानी बोतल में बंद, उसे बाजार में उतारा गया। पेयजल के लिए सर्वोत्तम बोतलबंद पानी का राग गाया गया विज्ञापनों में। पूरी दुनिया में बोतलबंद पानी खूब बिकने लगा। बोतलबंद पानी वैश्विक बाजार में बड़े लाभ की वस्तु बन गया। अनमोल पानी का व्यापार तेल से ज्यादा मुनाफे वाला हो गया। भारत की राष्ट्रीय जल नीति में पानी के मूल्य को तवज्जो दी गई। मगर क्या बोतल का पानी हमारे लिए उतना ही बेहतर है, जितना हमारी नदियों का पानी कभी था?
पानी का व्यापार करने वाले जानते हैं। सरकारें पानी के कारोबारियों को प्रोत्साहन दे रही है। क्योंकि नदियां सत्ता में बैठे रहनुमाओं को सीधा लाभ नहीं दे सकती हैं। नदियों का कोई प्रतिनिधि नहीं हुआ, जो सरकार से उनको सीधे लाभ देने की बात करता।
नदियां तो बहती हैं। कल-कल, निश्छल। कहीं सीधी, सपाट सरपट की तरह दौड़ लगाती, तो कहीं हरहराती हुई पहाड़ों से गहरी खाईयों में समाती, फिर दौड़ लगाती। हर किसी की प्यास बुझाती। छोटा हो या बड़ा, अछूत हो या ब्रह्मज्ञानी, सबको बराबर अवसर देती। नदी की धारा में डुबकी लगा चैतन्य हो जाते शरीर से, प्रफुल्लित हो उठता मन प्राण। क्या इंसान, क्या जानवर और पक्षी, सभी बहती नदियों के जल से तृप्त होते हैं।
जीवन का जल मिलता रहे, इसलिए नदियों के सानिध्य में सभ्यता पनपी। नदियों के मनोरम तट में शहर आबाद हुए। दुनिया की अनेक सभ्यताओं को नदियों ने पोषित किया। और नदियों के विलुप्त होते ही सभ्यताएं इतिहास के पन्नों में जा सिमटी। सभ्यताओं के उत्थान और पतन, नदियों के प्रवाह पर अवलंबित रहे और आज भी है।
हमारा विकास, हमारे उद्योग, हमारी भूख ही नहीं नयनाभिराम प्रकृति और संस्कृति को संजाए रखने में नदियों की अहम भूमिका है। नदी अपने उद्गम से प्रवाहित होकर कहीं दूसरी नदी को गति देती हुई जहॉं एकाकार होती है, ऐसे नदी संगम तीर्थ बने। बहती नदियां अपने साथ छोटे नालों, नदियों को अपने में समाहित करती प्रवाहित होती विशाल रूप धारण करती हैं। बहती नदियां धरती पर जीवन को गतिमान करती, आखिरकार सागर में समा जाती है। नदियां तो ऐसी ही हैं। बहना उसका काम है। बिना भेदभाव के सबको अपने जल से आप्लावित करना उसका धर्म है।
सदियों से नदियां बहती आई हैं। धरती के कोने-कोने से निकली नदियां अठखेलियां करती, कहीं विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती, सागर में मिलने को उत्सुक रहती है। पहाड़ों से निकली नदियां गहरे समुद्र में समाती है तो अपनी राह में जन जीवन को जीवन का जल भी देती है।
नदियों ने कभी बहना नहीं छोड़ा। जिसका पानी सदैव निर्मल रहा, तो फिर नदियों प्रदूषित क्यों हो गई? नदियां कूड़ा ढोने वाली क्यों बन गई? अपने जल से प्यास बुझाने वाली, धरती को हरा-भरा करने वाली, जीव-जगत को जीवंत बनाए रखने वाली नदियां प्रदूषित हो गई। नदियों का पानी पीना जहर पीने जैसा हो गया। इससे भी ज्यादा भयावह कि कहीं नदी में स्नान करना भी खतरे से खाली नहीं रह गया। कहीं नदियों का पानी तेजाब जैसा हो गया, तो क्यों और कैसे?
21वीं सदी के सभ्य इंसान की देन है प्रदूषित नदियां। अगर नदियां प्रदूषित नहीं होती, तो पानी का व्यापार कैसे होता। प्रदूषित पानी को साफ करने वाले उत्पादों का बाजार कैसे बनता? नदियों में जितना प्रदूषण बढ़ा, बाजार उतना बढ़ा। पानी का कारोबार बढ़ा। दवा व्यवसाय और लाभकारी बना। बीमारियां बढ़ीं और अस्पतालों में भीड़ बढ़ती चली गई। मध्यम वर्ग और गरीब पर बोझ बढ़ा। प्रदूषित पानी का सेवन करने वालों के मौत का आंकड़ा भी बढ़ा। यह सब निर्मम बाजार की देन है।
इंसान जितना आधुनिक हुआ, उतना ही नदियों की प्रकृति से छेड़छाड़ करने लगा। नदियां अब इंसान की मर्जी से बहती हैं। नदियों में बड़े-बड़े बांध बनाए गए। दुनिया के तमाम बहुउद्देश्यीय बांध बेकार हो गए। बांधों के कारण वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड का ज्यादा उत्सर्जन हो रहा है। अब समझ में आया कि नदियों के बांध बेकार हैं और उन्हें तोड़ा जा रहा है।
नदियों की राह में विशाल भवन, सड़कें बना दी गईं। बरसात में नदियां जब उन्मुक्त हो प्रवाहित होती हैं, तो प्रलयंकारी बाढ़ से जनजीवन ठप हो जाता है। देश, दुनिया में मानसूनी बारिश के दौरान नदियों में आई बाढ़ विनाशक होती जा रही है। नदियों की प्रकृति, उसकी गति की खिलाफत करने वाली परियोजनाओं से आते विपरीत परिणाम आज हमारे सामने आ रहे हैं।
भारत में नदियों को देवी कहा गया है। मंदिरों में नदी देवियों की मूर्तियां बनाई गई हैं। वैदिक ऋषियों ने नदी जल को स्वच्छ रखने के लिए विधान भी बनाए। धार्मिक परम्परा, रीति रिवाज और कर्मकांड नदियों के सतत प्रवाह और स्वच्छ रखने के लिए बने। नदियों की यशोगाथा हर सनातनी धार्मिक ग्रंथों में गाई गई।
आज भी नदियों की स्तुति गाई जा रही है, उसकी आरती उतारी जा रही है। मगर दोहरे चरित्र की इंसानी गतिविधियों के चलते नदियों में कचरा डाला जाने लगा। नदियों के किनारे बसे शहर ने पश्चिमी कमोड बनाए और शहरी जल-मल सीधे नदियों में डाल दिया। कितनी मूर्खतापूर्ण हरकत है कि शहर अपने लिए पानी नदी से लेता है और उसी नदी के दूसरे छोर में अपना जल-मल छोड़ देता है। शहर दर शहर ऐसा ही हो रहा है। नदियां बह रही है, जल मल बहाया जा रहा है और शहरवासी उसी नदी का पानी पी रहे हैं।
शहरों के समीप बहती नदियां अब कचरा ढोने लग गई हैं। जैसे-जैसे गरमी बढ़ती है, नदियों का बहाव कम होता है और जब नदियां गंदे नाले जैसी हो जाती हैं। उसमें उठती बदबू असहनीय हो जाती है। औद्योगिक विकास के चलते नदियां प्रदूषित हुई। उद्योगों ने नदियों के पानी का इस्तेमाल तो किया, मगर अपने उद्योग का विषाक्त जल नदियों में बहा दिया। उद्योगों के विषाक्त जल से नदियां जीव-जन्तु विहीन होती जा रही हैं। अधिकांश नदियों के जलचर जीवों की प्रजातियां विलुप्त हो चली हैं।
धरती की धमनियां हैं हमारी नदियां, जिससे समूचा जनजीवन गतिमान होता है। अनमोल पानी जब तक बाजार में बिकेगा, नदियों का प्रदूषण नहीं छटेगा। धमनियों को प्रवाह देने के लिए बोतलबंद पानी देना बेमानी है। जो नदियों को मार रहा है। पानी का व्यापार जब तलक होता रहेगा, नदियों को जीवंत बनाए रखना असंभव होगा। बाजार में बिकता बोतलबंद पानी नदियों को मार रहा है। जीवन के जल से आम आदमी को मरहूम कर रहा है। अगर नदियों को नहीं बचाया गया तो हमारी आधुनिक सभ्यता जल्द ही इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगी।
रविन्द्र गिन्नौरे