भारत में सदियो से प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग एवं प्रबंधन किया जाता रहा है। वन यहां के जीवन का मुख्य आधार है। वस्तुतः मानव ने जीवन की शुरूआत वनों से की थी तथा वन उत्पादों से अपना जीवन आगे बढाया। मानव वनों से न केवल खाद्य वरन् कपड़े तथा आश्रय भी पाता है। शुरू में मानव ने एक छोटे क्षेत्र की सफाई कर वहां खाद्य उगाना शुरू किया तथा आज भारत में सम्पूर्ण विश्व की अपेक्षा खेती सबसे ज्यादा होती है।
खेती की अधिकता एवं अधिक पैदावार होने के बावजूद मानव की वनों पर निर्भरता आज भी बनी हुई है तथा लकडी (ईमारती एवं जलावन), कागज, दवाईयों चारा आदि के स्त्रोत मुख्यतः व नही बने हुए है। ये वन न केवल आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध करवाते है वरन् मृदा अपरदन को रोकने, मृदा की उपजाऊ क्षमता बढाने तथा सबसे महत्वपूर्ण पर्यावरण सुधार में उपयोगी है।
वनों की उपयोगिता एवं आवश्यकता
वन एक जटिल तंत्र है जिसमें प्रमुखतः वृक्ष पादप होते है। ये विभिन्न प्रकार के जीवों के लिए आश्रय का कार्य करते है। वनो से ही वन्य प्राणी संरक्षित रहते है तथा वर्षा के पानी का संचयन हो पाता है। वृक्षों से गर्मियों में ठंडी हवा का संचार होता है तथा रात्रि में ध्वनि प्रसार को कम करने में भी सहायक है। वृक्षों की पत्तियॉ गिरकर खाद बनाती है, जबकि इनकी जड़े भूमि को बांधे रखती है। पक्षियों के घोंसले वृक्षों पर बनते है जबकि इनसे निकलने वाली ऑक्सीजन मानव जीवन के लिए प्राणवायु है। वनों से आपेक्षिक आर्द्रता में परिवर्तन होता है तथा ये वर्षा कराने में भी सहायक सिद्ध होते है।
हमारे देश की कुल 306 मिलियन हैक्टेयर भूमि में से करीब 18 मिलियन हैक्टेयर भूमि आवासीय तथा अनुउत्पादनीय है, जबकि 21 मिलियन हैक्टेयर भूमि चट्टानी एवं हिमाच्छादित है। शेष 266 मिलियन हैक्टेयर भूमि में से 23 मिलियन हैक्टेयर भूमि ऊसर या परती भूमि है तथा केवल 17 मिलियन हैक्टेयर भूमि को परिष्कृत कर योग्य भूमि बनाया जा सकता है। मात्र 83 मिलियन हैक्टेयर भूमि में वन एवं चारागाह है तथा लगभग 14.3 मिलियन हैक्टेयर भूमि में खेती होती है। इस प्रकार कुल भूमि के करीब 46 प्रतिशत भाग में ही खेती होती है तथा शेष भूमि व्यर्थ पड़ी रहती है।
इसी प्रकार वनों का प्रतिशत भी निर्धारित न्यूनतम मापदंड से कम ही है। इसका प्रमुख कारण है देश की 50 प्रतिशत (लगभग) भूमि पर मृदा का उपजाऊ नही होना है। मृदा क्षरण का मुख्य कारक मृदा अपरदन (अर्थात् मृदा का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जमा होना) ही है। इसके अतिरिक्त वृक्षों का उन्मूलन एवं अनियंत्रित रूप से उनका दोहन भी मृदा क्षरण का एक महत्वपूर्ण कारक है। मृदा के क्षरण के अन्य कारणों में प्रमुख है- जलाक्रान्ति, लवण भवन एवं नगरीय अतिक्रमण। बड़े पैमाने पर वृ़क्षारोपण द्वारा मृदा अपरदन रोकने, टिब्बा स्थिरीकरण करने तथा र्प्यावरण को संतुलित बनाये रखने में भी सहायता मिलती है।
भारत में वनीकरण
वनीकरण कार्यक्रम की शुरूआत भारत में लगभग 100 वर्ष से अधिक समय पूर्व की मानी जा सकती है। शुरूआत में बीजों की सीधी बुआई अथवा हवाई छिडकाव द्वारा पौधारोपण कार्यक्रम चलाये गये जो बाद में विभिन्न प्रकार के संग्राहक पात्रों में पौधे तैयार करने की विधि के रूप में विकसित किये गये। विगत कुछ वर्षों से पौधारोपणी (नर्सरी) पौधे प्लास्टिक, बैग में तैयार किये जा रहे है। संसार की समस्त भूमि जिन पर वनीकरण या पुर्नवनीकरण के कार्यक्रम चल रहे है, का प्रमुख एवं मूल उद्देश्य उच्च गुणवत्ता के पौधे तैयार करना है। वानिकी कार्यो में प्रयुक्त पौधों की गुणवत्ता मुख्यतः दो कारकों पर निर्भर करती है। 1.उसकी आनुवांशिक संरचना पर 2. उसके क्षेत्र के प्रभाव पर
वन रोपणी एवं नवीन तकनीके
अच्छे वृक्षों (प्लस ट्री) से लिए बीजों कें द्वारा आनुवांशिकी संरचना की गुणवत्ता प्राप्त की जा सकती है, जबकि प्रशिक्षित व्यक्तियों एवं नवीन तकनीकों से क्षेत्र की स्थिति का मानदंड बदला जा सकता है। भारत में पौधों की रोपाई के लिए प्रयुक्त प्लास्टिक की थैलिया इनकी सरल उपलब्धता एवं सस्ती होने के कारण बहुतायत में उपयोग में लाई गई परन्तु ये न केवल पर्यावरण के लिए हानिकारक है वरन् पौधों की गुणवत्ता को भी प्रभावित करती है। प्लास्टिक की थैलियों में पौधों की जड़े विकसित हो जाती है तथा उसका विकास भी नही हो पाता है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में हानि भी अधिक होती है तथा खरपतवार की अधिकता एवं श्रम लागत में भी वृद्धि होती है। इन सभी कारणों को ध्यान में रखकर मूलमंत्र को सुरक्षित रखने हेतु तथा अच्छी गुणवत्ता के पौधे, कम श्रम तथा लागत में तैयार करने हेतु कई प्रकार की तकनीके प्रयुक्त की जा रही है। रोपणी में पौधे तैयार करने हेतु विशेष प्रकार के पात्रों का विकास किया गया है। जिसे ‘रूट ट्रेनर’ कहते है।
जड़ साधक
रूट ट्रेनर या जड़ साधक, पराबैंगनी किरणरोधी उच्च घनत्व वाली प्लास्टिक का बना होता है। इनमें 5ग4 की पक्तियां होती है तथा आयतन 150/200 मि.ली. या इच्छानुसार ले सकते है। ये पात्र बेलनाकार होते है जो नीचे की ओर संकरे होते है तथा अंत में एक छिद्र के रूप में बाहर खुलते है। इनमें पाये जाने वाले लम्बवत उभार, जड़ों को सीधे नीचे जाने में मदद करते है। नीचे जाने पर जड़े प्रकाश तथा हवा में खुलकर रूक जाती है तथा पुनः एक नई जड़ पौधें से निकलती है। इस प्रकार शाखित मूलतंत्र विकसित हो जाता है जो भूमि से पोषण तत्वों का अधिक शोषण कर सकती है। ये पौधे गुणवत्ता में उत्तम होते है। शुरू में प्लास्टिक की थैलियों की अपेक्षा इनका मूल्य अधिक होता है परन्तु इनको बार-बार उपयोग में ले सकने की क्षमता के कारण एवं पौधों की गुणवत्ता के मद्देनजर यह गौण हो जाता है। जड़ साधकों के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैः-
1.ये कम स्थान घेरते है तथा छोटे से स्थान पर कई हजार पौधे तैयार किये जा सकते है।
2. यातायात में क्षति, खरपतवारों की वृद्धि, कवकों का विकास आदि समस्याएं नहीं रहती अतः रोगमुक्त गुणवत्ता वाले पौधे तैयार होते है।
3. विकसित मूलमंत्र के कारण पोषक तत्वों की, पौधें में प्रचुरता रहती है तथा वृद्धि भी अच्छी होती है।
4.इन्हें बार-बार उपयोग में लाया जा सकता है तथा बडे पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रमों हेतु एवं पर्यावरण संरक्षण में यह बहुत उपयोगी है।
इस प्रकार यह जड़ साधक स्वस्थ पौधारोपाई हेतु एक नया एवं कारगर तरीका है जिससे गुणवत्तायुक्त पौधा प्राप्त हो सकता है तथा उससे भोजन, ईंधन, चारा आदि का भी अधिकतम उत्पादन भी प्राप्त हो सकता है।
वन आनुवांशिकी
वानिकी के क्षेत्र में आनुवांशिकी कार्य महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। कृषि के क्षेत्र में आनुवांशिकी तकनीकां से कई नये पादप तैयार किये गये हैं, परन्तु वानिकी क्षेत्र में बहुत कम कार्य किया गया है। आधुनिक युग में जैव प्रौद्योगिकी तथा आनुवांशिकी तकनीक से परिवर्धित पादपों का प्रयोग कर औषधीय, कृषि वानिकी आदि सभी क्षेत्रों में क्रांति लाने का प्रयास जारी है। इन तकनीकों का प्रयोग बहुत ही समझ-बूझ कर तथा सावधानीपूर्वक करने से मानव को लाभ हो सकता है, क्योंकि थोडी सी असावधानी से मानव जीवन एवं पर्यावरण को भारी क्षति पहुंच सकती है।
वानिकी क्षेत्र में आनुवंशिकी को एक यंत्र के रूप में प्रयोग कर वानिकी उद्योग को एक नई दिशा दी जा सकती है। आनुवांशिकी इंजिनीयरिंग के प्रयोग द्वारा काष्ठ तथा रेशे उत्पादों के उत्पादन में पर्यावरण को क्षति पहुंचाये बिना क्रांति लाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त निम्न कार्यां में भी आनुवंशिकी इंजिनियरिंग का प्रयोग किया जा सकता है, ये है :-
1. दुर्गम स्थलों का सुगमीकरण तथा लवणीय या अम्लीय भूमि का पुनरूद्वार विशेष प्रकार के पादपों द्वारा किया जा सकता है।
2. काष्ठ घनत्व तथा उसकी कैलोरी मात्र में वृद्धि कर विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाली जलावन लकड़ी की मात्रा में वृद्धि की जा सकती है।
3. लकड़ी की गुणवत्ता बिना रसायनों का प्रयोग कर प्राप्त की जा सकती है तथा पल्प एवं पेपर के उत्पादन में वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
4.‘बायोप्लास्टिक‘ जैसे उत्पादों का विकास किया जा सकता है जिसमें रेशों के गुण भी हो।
5. कीट/कवक मुक्त, रोग-प्रतिरोधी पादपों का निर्माण कर विभिन्न कीटनाशी एवं कवकनाशी रसायनों का छिडकाव रोका जा सकता है तथा पर्यावरण संरक्षण में भी सहायता की जा सकती है।
इन विट्रो तकनीक
इन तकनीक द्वारा लुप्त हो रही या लुप्त प्रायः प्रजातियों के जीन पूल का संरक्षण किया जा सकता है। इस तकनीक द्वारा पौधों की प्रायोगिक कक्ष में वृद्धि नियमित कर तथा उसमें अन्य पौधों का जर्मप्लाज्म स्थानान्तरित भी किया जा सकता है। बीजों से कठिनाई से आने वाले पौधों की कलमों को नियंत्रित रूप से एवं उचित गुणवत्ता से तैयार किया जा सकता है।
विभिन्न वानिकी प्रजातियों के माइक्रोसंवर्धन तथा क्रायोसंवर्धन एवं संरक्षण संबंधी तकनीकां का विकास किया जा चुका है तथा इनमें और आनुवंशिकी विकास किया जा रहा है जिसमें ‘व्यापारिक’ वानिकी के रूप में उनका प्रयोग हो सके। आर.एफ.एल.पी. तथा आ.ए.पी.डी. सरीखी तकनीकां का प्रयोग कर तथा आनुवंशिकी मार्कर का प्रयोग एक यंत्र के रूप में कर विभिन्न वानिकी प्रजातियों का जीनोटाइप विकसित किया जा रहा है।
विभिन्न शोध कार्यक्रमों द्वारा अनुसंधानकर्ता इस क्षेत्र में और शोध द्वारा अच्छे परिणाम प्राप्त करने के प्रति आशान्वित है। आधुनिक युग में मानव जीनोम की संरचना के ज्ञात होने के पश्चात जीन तकनीकी के प्रयोग से नई प्रजातियों (जो वातावरण एवं पर्यावरण के अनुकूल तथा व्यापारिक महत्व की हो) के विकास पर तेजी से कार्य चल रहा है। कुछ नवीन तकनीकों का विवरण इस प्रकार हैः-
जीन स्थानान्तरण
वैज्ञानिकों ने पौधों एवं जन्तुओं में जीन तथा आनुवंशिकी इंजिनीयरिंग से नई तकनीक का विकास किया है। इस कार्य में जीन स्थानान्तरण के लिए सामान्यतः प्राकृतिक ट्रांसफर एजेन्ट तथा बैक्टीरिया (जीवाणु) का प्रयोग होता है जबकि कुछ में रसायनों का प्रयोग कर विद्युत पल्स भेजे जाते है। इन स्थानान्तरणों में जीन बुलेट के प्रयोग से आनुवांशिकी सूचनाओं के स्त्रोत को उपयुक्त कोशिका में प्रवेश कराकर नये पादपों एवं जीवों का विकास किया जा सकता है जिनसे नये जीन आधारित जीवों या पादपों का विकास संभव हो सकता है। यह मुख्यतः दो विधियों द्वारा किया जाता हैः-
1.बायोलिस्टक्स (जीनगन)
इस विधि में जीन गन में डीएनए को स्वर्ण से लपेटकर पौधा कोशिका में दागा जाता है जिससे कुछ पादप कोशिकाएं उसको ग्रहण कर नई सूचनाओं को प्रदान करती है। इस प्रकार उच्च आनुवांशिकी संरचनाओं वाले पौधें तैयार हो सकते है।
2.एग्रोबैक्टिरयम ट्यूमीफेसेन्स द्वारा
इस विधि में प्राकृतिक आनुवांशिकी इंजिनियम ‘‘एग्रोबैक्टिरयम ट्यूमीफेसेन्स’’ (जो कि मुख्यतया मिट्टी में पाया जाता है तथा अपने डीएनए की प्रतिकृति दूसरे में देने की अद्भूत क्षमता रखता है) का उपयोग किया जाता है। आण्विक जैव विज्ञानी इस बैक्टिरया के डीएनए की कूट कोड में उपयोग एवं वांछित गुणों को डाल देते है तथा इस प्रकार ये गुण टारगेट पौधे में चले जाते है।
जीनोमिक्स
यह विज्ञान की एक नवीन शाखा है इसमें जीनोम (जिसमें सम्पूर्ण जीन तथा गुण किसी प्रजाति के होते है) का अध्ययन किया जाता है। जीनोमिक्स एवं कम्प्यूटर के उपयोग से विज्ञान की एक नई शाखा का विकास हुआ है जिसे ‘‘बायोइनफोरमेटिक्स’’ कहते हैं। इस शाखा के द्वारा जीन मेपिंग एवं गुणसूत्रों के सूक्ष्मतम अध्ययन एवं कूट कोड के बारे में सूचनाएं ज्ञात की जा सकती है।
स्त्रोत परीक्षण
बीजों के स्त्रोत परीक्षण द्वारा विभिन्न क्षेत्रों हेतु उपयुक्त बीजों का चयन कर उन्हें भी पादप रोपणी में तैयार किया जाता है जिससे क्षेत्र विशेष के गुणों के लिए उपयुक्त वातावरण हेतु पौधों को परिवर्धित किया जा सके। इस परीक्षण में विभिन्न स्त्रोतों से बीज एकत्र कर उन्हें क्षेत्र विशेष की परिस्थितियों में परीक्षित किया जाता है तथा उसमें से सर्वश्रेष्ठ (प्लस ट्री) से बीज एकत्र कर पौधे तैयार कर लगाये जाते हैं। इस प्रकार उत्तम गुणों के पौधे तैयार हो सकते हैं।
पादप पोषण एवं नवीन तकनीकी
पौधों को उत्तम पोषण मिलने पर अधिक जैवभार उत्पन्न होता है तथा पौधों की अच्छी वृद्धि से इनसे मिलने वाले आर्थिक लाभ में भी बढोत्तरी हो सकती है। सामान्यतः रासायनिक खादों के उपयोग करने से मृदा की उपजाऊपन में कमी आती है तथा पर्यावरण को भी हानि पहुंचती है। आधुनिक युग में जैव खादों का प्रयोग बढ़ा है तथा विभिन्न प्रकार की जीवाणु खादों, वर्मीकल्चर द्वारा तैयार खाद एवं अन्य प्रकृति मित्र खादों का प्रचार-प्रसार भी बढ़ा है। कुछ प्रमुख प्रकृति मित्र खादों का विवरण इस प्रकार है :-
वर्मीकम्पोस्ट
केचुएं द्वारा अपनी नैसर्गिक क्रियाओं द्वारा बनाई जाने वाली खाद को वर्मीकम्पोस्ट कहते है। उपयुक्त तापमान, नमी, हवा एवं जैविक पदार्थ मिलने पर केंचुएं अपनी संख्या बढाने के साथ-साथ गोबर एवं वानस्पतिक अवशेष आदि को सड़ा कर जैविक खाद के रूप में परिवर्तित करते रहते हैं। वर्मीकम्पोस्ट गहरे भूरे रंग का मुलायम ह्मूमस पदार्थ होता है। इससे मृदा में वायु के आवागमन में वृद्धि तथा जल संधारण क्षमता में बढ़ोत्तरी होती हैं खाद में नमी के कारण सूक्ष्म जीवों की गतिविधियां बढ़ती है तथा उससे पोषक तत्वों की प्राप्ति में भी वृद्धि होती है। वास्तव में वर्मीकम्पोस्ट सें मृदा में नत्रजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश तत्वों की मात्रा में वृद्धि होती है। इस प्रकार पौधों का अच्छा विकास होता है।
राइजोबियम जीवाणु खाद
ये जीवाणु मटर कुल के पौधों की जड़ो में छोटी-छोटी ग्रन्थियों में सहजीवी के रूप में मिलता है। आजकल इन्हें प्रयोगशाला में विकसित किया जा रहा है तथा इसे बीजों के साथ मिलाकर बुवाई करने से यह इन पौधों की जड़ में प्रवेश कर नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने में सहायक सिद्ध होते हैं। मुख्यतः सात प्रकार की जीवाणु (राइजोबियम कुल) की प्रजातियां मिलती हैं यथा – राइजोबियम मेलिमोटी, राइजोबियम जेपोनिकम, राइजोबियम लैगुनिनोसेरम आदि। यह खाद मुख्यतः मूंगफली, सोयाबीन, मटर, मैथी, चना, उड़द आदि में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। वानिकी एवं कृषि वानिकी हेतु यह महत्वपूर्ण खाद है।
ऐजोटोबेक्टर खाद
ऐजोटोबेक्टर जीवाणु भी नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने में सक्षम होता है। इसे प्रयोगशाला में तैयार कर इस्तेमाल करने से पहले बीजो को गुड या चीनी के घोल से नम कर फिर खाद को इस पर फैला दिया जाता है। इसे कुछ देर सुखाकर, बुवाई कर देते है। एजोटोबैक्टर की सात प्रजातियां यथा- कोकोकम, बैंजीरिकाई, पेरापेली, विनलेडाई, इन्सिगिनिस, मैक्रोस्टोजिन्स एवं एजोमोनास प्रजातियां। इस खाद का प्रयोग गेहूं, बाजरा, कपास, सरसों सूरजमुखी, तिल, मक्का, सब्जियों एवं पुष्पीय पौधां में उपयोगी पाया गया है। इसे पौधारोपणी में प्रयुक्त कर अच्छे पौधे तैयार हो सकते है।
एजोला जीवाणु खाद
यह शैवाल पानी में मिलती है। इसे प्रयोगशाला में विकसित कर इसकी खाद तैयार की जाती है। ऐजोला मैक्सीकाना, एजोला केरोलिनिआना, ऐजोला माइक्रोफिला, ऐजोला रूब्रा, ऐजोला पिन्नेटा, ऐजोला फिलीकुलाइडस तथा ऐजोला निलोटिका प्रजातियां मुख्यतः पाई जाती है। भारत में ऐजोला पिन्नेटा अधिकांशतः प्रयुक्त होती है तथा यह धान की फसलों हेतु उपयुक्त पाई गई है। वानिकी कार्यां मे भी इस खाद के प्रयोग से अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो सकते है।
एजोस्प्रिलम जीवाणु खाद
यह जीवाणु खाद अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में अधिक उपयोगी है क्योंकि ऐजोस्प्रिलम जीवाणु को क्रियाशील होने के लिए उच्च तापमान की आवश्कता होती है। यह खाद गन्ना, मक्का, ज्वार, धान, बाजरा आदि के अतिरिक्त पुष्पीय पौधों एवं पौधारोपणी में भी प्रयुक्त की जाती है। ऐजोस्प्रिलम की मुख्यतः चार प्रजातियां यथा एजोस्प्रिलम लिपोफेरम, ऐजोस्प्रिलम एमेजोन्स, ऐजोस्प्रिलम ब्राजिलेंस तथा ऐजोस्प्रिलम हेलोप्रेफरेंस उपयोगी पाई गई है।
नील हरित शैवाल जीवाणु खाद
इस प्रकार की खाद में कई प्रकार के सूक्ष्म जीवाणुओं का समूह होता है। इसे धान के खेत में रोपाई के 10-15 दिन बाद (पानी से भरे खेत में) डाल देते है तथा पानी लगातार बनाये रखते हैं। इस प्रकार करने से नील हरित शैवाल की मोटी परत बन जाती है, जिसे सूखा कर निकाल लेते है तथा पाउडर के रूप में एकत्र कर लेते है। इस पाउडर का इस्तेमाल धान की खड़ी फसल पर करने से लाभ मिलता है। इस प्रकार की खाद दलदली फसलां, धान आदि के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है।
इस प्रकार वर्मीकम्पोस्ट एवं अन्य प्रकार की जीवाणु खादों का प्रयोग कर न केवल कृषि क्षेत्रों में वरन् वानिकी क्षेत्रों में भी मृदा की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि की जा सकती है। इस प्रकार की खादों की बहुत कम मात्रा आवश्क होती है तथा इससे पर्यावरण को स्वस्थ रखने एवं मृदा की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि होती है। वर्मीकम्पोस्ट फलवृक्षों में बागवानी में, कृषि तथा रेगिस्तानी क्षेत्रों में पौधों की अभिवृद्धि में उपयोगी सिद्ध हुई है।
वैम
माइकोराइजा या वेस्क्यूलर आरबसक्यूलर माइकोराइजा (वैम) नामक जैव खाद के प्रयोग से विभिन्न वानिकी क्षेत्रों एवं कृषि कार्यो में आश्चर्यजनक सफलता मिली है। इस प्रकार की जैव खाद के प्रयोग से भूमि से फॉस्फोरस को पौधों में मिलने में आसानी रहती है तथा इस प्रकार पौधों के पोषण में सहायता मिलती है।
जैव कीटनाशी – रासायनिक कीटनाशियों के बढ़ते दुष्प्रभावों के कारण जैव कीटनाशियों का विकास हुआ। नीम एवं कई अन्य पादपों में विभिन्न कीटनाशी गुणों का पता लगा है जिनका उपयोग कर विभिन्न प्रकार के जैव कीटनाशी तैयार किये गये हैं, जो न केवल पर्यावरण मित्र होते हैं वरन् अधिक अच्छे ढंग से रोगां पर नियंत्रण कर सकते हैं।
जैव नियंत्रण – कुछ कीट भी दूसरे कीटों के लिए हानिकारक होते हैं तथा इन गुणो का उपयोग कर विभिन्न कीटों को दूसरे रोग फैलाने वाले कीटों को समाप्त करने मे प्रयुक्त किया जाता है जिसे जैव नियंत्रण कहते है।
वानिकी के क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन नई-नई तकनीकां का विकास जारी है। वर्षाजल संग्रहण हेतु विभिन्न तकनीकों के विकास से मरूक्षेत्र में जल प्रबंधन में सहायता मिली है तो दूसरी और ठंडे प्रदेशों (बर्फीले क्षेत्रों में) में पॉली हाऊस, ग्रीन हाऊस द्वारा विभिन्न प्रकार के पादप तैयार किये जा सकते हैं, जो पहले संभव नहीं थे। आज के बदलते वातावरण एवं लगातार घटते वनों के साथ तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिए नई वानिकी तकनीकें एवं वानिकी अनुसंधान मील का पत्थर सिद्ध हो सकती हैं। आज की जरूरत है कि इन नवीन तकनीकां का प्रयोग करें एवं उनका प्रचार-प्रसार कर अधिकाधिक वृक्षारोपण करें एवं पर्यावरण को आने वाली पीढ़ी हेतु सुरक्षित करें।
डॉ. नवीन कुमार बोहरा
प्लॉट न. 389, गली न. 10, मिल्कमैन कॉलोनी,पाल रोड, जोधपुर, राजस्थान
इको फ्रेंडली पत्तल फिर लौटे
पंगत बैठती थी और पत्तलों में भोजन परोसने वाले मनुहार करते थे। बस, एक और ले लो! भोजन करने वाले पत्तलों में अपना हाथ अड़ा देते थे, फिर भी एक पूड़ी सरका देते थे पत्तल में। जूठा छोड़ने का रिवाज नहीं था, तो पत्तल की पूड़ी खाई जाती थी। पंगत में बैठने वाले तृप्त हो उठते थे। भोजन करके पेट पर हाथ फेरते हुए अपने पत्तल को खुद उठाकर कूड़ेदान में जा डालते थे।
बूफे का चलन –
80 के दशक से बूफे प्रचलन में क्या आया कि सारी परंपरा ही बदल गई । पंगत खत्म हो गई, पत्तल भी उसी के साथ विलुप्त हो गए। पहले भोजन में ढेर सारे व्यंजन नहीं रहते थे पर भोजन करने वाले तृप्त हो उठते थे। बूफे में तरह-तरह के नजारे देखने को मिलते हैं, जहां व्यंजनों की भरमार होती है लेकिन भोजन करने वाले तृप्त नहीं होते। खैर! हम अब बात करते हैं पत्तलों में भोजन करने की और पत्तलों की।
पत्तलों में भोजन क्यों-
पत्तलों में भोजन करने के अद्भुत लाभ होते हैं । हमारे देश में 2000 से अधिक वनस्पतियों की पत्तियों से पत्तल बनाए जाते रहे हैं। जहां जिस तरह की वनस्पति का उपयोग होता था वहां के लोग इसके लाभ से परिचित थे। आजकल केवल पांच प्रकार की वनस्पतियों के पत्तों का उपयोग होता है, पत्तल बनाने के लिए। पत्तल और उन से होने वाले लाभ के बारे में पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान से लोग परिचित भी थे और वैसा उसका उपयोग भी करते थे।
पत्तल और स्वास्थ्य-
केले के पत्ते में भोजन की परंपरा दक्षिण भारत में आज भी है । महंगे होटलों, रिसोर्ट में केले के पत्ते का उपयोग अब प्रचलन में आ गया है। प्राचीन ग्रंथों में केले के पत्तों पर परोसे भोजन को स्वास्थ वर्धक बताया गया है। कहा जाता है कि चांदी के बर्तन में भोजन करने से जो स्वास्थ्य लाभ मिलता है वही केले के पत्तों में भोजन करने से मिलता है।
सुपारी के पत्तों से पत्तल ही नहीं प्लेट और कटोरी भी दक्षिण भारत ने बनाई जाती है। इसका प्रचलन आज भी है। थर्माकोल, प्लास्टिक की बजाय इसको उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है। सुपारी की पत्तल काफी लोकप्रिय है, लेकिन केवल दक्षिण भारत में।
पलाश के पत्तों से पत्तल, दोना बनाए जाते हैं। परंपरागत रुप से धार्मिक विधानों में इसका इस्तेमाल आज भी होता है। पलाश के पत्तल में भोजन करने के अनेक लाभ भी हैं। रक्त की अशुद्धि होने से होने वाली बीमारी दूर हो जाती है। पाचन तंत्र संबंधी रोगों के समाधान के लिए बेहतर साबित होता है पलाश का पत्तल । सबसे बड़ी बात इस के पत्तल में परोसें गये भोजन की विषाक्तता आपने आप दूर हो जाती है। भोजन को ढ़कने के लिए इसके पत्तों का उपयोग आज भी किया जाता है। छत्तीसगढ़ में पलास के पत्तों को लपेट कर अंगाकर रोटी बनाई जाती है।
लकवा ग्रस्त (पैरालिसिस) होने पर रोगी को अमलतास के पत्तों में भोजन कराया जाता है, इससे रोग का शमन धीरे-धीरे होता है। जिन्हें जोड़ों का दर्द सताता है वह करंज की पत्तियों से बने पत्तल में भोजन करते हैं। करंज की पुरानी पत्तियां को ताजी पत्तियों के मुकाबले ज्यादा उपयोगी माना गया है, इसलिए करंज की पत्तल बना कर रख ली जाती है। मानसिक स्थिति ठीक करने के लिए पीपल के पत्ते से बनाई पत्तल पर भोजन कराया जाता है।
इको-फ्रेंडली- पत्तलों में भोजन करने के अनेक लाभ हैं। सबसे पहले इन्हें धोना नहीं पड़ता, इसे सीधे मिट्टी में डाल देते हैं। धोने का झंझट नहीं, तो पानी की बचत भी होती है। बर्तन धोने सुखाने के लिए काम वालों की जरूरत रहती है जो पत्तलों में नहीं होती। बर्तन धोने के लिए केमिकल का उपयोग होता है। पत्तलों को एक जगह गाड़ देने से वह स्वमेव नष्ट हो जाता है और वह उत्तम खाद में तब्दील हो जाता है। बर्तन धोने से दूषित पानी का बहाव होता है, वह पत्तल में नहीं होता। जल प्रदूषित होने से बचाता है पत्तल।
प्रदूषण को खत्म कर प्रकृति के साथ चलने की बात है पत्तल को अपनाने से। पत्तल तैयार करने वाले ग्रामीण मजदूरों को रोजगार उपलब्ध होता है, वहीं जिन पेड़ो की पत्तियों से पत्तल बनाए जाते हैं उनका संरक्षण, संवर्धन अपने आप हो जाता है।
जर्मन के पत्तल-
जर्मन की लीफ रिपब्लिक कंपनी पत्तल बनाने का काम कर रही है। कंपनी ताड़ और खजूर के पत्ते से पत्तल, दोना आदि बना रही है। अपने इको फ्रेंडली उत्पाद के लिए सेमी आटोमेटिक मशीन की मदद ले रही है।
प्रकृति प्रदत चीजों को हमारे पूर्वजों ने अपने जीवन में उतारा था हम उन्हें सहेज नहीं पाए। समय के साथ उसे प्रस्तुत नहीं कर पाए। अब लीफ रिपब्लिक कंपनी ने ग्लोबल वार्मिंग से बचाव, डिफारेस्टेशन, बायोडिग्रेडेबल, इको फ्रेंडली जैसी उपमा देखकर अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने उत्पाद को उतारा है। भारत के लोग भी जर्मन कंपनी का उत्पाद खरीदने के लिए दौड़ लगा सकते हैं। देश का दोना पत्तल को छोड़कर जर्मनी उत्पाद को अपनाते हुए लोग यह कहते नजर आ सकते हैं कि यह बड़ा हाइजेनिक है ।
रविन्द्र गिन्नौरे
पर्यावरण पर्यटन का बढ़ता कारोबार
पर्यटन आज दुनिया के सबसे बड़े उद्योगों में से है और पर्यटन उद्योग का सबसे तेजी से फैलता क्षेत्र पर्यावरण पर्यटन है। कोस्टा रिका और बेलिज जैसे देशों में विदेशी मुद्रा अर्जित करने का सबसे बड़ा रुोत पर्यटन ही है जबकि ग्वाटेमाला में इसका स्थान दूसरा है। समूचे विकासशील ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र में वन्य जीव संरक्षित क्षेत्र प्रबंधकों और स्थानीय समुदायों को आर्थिक विकास और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता के बीच संतुलन कायम करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
पर्यावरण पर्यटन भी इस महत्वपूर्ण संतुलन का एक पक्ष है। सुनियोजित पर्यावरण पर्यटन से संरक्षित क्षेत्रों और उनके आसपास रहने वाले समुदायों को लाभ पहुंचाया जा सकता है। इसके लिए जैव विविधता संरक्षण के दीर्घावधि उपायों और स्थानीय विकास के बीच समन्वय कायम करना होगा।
सामान्य शब्दों में पर्यावरण पर्यटन या इको टूरिज्म का अर्थ है पर्यटन और प्रकृति संरक्षण का प्रबंधन इस ढंग से करना कि एक तरफ पर्यटन और पारिस्थितिकी की आवश्यकताएं पूरी हों और दूसरी तरफ स्थानीय समुदायों के लिए रोजगार – नए कौशल, आय और महिलाओं के लिए बेहतर जीवन स्तर सुनिश्चित किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2002 को अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण-पर्यटन वर्ष के रूप में मनाए जाने से पर्यावरण पर्यटन के विश्वव्यापी महत्व, उसके लाभों और प्रभावों को मान्यता मिली। अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण पर्यटन वर्ष ने हमें विश्व स्तर पर पर्यावरण पर्यटन की समीक्षा और भविष्य में इसका स्थायी विकास सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त साधनों और संस्थागत ढांचे को मजबूत करने का अवसर प्रदान किया। इसका अर्थ है कि पर्यावरण पर्यटन की खामियां और नकारात्मक प्रभाव दूर करते हुए इससे अधिकतम आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक लाभ प्राप्त किए जा सकें।
पर्यावरण पर्यटन को अब सब रोगों की औषधि के रूप में देखा जा रहा है जिससे भारी मात्रा में पर्यटन राजस्व मिलता है और पारिस्थितिकी प्रणाली को कोई क्षति नहीं पहुंचती क्योंकि इसमें वन संसाधनों का दोहन नहीं किया जाता। एक अवधारणा के रूप में पर्यावरण पर्यटन को भारत में हाल ही में बल मिला है, लेकिन एक जीवन पद्धति के रूप में भारतीय सदियों से इस अवधारणा पर अमल कर रहे हैं। पर्यावरण पर्यटन को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है। इंटरनेशनल इको टूरिज्म सोसायटी ने 1991 में इसकी परिभाषा इस प्रकार की थी- ‘‘पर्यावरण पर्यटन प्राकृतिक क्षेत्रों की वह दायित्वपूर्ण यात्रा है जिससे पर्यावरण संरक्षण होता है और स्थानीय लोगों की खुशहाली बढ़ती है।’’
विश्व पर्यटन संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार ‘‘पर्यावरण पर्यटन के अंतर्गत अपेक्षाकृत अबाधित प्राकृतिक क्षेत्रों की ऐसी यात्रा शामिल है जिसका निर्दिष्ट लक्ष्य प्रकृति का अध्ययन और सम्मान करना तथा वनस्पति और जीव-जंतुओं के दर्शन का आनंद लेना तथा साथ ही इन क्षेत्रों से संबद्ध सांस्कृतिक पहलुओं (अतीत और वर्तमान, दोनों) का अध्ययन करना है।’’
वर्ल्ड कंजर्वेशन यूनियन (आईयूसीएन, 1996) के अनुसार पर्यावरण पर्यटन का अर्थ है “प्राकृतिक क्षेत्रों की पर्यावरण अनुकूल यात्रा ताकि प्रकृति (साथ ही अतीत और वर्तमान की सांस्कृतिक विशेषताओं) को सराहा जा सके और उनका आनंद उठाया जा सके, जिससे संरक्षण को प्रोत्साहन मिले, पर्यटकों का असर कम पड़े और स्थानीय लोगों की सक्रिय सामाजिक-आर्थिक भागीदारी का लाभ उठाया जा सके।
”संक्षेप में, इसकी परिभाषाओं में तीन पहलुओं को रेखांकित किया गया है – प्रकृति, पर्यटन और स्थानीय समुदाय। सार्वजनिक पर्यटन से इसका अर्थ भिन्न है, जिसका लक्ष्य प्रकृति का दोहन है। संरक्षण, स्थिरता और जैव-विविधता पर्यावरण पर्यटन के तीन परस्पर सम्बंधित पहलू हैं। विकास के एक साधन के रूप में पर्यावरण पर्यटन ‘जैव विविधता समझौते’ के तीन बुनियादी लक्ष्यों को हासिल करने में मदद दे सकता है।
– संरक्षित क्षेत्र प्रबंधन प्रणालियां (सार्वजनिक या निजी) मजबूत बनाकर और सुदृढ़ पारिस्थितिकी प्रणालियों का योगदान बढ़ाकर जैव-विविधता (और सांस्कृतिक विविधता) का संरक्षण।
– पर्यावरण पर्यटन और सम्बंधित व्यापार नेटवर्क में आमदनी, रोजगार और व्यापार के अवसर पैदा करके जैव विविधता के स्थायी इस्तेमाल को प्रोत्साहन, और
– स्थानीय समुदायों और जनजातीय लोगों को पर्यावरण-पर्यटन गतिविधियों के लाभ में समान रूप से भागीदार बनाना और इसके लिए पर्यावरण पर्यटन की आयोजना और प्रबंधन में उनकी पूर्ण सहमति एवं भागीदारी प्राप्त करना।
पर्यावरण पर्यटन का सिद्धांतों, दिशा-निर्देशों और स्थिरता के मानदंडों पर आधारित होना इसे पर्यटन क्षेत्र में विशेष स्थान प्रदान करता है। पहली बार इस धारणा को परिभाषित किए जाने के बाद के वर्षों में पर्यावरण पर्यटन के अनिवार्य बुनियादी तत्वों के बारे में आम सहमति बनी है जो इस प्रकार है-
भली-भांति संरक्षित पारिस्थितिकी तंत्र पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, विभिन्न सांस्कृतिक और साहसिक गतिविधियों के दौरान एक जिम्मेदार, कम असर डालने वाला पर्यटक व्यवहार, पुनर्भरण न हो सकने वाले संसाधनों की कम से कम खपत, स्थानीय लोगों की सक्रिय भागीदारी, जो प्रकृति, संस्कृति और परम्पराओं के बारे में पर्यटकों को प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराने में सक्षम होते हैं और अंत में स्थानीय लोगों को पर्यावरण पर्यटन प्रबंधन के अधिकार प्रदान करना ताकि वे जीविका के वैकल्पिक अवसर अपनाकर संरक्षण सुनिश्चित कर सकें तथा पर्यटक और स्थानीय समुदाय, दोनों के लिए शैक्षिक पहलू शामिल कर सकें।
पर्यावरण अनुकूल गतिविधि होने के कारण पर्यावरण पर्यटन का लक्ष्य पर्यावरण मूल्यों और शिष्टाचार को प्रोत्साहित करना तथा निर्बाध रूप में प्रकृति का संरक्षण करना है। इस तरह यह वन्य जीवों और प्रकृति को लाभ पहुंचाता है तथा स्थानीय लोगों की भागीदारी उनके लिए आर्थिक लाभ सुनिश्चित करती है जो आगे चलकर उन्हें बेहतर और आसान जीवन स्तर उपलब्ध कराती है।
डॉ. दीपक कोहली